डा. मुनि लाल उपाध्याय 'सरस'
आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी
जीवन परिचय:-
पण्डित प्रेमशंकर मिश्र का जन्म वैसाख शुक्ल 5 सवत 1982 वि० तदनुसार 27 जुलाई 1927 को बस्ती के सन्निकट मिश्रौलिया नामक ग्राम में हुआ। इनके पिता महाकवि बलराम मिश्र "द्विजेश
डा. मुनि लाल उपाध्याय 'सरस' के शोध प्रबंध बस्ती के छंदकार के द्वितोय और तृतीय चरण के उत्कृष्ट कवि थे। प्रेम शंकर जी का पालन-पोषण बड़े ही शान शौकत के वातावरण में हुआ क्योंकि इनके पिता द्विजेश जी बड़े ही रईसी परम्परा के छन्दकार थे। प्रेमशंकर जी की साहित्यिक शिक्षा-दीक्षा उनके पिता के संरक्षण में हुई थी। पूर्वांचलाकार लिखता है-
"प्रेमशंकर मिश्र महाकवि द्विजेश के योग्य पुत्र बस्ती के साहित्यिक पुनरूत्थान में सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रेरक काव्य की अनेक विधाओं और वादों के कवि, साहित्यिक आयोजनों के कर्णधार और प्रसिद्ध द्विजेश परिषद के संस्थापक हैं। पिता की कलात्मक रुचि के कारण वाल्य काल से ही काव्य कला का जो संस्कार वना वह बराबर विकसित होता गया। विद्यार्थी जीवन में पिता के निर्देशन में आप ब्रज भाषा के छंद लिखने लगे। पण्डित प्रेमशंकर जी की मृत्यु 22 जनवरी 2015 को दिल्ली में हुई थी।
- ( पूर्वांचला पृष्ठ 136)
साहित्यिक यात्रा:-
हिन्दीसमय डॉट कॉम में 'कहनीअनकहनी' शीर्षक से पण्डित प्रेमशंकर मिश्र जी ने अपने साहित्यिक यात्रा के बारे में निम्न लिखित भावोदगार व्यक्त किए हैं -
-- ये कविताएँ है? कितनी दूर तक कविताएँ है? इसे आप सुधी पाठक जानें। क्योंकि आज कविता का कोई मानक, कोई अनुशासन या कोई शास्त्र नहीं रह गया है मेरे देखने में। कविता आज सिद्धि न रहकर अपनी-अपनी अन्यान्य सिद्धियों विशेष की साधिका मात्र हैं। एक खेमे की कविता दूसरे खेमे के लिए कूड़ा घोषित हो रही है। संतुष्ट इसलिए हूँ कि मैंने कभी भी प्रचलित अर्थों में कवि होने का भ्रम नहीं पाला है।
मेरे तई ये पंक्तियाँ समय समय पर मेरे निजी जरूरतो की उपज रही है। थोड़ा और साफ करूँ मैं हमेशा से स्थितियों को सहता और समझौता करता रहा हूँ। फिर भी कुछ असहनीय स्थितियों से उबरने के लिए प्रतिक्रिया स्वरूप ऐसी पंक्तियाँ बरबस निकलती है–
यह असंगति जिंदगी के द्वार सौ-सौ बार रोई।
चाह में है और कोई बांह में है और कोई।।
सुकवि भाई भारत भूषण की ये पंक्तियाँ ही इन रचनाओं और मुझ रचयिता के केंद्र में हैं। रचनाएँ इसलिए कहता हूँ कि असहनीय मजबूरियों में बुदबुदा उठे। इन शब्दों को अंतत: देखना समझना पड़ा है फिर रच-रचकर इन्हें उपयुक्त बनाना, आप तक पहुँचने लायक बनाने का प्रयास करना पड़ा है।कितनी दूर तक इस संक्रांति काल में ये शब्द ये पंक्तियाँ आप के भी काम आ सकेगी मैं नहीं कह पा रहा हूँ। इस बोध के साथ यह भी एहसास है कि इन सारे काले पन्नों में से जाने अंजाने कुछेक किसी खास खेमे में टिक भी सकते हैं।
सवाल उठता है कि जब रचइता एवं से कविता नहीं कह पा रहा है तो फिर यह राष्ट्रीय अपव्यय क्यों? अपनी सफाई में सिर्फ इतना ही कह पा रहा हूँ कि जिन्होंने इन्हें देखा पढ़ा या सुना है, उन्होंने इन्हें भी कविता इस हद तक माना कि आज पुस्तक आकार आपके हाथ में जा रहा है यह संकलन।
बड़े छोटे साहित्य मर्मज्ञों की सहानुभूति, प्यार और दुलार मुझे इस सीमा तक प्राप्त है कि मेरे ऊपर कृपा करके वे दो शब्द कह भी सकते थे, पर जानबुझकर अपने और अपने पाठक के बीच किसी ऐसे महारथी को भूमिका लेखक के रूप में लाना उचित नहीं लगा जो आपकी दृष्टि पर अपना चश्मा पहना दे। अपने और आप के बीच सीधा संवाद इससे बाधित हो सकता है इसी भय से साहस करके ये सीधे आपके हवाले है।
जैसा कि ऊपर अपनी स्थिति स्पष्ट कर चुका हूँ कि व्यवसायिक रूप से काव्य साधना कभी नहीं कर पाया हूँ, नहीं किसी खास खेमे में खूँटे से अपने को बाँध सका हूँ। यदि ऐसा कुछ हुआ होता तो बहुत पहले ही ऐसे कई संकलन आ चुके होते।
जिंदगी के साथ अपनी काव्य साधना का भी ग्राफ बहुत टेढ़ा-मेढ़ा रहा है। कई-कई बार उनके तार टूटते जुड़ते रहे हैं। एक अत्यंत उत्कृष्ट और उदार कविता और संगीत के वातावरण में मैंने आँखे खोली है।
मेरे पूज्य पिताश्री पं. बलराम प्रसाद मिश्र 'द्विजेश' के लिए उन दिनों देश के जाने माने दिग्गज कवि कलावंत महीनों मेरे यहाँ ठहरते। सुबह-शाम अखंड काव्य और संगीत गोष्ठियाँ हुआ करती थीं। महाकवि जगन्नाथ दास 'रत्नाकर' पं. अयोध्या सिंह उपाध्यय 'हरिऔध', पं. रमा शंकर शुक्ल 'रसाल' के अतिरिक्त रीवां के महाकवि 'ब्रजेश', पं. बालदत्त, यज्ञराज, विचित्र मित्र ऐसे आचार्य कवि, अजीम खाँ, झंडे खाँ ऐसे उस्ताद यनायत खाँ ऐसे सितारवादक, उनके पुत्र उस्ताद अजीम खाँ साहब ऐसे संगीतज्ञों की सन्निधि मुझे बचपन से प्राप्त हुई है। आज के आफताबे गजल उस्ताद मेंहदी हसन और सितार नवाज उस्ताद शाहिद परवेज ऐसे आज के विश्व विश्रुत कलाकारों का बचपना अपने पिताओं के साथ मेरे साथ गिल्ली गोली खेलते बीता है। (मेंहदी हसन उस्ताद अजीम खाँ के सुपुत्र और शाहिद परवेज उस्ताद अजीम खाँ के बेटे हैं।) इस तरह साहित्य और संगीत मेरी घुट्टी में रहा। विरासत में मुझे काव्य रचना और मेरे अग्रज और उनके पुत्र को सितार वादन मिला।
छात्र जीवन में एक घटना के चलते कविता मुझसे कुछ दिनों के लिए छूट गई। एक प्रतियोगिता में मेरा प्रथम पुरस्कार इसलिए काट दिया गया कि उस पर पिता श्री की रचना का संदेह किया गया। जो 10, 20 सवैया घनाक्षरी उन छोटी कक्षाओं में बन सकें थे, उनका प्रवाह वहीं अवरूद्ध हो गया। फिर 3, 4 वर्षों के बाद लगभग 1949-50 में फिर एक और झोंका आया। खड़ी बोली के उन दिनों के प्रचलित गीत 10, 20 लिख उठे। सन 1959 में पिता का तिरो भाव हुआ। सारा पारा खसक कर शून्य पर आ गिरा। सारा वातावरण जैसे डूब गया। पर कविता, साहित्य और संगीत का रक्त में रचा-बसा संस्कार पिताजी के एक प्रशंसक अपने समय के प्रसिद्ध उपन्यासकार, कहानीकार पं. गंगाप्रसाद मिश्र तत्कालीन राजकीय हाई स्कूल बस्ती के प्रधानाचार्य ने 'द्विजेश- परिषद' साहित्यिक संस्कृतिक संस्था के स्थापना के माध्यम से पुन: जगाया। कवि, कलाकार, संगीतज्ञों का एक नए प्रकार का जमघट फिर इर्द-गिर्द जमने लगा। सन 1960 में एक नया सिलसिला शुरू हुआ। जीवन की यह नई घुटन-टूटन जब असहनीय लगती तो कुछ बड़बड़ाहटें उभरने लगीं और उन्हें सहेजने सवारने की दुर्निवार स्थितियाँ इस रूप में आकर लेने लगीं।
यह भी बीत में टूट फूट गया होता यदि उसी बीच 'द्विजेश-परिषद' के माध्यम से तब का एक सामंती नवयुवक बस्ती जिले का ही निवासी श्री माहेश्वर तिवारी 'शलभ' जो आ भारत प्रसिद्ध नवगीत कार माहेश्वर तिवारी के नाम से जाना पहचाना जाता है, मुझसे न टकराया होता। अन्यान्य कारणों से यह मंचमोहन गीतकार मुझमें ऐसा घुसा कि अपनी पत्नी और बच्चों के साथ बरसों मेरे गाँव घर में रम गया। एक नई गोष्ठियों और सम्मेलनों का दौर शुरू हुआ। नई प्रतिभाएं पनपने लगीं और मुझमें भी मुरझाई संवेदनाएँ फिर पनपने लगीं। अपनी फूस की बैठक में अबाध गति से चल रही ये गोष्ठियाँ देर रात तक न चल पाती यदि एक मौन सहमति स्वीकृति मेरी धर्मपत्नी श्रीमती राजेश्वरी देवी की न मिल पाती, जो वैसे तो ऊपर से भुन भुनातीं रहतीं लेकिन माहेश्वर के गीत से उनका मूड सम्भल जाता। लकड़ी के चुल्हे पर रह-रह कर चाय बनाना और फिर भोजन गरम करके मुझ और अपने धर्म-देवर माहेश्वर तिवारी को खिलाती रहतीं। अपनी रचना धार्मिता की इस टूटी-फूटी पंगडंडी के साथ इन रचनाओं को देखने से ही इनकी बेतरतीबियों का थोड़ा बहुत समाधान हो सकता है इसलिए संक्षेप में इतना देना आवश्यक लगा। इस प्रकाशन का सारा श्रेय सबसे पहले मित्रों के हठाग्रह को ही जाता है। फिर भी इसे आकार देने का संकल्प अनुज श्री भानु प्रकाश श्रीवास्तव का रहा है। यत्र तत्र बिखरे इन कागज के टुकड़ों को बटोरकर एक दिन वह उठा ले गए। ये कुछ आगे करते कि उनकी पदोन्नति हिंदी अधिकारी भारतीय स्टेट बैंक मंडलीय शाखा लखनऊ से स्टॉफ कालेज गुड़गाँव दिल्ली में हो गई। जाते जाते अपने अधूरे कार्य को अपने अभिन्न एक मित्र श्री जी.एम. खान भारतीय स्टेट बैंक फैजाबाद के सहायक को सौंप गए। श्री खान के अनवरत श्रम से यह संकलन तैयार होकर पुस्तक के आकार हो गया। फिर भी इसके प्रकाश की बात नहीं ही बन पाती यदि समकालीन कविता और समीक्षा के एक नए हस्ताक्षर चि. रघुवंशमणि की सक्रिय प्रेरण और सहकार से पांडुलिपि नई कविता के मौलिक प्रवक्ता प्रख्यात कवि समीक्षक आदरणीय श्री लक्ष्मीकांत वर्मा तत्कालीन कार्यकारी अध्यक्ष उ.प्र. हिंदी संस्थान लखनऊ के समक्ष न प्रस्तुत हुई होती। वर्मा जी ने इसे संस्थान की सहायता से प्रकाशित होने योग्य समझा। संयोग से वर्मा जी बिना इसको कार्यान्वित कराए यहाँ से चले गए। जाते जाते इस कार्य को वह अपने सुयोग्य निदेशक हिंदी बाल साहित्य के समपर्ति रचनाकार कविवर पं. विनोद चंद्र पांडेय 'विनोद' आई.ए.एस. को सौंप गए। इस संकलन पर फिर ग्रहण लगा, पांडुलिपि इधर उधर हो गई, फिर निराशा छाई, किंतु बीच में एक रसज्ञ सुधीनवयुवक चि. रामशरण अवस्थी स्थानीय ब्यूरो प्रमुख 'दैनिक जागरण' आ गए। फिर सब समेटा गया और नई पांडुलिपि तैयार हुई। इस तरह अंतिम रूप से पांडुलिपि निदेशक श्री पांडेय जी के हवाले हुई। इस सारे उपक्रम में श्री विजय रंजन एडवोकेट एवं 'अवध- अर्चना' त्रैमासिक के संपादक मेरे साथ रहे।
इस संकलन का और मेरा सौभाग्य रहा कि वर्तमान कार्यकारी अध्यक्ष हिंदीसंस्थान डॉ. शरण बिहारी गोस्वामी ने भी अपने पूर्वाधिकारी के इस निर्णय पर अपनी मुहर लगा दी। फिर मेरे और मेरे मुद्रक के बीच कुछ अविश्वसनीयता को पनपाने की कोशिश होती कि अपने प्रशंसक सुकवि साहित्यकार डॉ. सुधाकर अदीब ए.डी.एम.( वित्त एवं राजस्व) आ गए और मुद्रक आश्वस्त हुए और काम आगे बढ़ा। फिर तो संयोजन और प्रूफ रीडिंग समाचार संपादक दैनिक जनमोर्चा सुकवि चि. के.पी. सिंह ने सम्हाला। इस तरह यह संकलन 'अपने शहर में' अपने हाथ में आ सका है और इस संकलन का प्रकाशन अपने में एक घटना हो गई है। इसके बहाने मुझ में एक आत्म संतोष नए सिरे से पनपा है कि इतनी सारी सात्विक सहानुभूतियाँ मुझे मिली हैं। इन सभी महानुभावों के समक्ष नतशिर होकर आभार ज्ञापित करता हूँ। परम आदरणीय डॉ. रमाशंकर तिवारी, डॉ. राधिका प्रसाद त्रिपाठी और डॉ. स्वामी नाथ पांडेय ने यदि औपचारिक संस्तुति न की होती तो नियमानुसार संस्थान उसे संज्ञान में न ला पाता। इस प्रकार अपने इस प्रारंभिक समीक्षकों का हृदय से अभारी हूँ। आत्मीयता से अक्षर संयोजन के लिए वी.के. कंप्यूटर्स, साहबगंज, फैजाबाद तथा कठिन परिस्थिति में मुद्रण के लिए रघुवंशी प्रेस गद्दोपुर, फैजाबाद के सहयोगियों को मैं हृदय से आर्शिवाद देता हूँ। अंत में उन मित्रों को भी सभार स्मरण करता हूँ, जिन्होंने न केवल मुझे बराबर हतोत्साहित करने का प्रयत्न किया है अपितु अपने टिप्पणियों से रह रहकर आहत भी किया है। प्रतिक्रिया स्वरूप उनमें मेरी रचना धर्मिता को बल ही मिला है। मैं उनका भी आभार मानता हूँ। नीचे दो पंक्तियाँ उन्हें समर्पित है :
मैं जितनी पाता आग तुम्हारी दुनिया से,
उतना ही तुमको मधु मस्तानी देता हूँ।
नवोदितों के प्रेरणाश्रोत:-
घनाक्षरी, सवैया छन्दो के साथ नवगीतो को लिखने के लिए परवर्ती नव-युवक गीतकारों नौर छन्दकारो के लिए प्रेमशंकर जी प्रेरणाश्रोत बने हुए हैं। कवि सम्मेलनों के अतिरिक्त रेडियो स्टेशन पर उनके काव्य स्वर प्राय. गूंजते रहते है। दस वर्ष पूर्व प्राय: मासिक गोष्ठियां कराना, नये कवियों को प्रोत्साहित करना द्विजेश परिषद के माध्यम से कवियों को मंचीय कवियों से सानिध्य प्रदान कराना आदि कवि मिश्र जी ने अपने ऊपर ले रखा था। चतुर्थ चरण के छन्दकारों में इनका प्रतिष्ठित स्थान रहा है।
पंडित प्रेमशंकर मिश्र की लेखन विधाएं
1.निबन्ध
2.संस्मरण
3. कविता संग्रह: "अपने शहर में" की
कविताएँ :- प्रेम शंकर मिश्र जी की 42 कविताओं का एक सेट हिंदी समय डॉट कॉम पर प्रकाशित किया गया है। इनके शीर्षक इस प्रकार हैं -
अनुभूति,आँतों का दर्द,उठो सुहागिन, एक पुरानी कविता,एक स्वर, कर्ता का सुख, किसलिए, खबर है, घुटनों घुटनो धूप, जमील हुई जमीन से, जागो हे कविकांत, ज़ीने की ईटें,जीवन वीणा, तुमसे नहीं, तुम्हारे शहर में, तुम्हारा बादल,दर्पण-एक चित्र ,धुँधलाई किरन, धूप चढ़ी ,नववर्ष एक प्रतिक्रिया, नेह का एतबार, नील गगन का चाँद, पंद्रह अगस्त,पुरातन प्रश्न, पिया की पाती, बंजारा टूटा, गिलास और मसला हुआ गुलाब, बरसात, बात कुछ और है, बापू और फागूराम,बोझ, भूख : वक्त की आवाज, मैं उन्मुक्त गगन का पंथी,
मत छितराओ,मौसम का दौरा, युद्ध विराम, यह गली,रोशनी की आवाज,लो फिर बादल, स्थितिबोध, समस्या का समाधान आदि प्रमुख कविताएं हैं और आखिरी कविता का नाम सस्पेंस है।
द्विजेश परिषद की स्थापना
प्रेमशकर जी की काव्य-यात्रा व्रजभाषा केन्द्रों से शुरू हुई और आज वह गीतों और नवगीतो की भावभूमि पर पुष्पित और संवर्धित हो रही है। द्विजेश परिषद की स्थापना से प्रेम शंकर जी बस्नी के छन्द- कारों के मार्गदर्शन के फिर सदैव प्रयत्न शील रहे। आज भी वे इस प्रयास मे रहते हैं कि बस्ती का अपना गौरव शाली मच सामादृत होना चाहिए। इसके लिए द्विजेश परिषद के तत्वावधान में कई बार प्रान्तीय और राष्ट्रीय स्तर के कवि सम्मेलन मिश्र जी ने कराया ।
कविता के कुछ नमूने
नववर्ष एक प्रतिक्रिया :-
आदरणीय बंधुवर!
देखा आपने
इस बार भी
गया संवत्सर
जाते जाते
कुछ अमिट खरोचें छोड़ गया है।
सूरज वही घाम वही
पर ताप में
जैसे कुछ मिला दिया गया हो।
जलते सिवानों
और धधकते चौराहों पर
इस बार भी
काफी सतर्कता के बावजूद
फिर कुछ
मंजरियाँ और फुगनियाँ झुलसी हैं।
गनीमत मानिए
इस सर्वस्व स्वाहा से
किसी तरह
हट बच कर
नया वर्ष
नए वायदों, नई उम्मीदों
और नई पहल के साथ
नीम पलाश
और उस बूढ़े पीपल से
होता हुआ
इस बेचारे बेहया तक की नसों में
धीरे-धीरे उग रहा है।
नई गंध का नया विश्वास
फिर पनप रहा है।
मुट्ठी भर राख उड़ाने के एवज
हमें
जूझने मरने के लिए
फिर एक खूबसूरत खुशबू मिल रही है।
रंग बिरंगे
गुलाबी, गुड़हल, गुलदाऊदी
बेला, जूही, हरसिंगार
की छुवन का दाग
यह अकुलाया अबोध नन्हा बसंत
अपनी
अमित अनंत संभावनाओं के साथ
डगमगाती अँजुलियों में भर रहा है
अकेले
बोझ दुर्वह है मीत!
कृपया दामन में जगह दें
बसंत की रक्षा करें।
धन्यवाद।
समस्या का समाधान
कल जब हम
कविता सुनने का
प्रस्ताव कर रहे थे
अखबारों में एक अजगर ने
एक समूचे बाँध को घोट लिया।
ज्यों ही हमने सोचा
समस्या समाधान के माध्यम से
गमगलत करें
सुनाई पड़ा
राशन का नया-नया
सुनियोजित बाँध टूट चला
भूख बह निकली
गोदाम डूब गए।
इसी तरह
आपको याद होगा
उस दिन
अब हम
आगामी एलेक्शन की
योजना बनाने बैठे थे
खबर मिली
एक घसियारे ने
जबर्दस्ती
उन्हीं की कुर्सी पर बैठकर
बड़े हाकीम को
बरखास्त कर दिया।
एक, दो, तीन
इस तरह की
कई वारदातें हो चुकी।
पता नहीं क्यों
ज्यों ही हम
विभिन्न
रूप, नाम, वेष में
बहुजन हिताय
का नारा बुलंद करते हुए
अपनी सर्वोत्तमता की
दुहाई देने चलते हैं
ये
अनमेल
अकास्मिक घटनाएँ
लट छितराए
अट्टहास करती हुई
अपनी लाल जिह्वा से
हमारी धवलता चाटने लगती हैं
और
अगर
हम अभी भी
अपने नशे पर हावी हैं
हमारी पार्टी की प्याली
हमारे हाथों से गीर जाती है
मालिक का लाख-लाख शुक्र
कि अब हम
धुएँ से ऊबने लगे हैं
बिल्कुल अपनी बात कहूँ
मुझे तो अभी भी
कभी-कभी ऐसा लगता है
कि अगर
ये चिमनियाँ
फसलों की ओर से हटकर
आकाश की ओर मोड़ दी जाएँ
कागज के रंग बिरंगे खिलौने
तोड़ दिए जाएँ
नाम की जगह काम हो जाएँ
तो शायद
एक बार फिर से
लोग हाजमे के अनुसार
भोजन करना शुरू करें
और
हमारा शाही टुकड़ा भी
शायद
हमें पच जाए।
गुलाब
टूटे गिलास को कुछ और तोड़कर
अपने को कुछ और मोड़कर
बंजारे ने
एक फूलदान बनाया है
(क्योंकि वह फूल और फूलदान को समर्पित है)
ओ बासी मसले हुए गुलाब
जाओ
खुद अपनी
और उसकी सरकारी झुग्गी की
शोभा बढ़ाओं।
इर्द गिर्द
दीमकों से बची
कुछ बदबूदार फाइलें है
चरित्र पंजियों की
सड़ी हुई लाशें
जिन्हें चाट-चाट कर
कोई शिखझडी औघड़
किसी अजगर के मुँह में अटकी
एक मरघटी मुस्कान
उगलता-उगलता
गल चुका है
एकदम बदल चुका है
जाओ
अपनी बची-खुची
मरी हुई सूखी गंध से
चारों ओर
उड़ती हुई चिड़ायँध
का रंग बदलो
पुराना साथ संग बदलो।
लगता है
विश्वासों ने तुम्हें छला है
तुम्हारे सामने ही
रोशनी के नाम पर
कोई जलता है
गलती पिघलती सदी का
बचा हुआ
धूप का
यह एक टूकड़ा भी
तुम्हारे लिए एक बला है।
पर ओ खूबसूरत दिखने वाले
बीतगंधी गुलाब !
हड्डियों वाले हाथ
और
गुलदस्ते के साथ
का फर्क पहचानों।
भीड़ :
भीड़ से वह भी डरता है
भीड़ स्वयं में एक बलबा है
जमीन पर छाये हुए
आसमान का मलबा है
मलबा
जिसमें
चाँद का फूटा हुआ नसीब
और न जाने कितनी
चिनगारियों का सलीब है
ये हजार-हजार आँखें
किसी भुतहे देवराज की
शापित लिजलिजी तरबीत है।
शुक्र है
कि चिंताओं के इस ऋतुचक से
किसी तरह छटककर
तुम अलग
जिंदगी की
इस नई राह पर
आ पड़े
जहाँ टूटा गिलास
कुछ नहीं तो
कम से कम
भगोड़ों के पैरों में
चुभने के लिए पड़ा था
और पास ही आड़ में
वह स्वयं ही खड़ा था।
वह कहता है
फिर कहता है
और आखिरी बार कहता है
छोड़ो जूड़े की आस
चूमो टूटा गिलास बदलो फिर से लिबास।
समय :
समय भला किससे हारा है
जहाँ कुछ नहीं
वहाँ रेत का सहारा है
और
तुम्हारे लिए
टूटा गिलास घिसा हुआ
अब
आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर +91 8630778321;
वॉर्ड्सऐप नम्बर+919412300183)
No comments:
Post a Comment