देवताओं और दानवों द्वारा अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र- मंथन से एक-एक करके चौदह रत्न—1. लक्ष्मी, 2. कौस्तुभमणि, 3. कल्पवृक्ष, 4. वारुणी सुरा, 5. धन्वन्तरि वैद्यक, 6. चंद्रमा, 7. कामधेनु, 8. ऐरावत हाथी, 9. अप्सरा रम्भा, 10. कालकूट विष, 11. उच्चै:श्रवा घोड़ा, 12. पांचजन्य शंख, 13. पारिजात वृक्ष, 14. अमृत-कलश निकला था।
चूड़ामणि स्त्रियों के पहनने का एक आभूषण होता है समुद्र मंथन से चौदह रत्न निकले, उसी समय सागर से दो देवियों का जन्म हुआ – १– रत्नाकर नन्दिनी २– महालक्ष्मी रत्नाकर नन्दिनी ने अपना तन मन श्री हरि ( विष्णु जी ) को देखते ही समर्पित कर दिया ! जब उनसे मिलने के लिए आगे बढीं तो सागर ने अपनी पुत्री को विश्वकर्मा द्वारा निर्मित दिव्य रत्न जटित चूडा मणि प्रदान की ( जो सुर पूजित मणि से बनी) थी। महालक्ष्मी के प्राकट्य से पहले समुद्रतनया के समान रूप-रंग वाली अपूर्व सुंदरी 'रत्नाकरनंदिनी' जो कि समुद्रतनया थी, प्रकट रूप में। श्रीहरि को देखें ही रत्नाकर नंदिनी अपना हृदय भगवान को समर्पित कर दें। तभी भगवान की नित्य-शक्ति क्षीरोद तनया साक्षात् महामाया लक्ष्मी जी प्रकट हुईं। उन्हें देख कर ऐसा जान पड़ा मानो चमक उठी बिजली दिखाई देने लगी। उन्होंने अपने हाथों में सुशोभित सफेद, नीला, पीला, लाल और कर्बरी-इन पांच रंगों की कमल माला में समग्र के आश्रय और पवित्र भगवान नारायण को धारण किया और उनकी कृपा की प्रतीक्षा की, उनके निकट स्थित हो गए।
समुद्र की ज्येष्ठ पुत्री रत्नाकर नन्दिनी मन मसोस कर कहीं खड़ी रह गयी। उनके मन के भावों को जान कर श्रीहरि स्वयं उनके निकटस्थ बोले-
'मैं मन के भावों को जानता हूं।' पृथ्वी का भार उठाने के लिए मैं जब-जब अवतार करुंगा, तब तुम मेरी संहारिणी शक्ति के रूप में अवतरित होगी। कलियुग के अंत में कल्कि रूप में जब मैं प्रकट होऊंगा, तब शत्रु पूरी तरह से अंगीकार करुंगा। अभी सत्ययुग है। त्रेता और द्वापर युग में आप त्रिकूट पर्वत शिखर पर वैष्णवी नाम से अपनी प्रेरणा के लिए तप करो।' यही देवी भगवान की आज्ञा से जंबू की वैष्णवी माता बन कर तपस्या कर रही हैं।
रत्नाकर नन्दिनी के त्रिकूट पर्वत पर जंबू देश में जाने के बाद महालक्षमी का प्रादुर्भाव हो गया और लक्षमी जी ने विष्णु जी को देखा और मनही मन वरण कर लिया यह देखकर रत्नाकर नन्दिनी मन ही मन अकुलाकर रह गईं सब के मन की बात जानने वाले श्रीहरि रत्नाकर नन्दिनी के पास पहुँचे और धीरे से बोले – मैं तुम्हारा भाव जानता हूँ, पृथ्वी को भार- निवृत करने के लिए जब – जब मैं अवतार ग्रहण करूँगा , तब-तब तुम मेरी संहारिणी शक्ति के रूप मे धरती पे अवतार लोगी , सम्पूर्ण रूप से तुम्हे कलियुग मे श्री कल्कि रूप में अंगीकार करूँगा अभी सतयुग है तुम त्रेता , द्वापर में, त्रिकूट शिखर पर, वैष्णवी नाम से अपने अर्चकों की मनोकामना की पूर्ति करती हुई तपस्या करो।
चूड़ामणि की कहानी
तपस्या के लिए बिदा होते हुए रत्नाकर नन्दिनी ने अपने केश पास से चूडामणि निकाल कर निशानी के तौर पर श्री विष्णु जी को दे दिया वहीं पर साथ में इन्द्र देव खडे थे , इन्द्र चूडा मणि पाने के लिए लालायित हो गये, विष्णु जी ने वो चूडा मणि इन्द्र देव को दे दिया , इन्द्र देव ने उसे इन्द्राणी के जूडे में स्थापित कर दिया।
शम्बरासुर नाम का एक असुर हुआ जिसने स्वर्ग पर चढाई कर दी इन्द्र और सारे देवता युद्ध में उससे हार के छुप गये कुछ दिन बाद इन्द्र देव अयोध्या राजा दशरथ के पास पहुँचे सहायता पाने के लिए इन्द्र की ओर से राजा दशरथ कैकेई के साथ शम्बरासुर से युद्ध करने के लिए स्वर्ग आये और युद्ध में शम्बरासुर दशरथ के हाथों मारा गया। युद्ध जीतने की खुशी में इन्द्र देव तथा इन्द्राणी ने दशरथ तथा कैकेई का भव्य स्वागत किया और उपहार भेंट किये। इन्द्र देव ने दशरथ जी को ” स्वर्ग गंगा मन्दाकिनी के दिव्य हंसों के चार पंख प्रदान किये। इन्द्राणी ने कैकेई को वही दिव्य चूडामणि भेंट की और वरदान दिया जिस नारी के केशपास में ये चूडामणि रहेगी उसका सौभाग्य अक्षत–अक्षय तथा अखन्ड रहेगा , और जिस राज्य में वो नारी रहेगी उस राज्य को कोई भी शत्रु पराजित नही कर पायेगा। उपहार प्राप्त कर राजा दशरथ और कैकेई अयोध्या वापस आ गये।
रानी सुमित्रा के अदभुत प्रेम को देख कर कैकेई ने वह चूडामणि सुमित्रा को भेंट कर दिया। इस चूडामणि की समानता विश्वभर के किसी भी आभूषण से नही हो सकती।
जब श्री राम जी का व्याह माता सीता के साथ सम्पन्न हुआ । सीता जी को व्याह कर श्री राम जी अयोध्या धाम आये सारे रीति- रिवाज सम्पन्न हुए। तीनों माताओं ने मुह दिखाई की प्रथा निभाई। सर्व प्रथम रानी कैकेई ने मुँह दिखाई में कनक भवन सीता जी को दिया।
सीता जी को चूड़ामणि
सुमित्रा जी ने सीता जी को मुँह दिखाई में चूड़ामणि प्रदान की थी। अंत में कौशिल्या जी ने सीता जी को मुँह दिखाई में प्रभु श्री राम जी का हाथ सीता जी के हाथ में सौंप दिया। संसार में इससे बडी मुँह दिखाई और क्या होगी।
वनवास के लिए सीता जी ने कषाय (गेरुआ) का सहारा लिया तो धारण कर ली; लेकिन कुलगुरु संगीतकार और उनकी पत्नी अरुंधति ने आभूषणों का त्याग नहीं किया। रावण हरण द्वारा जाने पर वह पुष्पक विमान से अपने आभूषणों को जगह-जगह डालती रहती है। लंका पहुँचे केवल चूड़ामणि ही उनके पास शेष रही थी। चूड़ामणि की महिमा के दर्शन के कारण ही उन्होंने उसे अपने शरीर से अलग नहीं किया था।
सीताहरण के पश्चात माता का पता लगाने के लिए जब हनुमान जी लंका पहुँचते हैं हनुमान जी की भेंट अशोक वाटिका में सीता जी से होती है। हनुमान जी ने प्रभु की दी हुई मुद्रिका सीतामाता को देते हैं और कहते हैं –
मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा,जैसे रघुनायक मोहि दीन्हा।
चूडामणि उतारि तब दयऊ, हरष समेत पवन सुत लयऊ।
सीता जी ने वही चूडा मणि उतार कर हनुमान जी को दे दिया , यह सोंच कर यदि मेरे साथ ये चूडामणि रहेगी तो रावण का बिनाश होना सम्भव नही है। उसने कहा कि जब तक यह चूड़ामणि प्रभु श्रीराम के पास नहीं जाएगा; लंका का विनाश और रावण का पराजय संभव नहीं होगा। हनुमान जी लंका से वापस आकर वो चूडामणि भगवान श्री राम को दे कर माताजी के वियोग का हाल बताया।
संसार का दिव्यतम स्त्री-आभूषण है चूड़ामणि
कुलगुरु वशिष्ठ ने को चूड़ामणि की महिमा और इतिहास में इस प्रकार कहा है -
चूड़ामणि जूड़े में पहने जाने वाला आभूषण है केवल श्रीमन्नारायण के हृदय पर शोभायमान कौस्तुभमणि ही कर सकती है। संसार के सभी आभूषण मिल कर भी इस चूड़ामणि की शोभा नहीं बढ़ा सकते।
चूड़ामणि चौराहा मोहबरा अयोध्या :-
अयोध्या के मोहबरा चौराहे का नाम बदलकर चूड़ामणि चौराहा किया गया। मोहबरा में 12 फिट व्यास का चक्र की आकृति जूड़ा वाला चूड़ा लगा दिया गया। जिस पर सीताजी के चूड़ामणि का चिह्न प्रतीक के रूप में स्थापित किया गया है। श्रीराम जन्मभूमि को जोड़ने वाले प्रमुख मार्ग के महोबरा बाजार चौराहे पर अयोध्या विकास प्राधिकरण द्वारा सुन्दरीकरण के कार्यों के अन्तर्गत चक्र आकर की 12 फिट व्यास वाली (आकृति चूड़ा) लगाई गयी है।
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