Wednesday, March 20, 2024

द्विवेदी भारद्वाज ब्राह्मण कुल परम्परा के द्वादश कारक:-(द्विवेदी ब्राह्मण इतिहास श्रृंखला संख्या 7)


(टिप्पणीः- इस श्रंखला को उपलब्घ प्रमाणों के आधार पर तैयार किया गया है। इसे और प्रमाणिक बनाने के लिए सुविज्ञ पाठकों व विद्वानों के विचार व सुझाव सादर आमंत्रित है।)
ब्राह्मण कुल परम्परा के द्वादश कारक:-
ब्राह्मण के बिना धरती की कल्पना करना संभव नहीं है इसलिए ब्राह्मण को गर्व है और अपने कर्म और धर्म का पालन करते हुए सनातन संस्कृति की रक्षा करनी चाहिए। सोसल मीडिया पर उपलब्ध एक चार्ट में किसी विद्वान ने उपलब्ध कराया है जिसे आभार सहित मैं उद्धृत कर रहा हूं
1.आस्पद:-
आस्पद अर्थात वह प्रजातियां जो कि किसी व्यक्ति के नाम या स्थान के नाम से प्रसिद्ध हुई है।भारद्वाज गोत्र के आस्पद है द्विवेदी, पाठक, उपाध्याय, चतुर्वेदी, पांडे आदि हैं।
2.गोत्र:- 
व्यक्ति की वंश-परंपरा जहां और से संबंधित है, उस वंश का गोत्र भी कहीं-कहीं प्रचलित है। इन गोत्रों के मूल ऋषि :– विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वैश्य, कश्यप। इन सप्तऋषियों और ऋषि ऋषियों की संतान गोत्र कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गोत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है।
3.वेद- 
वेदों की रचनाएं ऋषियों के अंत:करण से प्रकट हुई थी। उस काल में शिलाओं के अलावा लिखने का और कोई साधन नहीं था। ऐसे में उनी ऋचाओं की रक्षा और संवरक्षण हेतु एक परंपरा का प्रचलन हुआ। वह यह कि उसे सुनाकर ही दूसरे को याद कराया जाए और इस तरह वह कंठस्थ कर ली जाए। चूंकि चारों वेद कोई एक ऋषि याद नहीं रख सकता था इसलिए गोत्रकारों ने ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरुष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं।
       प्रत्येक ब्राह्मण का अपना एक विशिष्ट वेद होता है , जिसे वह अध्ययन -अध्यापन करता है । आसान शब्दो मे गोत्र प्रवर्तक ऋषि जिस वेद को चिन्‍तन, व्‍याख्‍यादि के अध्‍ययन एवं वंशानुगत निरन्‍तरता पढ़ने की आज्ञा अपने वंशजों को देता है, उस ब्राम्हण वंश (गोत्र) का वही वेद माना जाता है। वेद का अभिप्राय यह है कि उस गोत्र का ऋषि ने उसी वेद के पठन-पाठन या प्रचार में विशेष ध्यान दिया और उस गोत्रवाले प्रधानतया उसी वेद का अध्ययन और उसमें कहे गए कर्मों का अनुष्ठान करते आए।
         किसी का गोत्र यजुर्वेद है तो किसी का सामवेद और किसी का ऋग्वेद है, तो किसी का अथर्ववेद। उत्तर के देशों में प्राय: साम और यजुर्वेद का ही प्रचार था। किसी-किसी का ही अथर्ववेद मिलता है।

भारद्वाज गोत्र का वेद :– यजुर्वेद है ।अतः इस गोत्र के वंशजों को यजुर्वेद पूजा स्थान में रखना चाहिए और समय आने पर इसे जेष्ठ पुत्र को सौंप दें।

4. उपवेद :-
प्रत्येक वेद से सम्बद्ध ब्राम्हण को विशिष्ट उपवेद का भी ज्ञान होना चाहिये । हर गोत्र का अलग अलग उपवेद होता है। वेदों की सहायता के लिए कला कौशल का प्रचार कर संसार की सामाजिक उन्‍नति का मार्ग बतलाने वाले शास्‍त्र का नाम उपवेद है। उपवेद उन सब विद्याओं को कहा जाता है, जो वेद के ही अन्तर्गत हों। यह वेद के ही आश्रित तथा वेदों से ही निकले होते हैं। जैसे-
धनुर्वेद ... विश्वामित्र ने इसे यजुर्वेद से निकाला था।
गन्धर्ववेद ... भरतमुनि ने इसे सामवेद से निकाला था।
आयुर्वेद .... धन्वंतरि ने इसे ऋग्वेद से इसे निकाला था।
स्थापत्य ....विश्वकर्मा ने अथर्ववेद से इसे निकला था।

भारद्वाज गोत्र का उपवेद – धनुर्वेद है ।गोत्र के वंशज धनुर्वेद को पूजा स्थान में रखें और समय आने पर इसे कनिष्ठ पुत्र को सौंप दें।

5. शाखा :-
मान लो कि किसी एक ऋषि की कुल संतान को एक ऋग्वेद के ही संवरक्षण का कार्य सौंप दिया गया तो फिर यह भी समस्या थी कि इतने हजारों मंत्रों को कोई एक ही याद करके कैसे रखे और कैसे वह अपनी अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करें। ऐसे में वेदों की शखाओं का निर्माण हुआ। ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली थी, कालांतर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढ़ने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परंपरा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होंने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया। वेदों के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा को अपनाया है। कलांतर में जब एक व्यक्ति ने अपने गोत्र के लिए वेद पढ़ने की इच्छा जताई तो ऋषियों ने वैदिक परंपरा को जीवित रखने के लिए अवशेषों का निर्माण करवाया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक है। इस प्रकार से मठ जिसका नाम अधोम्ययन किया गया, उसने उस वेद की शाखा के नाम से उल्लेख किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।
प्रत्‍येक वेद में कई शाखायें होती हैं। जैसे --
ऋग्‍वेद की 21 शाखायें हैं। प्रयोग में 5 ज्यादा प्रचलित हैं - शाकल, वाष्कल,आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकायन आदि।
यजुर्वेद की 101 शाखाये हैं। प्रयोग में 5 ज्यादा प्रचलित हैं -- काठक, कपिष्ठल,मैत्रियाणी,तैतीरीय और वाजसनेय आदि।
सामवेद की 1000 शाखायें हैं। सभी गायन , मन्त्र यांत्रिक प्रचलित विधान हैं।
अथर्ववेद की 9 शाखायें हैं । ज्यादा प्रचलित हैं - पैपल, दान्त, प्रदान्त, स्नात, सौल, ब्रह्मदाबल, शौनक, देवदर्शत और चरणविद्या आदि।
इस प्रकार चारों वेदों की कुल 1131 शाखा होती है।
 प्रत्‍येक वेद की अथवा अपने ही वेद की समस्‍त शाखाओं को अल्‍पायु मानव नहीं पढ़ सकता, इसलिए महर्षियों ने 1 शाखा अवश्‍य पढ़ने का पूर्व में नियम बनाया था और अपने गोत्र में उत्‍पन्‍न होने वालों को आज्ञा दी कि वे अपने वेद की अमूक शाखा को अवश्‍य पढ़ा करें, इसलिए जिस गो त्र वालों को जिस शाखा के पढ़ने का आदेश दिया, उस गोत्र की वही शाखा हो गई। जैसे पराशर गौत्र का शुक्‍ल यजुर्वेद है और यजुर्वेद की 101 शाखा है। वेद की इन सब शाखाओं को कोई भी व्‍यक्ति नहीं पढ़ सकता, इसलिए उसकी एक शाखा (माध्‍यन्दिनी) को प्रत्‍येक व्‍यक्ति 1-2 साल में पढ़ कर अपने ब्राम्हण होने का कर्तव्य पूर्ण कर सकता है ।

भारद्वाज गोत्र की शाखा – माध्यन्दिनीय है।शाखा अर्थात उपवेद से भी छोटी इकाई वेद और उपवेद के बाद का ग्रंथ है।

6. सूत्र :- 
सूत्र सामान्यतः पद्य या मिश्रित गद्य-पद्य में लिखे हुए हैं। आनुष्ठानिक वालों को श्रौत सूत्र तथा घरेलू विधिशास्त्रों की व्याख्या करने वालों को गॄह् सूत्र कहा जाता है। शाखाओं को सूत्र रूप में बांट दिया। फिर देवता, देवता प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते हैं वही उनका कुल देवता या उनके आराध्‍य देव है। इसी प्रकार कुल-देवी होती हैं। इसका ज्ञान अगली पीढ़ी को दिया जाता है। इसके अलावा दिशा, द्वार, शिखा, पाद आदि भेद भी होते हैं। उक्त अंतिम भेद से यह पता लगाया जा सकता है कि यह व्यक्ति किस कुल का है, कौन से वेद की कौनसी शाखा के कौन से सूत्र और कौन से सूत्र के कौन से देव के ज्ञान को संवरक्षित करने वाला है।
          प्रत्येक वेद के अपने 2 प्रकार के सूत्र हैं। श्रौत सूत्र और ग्राह्य सूत्र यथा शुक्ल यजुर्वेद का कात्यायन श्रौत सूत्र और पारस्कर ग्राह्य सूत्र है। व्यक्ति शाखा के अध्ययन में असमर्थ न हो , अतः उस गोत्र के परवर्ती ऋषियों ने उन शाखाओं को सूत्र रूप में विभाजित किया है, जिसके माध्यम से उस शाखा में प्रवाहमान ज्ञान व संस्कृति को कोई क्षति न हो और कुल के लोग संस्कारी हों !
        वेदानुकूल स्‍मृतियों में ब्राह्मणों के कर्मो का वर्णन किया है, उन कर्मो की विधि बतलाने वाले ग्रन्‍थ ऋषियों ने सूत्र रूप में लिखे हैं और वे ग्रन्‍थ भिन्‍न-भिन्‍न गौत्रों के लिए निर्धारित वेदों के भिन्‍न-भिन्‍न सूत्र ग्रन्‍थ हैं। ऋषियों की शिक्षाओं को सूत्र कहा जाता है। प्रत्येक वेद का अपना सूत्र है। सामाजिक, नैतिक तथा शास्त्रानुकूल नियमों वाले सूत्रों को धर्म सूत्र कहते हैं।

भारद्वाज गोत्र का सूत्र – कात्यायन है। जब वेद उपवेद शाखा का अध्ययन भारी पड़ने लगा तब वंशजों ने सूत्र अपनाया।

7.छन्द :-
प्रत्येक ब्राह्मण का अपना परम्परा सम्मत छन्द होता है जिसका ज्ञान हर ब्राम्हण को होना चाहिए । छंद वेदों के मंत्रों में प्रयुक्त कवित्त मापों को कहा जाता है। श्लोकों में मात्राओं की संख्या और उनके लघु-गुरु उच्चारणों के क्रमों के समूहों को छंद कहते हैं - वेदों में कम से कम 15 प्रकार के छंद प्रयुक्त हुए हैं, और हर गोत्र का एक परम्परागत छंद है । भारद्वाज गोत्र के ऋषि त्रिष्टुप् छ्न्द प्रयुक्त करते हैं।

8. शिखा :-
परम्परागत रूप से हर ब्राम्हण को शिखा धारण करनी चाहिए ( इसका अपना वैज्ञानिक लाभ है) लेकिन आज कल इसे धारण करने वाले को सिर्फ कर्मकांडी ही माना जाता है ना तो किसी को इसका लाभ पता है ना कोई रखना चाहता है । अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने की परम्परा शिखा कहलाती है ।शिखा में जो ग्रंथि देता वह बाईं तरफ घुमा कर और कोई दाहिनी तरफ। प्राय: यही नियम था कि सामवेदियों की बाईं शिखा और यजुर्वेदियों की दाहिनी शिखा कही कही इसमे भी भेद मिलता है ।

भारद्वाज गोत्र की शिखा परंपरा दक्षिण है । अर्थात इस गोत्र के वंशज अपनी शिखा को दाई और घुमा कर बांधते हैं।

9.पाद :-
अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद - प्रक्षालन करते हैं । ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है । अपने -अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं ।सामवेदियों का बायाँ पाद प्रक्षालन करते हैं। भारद्वाज के यजुर्वेदियों की दाहिना पाद माना जाता है ।

भारद्वाज गोत्र की पाद परंपरा दक्षिण है । अर्थात इस गोत्र के वंशज पहले अपना दाया पैर धोते हैं।

10. देवता :- 
प्रत्येक वेद या शाखा का पाठ, पाठन करने वाले कोई न कोई विशेष देव के पुजारी होते हैं, उनके कुल देवता अर्थात भगवान विष्णु, भगवान शिव, मां दुर्गा, भगवान सूर्य आदि देवों में से कोई एक आराध्य देव होते हैं।

भारद्वाज गोत्र के इष्टदेव – भगवान् शिव / रुद्र इस गोत्र के देवता हैं। इस विचारधारा में समय-समय पर रुचि अनुसार परिवर्तन होता रहता है।

11. द्वार:- 
यज्ञ मंडप तैयार करने की कुल 39 विधाएं है और हर गोत्र के ब्राम्हण के प्रवेश के लिए अलग द्वार होता है। यज्ञ मंडप में अध्वर्यु (यज्ञकर्ता) से जिस दिशा या द्वार से प्रवेश किया जाता है या जिस दिशा में प्रवेश किया जाता है, उस गोत्र भक्तों का द्वार या दिशा कही जाती है।

12.कुल देवी:-
इसी प्रकार कुल के भी संरक्षक देवता या कुलदेवी होती हें । इनका ज्ञान कुल के वयोवृद्ध अग्रजों (माता-पिता आदि ) के द्वारा अगली पीड़ी को दिया जाता है । एक कुलीन ब्राह्मण को अपने तीनों प्रकार के देवताओं का बोध तो अवश्य ही होना चाहिए -
(1) इष्ट देवता अथवा इष्ट देवी ।
(2) कुल देवता अथवा कुल देवी ।
(2) ग्राम देवता अथवा ग्राम देवी ।

भारद्वाज गोत्र की कुलदेवी – बिन्दुक्षणी/श्रीमाता के नाम से जानी जाती है।वह गुजरात के पाटण शहर में है। यह दुर्गा मां का स्वरूप होती हैं।पंचमुखा हनुमान गली /शेरी । लोग महामाया देवी को पूजते हैं। महालक्ष्मी/वाराही भी नाम मिलता है।








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