आयुर्वेद के ज्ञाता
भारद्वाज प्राचीन भारतीय ऋषि थे। । चरक संहिता के अनुसार भारद्वाज ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान पाया। ऋक्तंत्र के अनुसार वे ब्रह्मा, बृहस्पति एवं इन्द्र के बाद वे चौथे व्याकरण-प्रवक्ता थे। उन्होंने व्याकरण का ज्ञान इन्द्र से प्राप्त किया था (प्राक्तंत्र 1.4) तो महर्षि भृगु ने उन्हें धर्मशास्त्र का उपदेश दिया। तमसा-तट पर क्रौंच वध के समय भारद्वाज महर्षि वाल्मीकि के साथ थे, वाल्मीकि रामायण के अनुसार भारद्वाज महर्षि वाल्मीकि के शिष्य थे।
महर्षि भारद्वाज सर्वज्ञ थे:-
ऋषि भारद्वाज के प्रमुख ग्रंथ आयुर्वेद सँहिता, भारद्वाज स्मृति, भारद्वाज सँहिता, राजशास्त्र, यँत्र-सर्वस्व(विमान अभियाँत्रिकी) आदि ऋषि भारद्वाज के रचित प्रमुख ग्रँथ हैं। महर्षि भारद्वाज व्याकरण, आयुर्वेद संहित, धनुर्वेद, राजनीति शास्त्र, यंत्रसर्वस्व, अर्थशास्त्र, पुराण, शिक्षा आदि पर अनेक ग्रंथों के रचयिता हैं। पर आज यंत्र सर्वस्व तथा शिक्षा ही उपलब्ध हैं। वायुपुराण के अनुसार उन्होंने एक पुस्तक आयुर्वेद संहिता लिखी थी, जिसके आठ भाग करके अपने शिष्यों को सिखाया था। चरक संहिता के अनुसार उन्होंने आत्रेय पुनर्वसु को काय चिकित्सा का ज्ञान प्रदान किया था।
ऋषि और मंत्रकार के रूप में भरद्वाज का उल्लेख संहिताओं तथा ब्राह्मणों में प्रायः हुआ है, जबकि महा काव्यों में भरद्वाज त्रिकालदर्शी, महान चिंतक तथा ज्ञानी के रूप में वंदित हुए हैं। भरद्वाज देवगुरु बृहस्पति की तीन पत्नियों में से एक ममता के पुत्र और पुराण प्रसिद्ध कच के सहोदर हैं। भरद्वाज ने आयुर्वेद और सावित्र्य अग्नि विद्या का ज्ञान इंद्र और बाद में साक्षात ब्रह्मा से पाया था। अग्नि के सामर्थ्य को आत्मसात कर भरद्वाज ने अमृत तत्व पाकर और स्वर्ग लोक जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया था। कदाचित इसी कारण भरद्वाज सर्वाधिक आयु प्राप्त करने वाले ऋषियों में से एक थे। महर्षि चरक ने उन्हें अपरिमित आयु वाला महर्षि कहा है।
प्रयाग का प्रथम वासी :-
ऋषि भारद्वाज को प्रयाग का प्रथम वासी माना जाता है। अर्थात ऋषि भारद्वाज ने ही प्रयाग को बसाया था। प्रयाग में ही उन्होंने घरती के सबसे बड़े गुरूकुल(विश्वविद्यालय) की स्थापना की थी और हजारों वर्षों तक विद्या दान करते रहे। वे शिक्षाशास्त्री, राजतंत्र मर्मज्ञ, अर्थशास्त्री, शस्त्रविद्या विशारद, आयुर्वेेद विशारद,विधि वेत्ता, अभियाँत्रिकी विशेषज्ञ, विज्ञानवेत्ता और मँत्र द्रष्टा थे। ऋग्वेेद के छठे मंडल के द्रष्टाऋषि भारद्वाज ही हैं। इस मंडल में 765 मंत्र हैं। अथर्ववेद में भी ऋषि भारद्वाज के 23 मंत्र हैं। वैदिक ऋषियों में इनका ऊँचा स्थान है। आपके पिता वृहस्पति और माता ममता थीं।
तीर्थों का राजा है प्रयागराज और प्रयाग के संस्थापक हैं महर्षि भरद्वाज। महर्षि की महिमा ऐसी कि प्रभु श्रीराम भी उनका परामर्श मानते थे। सतयुग से लेकर द्वापर तक महत्वपूर्ण उपस्थिति रखने वाले भरद्वाज बृहस्पति के पुत्र और कुबेर के नाना थे। ऋषि परम्परा में इस बार पढ़िए संसार को विमान का ज्ञान देने वाले हमारे इस पूर्वज महर्षि की गौरवगाथा भरद्वाज या भारद्वाज के नाम से प्रसिद्ध महर्षि अन्यतम हैं। ऋग्वेदीय मंत्रों की शाब्दिक रचना करने वाले सात ऋषि-परिवारों में भरद्वाज का नाम सर्वाधिक आदर से लिया जाता है। भरद्वाज ऋग्वेद के छठे मण्डल के ऋषि रूप में विख्यात हैं। चरक संहिता के अनुसार, भरद्वाज ने इंद्र से आयुर्वेद और व्याकरण का ज्ञान पाया था। उन्हें ब्रह्मा, बृहस्पति एवं इंद्र के बाद व्याकरण का सर्वोच्च चौथा प्रवक्ता माना गया है। महर्षि भृगु से उन्हें धर्मशास्त्र का उपदेश मिला था।
अग्नि विद्या में पारंगत:-
ऋषि भारद्वाज को आयुर्वेद और सावित्र्य अग्नि विद्या का ज्ञान इन्द्र और कालान्तर में भगवान श्री ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त हुआ था। अग्नि के सामर्थ्य को आत्मसात कर ऋषि ने अमृत तत्व प्राप्त किया था और स्वर्ग लोक जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया था। (तैoब्राम्हण3/10/11)
अपरिमित आयु वाला:-
सम्भवतः इसी कारण ऋषि भारद्वाज सर्वाधिक आयु प्राप्त करने वाले ऋषियों में से एक थे। चरक ऋषि ने उन्हें अपरिमित आयु वाला बताया है। (सूत्र-स्थान1/26)
ऋषि भारद्वाज ने द्वादश माधव परिक्रमा शुरू कराए:-
ऋषि भारद्वाज ने प्रयाग के अधिष्ठाता भगवान श्री माधव जो साक्षात श्री हरि हैं, की पावन परिक्रमा की स्थापना भगवान श्री शिव जी के आशीर्वाद से की थी। ऐसा माना जाता है कि भगवान श्री द्वादश माधव परिक्रमा सँसार की पहली परिक्रमा है। ऋषि भारद्वाज ने इस परिक्रमा की तीन स्थापनाएं दी हैं-
1-जन्मों के संचित पाप का क्षय होगा, जिससे पुण्य का उदय होगा।
2-सभी मनोरथ की पूर्ति होगी।
3-प्रयाग में किया गया कोई भी अनुष्ठान/कर्मकाण्ड जैसे अस्थि विसर्जन, तर्पण, पिण्ड दान, कोई संस्कार यथा मुण्डन यज्ञोपवीत आदि, पूजा पाठ, तीर्थाटन,तीर्थ प्रवास, कल्पवास आदि पूर्ण और फलित नहीं होंगे जबतक स्थान देेेेवता अर्थात भगवान श्री द्वादश माधव की परिक्रमा न की जाए।
श्रीराम को कराया चित्रकूट में वास :-
वैदिककाल के बाद महर्षि भरद्वाज की सबसे सशक्त उपस्थिति त्रेतायुग की श्रीराम कथा में मिलती है। रामायण में इन्हें तपस्या के बल से तीनों कालों की सभी बातों को जानने में समर्थ और तीक्ष्ण व्रतधारी कहा गया है।श्रीराम ने इनके ही परामर्श पर वनवास की अवधि में चित्रकूट में वास किया था। जब राम ने इनकी पर्णशाला में प्रवेश किया तो इन्होंने राम, लक्ष्मण व सीता का स्वागत कर सभी को अद्भुत उपहार दिए। लंका विजय के उपरांत लौटते समय भी राम इनके आश्रम में रुके थे और यहीं से हनुमानजी को अपने आगमन की सूचना देने भरत के पास अयोध्या भेजा था। राम को लाने के लिए चित्रकूट जाते समय भरत भी महामुनि वसिष्ठ के साथ इनके आश्रम में पहुंचे थे। इन्होंने भरत को राम के वनवास के कारण कैकयी पर आक्षेप न करने का परामर्श दिया था और बताया था कि राम का वनवास देवताओं और ऋषियों के कल्याण के लिए विधि द्वारा नियत है। श्रीराम के अयोध्या लौटने पर ये उत्तर दिशा से उनके अभिवादन के लिए आए थे।
मानस में श्रीराम कथा के रसिक:-
वाल्मीकि रामायण के बाद दूसरी रामकथा तुलसीकृत श्रीरामचरितमानस में भरद्वाज रामकथा के रसिक हैं। तुलसी ने अपने महाकाव्य के चार वक्ताओं व चार श्रोताओं में भरद्वाज को एक युग्म का श्रोता बनाया है।
भरद्वाज को महामुनि याज्ञवल्क्य ने कथा सुनाई है। मानस में शिव-पार्वती, काकभुशुण्डि-गरुड़ व तुलसीदास-आमजन के रूप में तीन अन्य वक्ता-श्रोता युग्म हैं। याज्ञवल्क्य-भरद्वाज के संवाद के माध्यम से संत समाज में रामकथा का प्रचार प्रदर्शित किया गया है। मानस के अनुसार, भरद्वाज का आश्रम प्रयाग में था। एक बार पवित्र माघ मास में त्रिवेणी स्नान के लिए प्रयाग आए महामुनि याज्ञवल्क्य, भरद्वाज से मिलने उनके आश्रम आए। तुलसी ने भरद्वाज के लिए लिखा है–
‘तापस सम दम दयानिधाना, परमारथ पथ परम सुजाना।’
अर्थात... भरद्वाज तपस्वी, निगृहीतचित्त, जितेंद्रीय, दया के भंडार और परमार्थ मार्ग के पथिक होकर बड़े ही चतुर थे।
उन्होंने आश्रम पधारे याज्ञवल्क्य मुनि से सुनाने की प्रार्थना की। तब याज्ञवल्क्य ने उनसे मुस्कराते हुए कहा था–
‘रामभगत तुम मन क्रम बानी, चतुराई तुम्हारि मैं जानी।
चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा, कीन्हहु प्रस्न मनहुं अति मूढ़ा।।’
अर्थात... हे भरद्वाज! तुम मन, वचन और कर्म से श्रीराम के भक्त हो। तुम्हारी चतुराई मैं जान गया। तुम रामजी के रहस्यमय गुणों को सुनना चाहते हो, इसी कारण तुमने ऐसा प्रश्न किया मानो बहुत मूढ़ हो।
ध्यान रहे भरद्वाज इतने महान हैं कि स्वयं श्रीराम उन्हें शीश नवाते हैं किंतु मानस में राम परमेश्वर रूप हैं, अतः परमात्मा के उपासक भरद्वाज उनके रहस्य को जानने के लिए भोले बनकर याज्ञवल्क्य से प्रश्न करते और परमेश्वर रूप राम का गुणानुवाद सुन सुख पाते चित्रित हुए हैं।
सप्तर्षियों में एक :-
रामायण काल की भांति महाभारत काल में भी भरद्वाज पूरे प्रभाव के साथ उपस्थित हैं। महाभारत में इन्हें सप्तर्षियों में एक बताया है। सभापर्व में भरद्वाज को ब्रह्मा की सभा में बैठने वाले ऋषियों में एक वर्णित किया है। महाभारत के प्रमुख पात्र द्रोण इन्हीं के अयोनिज पुत्र थे। इनके पिता बृहस्पति ने इन्हें आग्नेयास्त्र दिया था। भरद्वाज ने अग्निवेश को आग्नेयास्त्र की शिक्षा दी। द्रौपदी के पिता द्रुपद ने इन्हीं से अस्त्रों की शिक्षा ली थी। ये उत्तर दिशा के प्रमुख ऋषि और अस्त्रविज्ञानवेत्ता थे। भरद्वाज उन ऋषियों में एक थे जो तीर्थों में युधिष्ठिर के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
सबसे बड़े गुरुकुल के संस्थापक :-
भरद्वाज को प्रयाग का प्रथम वासी माना जाता है अर्थात उन्होंने ही प्रयाग को बसाया था। प्रयाग में उन्होंने धरती के सबसे बड़े गुरुकुल की स्थापना की और हज़ारों वर्षों तक विद्यादान करते रहे।
भगवान माधव की परिक्रमा के प्रणेता:-
भरद्वाज ने भगवान शिव के आशीर्वाद से प्रयाग के अधिष्ठाता भगवान माधव की परिक्रमा भी स्थापित की जो संसार की पहली परिक्रमा मानी जाती है। भरद्वाज ने विधान किया कि जो इस परिक्रमा को करेगा उसके पापों का क्षय व पुण्य का उदय होगा। आज भी प्रयाग में इस परिक्रमा के बग़ैर अनुष्ठान व श्राद्ध आदि फलित नहीं माने जाते हैं। उनके लिखे अनेक ग्रंथों में आयुर्वेद संहिता, भरद्वाज स्मृति, भरद्वाज संहिता, राजशास्त्र, यंत्र सर्वस्व प्रमुख रूप से प्रतिष्ठित हैं।
विस्तृत है भरद्वाज का परिवार :-
भरद्वाज की पत्नी का नाम ध्वनि बताया जाता है। इनकी कुल 12 संतानें थीं जिनमें ऋजिष्वा, गर्ग, नर, पायु, वसु, शास, शिराम्बिठ, शुनिहोत्र, सप्रथ और सुहोत्र कुल दस पुत्र और दो पुत्रियां रात्रि और कशिपा थीं। पुत्रियों के नाम कुछ स्थानों पर मैत्रेयी और इलविला मिलते हैं। मैत्रेयी का विवाह महर्षि याज्ञवल्क्य से और दूसरी इलविला का विश्रवा मुनि से हुआ था। इलविला का ही पुत्र यक्षराज कुबेर था जो रावण का सौतेला भाई था। इस तरह भरद्वाज के वंशजों का ख़ूब विस्तार हुआ। आज भी पारम्परिक चारों वर्णों के अनेक कुल स्वयं को भरद्वाज वंशी बताते हुए गर्वित होते हैं।
पुराणों में पुरोहित:-
महर्षि भरद्वाज को ब्राह्मण ग्रंथों और पुराणों में काशीराज दिवोदास का पुरोहित बताया है। वे दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन के भी पुरोहित थे। इस तरह तीन पीढ़ियों के पुरोहित होने के साथ उन्हें दीर्घायु निरूपित किया गया है। इनके अलावा पुराणों में भरद्वाज से जुड़ी असंख्य कथाएं हैं जो महर्षि की महिमा को प्रतिपादित करती हैं।
आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। लेखक को अभी हाल ही में इस स्मारक को देखने का अवसर मिला था।)
No comments:
Post a Comment