जनेऊ मे तीन सूत्र ही रखे जाते हैं :-
जनेऊ में मुख्य रूप से तीन धागे होते हैं। यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं। साथ ही इन्हें गायत्री मंत्र के तीन चरणों और तीन आश्रमों का प्रतीक भी माना जाता है। संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।
हर धागे में 3-3 करके कुल 9 तार या द्वार होते हैं :- शरीर में
यज्ञोपवीत के हर एक धागे में तीन-तीन तार होते हैं।जो नौ द्वारों का प्रतिनिधित्व करती है। एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ द्वार शरीर में होते हैं। इस तरह कुल 9 तारों से 9 द्वारों की संख्या पूरी मानी जाती है।
जनेऊ की पांच गाठें :-
यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती है, जो ब्रह्म, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक है। यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का प्रतीक भी मानी जाती है।पंच महायज्ञों में वेद पढ़ना ब्रह्मा यज्ञ, तर्पण पितृ यज्ञ, हवन देव यज्ञ, पंचबलि भूत यज्ञ और अतिथियों का पूजन सत्कार अतिथि यज्ञ कहा जाता है।
हमारे पांच ज्ञानेद्रिय नाक ,कान ,आंख ,जीभ , त्वचा से प्राप्त ज्ञान से मस्तिष्क मन और विचार बनाता है। आयुर्वेद में पंच कर्मों का उल्लेख मिलता है। ये 1.वमन 2. विरेचन 3. आस्थापन वस्ति 4. अनुवासन वस्ति 5. नस्य आदि हैं।मनुष्य का शरीर जिन 5 तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु) से बना है, उन्हीं तत्वों से ब्रह्मांड भी बना है। जब शरीर में इन 5 तत्वों के अनुपात में गड़बड़ी होती है तो दोष यानी समस्याएं पैदा होती हैं। आयुर्वेद इन तत्वों को फिर से सामान्य स्थिति में लाता है और इस तरह से रोगों का निदान होता है। गठिया, लकवा, पेट से जुड़े रोग, साइनस, माइग्रेन, सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस, साइटिका, बीपी, डायबीटीज, लिवर संबंधी विकार, जोड़ों का दर्द, आंख और आंत की बीमारियों आदि के लिए पंचकर्म किया जाता है।
4. यज्ञोपवीत शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता। साफ करने के लिए उसे कंठ में पहने रहकर ही घुमाकर धो लेते हैं। भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित करना चाहिए।
जनेऊ का धार्मिक महत्व : यज्ञोपवीत को व्रतबन्ध कहते हैं। व्रतों से बंधे बिना मनुष्य का उत्थान सम्भव नहीं। यज्ञोपवीत को व्रतशीलता का प्रतीक मानते हैं। इसीलिए इसे सूत्र (फार्मूला, सहारा) भी कहते हैं। धर्म शास्त्रों में यम-नियम को व्रत माना गया है। बालक की आयुवृद्धि हेतु गायत्री तथा वेदपाठ का अधिकारी बनने के लिए उपनयन (जनेऊ) संस्कार अत्यन्त आवश्यक है। जनेऊ से पवित्रता का अहसास होता है। यह मन को बुरे कार्यों से बचाती है। कंधे पर जनेऊ है, इसका मात्र अहसास होने से ही मनुष्य बुरे कार्यों से दूर रहने लगता है।
धार्मिक दृष्टि से माना जाता है कि जनेऊ धारण करने से शरीर शुद्घ और पवित्र होता है। शास्त्रों अनुसार आदित्य, वसु, रुद्र, वायु, अग्नि, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में माना गया है। अत: उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। आचमन अर्थात मंदिर आदि में जाने से पूर्व या पूजा करने के पूर्व जल से पवित्र होने की क्रिया को आचमन कहते हैं। इस्लाम धर्म में इसे वजू कहते हैं।
द्विज : स्वार्थ की संकीर्णता से निकलकर परमार्थ की महानता में प्रवेश करने को, पशुता को त्याग कर मनुष्यता ग्रहण करने को दूसरा जन्म कहते हैं। शरीर जन्म माता-पिता के रज-वीर्य से वैसा ही होता है, जैसा अन्य जीवों का। आदर्शवादी जीवन लक्ष्य अपना लेने की प्रतिज्ञा करना ही वास्तविक मनुष्य जन्म में प्रवेश करना है। इसी को द्विजत्व कहते हैं। द्विजत्व का अर्थ है दूसरा जन्म।
अन्यानेक लाभ :-
1.जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले।अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है। इसी कारण जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।
2. कई रोगों का निदान:-.मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसें, जिनका संबंध पेट की आंतों से होता है, आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है, जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय के रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है। कान पर जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है। वैज्ञानिकों अनुसार बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से इस समस्या से मुक्ति मिल जाती है।
3. काम क्रोध पर नियंत्रण:-माना जाता है कि शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह काम करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कमर तक स्थित है। जनेऊ धारण करने से विद्युत प्रवाह नियंत्रित रहता है जिससे काम-क्रोध पर नियंत्रण रखने में आसानी होती है।
4.सामाजिक महत्व अशीम शांति की प्राप्ति : - आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है। धारण करने के बाद उसे बताता है कि उसे दो लोगों का भार या जिम्मेदारी वहन करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का। अब एक-एक जनेऊ में 9-9 धागे होते हैं जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9-9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है। अब इन 9-9 धागों के अंदर से 1-1 धागे निकालकर देखें तो इसमें 27-27 धागे होते हैं। अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27-27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है। अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36= 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है। अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9+2= 11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी (1 और 1) के मिलने से बना है। 1+1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है। जब हम अपने दोनों पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति हो जाती है।
जनेऊ पहनने के नियम
1. मल-मूत्र करने से पहले जनेऊ दाहिने कान पर चढ़ा लेनी चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इससे जनेऊ अपवित्र नहीं होता। यज्ञोपवीत को मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका स्थूल भाव यह है कि यज्ञोपवीत कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो। अपने व्रतशीलता के संकल्प का ध्यान इसी बहाने बार-बार किया जाए।
यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत।।
अर्थात : अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके ही इसे उतारें।
2. जनेऊ का कोई तार टूट जाए या 6 माह से अधिक समय हो जाए तो इसे बदल देना चाहिए।
3. जन्म-मरण के सूतक के बाद भी जनेऊ बदलने की परंपरा है। जनेऊ आम या पीपल के वृक्ष पर टांग दिया जाता है।यज्ञोपवीत धारण करने के नियम :-
4.यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। एक बार जनेऊ धारण करने के बाद मनुष्य इसे उतार नहीं सकता। मैला होने पर उतारने के बाद तुरंत ही दूसरा जनेऊ धारण करना पड़ता है।
5.लड़की भी पहन सकती है जनेऊ : वह लड़की जिसे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना हो, वह जनेऊ धारण कर सकती है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं
6.कब पहने जनेऊ : जिस दिन गर्भ धारण किया हो उसके आठवें वर्ष में बालक का उपनयन संस्कार किया जाता है। जनेऊ पहनने के बाद ही विद्यारंभ होता है, लेकिन आजकल गुरु परंपरा के समाप्त होने के बाद अधिकतर लोग जनेऊ नहीं पहनते हैं तो उनको विवाह के पूर्व जनेऊ पहनाई जाती है। लेकिन वह सिर्फ रस्म अदायिगी से ज्यादा कुछ नहीं, क्योंकि वे जनेऊ का महत्व नहीं समझते हैं।
7.किसी भी धार्मिक कार्य, पूजा-पाठ, यज्ञ आदि करने के पूर्व जनेऊ धारण करना जरूरी है।
8.विवाह तब तक नहीं होता जब तक की जनेऊ धारण नहीं किया जाता है।
कब कब बदलना चाहिए जनेऊ :-
जब यज्ञोपवीत का कोई तार टूट जाए या 6 माह से अधिक समय हो जाए, तो बदल देना चाहिए। खंडित प्रतिमा शरीर पर नहीं रखते। धागे कच्चे और गंदे होने लगें, तो पहले ही बदल देना उचित है।हमारे पांच ज्ञानेद्रिय नाक ,कान ,आंख ,जीभ , त्वचा से प्राप्त ज्ञान से मस्तिष्क मन और विचार बनाता है। जन्म-मरण के सूतक के बाद इसे बदल देने की परम्परा है। जिनके गोद में छोटे बच्चे नहीं हैं, वे महिलाएं भी यज्ञोपवीत संभाल सकती हैं; किन्तु उन्हें हर मास मासिक शौच के बाद उसे बदल देना पड़ता है।
यज्ञोपवीत शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता। साफ करने के लिए उसे कण्ठ में पहने रहकर ही घुमाकर धो लेते हैं। भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित की एक माला जप करने या बदल लेने का नियम है।जनेऊ में चाबी के गुच्छे आदि न बांधें। इसके लिए भिन्न व्यवस्था रखें। बालक जब इन नियमों के पालन करने योग्य हो जाएं, तभी उनका यज्ञोपवीत करना चाहिए।
यज्ञोपवीत यानी जनेऊ धारण करने का मंत्र
ऊॅँ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रम् प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रयं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीत बलमस्तु तेज:।।
जीर्ण यज्ञोपवीत उतारने का मंत्र
एतावद्दिनपर्यन्तं ब्रह्मत्वं धारितं मया।
जीर्णत्वाच्च परित्यागो गच्छ सूत्र यथा सुखम्।
.... क्रमशः.....(4)
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