Thursday, September 30, 2021
कर्म फल भोगना ही पड़ता है डा. राधे श्याम द्विवेदी
1 अक्तूबर विश्व वृद्ध दिवस डा. राधे श्याम द्विवेदी
Monday, September 27, 2021
अंतरराष्ट्रीय पर्यटन दिवस - डॉ० राधेश्याम द्विवेदी
1991 में यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र से शुरुआत :- तरह-तरह के दिवस शायद इसीलिए मनाए जाते हैं कि लोग उस दिन किसी ख़ास मुद्दे पर अच्छी-अच्छी बातें करें, आदर्श-नीति-सिद्धांत वग़ैरह पर ज़ोर दिया जाए। अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस (अंग्रेज़ी: World Press Freedom Day) प्रत्येक वर्ष '3 मई को मनाया जाता है। प्रेस किसी भी समाज का आइना होता है। प्रेस की आज़ादी से यह बात साबित होती है कि उस देश में अभिव्यक्ति की कितनी स्वतंत्रता है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में प्रेस की स्वतंत्रता एक मौलिक जरूरत है। आज हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जहाँ अपनी दुनिया से बाहर निकल कर आसपास घटित होने वाली घटनाओं के बारे में जानने का अधिक वक्त हमारे पास नहीं होता। ऐसे में प्रेस और मीडिया हमारे लिए एक खबर वाहक का काम करती हैं, जो हर सवेरे हमारी टेबल पर गरमा गर्म खबरें परोसती हैं। यही खबरें हमें दुनिया से जोड़े रखती हैं। आज प्रेस दुनिया में खबरें पहुंचाने का सबसे बेहतरीन माध्यम है। शुरुआत 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस' मनाने का निर्णय वर्ष 1991 में यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र के 'जन सूचना विभाग' ने मिलकर किया था। इससे पहले नामीबिया में विन्डंहॉक में हुए एक सम्मेलन में इस बात पर जोर दिया गया था कि प्रेस की आज़ादी को मुख्य रूप से बहुवाद और जनसंचार की आज़ादी की जरूरत के रूप में देखा जाना चाहिए। तब से हर साल '3 मई' को 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वीतंत्रता दिवस' के रूप में मनाया जाता है। प्रेस की आज़ादी 'संयुक्त राष्ट्र महासभा' ने भी '3 मई' को 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वातंत्रता' की घोषणा की थी।
1993 में प्रस्ताव स्वीकार :- यूनेस्को महासम्मेलन के 26वें सत्र में 1993 में इससे संबंधित प्रस्ताव को स्वीकार किया गया था। इस दिन के मनाने का उद्देश्य प्रेस की स्वतंत्रता के विभिन्न प्रकार के उल्लघंनों की गंभीरता के बारे में जानकारी देना है, जैसे- प्रकाशनों की कांट-छांट, उन पर जुर्माना लगाना, प्रकाशन को निलंबित कर देना और बंद कर देना आदि। इनके अलावा पत्रकारों, संपादकों और प्रकाशकों को परेशान किया जाता है और उन पर हमले भी किये जाते हैं। यह दिन प्रेस की आज़ादी को बढ़ावा देने और इसके लिए सार्थक पहल करने तथा दुनिया भर में प्रेस की आज़ादी की स्थिति का आकलन करने का भी दिन है। अधिक व्यावहारिक तरीके से कहा जाए, तो प्रेस की आज़ादी या मीडिया की आज़ादी, विभिन्न इलैक्ट्रोनिक माध्यमों और प्रकाशित सामग्री तथा फ़ोटोग्राफ़ वीडियो आदि के जरिए संचार और अभिव्यक्ति की आज़ादी है। प्रेस की आज़ादी का मुख्य रूप से यही मतलब है कि शासन की तरफ से इसमें कोई दख़लंदाजी न हो, लेकिन संवैधानिक तौर पर और अन्य क़ानूनी प्रावधानों के जरिए भी प्रेस की आज़ादी की रक्षा जरूरी है। मीडिया की आज़ादी का मतलब है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी राय कायम करने और सार्वजनिक तौर पर इसे जाहिर करने का अधिकार है। इस आज़ादी में बिना किसी दख़लंदाजी के अपनी राय कायम करने तथा किसी भी मीडिया के जरिए, चाहे वह देश की सीमाओं से बाहर का मीडिया हो, सूचना और विचार हासिल करने और सूचना देने की आज़ादी शामिल है। इसका उल्लेख मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के 'अनुछेद 19' में किया गया है। 'सूचना संचार प्रौद्योगिकी' तथा सोशल मीडिया के जरिए थोड़े समय के अंदर अधिक से अधिक लोगों तक सभी तरह की महत्वपूर्ण ख़बरें पहुंच जाती हैं। यह समझना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि सोशल मीडिया की सक्रियता से इसका विरोध करने वालों को भी स्वयं को संगठित करने के लिए बढ़ावा मिला है और दुनिया भर के युवा लोग अपनी अभिव्यक्ति के लिए और व्यापक रूप से अपने समुदायों की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए संघर्ष करने लगे हैं। इसके साथ ही यह समझना भी जरूरी है कि मीडिया की आज़ादी बहुत कमज़ोर है। यह भी जानना जरूरी है कि अभी यह सभी की पहुंच से बाहर है। हालांकि मीडिया की सच्ची आज़ादी के लिए माहौल बन रहा है, लेकिन यह भी ठोस वास्तविकता है कि दुनिया में कई लोग ऐसे हैं, जिनकी पहुंच बुनियादी संचार प्रौद्योगिकी तक नहीं है। जैसे-जैसे इंटरनेट पर ख़बरों और रिपोर्टिंग का सिलसिला बढ़ रहा है, ब्लॉग लेखकों सहित और अधिक इंटरनेट पर पत्रकारों को परेशान किया जा रहा है और हमले किये जा रहे हैं। प्रत्येक लोकतांत्रिक और जागरुक देश में मीडिया या प्रेस की भूमिका सबसे अहम रहती है। शासक और सत्तासीन सरकारों का हमेशा यह प्रयत्न रहता है कि वह सूचना के उसी पहलू को जनता के सामने लाएं जो उनके पक्ष में हो ताकि उनके शासन को कोई चुनौती ना दे पाए। ऐसे में प्रेस की स्वतंत्रता पर खतरा होना लाजमी है। यही वजह है कि हर वर्ष 3 मई को प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है जिसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय समुदाय तक यह संदेश पहुंचाना है कि प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे मौलिक अधिकारों में से एक है जिस पर किसी भी प्रकार का अवरोध या बंदिश सहन नहीं की जाएगी वर्तमान हालातों के मद्देनजर यह कहना गलत नहीं होगा कि आज का मनुष्य सामाजिक और राजनैतिक दोनों ही तरह से पहले से कहीं अधिक जागरुक और सचेत हो गया है। वह अपनी जानकारी के दायरे को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील तो है लेकिन समय की कमी होने के कारण वह इस उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता। ऐसे में उसके जीवन में सूचना प्रसारित करने वाले माध्यमों की अहमियत और अधिक बढ़ जाती है।
भारत में प्रेस की स्थिति:- प्रेस की स्वतंत्रता पर अप्रिय बातें करने का रिवाज़ नहीं है लेकिन खरी-खरी बातें तो कभी भी हो सकती हैं। दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में प्रेस को चौथा खंभा माना जाता है, कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को जनता से जोड़ने वाला प्रेस को चौथा खंभा माना जाता है।भारत जैसे विकासशील देशों में मीडिया पर जातिवाद और सम्प्रदायवाद जैसे संकुचित विचारों के ख़िलाफ़ संघर्ष करने और ग़रीबी तथा अन्य सामाजिक बुराइयों के ख़िलाफ़ लड़ाई में लोगों की सहायता करने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, क्योंकि लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग पिछड़ा और अनभिज्ञ है, इसलिये यह और भी जरूरी है कि आधुनिक विचार उन तक पहुंचाए जाएं और उनका पिछड़ापन दूर किया जाए, ताकि वे सजग भारत का हिस्सा बन सकें। इस दृष्टि से मीडिया की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। पत्रकारों को कई सुविधाएँ मिलती हैं जैसे कई जगहों पर आने-जाने की आज़ादी, कार्यक्रमों में बेहतर कुर्सी, टेलीफ़ोन ख़राब होने पर जल्दी ठीक करवाने की व्यवस्था, रेल के आक्षरण के लिए अलग खिड़की वग़ैरह, ताकि वे अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह ठीक से कर सकें। ठीक उसी तरह जैसे सांसदों को टेलीफ़ोन, आवास, मुफ़्त यात्रा आदि की सुविधा दी जाती है। सांसद अपना काम ठीक से नहीं करते तो मीडिया उन पर टिप्पणी करने के लिए आज़ाद है. लेकिन जब मीडिया अपना काम ठीक से न करे तो ? दरअसल, जिन लोगों की ज़िम्मेदारी दूसरों के कामकाज की निगरानी, टीका-टिप्पणी और उस पर फ़ैसला सुनाने की होती है उनकी जवाबदेही कहीं और ज़्यादा हो जाती है। न्यायपालिका और मीडिया इसी श्रेणी में आते हैं। पत्रकारों और जजों की ग़ैर-ज़िम्मेदारी पर चर्चा बहुत कम होती है लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि उनकी ग़लतियों और उनके अपराधों की गंभीरता कम है। पत्रकार भी समाज का ही हिस्सा हैं, समाज में भ्रष्टाचार, बेईमानी और सत्ता के दुरुपयोग की जितनी बीमारियाँ हैं उनसे पत्रकारों के बचे रहने की उम्मीद करना नासमझी है। बीच-बीच में स्टिंग ऑपरेशनों से घबराई विधायिका मीडिया नियमन लागू करने की बात करती है, प्रेस को यह अपनी आज़ादी पर ख़तरा लगता है, पत्रकार कहते हैं कि हम ख़ुद अपना नियमन कर लेंगे। नाज़ुक मसला ये है कि कोई भी पत्रकार बाहर से किसी नियंत्रण को स्वीकार करने को तैयार नहीं होगा, उसे होना भी नहीं चाहिए, स्वतंत्र मीडिया न हो तो उसका कोई अर्थ ही नहीं है. भारत में संविधान के अनुच्छेद 19 (1 ए) में "भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार" का उल्लेख है, लेकिन उसमें शब्द 'प्रेस' का ज़िक्र नहीं है, किंतु उप-खंड (2) के अंतर्गत इस अधिकार पर पाबंदियां लगाई गई हैं। इसके अनुसार भारत की प्रभुसत्ता और अखंडता, राष्ट्र की सुरक्षा, विदेशों के साथ मैत्री संबंधों, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता के संरक्षण, न्यायालय की अवमानना, बदनामी या अपराध के लिए उकसाने जैसे मामलों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदियां लगाई जा सकती हैं।भारत में अक्सर प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर चर्चा होती रहती है। 3 मई को मनाए जाने वाले विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर भारत में भी प्रेस की स्वतंत्रता पर बातचीत होना लाजिमी है। भारत में प्रेस की स्वतंत्रता भारतीय संविधान के अनुच्छेद-19 में भारतीयों को दिए गए अभिव्यक्ति की आजादी के मूल अधिकार से सुनिश्चित होती है। विश्व स्तर पर प्रेस की आजादी को सम्मान देने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस घोषित किया गया, जिसे विश्व प्रेस दिवस के रूप में भी जाना जाता है। यूनेस्को द्वारा 1997 से हर साल 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर गिलेरमो कानो वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम प्राइज भी दिया जाता है। यह पुरस्कार उस व्यक्ति अथवा संस्थान को दिया जाता है जिसने प्रेस की स्वतंत्रता के लिए उल्लेखनीय कार्य किया हो।
सूचना का अधिकार क़ानून :- इस क़ानून में सरकारी सूचना के लिए नागरिक के अनुरोध का निश्चित समय के अंदर जवाब देना बहुत जरूरी है। इस क़ानून के प्रावधानों के अंतर्गत कोई भी नागरिक सार्वजनिक अधिकरण (सरकारी विभाग या राज्य की व्यवस्था) से सूचना के लिए अनुरोध कर सकता है और उसे 30 दिन के अंदर इसका जवाब देना होता है। क़ानून में यह भी कहा गया है कि सरकारी विभाग व्यापक प्रसारण के लिए अपने आँकड़ों तथा दस्तावेज़ों का कम्प्यूटरीकरण करेंगे और कुछ विशेष प्रकार की सूचनाओं को प्रकाशित करेंगे, ताकि नागरिकों को औपचारिक रूप से सूचना न मांगनी पड़े। संसद में 15 जून, 2005 को यह क़ानून पास कर दिया था, जो 13 अक्टूबर, 2005 से पूरी तरह लागू हो गया। संक्षेप में, यह क़ानून प्रत्येक नागरिक को सरकार से सवाल पूछने, या सूचना हासिल करने, किसी सरकारी दस्तावेज़ की प्रति मांगने, किसी सरकारी दस्तावेज़ का निरीक्षण करने, सरकार द्वारा किये गए किसी काम का निरीक्षण करने और सरकारी कार्य में इस्तेमाल सामग्री के नमूने लेने का अधिकार देता है। 'सूचना का अधिकार क़ानून' एक मौलिक मानवाधिकार है, जो मानव विकास के लिए महत्वपूर्ण है तथा अन्य मानवाधिकारों को समझने के लिए पहली जरूरत है। पिछले 7 वर्षों के अनुभव से, जब से यह क़ानून लागू हुआ है, पता चलता है कि सूचना का अधिकार क़ानून आवश्यकता के समय एक मित्र जैसा है, जो आम आदमी के जीवन को आसान और सम्मानजनक बनाता है तथा उसे सफलतापूर्वक जन सेवाओं के लिए अनुरोध करने और इनका उपयोग करने का अधिकार देता है।
श्रद्धांजलि का दिन:- संवाददाताओं को श्रद्धांजलि देने का दिन 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस' प्रेस की स्वतंत्रता का मूल्यांकन, प्रेस की स्वतंत्रता पर बाहरी तत्वों के हमले से बचाव और प्रेस की सेवा करते हुए दिवंगत हुए संवाददाताओं को श्रद्धांजलि देने का दिन है। आज हमारा मीडिया अपना दायित्व ठीक तरीके से नहीं निभा रहा है। कुछ लोगों को छोड़कर श्रद्धांजलि देने का काम भी हमारा मीडिया शायद ही ठीक से कर रहा है। जबकि होना तो ये चाहिए की कम से कम इस दिन तो सारे देश का मीडिया एकजुट होकर इस दिन की सार्थकता को अंजाम देता। कम से कम आज के दिन तो ख़बरों में तड़का लगाने से परहेज करता, किंतु ये भी नहीं होता। ऐसा होने पर टी आर पी पर असर पड़ सकता है, जो की हरगिज बर्दास्त नहीं है। जनता का आइना हालांकि प्रेस जहाँ एक तरफ़ जनता का आइना होता है, वहीं दूसरी ओर प्रेस जनता को गुमराह करने में भी सक्षम होता है इसीलिए प्रेस पर नियंत्रण रखने के लिए हर देश में अपने कुछ नियम और संगठन होते हैं, जो प्रेस को एक दायरे में रहकर काम करते रहने की याद दिलाते हैं। प्रेस की आज़ादी को छीनना भी देश की आज़ादी को छीनने की तरह ही होता है। चीन, जापान, जर्मनी, पाकिस्तान जैसे देशों में प्रेस को पूर्णत: आज़ादी नहीं है। यहां की प्रेस पर सरकार का सीधा नियंत्रण है। इस लिहाज से हमारा भारत उनसे ठीक है। आज मीडिया के किसी भी अंग की बात कर लीजिये, हर जगह दाव-पेंच का असर है। खबर से ज्यादा आज खबर देने वाले का महत्त्व हो चला है। लेख से ज्यादा लेख लिखने वाले का महत्तव हो गया है। पक्षपात होना मीडिया में भी कोई बड़ी बात नहीं है, जो लोग मीडिया से जुड़ते हैं, अधिकांश का उद्देश्य जन जागरूकता फैलाना न होकर अपनी धाक जमाना ही अधिक होता हैं। कुछ लोग खुद को स्थापित करने लिए भी मीडिया का रास्ता चुनते हैं। कुछ लोग चंद पत्र-पत्रिकाओं में लिखकर अपने समाज के प्रति अपने दायित्व की इतिश्री कर लेते हैं। छदम नाम से भी मीडिया में लोगों के आने का प्रचलन बढ़ा है। सत्य को स्वीकारना इतना आसान नहीं होता है और इसीलिए कुछ लोग सत्य उद्घाटित करने वाले से बैर रखते हैं। लेकिन फिर कुछ लोग मीडिया में अपना सब कुछ दाव पर लगाकर भी इस रास्ते को ही चुनते हैं और अफ़सोस की फिर भी उनकी वह पूछ नहीं होती, जिसके की वे हक़दार होते हैं।
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Tuesday, September 21, 2021
नोवा हॉस्पिटल बस्ती की एक और उपलब्धि
नोवा हॉस्पिटल का तृतीय निःशुल्क चिकित्सा शिविर सम्पन्न
नोवा हॉस्पिटल का द्वितीय निःशुल्क चिकित्सा शिविर सम्पन्न
बस्ती जिले के ग्रामीण क्षेत्र दुबौली दूबे में एक विशाल चिकित्सा शिविर आयोजित किया गया। सबसे अधिक भीड़ इसी गांव के मूल निवासी तथा महर्षि वशिष्ठ राजकीय मेडिकल कालेज बस्ती के सह प्रोफेसर डॉ सौरभ द्विवेदी, इसी संस्था में कार्यरत उनकी पत्नी डाक्टर तनु मिश्रा तथा हरैया जिला बस्ती सीएचसी पर कार्यरत डाक्टर उमेश कुमार उपाध्याय की लाइन में देखा गया। ये तीनों नोवा हॉस्पिटल और एपेक्स डायग्नोस्टिक कैली रोड बस्ती का प्रतिनिधित्व भी कर रहे थे। इस टीम ने 200 से अधिक मरीजों का निशुल्क इलाज किया था। भीनी बरसात की खुशबू में सभी व्यवस्थाएं बहुत ही चुस्त और दुरुस्त थीं। कार्यक्रम में भाग लेने वाले संबंधित जनों को भाजपा के जिला अध्यक्ष श्री महेश शुक्ला द्वारा पुरस्कृत और सम्मानित भी किया गया था। यह गांव 26.81अक्षांश और 83.82 देशांतर के मध्य स्थित है।यह बस्ती जिले के कप्तानगंज विकास खंड के 222 ग्राम पंचायतों में पठखौली राजा पंचायत का एक विकसित गांव है। इस पंचायत में 190 घर 1114 जन संख्या 587 पुरुष 527 महिला तथा 66 प्रतिशत साक्षरता वाला है।
नोवा हॉस्पिटल बस्ती का प्रथम निःशुल्क चिकित्सा शिविर सम्पन्न
अस्थि रोग, मानव हड्डियों को प्रभावित करने वाली कोई भी बीमारी या चोट होती है। अस्थि रोग या हड्डियों के रोग और चोटें मानव कंकाल प्रणाली के असामान्यताओं के प्रमुख कारण हैं। हालांकि शारीरिक चोट, फ्रैक्चर का कारण बनती है, यह चोट बीमारी का रूप ले लेती है और इंसान पर हावी हो जाती है। फ्रैक्चर हड्डियों की बीमारी के कई सामान्य कारणों में से एक है। सुमही कुशी नगर के ग्रामीण क्षेत्र के इस शिविर मेंमें 60 लाभार्थियों ने अपना चेकअप करवाते हुए दवाएं प्राप्त किया था।सुमही खुर्द उत्तर प्रदेश के कुशी नगर जिले के ग्रामीण इलाके में फाजिल नजर विकास खंड के 125 गांवों में एक गांव के रुप में स्थित है। 107 घर वाले इस गांव की जन संख्या 842है। यहां काम करने वाले 199 और 643 बेरोजगार लोग रहते हैं
Monday, September 20, 2021
माया महाठगनी नही सृष्टि की संवाहिका भी
माया महाठगनी नही सृष्टि की संवाहिका भी
योगमाया किसे कहा गया है :-
द्वापर युग में जब भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लिया, ठीक उनके पहले मां दुर्गा ने योग माया के रूप में जन्म लिया था। मां दुर्गा का यह दिव्य अवतार कुछ समय के लिए था। योगमाया ने यशोदा के गर्भ से जन्म लिया था। इनके जन्म के समय यशोदा गहरी नींद में थीं और उन्होंने इस बालिका को देखा भी नहीं था। गर्गपुराण के अनुसार देवकी के सप्तम गर्भ को योगमाया ने ही संकर्षण कर रोहिणी के गर्भ में पहुँचाया था, जिससे बलराम का जन्म हुआ था। इन्हीं योगमाया ने कृष्ण के साथ योगविद्या और महाविद्या बनकर कंस, चाणूर और मुष्टिक आदि शक्तिशाली असुरों का संहार कराया, जो कंस के प्रमुख मल्ल माने जाते हैं।।यह कथा प्रायः सब जानते हैं कि प्राचीन काल में महाबली कंस ने अपनी चचेरी बहन देवकी का विवाह बड़ी धूमधाम से वसुदेव के साथ किया। बहन के विदाई के समय प्रेमवश स्वयं रथ के घोड़ों को हांककर पहुंचाने जा रहा था। उसी समय आकाशवाणी हुई- हे कंस जिस बहन को तू इतने प्रेम पूर्वक पहुंचाने जा रहा है, उसी के आठवे पुत्र के हाथों तेरा वध होगा। आकाशवाणी सुनते ही कंस ने रथ हो रोक दिया। उसकी आंखें क्रोध से रक्त वर्ण (लाल) हो गईं। उसने देवकी को मारने के लिए तत्क्षण म्यान से अपनी तलवार खींच ली। देवकी भय से थर-थर कांपने लगी।
तब वसुदेव ने कंस को समझाते हुए कहा- हे मित्र कंस! इस अबला नारी का वध करने से तुम अपयश के भागी बनोगे। आकाशवाणी के अनुसार तुम्हें इसके आठवे पुत्र से भय है। मैं तुम्हे विश्वास दिलाता हूं कि देवकी का आठवां पुत्र जब जन्म लेगा उसे मैं तुम्हे सौंप दूंगा।कंस को मालूम था कि वसुदेव कभी असत्य नहीं बोलते। उसने देवकी का वध नहीं किया। उसी क्षण देवर्षि नारद ने जब आकर अनेक प्रकार से कंस को समझाते हुए पृथ्वी पर लकीरें खींचकर बताया कि रेखाओं में से कोई भी रेखा आठवीं हो सकती है।इसी प्रकार देवी का कोई भी पुत्र आठवां हो सकता है।
मूढ़मति कंस ने नारद के वचनों को सुनकर वसुदेव और देवकी को कारागृह में बंद कर दिया और कड़ा पहरा लगा दिया। देवकी के गर्भ से जब प्रथम पुत्र की उत्पत्ति हुई तो पहरेदारों ने जाकर कंस को सूचना दी। कंस उसी समय आया और बालक को ले जाकर पत्थर की शिला पर पटककर मार डाला। इस तरह एक-एक कर उसने देवकी और वसुदेव के छह बालकों की हत्या कर डाली। जब देवकी का सातवां गर्भ हुआ तो भगवती योगमाया ने संकर्षण शक्ति से उस गर्भ को खींचकर गोकुल में निवास कर रही रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया। वह बालक पैदा होकर बादमे ‘बलराम’ के नाम से जगत विख्यात हुआ। तदुपरान्त जब आठवें गर्भ के रूप में भगवान श्री कृष्ण जी देवकी के गर्भ में प्रकट हुए, उधर गोकुल में नन्दबाबा के घर भगवती योगमाया कन्या के रूप में उत्पन्न हुई। भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के समय कारागृह के सभी पहरेदार योगमाया के वशीभूत होकर गहरी निद्रा में सो गए। वसुदेव की हथकड़ी बेडिय़ां स्वत: खुल गईं। कारागार के दरवाजे अपने आप खुल गये। जब वे बालक कृष्ण को लेकर काली घटाटोप काली अंधियारी रात में यमुना पार करके गोकुल पहुंचे और कृष्ण को यशोदा के पास सुलाकर उनके पास सोई कन्या को लेकर लौट आए जो कि उसी समय उत्पन्न हुई थी। जिसका ज्ञान यशोदा को भी नहीं था।
कारागार में पहुंचने पर वसुदेव की हथकड़ी बेडिय़ां पुन: अपने आप लग गईं और जो भगवती योगमाया की दिव्य माया थी। वह कन्या जोर-जोर से रोने लगी। बालिका के रोने की आवाज सुनकर सभी पहरेदार जग गए। उसी क्षण वे जाकर कंस का सूचना दी। यह सुनकर कि देवकी के गर्भ से कन्या उत्पन्न हुई है। वह भागा हुआ आया। तब देवकी कहने लगी हे भैया इसे मत मारो यह तो कन्या है । मृत्यु भय से आक्रान्त कंस ने देवकी की एक न सुनी और कन्या को उसके हाथ से छीन लिया।।तत्पश्चात उसने उस कन्या को पत्थर पर पटकने के लिए हाथ ऊपर उठाया। आकस्मात वह कन्या उसके हाथ से छूट गई और आकाश में जाकर अष्टभुजी देवी रूप धारण कर अट्टहास करती हुई बोली- अरे मूर्ख! तुझे मारने वाला इस धरती पर जन्म ले चुका है। यह कहकर वह देवी अंतरध्यान हो गयी। वहीं देवी योगमाया के नाम से जगत में विख्यात हुई है ।
विंध्यवासिनी या योगमाया माँ दुर्गा के एक परोपकारी स्वरूप का नाम है। उनकी पहचान आदि पराशक्ति के रूप में की जाती है। उनका मंदिर उत्तर प्रदेश में गंगा नदी के किनारे मिर्ज़ापुर से 8 किमी दूर विंध्याचल में स्थित है।माँ विन्ध्यासिनी त्रिकोण यन्त्र पर स्थित तीन रूपों को धारण करती हैं जो की महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली हैं। मान्यता अनुसार सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी इस क्षेत्र का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता है।
भगवती विंध्यवासिनी आद्या महाशक्ति हैं। विन्ध्याचल सदा से उनका निवास-स्थान रहा है। जगदम्बा की नित्य उपस्थिति ने विंध्यगिरिको जाग्रत शक्तिपीठ बना दिया है। महाभारत के विराट पर्व में धर्मराज युधिष्ठिर देवी की स्तुति करते हुए कहते हैं- विन्ध्येचैवनग-श्रेष्ठे तवस्थानंहि शाश्वतम्। हे माता! पर्वतों में श्रेष्ठ विंध्याचल पर आप सदैव विराजमान रहती हैं। पद्मपुराण में विंध्याचल-निवासिनी इन महाशक्ति को विंध्यवासिनी के नाम से संबंधित किया गया है।
श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में कथा आती है, सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने जब सबसे पहले अपने मन से स्वायम्भुवमनु और शतरूपा को उत्पन्न किया। तब विवाह करने के उपरान्त स्वायम्भुव मनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया। उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया। वर देने के बाद महादेवी विंध्याचलपर्वत पर चली गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीषसे हुआ।मार्कण्डेयपुराण के अन्तर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती (देवी-माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर भगवती उन्हें आश्वस्त करते हुए कहती हैं, देवताओं वैवस्वतमन्वन्तर के अट्ठाइसवें युग में शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो महादैत्य उत्पन्न होंगे। तब मैं नन्दगोप के घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूँगी।
शास्त्रों में मां विंध्यवासिनी के ऐतिहासिक महात्म्य का अलग-अलग वर्णन मिलता है। शिव पुराण में मां विंध्यवासिनी को सती माना गया है तो श्रीमद्भागवत में नंदजा देवी (नंद बाबा की पुत्री) कहा गया है। मां के अन्य नाम कृष्णानुजा, वनदुर्गा भी शास्त्रों में वर्णित हैं । इस महाशक्तिपीठ में वैदिक तथा वाम मार्ग विधि से पूजन होता है। शास्त्रों में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि आदिशक्ति देवी कहीं भी पूर्णरूप में विराजमान नहीं हैं, विंध्याचल ही ऐसा स्थान है जहां देवी के पूरे विग्रह के दर्शन होते हैं। शास्त्रों के अनुसार, अन्य शक्तिपीठों में देवी के अलग-अलग अंगों की प्रतीक रूप में पूजा होती है।सम्भवत:पूर्वकाल में विंध्य-क्षेत्रमें घना जंगल होने के कारण ही भगवती विन्ध्यवासिनीका वनदुर्गा नाम पडा है।
Friday, September 10, 2021
दुर्लभ - जटिल शंख लिपि में गुप्त कालीन अभिलेख मिला डाक्टर राधे श्याम द्विवेदी
एटा का एतिहासिक पुरास्थल
एटा के एतिहासिक और भारत सरकार द्वारा संरक्षित बिलसड़ पुरास्थल है जहां से दुर्लभ और जटिल शंख लिपि में गुप्त कालीन अभिलेख मिला है। बिलसड भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के एटा जिले के अलीगंज प्रखंड का एक गाँव है । यह जिला मुख्यालय एटा से पूर्व की ओर 62 किमी दूर स्थित है। यह स्थान एटा जिले और फर्रुखाबाद जिले की सीमा में है।
कुमार गुप्त प्रथम का सबसे प्राचीन अभिलेख 415-16 ई. के लाल बलुआ पत्थर के अखंड बिलासड़ पर मिला था। बिलसड उत्तर प्रदेश के एटा जिले में तीन भागों से मिलकर बना एक गाँव है। ऐसा प्रतीत होता है कि बिलसड में दो उत्कीर्ण स्तंभों का एक मंदिर से सीधा संबंध था, जो अब बर्बाद हो चुका है। शिलालेख का उद्देश्य कार्तिकेय के मंदिर की सिद्धि , उसकी प्रतोली और एक सत्र की स्थापना को रिकॉर्ड करना है । यह गुप्त शासक की वंशावली भी देता है ।बिलसड़ में गुप्त सम्राट कुमारगुप्त के शासन काल 96 गुप्तसंवत का एक स्तंभ-लेख प्राप्त हुआ था। जिसमें ध्रुवशर्मन द्वारा, स्वामी महासेन (कार्तिकेय) के मंदिर के विषय में किए गए कुछ पुण्य कार्यों का विवरण है- सीढ़ियों सहित प्रतोली या प्रवेशद्वार का निर्माण, सत्र या दान-शाला की स्थापना और अभिलेख वाले स्तंभ का निर्माण किया गया था।।संभवत: चीनी यात्री युवानच्वांग ने इस स्थान का 'विलोशना' या 'विलासना' नाम से उल्लेख किया है। जो इस स्थान पर 642 या 643 ई. में आया था।
दुर्लभ और जटिल शंख लिपि:-
शंख लिपि प्राचीन लिपियों में से एक है, जो आज भी एक अनसुलझी पहेली बनी हुई है। इनमें लिखित अभिलेख आज तक नहीं पढ़े जा सके हैं। भारत तथा जावा और बोर्निया में प्राप्त बहुत से शिलालेख शंख लिपि में हैं। इस लिपि के वर्ण 'शंख' से मिलते-जुलते कलात्मक होते हैं। इसीलिए इसे शंख लिपि कहते हैं। शंख लिपि को विराटनगर से संबंधित माना जाता है। उदयगिरि की गुफाओं के शिलालेखों और स्तंभों पर यह लिपि खुदी हुई है। इस लिपि के अक्षरों की आकृति शंख के आकार की है। प्रत्येक अक्षर इस प्रकार लिखा गया है कि उससे शंखाकृति उभरकर सामने दिखाई पड़ती है। इसलिए इसे शंख लिपि कहा जाने लगा। राजस्थान के जयपुर में स्थित बिजार अथवा बीजक की पहाड़ियों में बड़ी संख्या में ऐसी कंदराएं हैं, जिनमें एक रहस्यमय लिपि उत्कीर्ण है। इस लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। शंख लिपि के नाम से जानी जाने वाली इस लिपि के लेख बड़ी संख्या में बीजक की पहाड़ी, भीम की डूंगरी तथा गणेश डूंगरी में बनी गुफाओं में अंकित हैं। इन लेखों के अक्षर शंख की आकृति के हैं। वैज्ञानिकों को इस लिपि के अभिलेख भारतीय उपमहाद्वीप के भारत, इण्डोनेशिया, जावा तथा बोर्निया आदि देशों से मिले हैं, जिनसे यह धारणा बनती है कि जिस तरह किसी कालखंड में सिंधु लिपि जानने वाली सभ्यता भारतीय उपमहाद्वीप में विकसित हुई थी, उसी तरह शंख लिपि जानने वाली कोई सभ्यता किसी काल खण्ड में भारतीय उपमहाद्वीप में फली-फूली। ये लोग कौन थे? इनका कालखंड क्या था? आदि प्रश्नों का उत्तर अभी तक नहीं दिया जा सका है। भारत में शंख लिपि के अभिलेख उत्तर में जम्मू- कश्मीर के अखनूर से लेकर दक्षिण में सुदूर कर्नाटक तथा पश्चिमी बंगाल के सुसुनिया से लेकर पश्चिम गुजरात के जूनागढ़ तक उपलब्ध हैं । ये अभिलेख इस लिपि के अब तक ज्ञात विशालतम भण्डार हैं। राजगीर की प्रसिद्ध सोनभंडा की गुफाओं में लगे दरवाजों की प्रस्तर चौखटों पर एवं भित्तियों पर शंख लिपि में कुछ संदेश लिखे हैं, जिन्हें पढ़ा नहीं जा सका है। बिहार में मुण्डेश्वरी मंदिर तथा अन्य कई स्थानों पर यह लिपि देखने को मिलती है। मध्य प्रदेश में उदयागिरि की गुफाओं में, महाराष्ट्र में मनसर से तथा बंगाल एवं कर्नाटक से भी इस लिपि के लेख मिले हैं। इस लिपि के लेख मंदिरों एवं चैत्यों के भीतर, शैल गुफाओं में तथा स्वतंत्र रूप से बने स्तम्भों पर उत्कीर्ण मिलते हैं।
आगरा सर्किल की नवीन उपलब्धि:-
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण आगरा सर्किल के अधिकारियों की टीम ने एटा के बिलसड़ में वैज्ञानिक ढंग से उत्खनन में गुप्त कालीन 5वीं सदी के मंदिर के अवशेष खोज निकाले हैं। लाल बलुई पत्थर की मंदिर की सीढ़ियां और शंख लिपि में लेख प्राप्त हुआ है, जिस पर सम्राट कुमार गुप्त के लिए श्री महेंद्रादित्य लिखा हुआ है। बिलसड़ के टीले पहले से ही भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित साइट है, लेकिन वैज्ञानिक ढंग से उत्खनन में मिले इन अवशेषों से बिलसड़ का समृद्धशाली इतिहास सामने आ पाएगा। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण आगरा सर्किल के अधीक्षण पुरातत्वविद वसंत कुमार स्वर्णकार के नेतृत्व में पुरातत्वविदों की टीम ने गुप्तकालीन 5वीं सदी के अवशेषों को जमीन के नीचे से निकाला है। यहां लाल पत्थर का फर्श और पांच सीढ़ियां मिली हैं, जो मंदिर की हैं। गुप्तकालीन सम्राट कुमार गुप्त ने 415 ई. से 455 ई. तक शासन किया था। उसी दौरान उन्हें श्री महेंद्रादित्य की उपाधि दी गई थी। अति प्राचीन शंख लिपि में इस उत्खनन के दौरान शिलालेख पर यही श्री महेंद्रादित्य लिखा हुआ मिला है।
पुरातत्वविदों के मुताबिक बिलसड़ में और भी वृहद इतिहास जमीन में दबा हुआ है। साइंटिफिक क्लीयरेंस में टीले के आसपास और भी अवशेष मिल सकते हैं। इससे पहले 1960 के दशक में बिलसड़ में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने उत्खनन किया था, जिसमें लाल बलुई पत्थर के स्तंभ और उस पर लेख मिले थे।
Tuesday, September 7, 2021
हमारे परिवार के तीन शिक्षक गुरु
हमारे परिवार के तीन शिक्षक गुरु हुए हैं इनमे प्रथम मोहन प्यारे द्विवेदी "मोहन" द्वितीय डाक्टर मुनि लाल उपाध्याय "सरस" और तृतीय पंडित घन श्याम दूबे जी हुए । उनके कुशल निर्देशन मे आज एक सम्मान जनक स्थिति में अपने परिवार का पालन पोषण और शिक्षा दीक्षा दे सके हैं। आज शिक्षक दिवस पर प्रथम दो स्वर्गीय आत्माओं को नमन करते हैं और उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। तीसरे हमारे अग्रज भ्राता का आशीर्वाद हम अपने दिन ब दिन के अपने जीवन में अनुभव करते हैं।
1.मोहन प्यारे द्विवेदी "मोहन"
सुकवि आचार्य पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी "मोहन" एक सुप्रसिद्ध आशु कवि थे। उन्होंने प्राइमरी विद्यालय दुबौली दूबे और करचोलिया का निर्माण कराया। इस क्षेत्र में शिक्षा की पहली किरण इसी संस्था के माध्यम से फैली थी। पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी का जन्म संवत 1966 विक्रमी (1 अप्रॅल 1909 ई.) में उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िला के हर्रैया तहसील के कप्तानगंज विकास खण्ड के दुबौली दूबे नामक गांव मे एक कुलीन परिवार में हुआ था। पंडित जी ने कप्तानगंज के प्राइमरी विद्यालय में प्राइमरी शिक्षा तथा हर्रैया से मिडिल स्कूल में मिडिल कक्षाओं की शिक्षा प्राप्त की। बाद में संस्कृत पाठशाला विष्णुपुरा से संस्कृत विश्वविद्यालय की प्रथमा तथा संस्कृत पाठशाला सोनहा से मध्यमा की पढ़ाई पूरी किया था।
द्विवेदी जी परिवार का पालन पोषण तथा शिक्षा के लिए लखनऊ चले गये थे। उन्होंने छोटी मोटी नौकरी करके अपने बच्चों का पालन पोषण किया था। पंडित जी ट्यूशन पढ़ाकर शहर का खर्चा चलाते थे। पंडित जी ने लखनऊ के प्रसिद्ध डी. ए. वी. कालेज में दो वर्षों तक अध्यापन भी किया था। घर की समस्याएँ बढ़ती देख उन्हें लखनऊ को छोड़ना पड़ा। गांव आकर पंडित जी अपने गांव दुबौली दूबे में एक प्राथमिक विद्यालय खोला जिसका स्थानीय स्तर पर विरोध होने से उसे करचोलिया स्थानतरित करवा लिया था।
2.डाक्टर मुनि लाल उपाध्याय सरस
उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के सदर तहसील के बहादुर पुर बलाक में नगर क्षेत्र में खड़ौवा खुर्द नामक गांव के आस पास इलाके में नगर राज्य में गौतम क्षत्रियों के पुरोहित के रूप में भारद्वाज गोत्रीय में इस वंश के पूर्वजों का आगमन के हुआ था नगर के राजा उदय प्रतापसिंह के समकालीन उपाध्याय कुल के पूर्वज लक्ष्मन दत्त एक फौजी अफसर थे।इसी कुल परम्परा में सरस जी के पिता पं. केदार नाथ उपाध्याय का जन्म हुआ था बाद में डा.मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ जी का जन्म 10.04.1942 ई. में सीतारामपुर में श्री नाथ उपाध्याय के परिवार में हुआ डा. सरस 1 जुलाई 1963 से किसान इन्टरकालेज मरहा,कटया बस्ती में सहायक अध्यापक के रूप में पहली नियुक्ति पाये थे वह जून 1965 तक अध्यापन किये थे इसी बीच मार्च1965 में नगर बाजार में संभ्रान्त जनों की एक बैठक हुई और नगर बाजार में एक जनता माध्यमिक विद्यालय की स्थापना श्री मोहरनाथ पाण्डेय के प्रबंधकत्व में हुआ था ।डा. सरस जुलाई 1965 से इस विद्यालय के संस्थापक प्रधान अध्यापक हुए 1965 से 2006 तक जनता उच्चतर माध्यमिक विद्यालय नगर बाजार बस्ती आजीवन प्रधानाचार्य पद के उत्तरदायित्व का निर्वहन भी किये।अध्यापन के साथ ही साथ सरस जी ने हिन्दी, संस्कृत, मध्यकालीन इतिहास, प्राचीन इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विषय से एम. ए. करने के बाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का साहित्यरत्न, तथा सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी का साहित्याचार्य उपाधि भी प्राप्त किये थेवे अच्छे विद्वान कवि , शिक्षा जगत के एक महान हस्ती थे उन्हें राष्ट्रपति द्वारा दिनांक 5.9.2002 को वर्ष 2001 का शिक्षक सम्मान भी मिल चुका है। उनकी लगभग 4 दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हुई है। उन्होंने 'बाल त्रिशूल' विधा का प्रवर्तन किया।वह बाल पत्रिका ' बालसेतु' (मासिक हिंदी बालपत्र);का संपादन औरप्रकाशन किया. वे बाल साहित्यकारों के लिए भी एक सेतु जैसे थे .अपने खर्चे पर बस्ती में बाल साहित्यकार सम्मलेन किया करते थे.बहुत मिलनसार और सह्रदय इंसान थे ।वह जून 2006 तक अपने पद पर रहकर लगभग 42 साल तक शिक्षा जगत जे जुड़े रहेअगौना कलवारी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल स्मारक व्याख्यानमाला, कविसम्मेलन तथा कन्याओं के विद्यालय को खुलवाने में उनकी महती भूमिका रही हैसेवामुक्त होने के बाद वह अयोध्या केनयेघाट स्थित परिक्रमा मार्ग पर केदार आश्रम बनवाकर रहने लगे। उनका जीवन एक बानप्रस्थी जैसा हो गया था और वह निरन्तर भगवत् नाम व चर्चा से जुड़े रहे।70 वर्षीया डा. सरस की मृत्यु 31 मार्च 2012 को लखनऊ के बलरामपुर जिला चिकित्सालय में हुई थी। 1 अप्रैल 2012 को राम नवमी के दिन सरयू के पावन तट पर उनकी अन्त्येठि सम्पन्न हुई थी । उनकी मृत्यु से शिक्षा तथा साहित्य जगत में एक बहुत ही अपूर्णनीय क्षति हुई थी।
मैंउनके प्रखर व्यक्तित्व का श्रद्धा के साथ स्मरण करता हूं। श्रद्धेय सरस जी के 80वें जयन्ती के पावन अवसर पर10 अप्रैल 2021को डा. सरसजी का दौहित्र डा.सौरभ द्विवेदी ने महर्षि वशिष्ठ चिकित्या महाविद्यालय बस्ती में सीनियर रेजिडेन्ट के रुप में अपना योगदान ज्वानिंग दिया है और प्रथम दिन ही एक दुष्कर शल्य चिकित्सा करके अपने वरिष्ठों को प्रभावित किया है। साथ ही नोवा हॉस्पिटल के माध्यम से आम जन मानस की सेवा में लगे हैं।
3 . पंडित घन श्याम दूबे
उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िला के हर्रैया तहसील के कप्तानगंज विकास खंड के दुबौली दूबे गांव के पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी जी के एक कुलीन परिवार में पंडित घन श्याम दूबे जी का जन्म 24अप्रैल 1954ई में हुआ था। प्राइमरी शिक्षा प्राइमरी पाठशाला करचोलिया, जूनियर शिक्षा फैजाबाद जीआईसी में हाई स्कूल शिक्षा गाजीपुर सिटी जीआईसी में इंटर शिक्षा किसान इंटर कालेज मरहा कटया बस्ती बी ए जौनपुर के टीडी कालेज और फैज़ाबाद के साकेत कालेज से, एम ए और पीजी डीपीए की डिग्री गोरखपुर विश्व विद्यालय से तथा बीएड डिग्री किसान डिग्री कालेज बहराइच में हुआ था। आप जनता उच्चतर माध्यमिक नगर बाजार बस्ती में 1979 से 2016 तक सहायक अध्यापक के रूप में अपनी सेवा प्रदान की थी।
Saturday, September 4, 2021
भाव - - - - प्रवाह: डाक्टर राधे श्याम द्विवेदी
Thursday, September 2, 2021
माया महा ठगनी हम जानी।
मेरी भगिनी का नाम मेरे पिता जी ने माया क्यों रखा था? यह हम नहीं जानते हैं। हां उनके द्वारा बार बार माया महा ठगनी हम जानी ,कहने को हम जरुर असामान्य मानते थे। इसे उनका भगिनी को दिया जाने वाला लाड प्यार भी मानते थे। चूंकि अब जब भगवान ने पिता जी तरह मेरी भगिनी को हम लोगों से छीन कर अपने श्री चरणों में स्थान दे दिया है तो कबीरदास जी के इस वचन की सत्यता परखने का बिचार आया है। सर्व प्रथम हम कबीरदास जी के मूल पद को उद्धृत कर रहे है । तत्पश्चात उस पद के उद्देश्य परअपना विचार करेंगे।
माया महा ठगनी हम जानी।
तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले मधुरे बानी।।
केसव के कमला वे बैठी शिव के भवन भवानी।।
पंडा के मूरत वे बैठीं तीरथ में भई पानी।।
योगी के योगन वे बैठी राजा के घर रानी।
काहू के हीरा वे बैठी काहू के कौड़ी कानी।।
भगतन की भगतिन वे बैठी ब्रह्मा के ब्रह्माणी।।
कहे कबीर सुनो भई साधो यह सब अकथ कहानी।
भावार्थ:-माया है क्या ? जो अभी है और अभी नहीं है ,नित बदलती रहती है हमारे शरीर की तरह ,जो म्यूटेबिल है वह माया है। जो सत्य भी नहीं है असत्य भी नहीं है और यह दोनों भी नहीं है ,वह माया है।
जगत को मिथ्या कहा गया है जगत मिथ्या नहीं है ,उसके साथ हमारा लेन देन है ट्रांजेक्शन है वह मिथ्या कैसे हो सकता है। जगत स्वयं परमात्मा की अभिव्यक्ति है। उससे अलग नहीं है।
माया परमात्मा की शक्ति है लेकिन जीव को विमोहित किये रहती है। माया को ही प्रकृति (त्रिगुणात्मक प्रकृति , सतो -रजो- तमो गुणी सृष्टि )कहा गया है।
ईश्वर , जीव और माया अनादि हैं। जीव माया के अधीन है। जीव और माया दोनों ईश्वर के अधीन है। माया से हमारे विमोहित होने का कारण हमारा अहंकार है। हम तो कृत हैं परमात्मा की औरअपने को कर्ता मानने बूझने लगते है। हम न कर्ता हैं न भोक्ता ,भुक्त हैं। कर्ता प्रकृति के तीनों गुण हैं हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ अपने विषयों में आसक्त हो जाती हैं। हम आनंद को बाहर ढूंढने लगते हैं।जबकि आनंद तो हम स्वयं है। आनंद अंदर की यात्रा है हम इसे बाहर ढूंढ रहे हैं। यही हमारे आत्म -विमोह का कारण है। जबकि सृष्टि भी कृत है और हम भी इससे जुदा नहीं हैं । माया के वशीभूत समस्त सृष्टि है और ब्रह्म से प्रेरित माया सब को अपने जाल में फंसाकर रखता है। कबीरदास जी को इसका सत्य पता चल गया था । वह जगत को आगाह किए फिरभी मानव चेतना उसे अंगीकार करने में हिचक दिखा रहा है।