Thursday, November 6, 2025

कालीखोह मंदिर, विंध्याचल: आम श्रद्धालुओं से होता जा रहा दूर आचार्य डॉ.राधेश्याम द्विवेदी

विंध्य पर्वत पर स्थित मां विंध्यवासिनी का मंदिर देश के 51 शक्तिपीठों में से एक है। यहां पर माता अपने तीन स्वरूपों में विराजमान हैं। शक्ति आराधना के लिए विंध्य पर्वत पौराणिक काल से ही प्रसिद्ध है। यहां पर महालक्ष्मी के रूप में मां विंध्यवासिनी मां , महाकाली के रूप में मां काली खोह की देवी और महासरस्वती के रूप में मां अष्टभुजा देवी विराजमान हैं। यही कारण है कि इसे महा शक्तियों का त्रिकोण भी कहा जाता है, जो श्रद्धालु यहां मां से कोई कामना करता है, मां उसे जरूर पूरा करती हैं। 
        काली खोह मंदिर उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में विंध्याचल का एक प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर विंध्य पर्वत श्रृंखला के बीच में स्थित है और घने जंगलों से घिरा हुआ है, जो इसे एक रहस्यमय आकर्षण देता है। यह मंदिर, विंध्यवासिनी मंदिर से लगभग 2 किमी दूर वनक्षेत्र में काफी एकांत और भीड़-भाड़ से मुक्त क्षेत्र में स्थित है ।
स्वयंभू मां कालिका
यह मंदिर देवी काली को समर्पित है, जिन्हें बुराई का नाश करने वाली और अपने भक्तों की रक्षक माना जाता है। मंदिर परिसर एक चट्टान की गुफा से बना है। बाद में इसे मन्दिर के रूप में रूपांतरित किया गया है। माना जाता है कि यह लगभग 5000 साल पुराना स्थल है। कहा जाता है की रक्तबीज को मरने के बाद माँ काली इसी गुफा में आई थी। काली खोह में माँ काली की ऐसी प्रतिमा के दर्शन होते है जो पूरी दुनिया में और कही नहीं है। माँ यहाँ आकाश की ओर देखते हुए खेचरी मुद्रा में दर्शन देती है और भक्तो के दुखो का निवारण करती है।
माँ काली की मूर्ति स्वयंभू है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह अत्यंत पवित्र और शक्तिशाली है। यह मूर्ति गुफा के अंदर स्वाभाविक रूप से विकसित हुई है। 
शिवजी पर चरण पड़ने से शर्मिन्दित 
महाशक्ति माँ काली राक्षस रक्तबीज के संहार करते समय माँ काली विकराल रूप धारण कर ली थी उनको शांत करने हेतु शिव जी युद्ध भूमि में उनके सामने लेट गये थे। जब माँ काली का चरण शिव जी पर पड़ा तो लज्जावश पहाडियों के खोह में छुप गयी। इस कारण से ये स्थान काली खोह के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
      मंदिर में रहस्य और आध्यात्मिकता का एक आभा मंडल है, जो पूरे देश से भक्तों और आगंतुकों को आकर्षित करता है। काली खोह मंदिर इस क्षेत्र के सबसे प्राचीन और पूजनीय मंदिरों में से एक है और स्थानीय लोगों के दिलों में एक विशेष स्थान रखता है। 
देव दुर्दशा से कुपित हो काले रंग का वरण 
जब देवता दैत्यों से भयभीत हो रहे थे, तब उन्होंने भगवती पार्वती की स्तुति की। यह करुण कथा सुनकर वे अत्यंत क्रोधित हो गईं। परिणाम स्वरूप माता का रंग काला पड़ गया। इसी कारण भगवती माँ काली, चंडी, चामुंडा और चंडिका आदि नामों से प्रसिद्ध हुईं। 
सती का कंचुक गिरने वाला शक्तिपीठ
पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब देवी सती ने यज्ञ में आत्मदाह किया,तो भगवान शिव उनके शव को लेकर ब्रह्मांड में विचरण करने लगे। तब भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खंडित किया, और जहां-जहां उनके अंग गिरे, वहां शक्ति पीठों की स्थापना हुई। कहा जाता है कि काली खोह वही स्थान है जहां सती का कंचुक (वस्त्र) गिरा था, जिससे यह क्षेत्र एक प्रमुख शक्ति पीठ बन गया।
कंस के हाथ से बच निकलना
काली खोह मंदिर हिंदू पौराणिक कथाओं और शक्ति की किंवदंतियों से गहराई से जुड़ा हुआ है।पौराणिक कथा के अनुसार जब कंस ने योगमाया (विष्णु की दिव्य शक्ति) को मारने का प्रयास किया , तो वह चमत्कारिक रूप से बच निकलीं और अपना दिव्य रूप धारण कर लिया। कृष्ण के हाथों कंस की आसन्न मृत्यु के बारे में उसे चेतावनी देने के बाद , वह विंध्याचल लौट गईं , जहां वह इस गुफा में देवी काली के रूप में प्रकट हुईं।
राक्षसी शक्तियों से रक्षा के लिए अवतरित
ऐसा माना जाता है कि काली खोह मंदिर वह स्थान है जहां काली माता निवास करती हैं , जो बुराई के विनाश और अच्छाई की विजय का प्रतीक है । ऐसा कहा जाता है कि देवी काली विंध्याचल क्षेत्र को राक्षसी शक्तियों से बचाने के लिए यहां प्रकट हुई थीं।भक्तों का मानना है कि इस मंदिर में दर्शन करने और प्रार्थना करने से दैवीय सुरक्षा, शक्ति और नकारात्मक ऊर्जाओं से मुक्ति मिलती है ।
समृद्ध सांस्कृतिक विरासत
कालीखोह मंदिर अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के लिए भी जाना जाता है। मंदिर परिसर एक चट्टानी गुफा को तराश कर बनाया गया है, जिसके बारे में माना जाता है कि यह लगभग 5000 साल पुराना है। इस मंदिर में रहस्य और आध्यात्मिकता का एक ऐसा आभामंडल है जो देश भर से भक्तों और आगंतुकों को आकर्षित करता है। मंदिर की अनूठी वास्तुकला, रहस्यमय आकर्षण और आध्यात्मिक महत्व इसे खुद से जुड़ने और ईश्वर से आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए एक आदर्श स्थान बनाते हैं। मंदिर में साल भर कई त्यौहार और मेले आयोजित किए जाते हैं, जिनमें बड़ी संख्या में पर्यटक आते हैं। मंदिर में मनाया जाने वाला सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार नवरात्रि है, जिसे बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। त्यौहार के दौरान, मंदिर को रोशनी और फूलों से सजाया जाता है और भक्त विशेष प्रार्थना और विभिन्न अनुष्ठान करते हैं।
रक्तबीज संहारक स्वरूप
रक्तबीज नामक राक्षस की, जिसे यह वरदान प्राप्त था कि यदि कोई उसका वध करता है तो उसके शरीर से निकलने वाला रक्त जहाँ-कहीं भी गिरेगा वहाँ अपने आप नये-नये रक्तबीज दानव पैदा हो जायेंगे। एक बार अपने तप-बल के चलते दानव रक्तबीज ने देवलोक पर अपना अधिकार कर लिया। वह सभी देवताओं को सताने लगा। देवतागण भयभीत होकर देवलोक छोड़ दिये। दानव रक्तबीज ने चारों तरफ त्राहि-त्राहि मचा दी थी। देवताओं में यह चिंता व्याप्त हो गयी कि इस अदभुत वरदान प्राप्त राक्षस रक्तबीज का संहार किस प्रकार किया जाये।
ब्रह्मा जी की विनती से धरा स्वरूप
ब्रह्मा जी ने माँ विन्ध्यवासनी से विनती की थी कि वे माँ काली का ऐसा रूप धारण करें जिनका मुख आसमान की ओर हो, ताकि ऊपर देवलोक में दानव रक्तबीज के वध के बाद उसका रक्त धरती पर गिरने के पहले ही काली माँ उस राक्षस के रक्त का पान कर लें, जिससे उसके रक्त की एक भी बूंद धरती पर न गिरने पाये और धरती दानवों की उत्पत्ति से बची रहे। माँ विन्ध्य- वासनी ने देवताओं की इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। उन्होनें रक्तबीज का वध करने के लिये माँ काली का खेचरी मुद्रा वाला रूप धारण किया। उसके बाद माँ ने उस दानव रक्तबीज का संहार किया और उसका सारा रक्त पी गयीं। जिसके कारण धरती पर राक्षस रक्तबीज के रक्त की एक भी बूंद नहीं गिरी और इस प्रकार धरती पर दानवों का साम्राज्य होने से बच गया। धरती वासियों का सदा कल्याण चाहने वाली काली खोह वाली माँ आज भी विंध्य पर्वत पर अपने भक्तों का दुख हर रही हैं।


काली मां का उग्र नृत्य
रक्तबीज और उसकी सेना का नाश करने के बाद, काली का क्रोध बेकाबू हो गया। उन्होंने अपना विनाशक नृत्य शुरू कर दिया, जिससे संसार के विनाश का खतरा पैदा हो गया। देवता चिंतित हो गए,क्योंकि प्रकृति का संतुलन भी खतरे में था। तब भगवान शिव उसे रोकने और शांत करने के लिए आगे आए। वे युद्धभूमि में लाशों के बीच लेट गए और खुद काली के पैरों के नीचे आ गए। जब काली ने उन पर पैर रखा, तो उन्हें अचानक एहसास हुआ कि वे क्या कर रही हैं और उनका क्रोध शांत हो गया। उन्होंने शर्मिंदगी से अपनी जीभ बाहर निकाली और अपना नृत्य रोकदिया। इससे संसार में शांति लौट आई। शिव पर पैर रखने का यह कार्य उनकी विनाशकारी ऊर्जा के जम जाने का प्रतीक है, जो यह दर्शाता है कि यद्यपि काली में अपार शक्ति है, फिर भी वह अनियंत्रित नहीं है।
खेचरी मुद्रा में मां का मुखमंडल
इस मंदिर की सबसे अलग विशेषता है कि मां का मुख यहां पर खेचरी मुद्रा में यानी ऊपर की तरफ है।देश के ज्यादातर मंदिरो में मां के विग्रह का मुख सामने की तरफ होता है. लेकिन मिर्जापुर जनपद के विंध्याचल में स्थित मां काली देवी का मस्तक ऊपर आकाश की तरफ है। इसे खेचरी मुद्रा कहते हैं। अपने अनोखेपन के लिये प्रसिद्ध यह विश्व का एकमात्र मंदिर है। इस महाकाली मंदिर को लोग काली खोह के नाम से जानते हैं। इस मंदिर का तंत्र साधना के लिए सबसे ज्यादा महत्व है। पुराणों के अनुसार जब रक्तबीज दानव ने स्वर्ग लोक पर कब्जा कर सभीदेवताओं को वहां से भगा दिया था। तब ब्रह्मा, विष्णु और महेश सहित अन्य देवताओं की प्रार्थना पर मां विंध्यवासिनी ने महाकाली का ऐसा रूप धारण किया था।
मां के मुंह में प्रसाद पता नहीं चलता 
रक्तबीज नामक दानव को ब्रह्मा जी का वरदान था कि अगर उसका एक बूंद खून धरती पर गिरेगा तो उससे लाखों दानव पैदा होंगे। इसी दानव के वध हेतु महा काली ने रक्त पान करने के लिए अपना मुंह खोल दिया जिससे एक बूंद भी खून धरती पर न गिरने पाये। रक्तबीज नामक दानव का वध करने के बाद से मां का एक रूप ऐसा भी है। कहा जाता है इस मुख में चाहे जितना प्रसाद चढ़ा दीजिए कहां जाता है? आज तक इसका पता कोई नहीं कर पाया।
तांत्रिक साधना का केंद्र
कालीखोह को तांत्रिकों की साधना स्थली के रूप में भी जाना जाता है। यहां मान्यता है कि गुफा में एक अदृश्य सुरंग है जोसीधे गंगा नदी तक जाती है, जिसका उपयोग प्राचीन काल में साधक तांत्रिक साधनाओं के लिए करते थे। नवरात्रि की रातों में यहां तंत्र-मंत्र की गुप्त साधनाएं की जाती हैं, जिनमें कई साधकों को विशेष अनुभव प्राप्त होते हैं। यह स्थान ऊर्जा, तपस्या और साधना का अद्भुत केंद्र है। काली खोह मंदिर में तंत्र साधना के लिए तांत्रिक नवरात्र की सप्तमी तिथि को मां के सातवें स्वरूप कालरात्रि की साधना करते हैं। 
आम भक्त भी पूरी श्रद्धा के साथ मां का दर्शन करते हैं। यहां पर तंत्र विद्याओं की बड़ी आसानी से सिद्धि हो जाती है, इस कारण से तांत्रिकों का यहां बड़ा जमावड़ा लगता है। भक्त यहां पर अपनीमनोकामना पूर्ण कराने के लिए मां के दर्शन करनेआते हैं।
मन्दिर तक पहुंच 
प्रयाग वाराणसी हाईवे से प्रवेश करने पर हनुमान जी का एक मानव प्रतिमूर्ति आकर्षण का केंद्र देखा जा सकता है। इसके बाद बाजार में फूल,पत्ती, माला और प्रसाद की दुकान देखी जा सकती है। इसके विपरीत अष्टभुजा मंदिर से वापस रोपवे की रास्ते आने पर सबसे पहले सिद्धिदात्री दुर्गा मंदिर के प्रांगण का बाहरी भाग देखा जा सकता है । इससे और आगे चलने पर हवन कुंड बना हुआ है । फिर श्रद्धालु को मंदिर का प्रवेश द्वार दिखाई देता है । इसमें सीड़िया बनी हुई है और लाइन से मंदिरों की पंक्तियां बनी हैं। 
मन्दिर का अंतःभाग : विशाल प्रांगण
मंदिर परिसर में एक गर्भगृह और एक विशाल प्रांगण है जहाँ भक्त प्रार्थना और विभिन्न अनुष्ठान करते हैं। मंदिर को जटिल नक्काशी और चित्रों से सजाया गया है, जिनमें हिंदू पौराणिक कथाओं के विभिन्न दृश्य दर्शाए गए हैं। यह मंदिर अपनीअनूठी वास्तुकला के लिए जाना जाता है, जिसमें प्राचीन और आधुनिक शैलियों का मिश्रण है।
अलौकिक-शांत वातावरण
गुफा में प्रवेश करते ही भक्त अलौकिक और शांत वातावरण का अनुभव करते हैं, जो इस स्थान को विशेष बनाता है। यह मंदिर न केवल पूजा-पाठ के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यह तांत्रिक साधना के लिए भी अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थल माना जाता है।

उभरी हुई आँखों वाला भयंकर स्वरूप
मंदिर के प्रवेश द्वार पर दो उभरी हुईआँखों वाला एक भयंकर स्वरूप है। इसके ऊपर दो रक्षक हैं। मंदिर लाल रंग से रंगा हुआ है। माँ काली की मूर्ति एक छोटे से गुफा मंदिर में स्थित है, जिसे संशोधित किया गया है। यह मूर्ति काले पत्थर की है और इसमें दो सदैव सजग आँखें अपने भक्तों को देखती रहती हैं। ये आँखें चाँदी से सुसज्जित हैं।भक्त यहाँ शांति, समृद्धि और भय व शत्रुओं पर विजय पाने के लिए प्रार्थना करते हैं। जादुई फल पाने की चाह रखने वाले तांत्रिक साधक काली खोह में देवी काली की पूजा करते हैं।
     'काली' का अर्थ है अंधकार को नष्ट करने वाली देवी,जबकि 'खोह' का मतलब गुफा होता है । इस प्रकार, काली खोह वास्तव में वह पवित्र गुफा है जहां मां काली की मूर्ति विराजमान है। 
दस महाविद्या देवियों की छवियां 
माँ काली ब्रह्मांड की प्रचंड, सुरक्षात्मक और परिवर्तनकारी शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं, और उनके दस अलग-अलग रूप उस दिव्य स्त्री ऊर्जा के गहन प्रतीक हैं जो हम सभी में प्रवाहित होती है। इन्हें दस विद्या देवी या महाविद्या भी कहते हैं। हिंदू धर्म में ज्ञान की दस देवियाँ इस प्रकार हैं: काली, तारा, त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला। ये देवी शक्ति के विभिन्न स्वरूप हैं और उनकी पूजा तंत्र- मंत्र में की जाती है।
बाह्य परिवेश में रोगनाशक कालिका कुंड 
कालिका कुंड जो कि यह कुंड काफी रहस्यमय है और कहा जाता है इस कुंड का पानी पीने से बहुत लाभ मिलता है । इस कुंड में स्नान करने से शरीर के सारे रोग भाग जाते हैं । यह कुंड काली खोह मंदिर के पीछे अष्टभुजी मंदिर के रास्ते पर जंगल में प्राकृतिक झरने की शक्ल में त्रिकोणीय कुण्ड है । पास ही लगे हुए दो जल स्रोत भी हैं कुल मिलाकर ये तीनों को कलिका कुण्ड कहा जाता है।
अंतःपरिवेश में भी रोग नाशक तालाब 
मंदिर परिसर में एक पवित्र तालाब भी है। इसे ढक कर सुरक्षा की दृष्टि से एक कुएं की शक्ल दे दिया गया है, जहां श्रद्धालुओं को शुद्ध पानी पीने का अवसर मिलता है।
जिसके बारे में माना जाता है कि उसमें उपचार करने की शक्ति है। ऐसा कहा जाता है कि पहले तालाब में डुबकी लगाने और जलपान से कई तरह की बीमारियाँ ठीक हो जाती थी अब जल पीने की ही व्यवस्था बन पाती है।

भैरव बाबा का मंदिर
काली खोह मंदिर के पीछे एक भैरव मंदिर स्थित है और यह मंदिर देशभर से तांत्रिकों को आकर्षित करता है। यह तांत्रिक पूजा का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। यह माँ काली खोह का एक प्रतिष्ठित मंदिर है। यहाँ बैठकर ध्यान करने की जगह है।यहाँ सहजता से ध्यान की अवस्था में जाया जा सकता है।
भैरव बाबा का हवन कुंड 
काली को हो हो में दर्शन करने वाले लोग इसी कुंड में अपना नारियल गोला और हवन सामग्री अग्नि में समर्पित करते हैं । यहां एक पंडित जी मंत्र पढ़कर उसे संपन्न कराते हैं और अपनी दान दक्षिना प्राप्त करते हैं । साथ ही यह भी कहा जाता है कि देश भर के ओझा-सोखा अपने अपने मरीजों को लाकर इस मंदिर के प्रांगण में स्थित हवन कुंड में अपने साथ लाए व्यक्ति के ऊपर घर किए हुए भूत प्रेत को अपने मंत्रों और पूजा पद्धति से व्यक्ति के ऊपर से उतार कर इसी हवन कुंड में भस्म कर स्थापित कर जाते हैं।
हनुमान मंदिर
कालिखोह से अष्टभुजी मंदिर को जाने वाली सीढ़ी नुमा रास्ते के बाएं तरफ एक छोटे सी संरचना में हनुमान जी का मंदिर है जहां एक पुजारी यजमान का नाम गोत्र पूछ कर संकल्प और दान दक्षिणा करवाते हैं।

       आम आदमी की पहुंच से 
दूर होता जा रहा यह पावन तीर्थ स्थली
काली खोह मंदिर जहां आम नागरिक को काली सेवक आसानी से मां का दर्शन लाभ नहीं करने देता है। हर मंदिर के सामने एक सेवक व्यवस्था के लिए लगा रहता है जो एक परिवार को मंदिर के सामने दर्शन, पूजन, दान, दक्षिणा और पुजारी द्वारा प्रसाद लेने के लिए सहायता प्रदान करता है। यहां श्रद्धालु दूर से मां के स्वरूप का दर्शन कर आगे बढ़ने नहीं दिया जाता है हर एक श्रद्धालुओं को पुजारी के माध्यम से दर्शन कराया जाता है। प्रवेश के समय गणेश जी की मूर्ति श्रद्धालु खुले रूप में देख सकते हैं ।
       मंदिरों की श्रृंखला में पहले मंदिर में माता जी को सिंदूर चढ़ाया जाता है। पुजारी एक कपड़े में कुछ पैसे रखकर कुछ मंत्र उच्चारण कर श्रद्धालु को वापस करते हैं और मोटी रकम दक्षिना के रूप में मांगते हैं ।उनकी पोटली में 20, 50 या 100 के नोट होते हैं। जिससे श्रद्धालुओं को 501, 1100 या 2100 रुपए की डिमांड की जाती है । पोटली को शनिवार या मंगलवार को तिजोरी या मंदिर में रखने की सलाह दी जाती है । इस रकम को खर्च न करने की हिदायत भी दी जाती है। पुजारी अपने पास एक या एक से अधिक सहायक पुजारी भी रखते हैं जो यजमान से पैसा जमा करने का दबाव भी डालते हैं। पुजारी अपनी मुंह मांगी रकम से कम पैसे लेना पसंद नहीं करते हैं । कभी कभी पूरी रकम लौटा भी देते हैं। वे श्रद्धालु की आर्थिक स्थिति भांप कर पूरे परिसर में उससे ज्यादा से ज्यादा रुपया चढ़वाने का दबाव डलवाते हैं । 
     इससे आगे शिव जी का मंदिर शिव लिंग और शिव परिवार के चित्रांकन के साथ देखा जा सकता है जहां पर कोई पुजारी नहीं रहता और ना ही कोई दवाव ही डालता है। फिर आगे एक व्यक्ति द्वार पर रहता है और और एक-एक परिवार को अंदर घुसने देता है । उसे पूजा सामग्री लेकर चढ़वाता है और एक पोटली में फिर कुछ द्रव्य डालकर संकल्प कराकर श्रद्धालुओं को वापस कर देता है । उससे मोटी रकम 500 ,1100 या 2100 की मांग करता है कोई श्रद्धालु लाइन नहीं तोड़ सकता और हर मंदिर पर उसे इसी प्रकार पूजा दक्षिणा देना पड़ता है। इसमें ना तो उसकी रुचि देखी जाती ना ही उसकी आर्थिक स्थिति। श्रद्धालु मंदिर उसके बरामदे उसके आंगन में घूमते घूमते दान-दक्षिणा देते एक आंगन में पहुंचते हैं। जिसके छोर पर भैरव बाबा की गुफा है और वहां लोगों को बैठने के लिए भी प्रेरित किया जाता है। इस प्रकार इस प्रकार इतने उच्च स्तर का मंदिर होते हुए यह आम आम जनता की पहुंच से दूर होता जा रहा है और केवल संपन्न तथा भवबाधा से पीड़ित व्यक्ति ही सही रूप में इस देवी मां का दर्शन पूजन और आवाहन कर पा रहे हैं। उत्तर प्रदेश सरकार और जिला प्रशासन को इस कुव्यवस्था को हटाने के लिए सार्थक कदम उठाना चाहिए।
            आचार्य डा. राधेश्याम द्विवेदी 
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।
(वॉट्सप नं.+919412300183)

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