गया सिर और गया कूप :-
गया सिर- विष्णुपद मन्दिर से दक्षिण गया सिर स्थान है। एक बरामदे एक छोटा कुण्ड है। उसी बरामदे में लोग पिण्डदान करते हैं। गया सिर से पश्चिम एक घेरे में गया कूप है। पितृपक्ष मेला के 11वें दिन गया सिर वेदी और गया कूप में पिंडदान करने का विधान है. इस कारण से पिंड दानी अपने-अपने पितृरों की मोक्ष के लिए पूरे विधि विधान से पिंडदान करने की प्रक्रिया को पूरा करते हैं.
विष्णु के गदा से गयासुर का कांपता सीना शांत हुआ
शास्त्र के अनुसार गयासुर के सीने पर जब भगवान श्रीहरि चरण रखे थे तो सिर कांप रहा था, तब भगवान ने गदा सिर पर रख दी. सिर शांत होने पर भगवान ने वरदान दिया था कि तुम्हारे सिर पर जिसका पिंडदान होगा वह व्यक्ति स्वर्ग की प्राप्ति करेगा. वहीं गया कूप वेदी पर अकाल मौत होने वाले लोगों के लिए पिंडदान होता है. घर में अशांति होने पर उक्त वेदी पर पिंड दान कर माता संकटा पूजा किया जाता है.
गया सिर की ऐसी मान्यता है कि यहां पिंडदान करने से नरक भोग रहे पूर्वजों को भी स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है. वहीं, गया कूप के बारे में कहा जाता है कि यहां पिंडदान करने से जो स्वर्गस्थ पितर हैं, उन्हें मोक्ष को प्राप्ती होती है. दोनों तीर्थों की पौराणिक कथा भी प्रचलित है.
गया सुर की नाभि गया कूप है
इस वेदी में एक कूप है, जिसे गया सुर की नाभि कहा जाता है. यहां पितरों से प्रेत योनि से मुक्ति मिलता है. नारियल में पितर को आह्वान कर कर्मकांड का विधि विधान करके नारियल को उस कूप में छोड़ दिया जाता है. वहीं गया सिर की ऐसी मान्यता है कि यहां पिंडदान करने से नरक भोग रहे पूर्वजों को भी स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है. गया सिर में गयासुर का सिर है.
गया कूप वेदी पर पिंडदानी साथ में नारियल लेकर कर्मकांड की विधि संपन्न करते हैं. कर्मकांड समाप्त करने के बाद गया कूप में नारियल को डालते हैं. वहीं गया सिर वेदी पर कर्मकांड करने बाद पिंड को गयासुर के सिर पर अर्पित किया जाता है.
राजा विशाल की कथा
कहा जाता है कि विशाल पुरी में पूर्व काल में विशाल नामक एक राजा निसंतान थे. उन्होंने एक ब्राह्मण से पूछा कि हे! श्रेष्ठ ब्राह्मण हमारे कुल को पुत्र कैसे प्राप्त होगा. ब्राह्मण ने कहा गया श्राद्ध से होगा. विशाल राजा ने भी गया सिर में पिंडदान किया और अब पुत्रवान हो गए. पिंडदान करने के पश्चात जब उन्होंने आकाश की ओर देखा, तो राजा को श्वेत, कृष्ण और रक्त के ये तीन पुरूष दिखाई दिए.
राजा के पूर्वजों को स्वर्ग में जगह
विशाल ने पूछा आप लोग कौन हैं. उनमें से एक श्वेत वर्ण ने कहा मैं श्वेत वर्ण का तुम्हारा पिता हूं. इंद्रलोक से यहां आया हूं. लाल वर्ण वाले मेरे पिता हैं यानी तुम्हारे पितामाह, जिन्होंने ब्राह्मण हत्या रूप का पाप किया है और एक कृष्ण वर्ण वाले मेरे पितामाह जिन्होंने ऋषियों को मारा है. ये सब अविचि नामक नरक में पड़े हुए थे. तुम्हारे पिंडदान करने से इनकी मुक्ति हो गई है. इन्हें ही साथ लेकर जा रहा हूं.
गया सिर पर शमी के पत्ते के बराबर कंद, मूल, फल अथवा किसी पदार्थ से दिया हुआ पिंड पितरों को स्वर्ग पहुंचा देता है।
ऐसे करें गया कूप में पिंडदान
गया कूप वेदी में त्रिपिंडी श्राद्ध करने से प्रेतों का मोक्ष होता हैं एवं गया निमित्तक श्राद्ध करने से अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता हैं. इस वेदी में एक कूप है, जिसे गया सुर की नाभि कहा जाता है. यहां पितरों से प्रेत योनि से मुक्ति मिलता है. नारियल में पितर को आह्वान कर कर्मकांड का विधि विधान करके नारियल को उस कूप में छोड़ दिया जाता है.
इस वेदी पर पिंडदानी पर प्रेतों का साया आ जाता है. ऐसे में वेदी के पास कूप के निकट दीवारों में लोहे का सिक्का रखा रहता है. उससे बांध दिया जाता है. उसके बाद वहां के पंडित मन्त्रों से प्रेत से मुक्ति दिलाते हैं. झूलन बाबा बताते हैं जैसे मनुष्य कई प्रकार के होते हैं. उसी तरह प्रेत भी कई प्रकार का होता है, जो जल्दी नहीं मानता है.
गया सिर वेदी पर प्रतिनिधि पिंडदान किया जाता है. किसी अक्षम और असहाय का पिंडदान प्रतिनिधि बनकर इस वेदी पर पिंडदान कर पूर्वजों को मोक्ष दिला सकते हैं.पुराणों के अनुसार गया कूप का विशेष महत्व है। कहा गया है कि गंभीर पाप करने वाले भी यहां स्नान और भस्म से मुक्ति पा सकते हैं।
तीन वेदियां- मुंडपृष्ठा, आदिगया और धौतपद
विष्णुपद मंदिर के समीप है यह तीनों वेदियां- मुंडपृष्ठा, आदिगया और धौतपद वेदी हैं। इन तीनों वेेदियों की पिंडदान को लेकर बड़ी मान्यता है, यहां पिंडदान से जहां पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है. वहीं, पितर अपने वंश को संपन्न होने का आशीर्वाद देते हैं.
मुंडपृष्ठा वेदी
गया शिर से थोड़ी दूर पर यह वेदी है।यहां बारह भुजा वाली मुंडपृष्ठा देवी की मूर्ति है। मुंडपृष्ठा तीर्थ पर पिंडदान करने का विधान है. एकादशी तिथि के दिन फल्गु स्नान करने के बाद यहां पिंडदान किया जाता है. वहीं, ऐसी मान्यता है कि खोया और चांदी का सामान दान करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
गयासुर पर जब धर्मशिला पर्वत को रखा गया, तो उसे स्थिर करने के लिए आदि गदाधर भगवान मुंडपृष्ठा पर बैठ गए. इसके चलते इस तीर्थ को आदिगया कहते हैं. जो मुंडपृष्ठा पर स्थित आदि गदाधर देव स्तुति करते हैं, पूजा करते हैं वो विष्णु लोक को चले जाते हैं.
धौतपद वेदी
इसके बाद मुंडपृष्ठा पर ही अवस्थित धौतपद वेदी पर श्राद्ध करते हैं. यहां ब्रह्मा जी ने चांदी का दान दिया था और धौंता ऋषि ने संकल्प कराया. इसलिए इस वेदी का नाम द्दोतपद पड़ा. द्दोतपद पर अपने पुरोहित को यथा शक्ति चांदी का दान अवश्य करना चाहिए, जिससे पितर तर जाते हैं.धौतपद में खोवे और तिल-गुड़ से पिंडदान करने का विधान है. यहां चांदी दान करने की परंपरा है. इससे पितरों को विष्णु लोक की प्राप्ति होती है और पितर खुश होकर अपने वंश को संपन्नता का आशीर्वाद देते हैं.
आदि गया वेदी
गया का यह सबसे प्राचीन स्थान माना जाता है। यह स्थान मुंडापृष्ठा से दक्षिण पश्चिम है। यहां एक शिला पर पिण्ड दान होता है। यहां से पांच सीढ़ी उतरने पर एक आंगन मिलता है। आंगन के पश्चिम तीन सीढियां उतरने पर एक कोठरी में कुछ मूर्तियां हैं। यहां चांदी की वस्तु दान की जाती है. दोनों जगह कर्मकांड करने से ही पितरों को मोक्ष मिलता है।
जिह्वाल वेदी :-
गया में "जिह्वा वेदी" किसी एक विशेष स्थान का नाम नहीं है, बल्कि यह पिंडदान के लिए गए कई वेदियों में से एक है, जहाँ पितरों की आत्मा की शांति और मोक्ष के लिए अनुष्ठान किया जाता है. सूर्य कुंड से 80 गज दक्षिण फल्गु नदी के तट पर जिह्वाल नामक वेदी आदि पवित्र वेदि स्थित है। यह एक उपेक्षित वेदी है।इसका महत्व यह है कि इस वेदी पर श्राद्ध करने से पितरों को नरक से मुक्ति मिलती है और उन्हें ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है.
गायत्री देवी का मंदिर
विष्णु पद मंदिर से आधा मील उत्तर फल्गु नदी के किनारे गायत्री घाट है घाट के ऊपर गायत्री देवी का मंदिर है इसके उत्तर लक्ष्मी नारायण मंदिर है और वहीं पास में बभनी घाट पर फलीश्वर शिव मंदिर है उसके दक्षिण गया आदित्य नामक सूर्य की चतुर्भुज मूर्ति एक मंदिर में है। प्राचीन गायत्री घाट जीर्णशीर्ण हालत में था। तीर्थयात्री तो तीर्थयात्री स्थानीय लोगों को भी इस घाट के बारे में पता नहीं था। जबकि इस घाट पर मां तारा का एक प्राचीन मंदिर और एक छोटा सा कमरा बना हुआ था। जो देखने से ही प्रतीत होता था कि कई सौ साल पहले इसका निर्माण हुआ होगा। छतीसगढ़ के सिवरी नारायण के निवासी संतोष सुल्तानिया ने अपने पिता स्व. राधे श्याम सुल्तानिया के स्मृति में इस घाट का पुर्ननिर्माण कराया। निर्माण में घाट, सीढ़ी, ग्रिल, छत का निर्माण शामिल है। तीन माह का समय इस निर्माण कार्य में लगा है। तथा पांच लाख रुपये इस पर व्यय हुए हैं। श्रद्धालु, तीर्थयात्री द्वारा एक सार्थक कार्य किया गया है। क्योंकि यह घाट की प्रसिद्धि नाना-नानी के श्राद्ध के लिए विशेष फलदायी मानी गई है। अब पुर्ननिर्माण से इस स्थल पर एक साथ 60 से 70 लोग पिंडादान का कार्य कर सकेंगे। और एक ऐसा घाट जो अपने अस्तित्व के मिटने के कगार पर था। पुर्न निर्माण से जीवंत हो गया है।
16 वेदियों वाला हाल
विष्णुपद मंदिर परिसर एक विशाल हाल में 16 वेदियों के स्थल बने हुए हैं। इनके नाम इस प्रकार है - कण्व पद, क्रौंच पद, इंद्र पद, अगस्त्य पद, मतंग पद व कश्यप पद पर श्राद्ध व पिंडदान का कर्मकांड पूरा किया जाता है। मतंग पद, क्रौंच पद, अगस्त्य पद व कश्यप पद पर श्राद्ध व पिंडदान करने वाले श्रद्धालुओं के पितरों का ब्रह्म लोक में गमन होता है।
विष्णुपद मंदिर परिसर के अन्य वेदियो में निम्न वेदी भी काफी महत्वपूर्ण हैं - मुंडपृष्ठा , आदिगया तीर्थ ,गधाधर वेदी, रुद्रपद वेदी, ब्रह्मपद वेदी, आह्वान्याराग्नि पद वेदी, सम्भ्याग्नि पद वेदी,अवस्थयाग्नि पद वेदी, सूर्यपद वेदी,कार्तिकेय पद वेदी, इंद्रपद वेदी अगस्तपद वेदी,कानवनपद वेदी, चंद्रपद वेदी ,गणेशपद वेदी,काचपद वेदी,मातंगपद वेदी, कश्यपपद वेदी, गजकर्ण पद वेदी, गयाद्रष्टा वेदी और गयाकूप वेदी परिसर के आस पास विष्णुपद क्षेत्र में दक्षिणाग्निपद वेदी, गार्ह्यपत्याग्नि पद वेदी,दखिनमानस सूर्य कुंड, उदीची कुंड,कनखल, विष्णु मंदिर के पास फल्गु नदी के तट पर जिह्वाल नामक वेदी आदि पवित्र वेदियां स्थित है। इन अन्य वेदियों के बारे में कम ही जानकारी आम जन को सुलभ हैं और केवल अति महत्व पूर्ण वेदियों में पूजन अर्चन और तर्पण का विधान किया जाता है। एक मुख्य वेदी के साथ साथ पास वाले वेदियों का भी पिंडदान किया जाता है।
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, धर्म, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। लेखक स्वयं चारों धाम की यात्रा कर गया जी के तथ्यों से अवगत हुआ है।
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