Saturday, August 30, 2025

भारत में चौसठ योगिनी मंदिर की अवधारणा #आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी


भारत में तंत्र साधना :- 

भारत में तंत्र साधना एक प्राचीन आध्यात्मिक अभ्यास है जिसका उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार और आध्यात्मिक विकास प्राप्त करना है।यह वेदों, उपनिषदों और पुराणों से उत्पन्न हुई है और इसमें दीक्षा, अनुष्ठान, मंत्रोच्चार, योग, हस्त मुद्राएं, आंतरिक और बाह्य पूजा, और जटिल ब्रह्मांडीय सिद्धांतों का उपयोग शामिल होता है। तंत्र शरीर को दिव्य मानता है और कुंडलिनी शक्ति के जागरण के माध्यम से मुक्ति प्राप्त करने पर केंद्रित है, जो साधक को व्यक्तिगत बुराइयों (जैसे काम, क्रोध, लोभ, और मोह) पर विजय पाने में मदद करती है।

कौन होता है योगी :- 

योगी तकनीकी रूप से पुरुष है, और योगिनी शब्द महिला अभ्यासियों के लिए प्रयुक्त होता है। दोनों शब्दों का प्रयोग आज भी उन्हीं अर्थों में किया जाता है, लेकिन योगी शब्द का प्रयोग सामान्य रूप से किसी भी धर्म या आध्यात्मिक पद्धति से संबंधित योग और संबंधित ध्यान साधनाओं के पुरुष और महिला दोनों अभ्यासियों के लिए भी किया जाता है।पुरुष शरीर में योग का अभ्यास करने वाले मनुष्य को योगी कहा जाता है। स्त्री शरीर में योग का अभ्यास करने वाली को योगिनी कहा जाता है। 

कौन होती हैं योगिनी:- 

योगिनी वह स्त्री है जो योग और तंत्र के रास्ते पर चलकर आध्यात्मिक साधना करती है। ये देवी शक्ति के विभिन्न रूपों का प्रतिनिधित्व करती हैं और इन्हें अलौकिक शक्तियों का वाहक माना जाता है। सामान्य रूप से ऊपरी तौर पर सप्त मातृका समूह में  सात देवियां - ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इंद्राणी (ऐंद्री) और चामुंडी) आती हैं। इनमें चंडी और महालक्ष्मी दो और देवियों को मिलाकर नौ-मातृका समूह बनाती हैं। प्रत्येक मातृका को एक योगिनी मान लिया जाता है और वह 8 अन्य योगिनियों से संबद्ध होती है जिसके परिणामस्वरूप 81 (9 गुणा 9) का समूह बन जाता है।

वास्तव में योगिनियाँ ना तो सप्त मात्रिकाएं हैं, ना ही दश महाविद्याएं हैं। वे नव दुर्गा भी नहीं हैं। वे यक्षिणियों के समूह हैं जो सदैव साथ रहती हैं तथा साथ ही कार्य करती हैं। पारंपरिक ग्रंथों में योगिनियों को देवताओं की परिचारिकाओं के रूप में वर्णित किया गया है, जबकि सामान्य अर्थ में योग करने वाली स्त्री को  योगिनी कहा जाता है। 

चौसठ/ इक्यासी योगिनियाँ :- 

चौसठ योगिनियाँ हिंदू धर्म में शक्तिशाली स्त्री देवियां होती हैं । 64 योगिनियों को समर्पित अनेक प्राचीन मंदिर है। जो 9वीं और 12वीं शताब्दी के बीच चंदेल, कलचुरी, गुर्जर-प्रतिहार वंश और शाही चोल जैसे राजवंशों द्वारा निर्मित हुए हैं, ये मंदिर मुख्यतः मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और तमिलनाडु में स्थित हैं। इनकी गोलाकार, खुली संरचनाएँ तांत्रिक और शैव परंपराओं को दर्शाती हैं।

बीस चौसठ योगिनी मन्दिर:- 

भारत में लगभग बीस चौसठ योगिनी मंदिर मौजूद होने के प्रमाण मिलते हैं, जिनमें से अकेले मध्य प्रदेश में दस मन्दिर स्थित हैं। जो मितावली- मुरैना ; भेड़घाट - जबलपुर; खजुराहो ; हिंगलाजगढ़; शहडोल;  नरेश्वर(नारेसर) - ग्वालियर; बादोह - विदिशा ; उज्जैन ; जीरापुर धार; और आगर मालवा में स्थित हैं। इसके बाद उत्तर प्रदेश का नम्बर आता है जहां चार योगिनी मन्दिर लोखड़ी और रिखियाँ बांदा; दुधई - ललितपुर और वाराणसी में स्थित हैं। उड़ीसा में दो, हीरापुर और रानीपुर झरिया में एक एक मन्दिर अवस्थित है। तमिलनाडु के कांचीपुरम, कावेरी पक्कम में एक; दिल्ली में एक योगमाया/योगिनी मंदिर तथा झारखंड के गोड्डा में भी एक योगिनी मंदिर अवस्थित है। नये शोध और अनुसंधान से ये संख्या और भी बढ़ सकती है। मितावली मुरैना (मध्य प्रदेश) के मन्दिर की प्रेरणा से भारतीय संसद के पुराने भवन की परिकल्पना की गई थी।

छत विहीन हाइपेथ्रल शाक्त मंदिर :- 

ये योगिनी मंदिर आठवीं से बारहवीं  शताब्दी के छत विहीन हाइपेथ्रल मंदिर हैं जो हिंदू तंत्र में योग की महिला गुरु योगिनियों के लिए हैं, जिन्हें व्यापक रूप से देवी विशेष रूप से पार्वती के समान माना जाता है। शक्ति साधना के विभिन्न साधनों के रूप में इस पद्धति का विकास हुआ है। शक्ति पूजा में तांत्रिक परंपराएं शामिल होती हैं, जो देवी की पूजा के लिए विशिष्ट अनुष्ठानों और मंत्रों का उपयोग करती हैं। भारत में योगिनियों की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न कथाएं हैं। 

मां काली का अवतार:- 

चौसठ योगिनी मंदिर या चौंसठ योगिनियां प्रायःआदिशक्ति मां काली का अवतार या अंश होती हैं। 64 योगनियों की उत्पत्ति माँ काली से हुआ है। इनमें से हर एक योगिनी की अपनी एक ख़ास विशेषता है। इन 64 योगिनों की उत्पत्ति 8 मातृकाओं से हुई है। इन आठ देवियों ने शुंभ, निशुंभ और रक्तबीज राक्षसों के नाश में माँ दुर्गा की सहायता की थी। हर एक मातृका की सहायक आठ शक्तियाँ थीं। 

दो प्रकार का समूह :- 

मोटे रूप में योगिनी मुख्यत: दो प्रकार की होती हैं: अष्ट योगिनियो और चौसठ योगिनियो का समूह । अष्ट योगिनी, 8 योगिनियों का समूह है, और चौसठ योगिनी, 64 योगिनियों का समूह है। इसीलिए सबको मिलाकर इनकी संख्या 64 हो जाती है। इन आठ योगनियों से ही समस्त योगिनियां अलौकिक शक्तिओं से सम्पन्न हैं और इंद्रजाल, जादू, वशीकरण, मारण, स्तंभन इत्यादि कर्म इन्हीं की कृपा द्वारा ही सफल हो पाते हैं। जब भी कोइ शक्तियां सिद्ध करने के लिए माता काली की अराधना करता है, तो अप्रत्यक्ष रूप से माता काली के साथ ये 64 योगिनियाँ उनके साथ होती हैं।

      योगिनियों को " वास्तविक रूप से मादा पशुओं का रूप धारण करने" और अन्य लोगों को रूपांतरित करने की क्षमता से जोड़ा जाता है। इन्हें भैरव से जोड़ा जाता है, ये अक्सर खोपड़ी और अन्य तांत्रिक प्रतीकों को धारण करती हैं, और श्मशान घाटों और अन्य सीमांत स्थानों में साधना करती हैं। ये शक्तिशाली और खतरनाक होती हैं।

योगिनी मंदिर:- 

वर्तमान मंदिर या तो गोलाकार होते हैं या आयताकार हैं। ये मध्य और उत्तरी भारत में उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश और ओडिशा राज्यों में फैले हुए हैं। ये लुप्त मंदिर है जिनके स्थान जीवित योगिनी प्रतिमाओं से पहचाने जाते हैं। पूरे उपमहाद्वीप में, उत्तर में दिल्ली से लेकर पश्चिम में राजस्थान की सीमा तक, पूर्व में वृहत्तर बंगाल और दक्षिण में तमिलनाडु तक,ये मन्दिर व्यापक रूप से फैले हुए हैं ।

      कहा जाता है कि घोर नामक दैत्य के साथ युद्ध करते हुए माता ने उक्त 64 अवतार लिए थे । यह भी माना जाता है कि ये सभी माता पार्वती की सखियां हैं। इन 64 देवियों में से 10 महाविद्याएं और सिद्ध विद्याओं की भी गणना की जाती है। चौसठ योगिनी हिंदू धर्म की तांत्रिक परंपरा में देवी शक्ति के 64 रूपों का एक समूह है।

       स्कंदपुराण का काशीखंड खंड ,जो वाराणसी में 64 योगिनियों के भेष बदलकर आने की पौराणिक कथा का वर्णन करता है, कहता है कि पूजा सरल हो सकती है, क्योंकि योगिनियों को केवल फल, धूप और प्रकाश के दैनिक दान की आवश्यकता होती है। यह शरद ऋतु के लिए एक प्रमुख अनुष्ठान का वर्णन करता है, जिसमें अग्नि आहुति, योगिनियों के नामों का पाठ और अनुष्ठानिक प्रसाद शामिल हैं, जबकि वाराणसी के सभी निवासियों को वसंत ऋतु में होली के त्योहार पर देवियों का सम्मान करने के लिए मंदिर जाना चाहिए । 

       चौसठ योगिनी मंदिर को लेकर आस-पास के लोगों का कहना है कि आज भी यह मंदिर शंकर भगवान की तंत्र साधना के कवच से ढका हुआ है। यहां पर किसी को भी रात में ठहरने की इजाजत नहीं है। ये योगिनियां देवी के विभिन्न पहलुओं का प्रतिनिधित्व करती हैं, जैसे ज्ञान, शक्ति, सौंदर्य और करुणा आदि। चौसठ योगिनी मंदिरों को अक्सर गोलाकार या आयताकार संरचनाओं में बनाया जाता है, जिनमें प्रत्येक में 64 छोटे कक्ष या आले होते हैं, जो प्रत्येक योगिनी को समर्पित होते हैं। यहां सूर्य के गोचर के आधार पर ज्योतिष और गणित की शिक्षा प्रदान की जाती थी। इनके मंदिर में 64 कमरे होते हैं और हर कमरे में भगवान शिव और योगिनी की मूर्ति स्थापित होती है। इसी कारण इसे चौसठ योगिनी मंदिर कहा जाता है। दिन ढलने के पश्चात् यहां तंत्र साधक(अघोरी) आते हैं और भगवान शिव की योगिनियों को जाग्रत करने का प्रयास करते हैं। मंदिर को "तांत्रिक विश्वविद्यालय" के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि यह माना जाता है कि यहां तंत्र-मंत्र की शिक्षा दी जाती थी। 

भारत में बीस चौसठ योगिनी मंदिर :- 

भारत में लगभग बीस चौसठ योगिनी मंदिर हैं, जिनमें से 10 मध्य प्रदेश में स्थित हैं। ये मंदिर 64 योगिनियों को समर्पित हैं, जिनमें से प्रत्येक एक दिव्य स्त्री शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। समस्त योगिनियां अलौकिक शक्तिओं से सम्पन्न हैं तथा इंद्रजाल, जादू, वशीकरण, मारण, स्तंभन इत्यादि कर्म इन्हीं की कृपा द्वारा ही सफल हो पाते हैं। 

अष्ट योगिनियां :- 

प्रमुख रूप से आठ योगिनियों के नाम इस प्रकार हैं:- 

1.सुर-सुंदरी योगिनी,

2.मनोहरा योगिनी, 

3. कनकवती योगिनी, 

4.कामेश्वरी योगिनी, 

5. रति सुंदरी योगिनी, 

6. पद्मिनी योगिनी, 

7. नतिनी योगिनी और 

8. मधुमती योगिनी।

चौंसठ योगिनियों के नाम :- 

1.बहुरूप, 3.तारा, 3.नर्मदा, 4.यमुना, 5.शांति, 6.वारुणी 7.क्षेमंकरी, 8.ऐन्द्री, 9.वाराही, 10.रणवीरा, 11.वानर-मुखी, 12.वैष्णवी, 13.कालरात्रि, 14.वैद्यरूपा, 15.चर्चिका, 16.बेतली,17.छिन्नमस्तिका, 18.वृषवाहन, 19.ज्वालाकामिनी, 20.घटवार, 21.कराकाली, 22.सरस्वती, 23.बिरूपा, 24.कौवेरी. 25.भलुका, 26.नारसिंही, 27.बिरजा,28.विकतांना, 29.महालक्ष्मी, 30.कौमारी,31.महामाया, 32.रति, 33.करकरी, 34.सर्पश्या, 35.यक्षिणी, 36.विनायकी, 37.विंध्यवासिनी, 38. वीरकुमारी, 39. माहेश्वरी, 40.अम्बिका, 41.कामिनी, 42.घटाबरी, 43.स्तुती, 44.काली, 45.उमा, 46.नारायणी, 47.समुद्र, 48.ब्रह्मिनी, 49.ज्वालामुखी,50.आग्नेयी, 51.अदिति, 51.चन्द्रकान्ति, 53.वायुवेगा, 54.चामुण्डा, 55.मूरति, 56.गंगा, 57.धूमावती, 58.गांधार, 59.सर्व मंगला, 60.अजिता, 61.सूर्यपुत्री 62.वायु वीणा, 63.अघोर और 64. भद्रकाली।

चौसठ योगिनी मंदिर की वास्तुकला :- 

मंदिर का लेआउट गोलाकार है, जिसमें मुख्य देवता को समर्पित केंद्रीय मंदिर है और उसके चारों ओर गोलाकार पैटर्न में 64 सहायक मंदिर हैं । प्रत्येक सहायक मंदिर में एक अलग देवी की मूर्ति है, जो स्त्री देवत्व के विभिन्न रूपों का प्रतीक है। चौसठ योगिनी मंदिर, 64 योगिनियों को समर्पित भारतीय मंदिर स्थापत्य कला की उत्कृष्ट कृतियाँ हैं, जो दिव्य स्त्री और पुरुष ऊर्जाओं के गतिशील अंतर्संबंध का प्रतिनिधित्व करती हैं। पहाड़ियों की चोटियों पर स्थित, इन मंदिरों में जटिल डिज़ाइन तत्व हैं, जिनमें मंदिर और मूर्तियाँ ब्रह्मांडीय ऊर्जा, प्रकृति और आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक हैं।

64 योगिनियों के योगिनी प्रधान मंदिर  64 योगिनियों के मंदिर, विशेष रूप से योगिनी-प्रधान, भारत में स्थित हैं और ये मंदिर तांत्रिक प्रथाओं और देवी योगिनी की पूजा के लिए जाने जाते हैं। ये मंदिर गोलाकार होते हैं और 64 छोटे-छोटे कमरों से युक्त होते हैं, जिनमें से प्रत्येक में एक शिवलिंग और एक योगिनी की मूर्ति होती है। प्रत्येक मंदिर में एक योगिनी की छवि या प्रतिमा होती है, जिसे अक्सर पशु के सिर या रूपात्मक विशेषताओं के साथ दर्शाया जाता है, जो प्रकृति, वनों और भैरव पंथ से उनके संबंध को दर्शाता है।योगिनियों को गतिशील नृत्य, ध्यान या राजसी मुद्रा में दिखाया जाता है, जो उनकी विविध शक्तियों और पहलुओं का प्रतीक है।

एक केंद्रीय मंदिर का विधान : - 

64 योगिनियों के मंदिर में एक केंद्रीय मंदिर का विधान होता है, जिसमें आमतौर पर भगवान शिव या शक्ति की मूर्ति होती है। यह मंदिर, 64 योगिनियों के कक्षों से घिरा होता है, जो दिव्य पुरुष और स्त्री ऊर्जा की एकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसमें आमतौर पर भगवान शिव या शक्ति की मूर्ति होती है, जो आसपास के प्रत्येक कक्ष से दिखाई देती है, जो दिव्य पुरुष और स्त्री ऊर्जा की एकता का प्रतिनिधित्व करती है।

एक खुला केंद्रीय प्रांगण : - 

64 योगिनियों के मंदिर में एक खुला केंद्रीय प्रांगण होता है, जिसके चारों ओर 64 योगिनियों की मूर्तियाँ स्थापित होती हैं। यह प्रांगण आमतौर पर एक गोलाकार या अर्धवृत्ताकार आकार का होता है, और इसके केंद्र में एक मंडप या मंदिर होता है, जो मुख्य देवता को समर्पित होता है। प्रांगण खुला होता है, जो प्रकृति और ईश्वर के बीच के संबंध को और पुष्ट करता है। प्रांगण के चारों ओर स्तंभ हैं, जिन पर अक्सर जटिल नक्काशी की गई है, जो अलग- अलग मंदिरों को सहारा देते हैं।

मन्दिर की संरचना : - 

64 योगिनियों के मंदिर की संरचना गोलाकार है, जिसमें 64 छोटे कमरे हैं, प्रत्येक में एक शिवलिंग है। यह मंदिर एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है और इसकी बाहरी त्रिज्या 170 फीट है. मंदिर का डिज़ाइन इस तरह से किया गया है कि यह भूकंप जैसी आपदाओं को झेलने में सक्षम है. इसके केंद्रीय भाग में स्लैब के आवरण हैं जिनमें छिद्र हैं, जिससे बारिश का पानी एक बड़े भूमिगत भंडारण में जमा हो जाता है. मंदिर आमतौर पर एक मंजिला होते हैं और इनकी छत सपाट पत्थर की स्लैब से बनी होती है। पत्थर की भार वहन करने वाली संरचनाएँ मंदिर को स्थायित्व प्रदान करती हैं।

पहाड़ी की चोटी पर स्थित स्थान :- 

मंदिर आमतौर पर पहाड़ी की चोटी पर बनाए जाते हैं, जो सांसारिक और दिव्य क्षेत्रों के बीच संबंध का प्रतीक हैं।पहाड़ी की चोटी पर लगभग 100 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह अद्भुत मंदिर, अपनी गोलाकार संरचना के कारण उड़न तश्तरी जैसा प्रतीत होता है। पहाड़ी की चोटी पर योगिनी मंदिर  बनाने के पीछे कई कारण हैं, जिनमें आध्यात्मिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक महत्व शामिल हैं। ये मंदिर अक्सर एकांत और ऊंचे स्थानों पर बनाए जाते थे, जो ध्यान और साधना के लिए उपयुक्त माने जाते थे। पहाड़ की चोटी को ऊर्जा का केंद्र माना जाता है, और योगिनियों को शक्ति और ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। इस प्रकार, मंदिर को पहाड़ी पर बनाने से आध्यात्मिक शक्ति और पवित्रता की भावना बढ़ जाती है. पहाड़ी की चोटी पर स्थित मंदिर, एकांत और शांति प्रदान करते हैं, जो ध्यान और साधना के लिए आदर्श वातावरण बनाते हैं। यह योगिनियों की पूजा और उनके साथ जुड़ने के लिए एक उपयुक्त स्थान माना जाता है. कुछ योगिनी मंदिरों को तंत्र साधना के लिए भी जाना जाता है। पहाड़ी की चोटी पर स्थित मंदिर, तंत्र साधकों को एकांत और गुप्त वातावरण प्रदान करते थे, जहां वे अपनी साधना कर सकते थे. कुछ मान्यताओं के अनुसार, प्राचीन काल में देवी-देवता पहाड़ों पर निवास करते थे, इसलिए मंदिरों को पहाड़ों पर बनाना शुभ माना जाता था. पहाड़ी की चोटी पर स्थित मंदिर, निचले इलाकों की तुलना में अधिक सुरक्षित होते थे। प्राचीन काल में, इन मंदिरों को हमलों से बचाने के लिए भी पहाड़ों पर बनाया जाता था. पहाड़ी की चोटी पर मंदिर बनाने से वास्तुकला को भी एक अनूठा रूप मिलता है। यह मंदिर को आसपास के वातावरण के साथ एकीकृत करता है और एक विशिष्ट दृश्य प्रभाव पैदा करता है. पहाड़ी की चोटी पर स्थित मंदिर, पर्यटकों और तीर्थयात्रियों के लिए भी एक आकर्षक स्थान होते हैं। यह मंदिर के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को भी बढ़ाता है।

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

(वॉर्ड्सऐप नम्बर+919412300183)



भारतीय संस्कृति में सौभाग्य और सुचिता का प्रतीक: सिन्दूर✍️आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

पीले मिश्रित लाल रंग को सिंदूरी रंग कहा जाता है। यह रंग नारंगी और लाल के बीच का होता है। इसे कुमकुम भी कहा जाता है, जो आमतौर पर हिंदू महिलाओं द्वारा उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त, सिंदूर को अबीर और गुलाल के रूप में भी जाना जाता है, जो होली जैसे त्योहारों में उपयोग किए जाते हैं । इसके अलावा, इसे "नाग-संभूत" या "नागज" भी कहा जाता है, क्योंकि कुछ मान्यताओं के अनुसार इसकी खोज नागों द्वारा की गई थी।

सिंदूर का इतिहास:- 

शिव पुराण में वर्णन मिलता है कि माता पार्वती ने वर्षों तक शिव जी को वर के रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या की थी। जब भगवान शिव ने मां पार्वती को अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लिया तो मां पार्वती ने सुहाग के प्रतीक के रूप में सिंदूर मांग में लगाया था। उन्होंने कहा  कि जो स्त्री सिंदूर लगाएगी उसकी पति को सौभाग्य और लंबीआयु की प्राप्ति होगी। धार्मिक मतों के अनुसार सबसे पहले माता पार्वती ने ही सिंदूर लगाया था और तभी से ये परंपरा चल पड़ी। सिंदूर को देवी पार्वती से जोड़ा जाता है, और इसे पति की लंबी उम्र और वैवाहिक जीवन की सुख-समृद्धि के लिए लगाया जाता है। यह माना जाता है कि इसे लगाने से देवी पार्वती का आशीर्वाद मिलता है। इस लिंक से सिन्दूर की महत्ता और स्पष्ट हो जाती है - 

https://www.facebook.com/share/r/1FESwDdTcw/


नवपाषाण काल में सिंदूर का प्रयोग:- 

बलूचिस्तान के मेहरगढ़ गहराई में मिली नवपाषाण काल की महिला कारीगरों की मूर्ति से प्रतीत होता है कि उस समय के महिलाओं के बालों के बीच में सिन्दूर जैसा रंग लगाया जाता था। सिंदूर भारतीय संस्कृति और परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो विवाहित स्त्रियों के सौभाग्य और शुभता का प्रतीक माना जाता है। सिंदूर का प्रयोग और इसका सांस्कृतिक महत्व हजारों वर्षों से प्रचलित है। विवाहित स्त्रियाँ अपनी माँग में सिन्दूर भरने की यह प्रथा लगभग 8000 वर्ष पूर्व से ही प्रचलित है।

हड़प्पा - मोहनजोदड़ो की सभ्यता :- 

सिंदूर का उपयोग हड़प्पा , मोहनजोदड़ो की सभ्यता में भी देखा गया है, जहाँ खुदाई में स्त्रियों की मूर्तियों के मांग में सिंदूर के निशान पाए गए हैं। यह प्रमाणित करता है कि सिंदूर का प्रयोग भारत में बहुत पुराने समय से हो रहा है।इस सभ्यता सबसे बड़ी स्थल राखीगढ़ी में खुदाई के दौरान महिलाओं के सजने संवरने को लेकर काफी चीजें मिलीं हैं। पत्थर की मालाएं, मिट्टी,तांबा व फियांस से बनीं चूड़ियां, कंगन, सोने के आभूषण, मिट्टी की माथे की बिंदी, सिंदूर दानी, अंगूठी, कानों की बालियां आदि प्रमुख हैं। इससे ये पता चल जाता है कि महिलाएं लगभग आठ हजार साल पहले भी सिंदूर लगाती थीं और सजने संवरने के लिए कंगन-चूड़ी, अंगूठी, बिंदी आदि का उपयोग करती थीं। पता चलता है कि पुराने जमाने में हल्दी, फिटकिरी, या चूने से सिंदूर को बनाया जाता था।  इस सभ्यता से भी कुछ ऐसे सबूत मिलते हैं जो बताते हैं कि सिंदूर लगाने की परंपरा तब भी थी।  जिनमें महिलाओं की मांग में सिंदूर लगाने के साक्ष्य हैं। इस काल से जुड़ी देवियों की कुछ ऐसी मूर्तियां मिली हैं जिनके सिर के बीच में एक सीधी रेखा है और उस पर लाल रंग भरा गया है। पुरातत्वविदों का मानना है कि यह और कुछ नहीं बल्कि सिंदूर है। 

पारंपरिक सिन्दूर का उपयोग :- 

हल्दी और फिटकरी या चूने, या अन्य सामग्री से बनाया गया था।  लाल सीसा और सिन्दूर के विपरीत, ये अपराध नहीं होते हैं।  कुछ व्यावसायिक सिन्दूर के बारीक कणों के मसाले मौजूद होते हैं, जिनमें से कुछ मानक के अनुसार निर्मित नहीं होते हैं और उनमें सीसा हो सकता है। सिंदूर का इस्तेमाल पारंपरिक रूप से औषधीय कारणों से भी किया जाता रहा है। आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों में, हिंदू धर्म में ऐतिहासिक जड़ों वाली चिकित्सा पद्धति में, लाल सिंदूर पाउडर में औषधीय गुण होते हैं जो महिलाओं को लाभ पहुंचाते हैं, जिसमें उनकी कामोत्तेजना को बढ़ाने के लिए रक्त प्रवाह को सक्रिय करना शामिल है - यही कारण है कि अविवाहित महिलाओं और विधवाओं को इसे लगाने की अनुमति नहीं रही है।

सिंदूर का आध्यात्मिक महत्व :- 

सिंदूर का महत्व भारतीय समाज में अत्यधिक है। यह केवल सौंदर्य का प्रतीक नहीं है, बल्कि इसका धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व भी है। विवाहित स्त्रियों के लिए सिंदूर एक शुभ संकेत है। मांग में भरने का अर्थ होता है कि वह स्त्री विवाहित है और अपने पति की लंबी आयु और समृद्धि की कामना करती है। सिंदूर का लाल रंग शक्ति और उर्वरता का प्रतीक है, जो स्त्रियों की ऊर्जा और जीवंतता को दर्शाता है।

सौभाग्य और सुहाग का प्रतीक:- 

सिंदूर विवाहित महिलाओं के लिए सौभाग्य और सुहाग का प्रतीक है। यह माना जाता है कि सिंदूर लगाने से पति की रक्षा होती है और वैवाहिक जीवन में खुशहाली आती है। सिंदूर लगाने से सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है, ऐसा माना जाता है। 

सिंदूर का सांस्कृतिक महत्त्व :- 

सिंदूर का सांस्कृतिक महत्त्व भी अत्यधिक है। हिंदू धर्म में, विवाह के समय पति द्वारा पत्नी की मांग में सिंदूर भरना एक महत्व- पूर्ण रस्म है, जो उन्हें आधिकारिक रूप से पति-पत्नी घोषित करता है। यह रस्म भारतीय समाज के विभिन्न हिस्सों में थोड़े-बहुत भिन्न रूपों में प्रचलित है, लेकिन इसका मूल अर्थ वही रहता है। विवाहित स्त्रियाँ प्रतिदिन अपनी मांग में सिंदूर भरती हैं, जिसे वे अपने पति के प्रति समर्पण और सम्मान के रूप में देखती हैं। इसकेअलावा, विशेष अवसरों और त्योहारों पर भी सिंदूर का प्रयोग विशेष रूप से किया जाता है। छठ पूजा में माताएं बहुत लंबे शिर के बीचोबीच मांग से नाक तक सिन्दूर लगाती हैं और छठ माता से आशीर्वाद प्राप्त करती हैं।

विभिन्न साहित्यिक ग्रंथों में सिंदूर का उल्लेख:

प्राचीन भारतीय साहित्य में सिन्दूर का उल्लेख विभिन्न संदर्भों में मिलता है, जिसमें धार्मिक, सौंदर्य, और वैवाहिक प्रथाएं शामिल हैं। हालांकि सिन्दूर को स्पष्ट रूप से विवाह के प्रतीक के रूप में उल्लेख करने की प्रथा मध्यकाल में अधिक स्पष्ट हुई, प्राचीन साहित्य में इसका उपयोग सौभाग्य, शक्ति, और सौंदर्य प्रसाधन के रूप में देखा जाता है।

वैदिक साहित्य (1500-500 ईसा पूर्व)में सिन्दूर का प्रयोग :- 

लाल रंग के पदार्थों का सामान्य उल्लेख है, जिसे विवाहित महिलाओं के अलंकरण से जोड़ा गया है। कन्या के मांग में पहले सिन्दूर उसके शादी के दिन पति द्वारा सजाया जाता है जिसे हिंदूविवाह में सिंदूर दान कहा जाता है। सिन्दूर के संबंध में कुछ वैदिक धारणा भी है कि इसे लगाने के बाद पति को अपनी पत्नी का रक्षक बनना होता है तथा उसे हर सुख दुःख का साथी भी बनना पड़ता है। 

    ऋग्वेद और अथर्ववेद में सिन्दूर का सीधा उल्लेख नहीं है, लेकिन लाल रंग के पदार्थों (जैसे गेरू, कुमकुम, या हरिद्रा) का उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों और सौंदर्य प्रसाधन में वर्णित है। उदाहरण के लिए, अथर्ववेद (6.138) में सौभाग्य और प्रजनन से संबंधित मंत्रों में लाल रंग के पदार्थों का उल्लेख है, जिसे सिन्दूर से जोड़ा जा सकता है।

पंच-सौभाग्य में समलित:- 

सिंदूर को वैदिक काल में पंच-सौभाग्य में शामिल किया गया था। पंच सौभाग्य बालों पर पुष्प, मंगल सूत्र, पैर की उंगली में छल्ले, चेहरे पर हल्दी और सिंदूर को कहा गया है। गृह्यसूत्र (वैदिक अनुष्ठान ग्रंथ) में विवाह संस्कारों के दौरान सौंदर्य प्रसाधनों और मांगलिक चिह्नों का उल्लेख है, जिसमें लाल रंग का उपयोग सिन्दूर के रूप में हो सकता है। सौभाग्य वती स्त्री के लिए मांगलिक प्रथाओं का उल्लेख मिलता है ।)

(संदर्भ: ऋग्वेद (10.85, विवाह सूक्त) 

महाकाव्य: रामायण और महाभारत (500 ईसा पूर्व-300 ईस्वी) में सिंदूर का महत्व:- 

सिंदूर लगाने का चलन प्राचीन काल से चला रहा है और इसका संबंध माता पार्वती व देवी सीता से भी जुड़ता है। वाल्मीकि रामायण में सीता के सौंदर्य प्रसाधन का वर्णन है, जिसमें लाल रंग के पदार्थों (संभवतः सिन्दूर या कुमकुम) का उपयोग मस्तक पर किया गया है। उदाहरण के लिए, सुंदरकांड (5.15) में सीता के मांगलिक अलंकरण का उल्लेख है, जो सिन्दूर से संबंधित हो सकता है। सिंदूर का उल्लेख रामायण काल में भी किया गया था। माना जाता है कि माता सीता नित दिन शृंगार के रूप में सिंदूर का प्रयोग करती थीं। बिंदी की तरह, सिंदूर का महत्व सिर के केंद्र में तीसरे नेत्र चक्र (उर्फ अजना चक्र) के पास इसके स्थान से उपजा है। मस्तिष्क से अजना चक्र की निकटता इसे एकाग्रता, इच्छा और भावनात्मक विनियमन से जोड़ती है। जो लोग चक्रों की शक्ति में विश्वास करते हैं, उनके लिए इस स्थान पर सिंदूर लगाने का अर्थ है एक महिला की मानसिक ऊर्जा को अपने पति पर ध्यान केंद्रित करने के लिए उपयोग करना।

       एक कथा के अनुसार, हनुमान जी ने जब मां सीता को सिंदूर लगाते हुए देखा और तो जिज्ञासावश उनसे यह पूछा लिया कि वह हर दिन सिंदूर क्यों लगाती हैं? तब जानकी जी ने उन्हें बताया कि वह भगवान श्री राम की लंबी आयु के लिए मांग में सिंदूर भरती हैं और भगवान श्री राम इससे प्रसन्न होते हैं। तब श्री राम के अनन्य भक्त हनुमान जी ने अपने प्रभु को प्रसन्न करने के लिए पूरे शरीर पर सिंदूर का लेप लगा लिया था। इसलिए वर्तमान काल में भी हनुमान जी की पूजा में सिंदूर का प्रयोग निश्चित रूप से किया जाता है। ऐसा करने से हनुमान जी प्रसन्न होते हैं और साधक की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है।

द्रौपदी की सिंदूरी मांग सजाने की कहानी:- 

प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत में, पांडवों की पत्नी द्रौपदी , हस्तिनापुर में घटने वाली घटनाओं से लेकर घृणा और विध्वंस तक, अपना सिन्दूर लिखा हुआ है । विवाह और सौभाग्य के संदर्भ में मांग में लाल रंग लगाने की प्रथा का संकेत है। द्रौपदी ने चीरहरण के गुस्से में बाल खोल दिए थे और सिंदूर नहीं पोछा। कहा जाता है कि उसके बाद सिंदूर भी नहीं लगाया था। द्रौपदी ने चीरहरण का बदला पूर होने पर महाभारत युद्ध में दुशासन के खून से बाल धोए थे और उसके बाद लाल सिंदूर से मांग सजाया था।

( संदर्भ:आदिपर्व, 1.189)।   

      ललिता सहस्रनाम और सौंदर्य लहरी ग्रंथों में सिन्दूर के प्रयोग का अक्सर उल्लेख किया गया है । सौंदर्य लहरी में प्राचीन कला कृतियाँ वर्णित हैं - 

तनोतु क्षेमं नः तव

वदना सौन्दर्यलहरी

परिवह-स्त्रोतः शरणिरिव 

सीमन्त-सारणीः।

वहन्ती सिन्दूरं प्रबल 

काबरी भारतीमिरा-

द्विशां बृंदैर बंदी-कृतमिव 

नवीनार्का किरणम् ॥

(हे माँ, आपके केशों के बीच की वह रेखा,जो एक चैनल की तरह दिखती है,जिसके माध्यम से आपके प्राकृतिक की तेज़ लहरें उतरती हैं,और जो दोनों तरफ से आयोजित होती है,आपका सिंदूर, जो उगते सूरज की तरह है,आपके शत्रुओं के सैनिकों की तरह काले बालों का उपयोग करके, हमारी रक्षा करें और हमें शांति दें।

(-आदि शंकराचार्य,सौंदर्य लहरी,पृष्ठ 44)

दांपत्य जीवन में सिंदूर का महत्व:- 

शास्त्रों में बताया गया है कि जिन सुहागिन महिलाओं द्वारा मांग में सिंदूर लगाया जाता है, उन्हें पति की अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। साथ ही समूचे परिवार को संकटों से छुटकारा मिल जाता है। नवरात्रि व दीपावली में मां दुर्गा और माता लक्ष्मी की उपासना में भी सोलह शृंगार में सिंदूर का स्थान श्रेष्ठ माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार, सिंदूर का प्रयोग करने से माता सती और मां पार्वती का आशीर्वाद प्राप्त होता है। इसके साथ दांपत्य जीवन में सुख और समृद्धि आती है। प्राचीन साहित्य में सिन्दूर का उपयोग मुख्य रूप से सौंदर्य और धार्मिक संदर्भों में है, लेकिन विवाह से इसका संबंध पुराणों और महाकाव्यों में अधिक स्पष्ट है। मार्कण्डेय पुराण और देवी भागवत में सिन्दूर को विवाहित स्त्रियों के सौभाग्य और पति की दीर्घायु से जोड़ा गया है, जो इसे विवाह के प्रतीक के रूप में स्थापित करता है।

जैन धर्म में सिंदूर :- 

जैन महिलाएं सिन्दूर लगाती हैं, पूर्वोत्तर शहरों में। जैन ननों को यह अपने बालों या कपड़ों पर लगाना पसंद है। सिन्दूर की देवियों की वैधानिक स्थिति के दर्शन के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, कई स्थानीय कला कृतियाँ, सिन्दूर देवियों को भी सिन्दूर लगाती हैं।

(- संदर्भ: रामायण और महाभारत में विवाहित स्त्रियों के अलंकरण।)

पुराण (300-1000 ईस्वी) में सिन्दूर के संदर्भ :- 

मार्कण्डेय पुराण और कामसूत्र में सिंदूर को सौभाग्य और वैवाहिक जीवन से जोड़ते हैं। मार्कण्डेय पुराण और देवी भागवत पुराण में सिन्दूर को माता पार्वती और अन्य देवियों के साथ जोड़ा गया है। सिन्दूर को देवी पूजा में चढ़ाया जाता था, और इसे सौभाग्य का प्रतीक माना जाता था। मार्कण्डेय पुराण (चंडी सप्तशती) में सिन्दूर के उपयोग को वैवाहिक सुख और पति की दीर्घायु से जोड़ा गया है।

     विष्णु पुराण और भागवत पुराण में भी कुमकुम और सिन्दूर जैसे पदार्थों का उल्लेख पूजा और सौंदर्य के संदर्भ में है, जो विवाहित स्त्रियों की प्रथाओं से संबंधित है 

(- संदर्भ: मार्कण्डेय पुराण (7.2) में देवी पूजा और सिन्दूर का उल्लेख।)

काव्य और नाटक (200 ईसा पूर्व- 1000 ईस्वी) में सिन्दूर:- 

कालिदास के साहित्य : जैसे कुमार - संभवम और रघुवंशम में स्त्रियों के सौंदर्य प्रसाधन में लाल रंग के पदार्थों (सिन्दूर या कुमकुम) का उल्लेख है। उदाहरण के लिए, कुमार संभवम (7.12) में पार्वती के मस्तक पर लाल रंग के अलंकरण का वर्णन है, जो सिन्दूर से जोड़ा जा सकता है।

      भास और शूद्रक जैसे नाटककारों के नाटकों (जैसे मृच्छ कटिकम्) में विवाहित स्त्रियों के मांग में लाल रंग लगाने की प्रथा का उल्लेख मिलता है, जो सामाजिक और वैवाहिक प्रतीक के रूप में देखा जाता है।  

(- संदर्भ: कालिदास की रचनाओं में सौंदर्य वर्णन।)

कामसूत्र और अन्य स्मृति ग्रंथ (200- 400 ईस्वी) में सिन्दूर का उल्लेख :- 

वात्स्यायन का कामसूत्र में सौंदर्य प्रसाधनों और अलंकरणों का विस्तृत वर्णन है, जिसमें सिन्दूर और कुमकुम जैसे लाल रंग के पदार्थों का उपयोग विवाहित स्त्रियों के लिए वर्णित है (अध्याय 4)। यह सौभाग्य और आकर्षण का प्रतीक माना जाता था। मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति में विवाहित स्त्रियों के लिए विशिष्ट अलंकरणों का उल्लेख है, जिसमें मांगलिक चिह्न (संभवतः सिन्दूर) शामिल हो सकते हैं।  

(- संदर्भ: कामसूत्र (4.1) में सौंदर्य प्रसाधन।)

भक्ति साहित्य (600-1000 )ईस्वी में सिंदूर :- 

भक्ति काल के दौरान, विशेष रूप से दक्षिण भारत में, आलवार और नयनार संतों के तमिल भक्ति साहित्य में सिन्दूर और कुमकुम का उल्लेख देवी पूजा और वैवाहिक सौभाग्य के संदर्भ में है। उदाहरण के लिए, तिरुक्कुरल में सौभाग्यवती स्त्री के अलंकरणों का वर्णन है, जो सिन्दूर से संबंधित हो सकता है। मध्यकालीन साहित्य (जैसे भक्ति काव्य और क्षेत्रीय साहित्य) में सिन्दूर का उपयोग विवाह के प्रतीक के रूप में और अधिक स्पष्ट हो जाता है।

(- संदर्भ: तमिल भक्ति साहित्य में सौंदर्य और पूजा।)

सिंदूरी शाम के विविध उल्लेख:- 

यह एक बहुत ही लोकप्रिय वाक्यांश है जिसका उपयोग अक्सर कविता, गीत और कला में किया जाता है, विशेष रूप से सूर्यास्त के समय के सौंदर्य का वर्णन करने के लिए। श्रीप्रकाश पाण्डेय की एक रचना दृष्टव्य है - 

धड़कन में संगीत प्यार का

होंठों पर तुम्हारा नाम

सूरज ने भी रच दी देखो

वहां नभ पर सिन्दूरी शाम 

घर-घर गूंजी एक कहानी

बस्ती-बस्ती फैली ये बात

पलकों पर चाँद सजाने में

यहां कट गयी सारी रात

शब्दों से गीतों को ढलने में

कितना दर्द हुआ बदनाम।

रहे प्रतीक्षा रत जीवन भर

मंजिल तक ना पहुंचे पास

सांस-सांस पर नाम तुम्हारा

पल-पल मिलने की आस

राहों में यादों के जंगल

भटकन सुबह और शाम।।

पूनम श्रीमाली की ये पंक्तियां भी दिल को छू लेती हैं - 

शाम सिंदूरी , 

ये डूबता सूरज और 

ये सिंदूरी नज़ारा ,

ये झील का किनारा ..!!

ये खूबसूरत कुदरती  नज़ारा

उस पर ये खामोशी 

और ख्वाब तुम्हारा।

ऐसे कैसे जाने देंगे प्रियतम

अभी तो शुरू हुआ है 

(तुम्हें सोचना) हमारा ..…....!!

संस्कृति में सिन्दूर:- 

सिन्दूर से जुड़ी हैं कई भारतीय फ़िल्में और नाटक, थीम इस स्मारक का महत्व- गिर्द घूमती है। इनसे सिंदूर (1947), सिंदूरम(1976),रक्त सिंधुरम (1985 ), सिंदूर(1987) और सिंदूर तेरे नाम का सीरीज़, (2005- -2007) शामिल हैं। 

ऑपरेशन सिंदूर 2025 :- 

अभी हाल ही 2025 में  भारतीय सशस्त्र बल ने पहलगाम हमले का जवाब पाकिस्तान पर मिसाइल हमले करके दिया। पहलगाम हमलों में पुरुष हिंदू क्रॉटल की मौत के संदर्भ में, मिसाइल हमले को ऑपरेशन सिंदूर नाम दिया गया था। आतंकियों ने सिंदूर उजाड़ी तो हमने बदले के लिए ऑपरेशन सिंदूर से करारा जवाब दिया । भारत ने सबसे पहले सिंधु नदी का पानी रोक कर आतंक पर चुप्पी साधी पाकिस्तान सरकार को जगाया। उसके बाद ऑपरेशन सिंदूर ने आतंकियों को राख करने का काम किया। ये संयोग समझिए या कुछ और…जो सिंधु और सिंदूर आज पाकिस्तान के लिए काल बने हैं। 

सिंदूर का वैज्ञानिक दृष्टिकोण:- 

सिंदूर का प्रयोग केवल धार्मिक और सांस्कृतिक कारणों से नहीं किया जाता, बल्कि इसका वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का ब्रह्मरंद्र यानी मस्तिष्क का उपरी भाग बहुत ही संवेदनशील और कोमल होता है। ऐसे में सिंदूर लगाने से विद्युत ऊर्जा पर नियंत्रण पाई जा सकती है और इससे नकारात्मक विचार दूर रहते हैं। ऐसा भी देखा गया है कि सिंदूर लगाने से सिर दर्द, अनिद्रा, मस्तिष्क से जुड़ा रोग समाप्त हो जाता है। यह भी कहा जाता है कि सिंदूर के प्रयोग से चेहरे पर जल्दी झुर्रियां भी नहीं पड़ती है और बढ़ती उम्र के संकेत दिखाई नहीं देते हैं।

       सिंदूर हल्दी और चूने के मिश्रण से बनाया जाता है, जो शरीर के लिए फायदेमंद होता है। यह माना जाता है कि सिंदूर लगाने से तनाव और मानसिक दबाव को कम करने में मदद मिलती है।इससे रक्त चाप तथा पीयूष ग्रंथि भी नियंत्रित होती है। सिंदूर में पाए जाने वाले पारंपरिक घटक, जैसे हल्दी और पारा, स्वास्थ्य के लिए लाभकारी माने जाते हैं। हल्दी एक प्राकृतिक एंटीसेप्टिक है, जबकि पारा रक्तचाप को नियंत्रित करने में मदद करता है।

निष्कर्ष :- 

प्राचीन भारतीय साहित्य में सिन्दूर का उल्लेख सौंदर्य प्रसाधन, धार्मिक अनुष्ठान, और सौभाग्य के प्रतीक के रूप में मिलता है। वैदिक साहित्य में लाल रंग के पदार्थों का सामान्य उल्लेख है, जबकि रामायण, महाभारत, और पुराणों में इसे विवाहित स्त्रियों के अलंकरण से जोड़ा गया है। मार्कण्डेय पुराण और कामसूत्र जैसे ग्रंथ सिन्दूर को सौभाग्य और वैवाहिक जीवन से जोड़ते हैं, जो विवाह प्रतीक के रूप में इसकी प्रारंभिक भूमिका को दर्शाता है। मध्यकालीन साहित्य में यह प्रथा और स्पष्ट हो जाती है। इस प्रकार सिंदूर भारतीय समाज और संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। इसका इतिहास, महत्व और सांस्कृतिक महत्त्व हमें हमारे पुरखों से विरासत में मिला है, जिसे हमें संजोकर रखना चाहिए। सिंदूर का प्रयोग केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि स्त्रियों के जीवन में  जीवन में सौभाग्य, प्रेम और शक्ति का प्रतीक है। यह न केवल एक श्रृंगार है, बल्कि विवाहित महिलाओं के लिए सौभाग्य, प्रेम, समर्पण और सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक है। 


लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

(वॉर्ड्सऐप नम्बर+919412300183)

Sunday, August 24, 2025

कोणार्क सूर्य मंदिर के निर्माण और विध्वंश की रोमांस पूर्ण कहानी # आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी

अवस्थिति:- 

कोणार्क सूर्य मंदिर बंगाल की खाड़ी के तट पर, ओड़िशा के पुरी जिले में पुरी शहर से लगभग 35 किलोमीटर उत्तर पूर्व स्थित है। यह सूर्य की किरण से साराबोर, सूर्य देवता के रथ का स्मारकीय प्रतिनिधि है,जो 24 नक्काशीदार पहिए और सात घोड़ों का प्रतिनिधित्व करता है और मंदिर के विशाल रथ को खींचते हुए दर्शाया गया है। यद्यपि मंदिर में घोड़ों की मूर्तियां नहीं, बल्कि पत्थर में उकेरी गई उत्कृष्टनक्काशी है। 

   13वीं शताब्दी में निर्मित, यह भारत के सबसे प्रसिद्ध ब्राह्मण पूजा स्थलों में से एक है। कोणार्क शब्द, 'कोण' और 'अर्क' शब्दों के मेल से बना है। अर्क का अर्थ होता है सूर्य, जबकि 'कोण' से अभिप्राय कोने या किनारे से है। इस कोणार्क सूर्य-मन्दिर का निर्माण लाल रंग के बलुआ पत्थरों तथा काले ग्रेनाइट के पत्थरों से हुआ है। इसका अन्य नाम ब्लैक पैगोडा , अर्कक्षेत्र और पद्मक्षेत्र भी हैं । यूनेस्को ने इस अद्भुत कृति को विश्व-ऐतिहासिक स्थल घोषित किया है। पूरी संरचना में भगवान सूर्य की पूजा की जाती है। यह कलिंग वास्तुकला का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसने न केवल अपनी अद्भुत प्रतिभा का प्रदर्शन किया है, बल्कि लाखों लोगों को इसकी सुंदरता देखने के लिए आकर्षित भी किया है। कोणार्क भव्य मंदिर वास्तुकला, इतिहास, मनोरम समुद्र तट और अद्भुत प्राकृतिक सुंदरता का एक अनूठा मिश्रण है।

द्वापर युग से जुड़ा प्रसंग:- 

यह मन्दिर सूर्य देव को समर्पित है, जिन्हें स्थानीय लोग 'बिरंचि-नारायण' कहते हैं। इसी कारण इस क्षेत्र को उसे अर्क-क्षेत्र (अर्क=सूर्य) या पद्म-क्षेत्र कहा जाता है। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था  जिसे ऋषि दुर्वासा ने उनका उपहास करने पर दिया था। यह भी कहा जाता है कि श्री कृष्ण द्वारा नारद जी के छलावे में पिता के प्रिय गोपियों के संग रास लीला करने के कारण सांब को श्री कृष्ण के श्राप से कोढ़ रोग हो गया था। साम्ब ने मित्रवन में चंद्रभागा नदी के सागर संगम पर कोणार्क में, बारह वर्षों तक तपस्या की थी और सूर्यदेव को प्रसन्न किया था। सूर्यदेव, जो सभी रोगों के नाशक थे, ने इसके रोग का भी निवारण कर दिया था। तदनुसार साम्ब ने सूर्य भगवान का एक मन्दिर निर्माण का निश्चय किया। अपने रोग-नाश के उपरांत, चंद्रभागा नदी में स्नान करते हुए, उसे सूर्यदेव की एक मूर्ति मिली। यह मूर्ति सूर्यदेव के शरीर के ही भाग से, देवशिल्पी श्री विश्वकर्मा ने बनायी थी। साम्ब ने अपने बनवाये मित्रवन में एक मन्दिर में, इस मूर्ति को स्थापित किया, तब से यह स्थान पवित्र माना जाने लगा।

कोणार्क मंदिर के पुनर्निर्माण की कहानी:- 

बचपन से ही नरसिंहदेव सूर्योदय की भव्यता और समुद्र की गड़गड़ाहट से मंत्रमुग्ध रहे हैं। चंद्रभागा नदी, जो अब सूख चुकी है, मंदिर स्थल से एक मील के दायरे में बहती थी और अंततः समुद्र में मिल जाती थी। इसके किनारों पर समृद्ध कस्बे और प्रमुख वाणिज्य केंद्र थे। विदेशी व्यापार भी समुद्री मार्गों से होता था, क्योंकि उस समय नदी के अलावा संपर्क का कोई अन्य साधन नहीं था। मंदिर का निर्माण उनकी इच्छानुसार लगभग 13वीं शताब्दी में हुआ था। उन्होंने इस कार्य के लिए 12000 कारीगरों को नियुक्त किया और निर्माण पूरा होने में 12 वर्ष लगे। 

      एक कथा के अनुसार, गंग वंश के राजा नृसिंह देव प्रथम ने अपने वंश का वर्चस्व सिद्ध करने हेतु, राजसी घोषणा से मंदिर निर्माण का आदेश दिया। बारह सौ वास्तुकारों और कारीगरों की सेना ने अपनी सृजनात्मक प्रतिभा और ऊर्जा से परिपूर्ण कला से बारह वर्षों की अथक मेहनत से इसका निर्माण किया। राजा ने पहले ही अपने राज्य के बारह वर्षों की कर-प्राप्ति के बराबर धन व्यय कर दिया था। लेकिन निर्माण की पूर्णता कहीं दिखायी नहीं दे रही थी। तब राजा ने एक निश्चित तिथि तक कार्य पूर्ण करने का कड़ा आदेश दिया। बिसु महाराणा के पर्यवेक्षण में, इस वास्तुकारों की टीम ने पहले ही अपना पूरा कौशल लगा रखा था।

वास्तुकार के पुत्र द्वारा कलश की स्थापना :- 

बारह वर्षों के अथक परिश्रम के बाद, अंततः कलश, जो मन्दिर के शिखर का मुख्य भाग है, स्थापित करने का समय आ गया था। मुख्य वास्तुकार, बिशु महाराणा, इस समय इसे स्थापित करने के समस्याओं से जूझ रहे थे। अनेक प्रयोगों के बाद भी, वे इस समस्या का समाधान नहीं खोज पा रहे थे। इसी बीच, मुख्य वास्तुकार का पुत्र, 'धर्मपद', लंबी अनुपस्थिति के बाद अपने पिता से मिलने आया। 

      धर्मपद का जन्म उसके पिता के निर्माण कार्य के लिए बाहर जाने के एक महीने बाद हुआ था, और बारह वर्ष बीत चुके थे। अपने बारहवें जन्मदिन पर, उसने अपनी माँ से अपने पिता से मिलने का अनुरोध किया, जिसे उसकी माँ ने स्वीकार कर लिया, और पुत्र अपने पिता के निर्माण स्थल की यात्रा पर निकल पड़ा।

     मुख्य वास्तुकार विशु महाराणा दुखी भी था क्योंकि उन्हें राजा से पहले ही काम जल्द से जल्द पूरा करने का आदेश मिल चुका था, वरना वह कारीगरों के सिर उनके धड़ से अलग कर देते। यह सब सुनकर, बचपन से वास्तुकला का अध्ययन कर रहे धर्मपद, स्थापना में आई समस्या का निरीक्षण करने के लिए तुरंत उठ खड़े हुए। वह और उनके पिता उस जगह पर वापस लौटे और पूरी स्थिति का मिलकर निरीक्षण किया। उसने तब तक के निर्माण का गहन निरीक्षण किया, यद्यपि उसे मंदिर निर्माण का पूर्ण व्यवहारिक ज्ञान नहीं था, परन्तु उसने मंदिर स्थापत्य के शास्त्रों का पूर्ण अध्ययन किया हुआ था। उसने समस्या को तुरंत पहचान लिया और मंदिर के अंतिम शिखर शिला को लगाने का सुझाव दिया। कारीगरों ने उसके निर्देशों का पालन किया। वह खुद मन्दिर पर चढ़कर कलश को स्थापित कर समय पर काम पूरा कर सबको आश्चर्य में डाल दिया। 

वास्तुकार जाति के हित के लिए दी अपनी कुर्बानी :- 

मन्दिर के कलश स्थापित होते हुए मन्दिर निर्माण का काम पूरा हो गया। कारीगरों को अपनी किस्मत पर शक होता रहा, उन्हें लगता था कि अगर राजा को पता चला कि एक लड़के ने इसे पूरा किया , तो वे मानेंगे कि उनके पुराने कारीगर अपना काम ठीक से नहीं कर रहे हैं, क्योंकि एक छोटे से लड़के ने इतने कम समय में यह काम कर दिखाया था।     

     धर्मपद को अपनी उपलब्धियों के कारण यश, कीर्ति या यश की कोई लालसा नहीं थी। वह इस बात से बहुत खुश थे कि सूर्य देव का मंदिर बनकर इतने सारे लोगों की जान बच गई।  इस स्थिति को छिपाने के लिए, वे मंदिर की छतरी पर चढ़ गए और गहरे नीले समुद्र में छलांग लगा दी। इस विलक्षण प्रतिभावान का शव सागर तट पर मिला। कहते हैं, कि धर्मपद ने अपनी जाति के हितार्थ अपनी जान तक दे दी। इस प्रकार एक युवा बालक ने अब तक का सबसे बड़ा मंदिर बनाकर परम गौरव प्राप्त करने के बाद दूसरों के जीवन को बचाने के लिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया।

मुख्य वास्तुकार ने देश छोड़ा:- 

पुत्र मृत्यु की घटना से मुख्य वास्तुकार के हृदय में बहुत ठेस लगी। राजा शीघ्र मन्दिर के प्राण प्रतिष्ठा करवाना चाहते थे। मुहूर्त भी निकलवा लिए जिसे महाराणा विशु शुभ नहीं मानते थे। उन्होंने राजा को दूसरा मुहूर्त चुनने का अनुरोध किया। जब राजा ने महाराणा का सलाह नहीं माना तो और बड़ी अनहोनी की आशंका में महाराणा विशु गुप्त रूप में देश छोड़ कहीं चले गए।

राजा अपने नीयत तिथि पर प्राण प्रतिष्ठा करवाए और परिणाम स्वरूप मन्दिर का जीवन दीर्घ कालीन ना बन सका और कम समय में यह विध्वंश को प्राप्त हुआ। राजा को भी कम समय में यह दुनिया छोड़ना पड़ा । इससे मंदिर धीरे धीरे अपने अवनति को प्राप्त होता गया।

मुख्य प्रांगण :- 

मंदिर का  857 फीट X 540 फीट का है। यह मंदिर पूर्व - पश्चिम दिशा में बना है। मंदिर प्राकृतिक हरियाली से घिरा हुआ है। इसमें कैज़ुएरिना एवं अन्य वृक्ष लगे हैं, जो कि रेतीली भूमि पर उग जाते हैं। यहां भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा बनवाया उद्यान है।

रथ रूप में बना विशाल मन्दिर:- 

तेरहवीं सदी का मुख्य सूर्य मंदिर, एक महान रथ रूप में बना है, जिसके बारह जोड़ी सुसज्जित पहिए हैं, एवं सात घोड़ों द्वारा खींचा जाता है। यह मंदिर भारत के उत्कृष्ट स्मारक स्थलों में से एक है। 

आश्चर्यचकित स्थापत्यकला :- 

यहां के स्थापत्य अनुपात दोषों से रहित एवं आयाम आश्चर्यचकित करने वाले हैं। यहां की स्थापत्यकला वैभव एवं मानवीय निष्ठा का सौहार्दपूर्ण संगम है। मंदिर की प्रत्येक इंच, अद्वितीय सुंदरता और शोभा की शिल्पाकृतियों से परिपूर्ण है। इसके विषय भी मोहक हैं, जो सहस्रों शिल्प आकृतियां भगवानों, देवताओं, गंधर्वों, मानवों, वाद्यकों, प्रेमी युगलों, दरबार की छवियों, शिकार एवं युद्ध के चित्रों से भरी हैं। इनके बीच बीच में पशु-पक्षियों (लगभग दो हज़ार हाथी, केवल मुख्य मंदिर के आधार की पट्टी पर भ्रमण करते हुए) और पौराणिक जीवों, के अलावा महीन और पेचीदा बेल बूटे तथा ज्यामितीय नमूने अलंकृत हैं। उड़िया शिल्पकला की हीरे जैसी उत्कृष्त गुणवत्ता पूरे परिसर में अलग दिखाई देती है।

कामुक मुद्राएं :- 

यह मंदिर अपनी कामुक मुद्राओं वाली शिल्पाकृतियों के लिये भी प्रसिद्ध है। इस प्रकार की आकृतियां मुख्यतः द्वारमण्डप के द्वितीय स्तर पर मिलती हैं। इस आकृतियों का विषय स्पष्ट किंतु अत्यंत कोमलता एवं लय में संजोकर दिखाया गया है। जीवन का यही दृष्टिकोण, कोणार्क के अन्य सभी शिल्प निर्माणों में भी दिखाई देता है। हजारों मानव, पशु एवं दिव्य लोग इस जीवन रूपी मेले में कार्यरत हुए दिखाई देते हैं, जिसमें आकर्षक रूप से एक यथार्थवाद का संगम किया हुआ है। यह उड़ीसा की सर्वोत्तम कृति है। इसकी उत्कृष्ट शिल्प- कला, नक्काशी, एवं पशुओं तथा मानव आकृतियों का सटीक प्रदर्शन, इसे अन्य मंदिरों से कहीं बेहतर सिद्ध करता है।  

कलिंग शैली का मन्दिर :- 

यह सूर्य मन्दिर भारतीय मन्दिरों की कलिंग शैली का है, जिसमें कोणीय अट्टालिका (मीनार रूपी) के ऊपर मण्डप की तरह छतरी ढकी होती है। आकृति में, यह मंदिर उड़ीसा के अन्य शिखर मंदिरों से खास भिन्न नहीं लगता है। 229 फीट ऊंचा मुख्य गर्भगृह 128  फीट ऊंची नाट्यशाला के साथ ही बना है। इसमें बाहर को निकली हुई अनेक आकृतियां हैं। मुख्य गर्भ में प्रधान देवता का वास था, किंतु वह अब ध्वस्त हो चुका है। 

52 टन के एक विशाल चुंबक का प्रयोग 

किंवदंती के अनुसार, मंदिर के केंद्र में सूर्य देव की एक विशाल प्रतिमा स्थापित करने के उद्देश्य से प्रत्येक पत्थर को एक चुंबक प्लेट पर रखा गया था। मंदिर के शिखर पर एक चुंबकशिला स्थापित है, जिसके बारे में माना जाता है कि यह 52 टन का एक विशाल चुंबक है। इतिहास के अनुसार, ऊपरी चुंबक, निचले चुंबक और मंदिर की दीवारों के चारों ओर लगे मजबूत चुंबकों की अनूठी संरचना के कारण, मंदिर के भीतर सूर्य देव की प्रतिमा बिना किसी भौतिक सहारे के हवा में तैरती हुई प्रतीत होती थी। 

निर्माण कार्य में बाधा :- 

इतिहासकारों का मत है, कि कोणार्क मंदिर के निर्माणकर्ता, राजा लांगूल नृसिंहदेव की अकाल मृत्यु के कारण, मंदिर का निर्माण कार्य खटाई में पड़ गया। इसके परिणामस्वरूप, अधूरा ढांचा ध्वस्त हो गया। लेकिन इस मत को एतिहासिक आंकड़ों का समर्थन नहीं मिलता है। पुरी के मदल पंजी के आंकड़ों के अनुसार और कुछ 1278 ई. के ताम्रपत्रों से पता चला, कि राजा लांगूल नृसिंहदेव ने 1282 ई.तक शासन किया। कई इतिहासकार, इस मत के भी हैं, कि कोणार्क मंदिर का निर्माण 1253 से 1260 ई. के बीच हुआ था। अतएव मंदिर के अपूर्ण निर्माण का इसके ध्वस्त होने का कारण होना तर्कसंगत नहीं है।

कोणार्क मन्दिर का पहिया:- 

अपनी नींव के समय, मंदिर को एक विशाल रथ की शैली में बनाया गया था, जिसे सात महाबली घोड़ों द्वारा 12 जोड़ी पहियों (कुल 24 पहियों) पर खींचा जाता था। पहिये का व्यास 9 फुट 9 इंच है, और प्रत्येक पहिये में 8 चौड़े और 8 पतले तीलियाँ हैं। मुख्य मंदिर के दोनों ओर छह पहिये, मुखशाला के दोनों ओर चार पहिये और पूर्वी अग्रभाग की सीढ़ियों के दोनों ओर दो पहिये हैं।

सूर्य मंदिर कोणार्क में सात घोड़े :- 

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, सूर्य देव सात घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर सवार होकर आकाश में विचरण करते हैं। कोणार्क मंदिर सूर्य देव के दिव्य रथ के अनुरूप बनाया गया है, जिसमें बारह जोड़ी अलंकृत पहिए हैं और इसे सात सरपट दौड़ते घोड़े खींचते हैं। दाईं ओर चार और बाईं ओर तीन घोड़े हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि दोनों ओर घोड़ों की संख्या अलग-अलग होती है, एक ओर का रथ दूसरे से तेज़ चलता है, सूर्य मंदिर भी एक रथ की तरह, सूर्य की तरह ही एक गोलाकार गति में घूमता है। कोणार्क मंदिर के पहिए और सात घोड़े इसे एक रथ का रूप देते हैं।

तीन मंडप और तीन सूर्य प्रतिमाएं :- 

मुख्य मन्दिर तीन मंडपों में बना है। इनमें से दो मण्डप ढह चुके हैं। तीसरे मण्डप में जहाँ मूर्ति थी, अंग्रेज़ों ने स्वतंत्रता से पूर्व ही रेत व पत्थर भरवा कर सभी द्वारों को स्थायी रूप से बंद करवा दिया था ताकि वह मन्दिर और क्षतिग्रस्त ना हो पाए।

प्रवहमान सूर्य 'मित्र’:- 

मंदिर के तीनों ओर सूर्य देवता की तीन विशाल और अद्भुत नक्काशीदार मूर्तियाँ हैं। ये भगवान ब्रह्मा, भगवान विष्णु और भगवान शिव के तीन स्वरूपों का चित्रण हैं। दक्षिणी दीवार पर स्थित पहली सूर्यदेव की मूर्ति, जिसका शीर्षक 'मित्र' (सुबह का सूर्य या उगता हुआ सूर्य) है, में प्रवहमान सूर्य को दर्शाया गया है। सड़क सूर्य की प्रातःकालीन किरणों से नहाई हुई है और अपनी युवावस्था और सक्रियता की अभिव्यक्ति के लिए इतनी प्रभावशाली है कि इसे प्रवहमान सूर्य नाम दिया गया है।बाल्यावस्था-उदित सूर्य- 8 फीट ऊंची है।

मध्यान सूर्य 'पुंसन’:- 

पश्चिमी पार्श्व-भित्ति पर, सूर्य देव की दूसरी आकृति, जिसे 'पुंसन' कहा जाता है, (मध्याह्न सूर्य) के रूप में पूर्ण शक्ति और सार के साथ खड़ी दिखाई गई है। इस रूप का प्रचंड रूप संहारक की प्रतिष्ठा के अनुरूप है। भगवान शिव का इस प्रकार सम्मान किया जाता है।मध्याह्न सूर्य- 9.5 फीट ऊंची है।

अस्ताचल सूर्य: 'हरितस्व’:- 

अस्ताचल सूर्य, उत्तरी पार्श्व दीवार पर सूर्य देव की तीसरी आकृति है, जिसे 'हरितस्व' (शाम का सूर्य या अस्त होता सूर्य) कहा जाता है। भगवान विष्णु इस आकृति से जुड़े हैं, जिन्हें संरक्षक के रूप में वर्णित किया गया है। यह मूर्ति दिन भर की मेहनत से थके हुए चेहरे को दर्शाती है, और इस तथ्य के बावजूद कि बाकी सभी घोड़े पूरी तरह थक चुके हैं, वह अंतिम घोड़े की पीठ पर सवार होकर अपनी यात्रा समाप्त कर रहे हैं, जो भी इसी तरह अपने पैर मोड़े हुए झुका हुआ दिखाई देता है।अपराह्न सूर्य-3.5 फीट ऊंची है।

मूर्ति शिल्प कला :- 

इसके प्रवेश पर दो सिंह हाथियों पर आक्रामक होते हुए रक्षा में तत्पर दिखाये गए हैं। दोनों हाथी, एक-एक मानव के ऊपर स्थापित हैं। ये प्रतिमाएं एक ही पत्थर की बनीं हैं। ये 28 टन की 8.4 फीट लंबी 4.9 फीट चौड़ी तथा 9.2 फीट ऊंची हैं। मंदिर के दक्षिणी भाग में दो सुसज्जित घोड़े बने हैं, जिन्हें उड़ीसा सरकार ने अपने राजचिह्न के रूप में अंगीकार कर लिया है। ये 10 फीट लंबे व 7 फीट चौड़े हैं। मंदिर सूर्य देव की भव्य यात्रा को दिखाता है। 

नट मन्दिर:- 

इसके के प्रवेश द्वार पर ही नट मंदिर (नाट्यशाला) है। ये वह स्थान है, जहां मंदिर की नर्तकियां, सूर्यदेव को अर्पण करने के लिये नृत्य किया करतीं थीं। पूरे मंदिर में जहां तहां फूल-बेल और ज्यामितीय नमूनों की नक्काशी की गई है। इनके साथ ही मानव, देव, गंधर्व, किन्नर आदि की अकृतियां भी एन्द्रिक मुद्राओं में दर्शित हैं। इनकी मुद्राएं कामुक हैं और कामसूत्र से लीं गईं हैं। मंदिर अब अंशिक रूप से खंडहर में परिवर्तित हो चुका है। नाट्यशाला अभी पूरी बची हुई है।


शाही रक्षक - गज सिम्हा :- 

नृत्यशाला के प्रवेश द्वार के विपरीत दिशाओं में हाथियों और सिंहों की दो विशाल पत्थर की मूर्तियाँ हैं। कहा जाता है कि ये कोणार्क मंदिर के शाही रक्षक हैं। प्रत्येक मूर्ति में तीन प्रतीक दर्शाए गए हैं: एक पुरुष, एक हाथी और एक सिंह। पुरुष मूर्ति के सबसे नीचे है, हाथी उसके ऊपर है, और सिंह हाथी के ऊपर है; ऐसा प्रतीत होता है मानो सिंह और हाथी का संयुक्त भार पुरुष पर भारी पड़ रहा हो। भारतीय संस्कृति में हाथी को देवी लक्ष्मी से जोड़ा जाता है क्योंकि यह धन और समृद्धि का प्रतीक है। चूँकि सिंह शक्ति या अभिमान का प्रतीक है, इसलिए इसे हमेशा देवी दुर्गा से जोड़ा जाता है। गज- सिंह मूर्ति आगंतुकों को याद दिलाती है कि धन और शक्ति की लालसा से ग्रस्त व्यक्ति ईश्वर के निकट नहीं पहुँच सकता। आध्यात्मिक प्रगति प्राप्त करने के लिए इन लालसाओं पर विजय प्राप्त करनी होगी। जैसा कि मूर्ति में दिखाया गया है, यह हमें याद दिलाती है कि शक्ति और धन की लालसा मनुष्य के साथ क्या कर सकती है। 

संग्रहालय में कलाकृतियों का प्रदर्शन:- 

यहां की शिल्प कलाकृतियों का एक संग्रह, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सूर्य मंदिर संग्रहालय में सुरक्षित है। महान कवि व नाटकार रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस मन्दिर के बारे में लिखा है:- "कोणार्क जहां पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है।"

ध्वंस सम्बन्धी किंवदन्तियाँ :- 

यहाँ पर मन्दिर की ध्वस्तता के सम्पूर्ण कारणों का उल्लेख करना जटिल कार्य से कम नहीं है। परन्तु यह सर्वविदित है कि अब इसका काफी भाग ध्वस्त हो चुका है। जिसके मुख्य कारण वास्तु दोष भी कहा जाता है परन्तु मुस्लिम आक्रमणों की भूमिका अहम रही है।

वास्तु दोष :- 

कहा जाता है कि यह मन्दिर अपने वास्तु दोषों के कारण मात्र 800 वर्षों में क्षीण हो गया था। जिसे वास्तु कला व नियमों के विरुद्ध कहा-सुना जाता है। इसी कारण यह अपनी समयावधि से पहले ही ऋगवेद काल एवम् पाषाण कला का अनुपम उदाहरण होते हुए भी धराशायी हो गया।

     इस सूर्य-मन्दिर के मुख्य वास्तु दोष हैं- मंदिर का निर्माण रथ आकृति होने से पूर्व, दिशा, एवं आग्नेय एवं ईशान कोण खंडित हो गए। पूर्व से देखने पर पता लगता है, कि ईशान एवं आग्नेय कोणों को काटकर यह वायव्य एवं नैऋर्त्य कोणों की ओर बढ़ गया है।

       प्रधान मंदिर के पूर्वी द्वार के सामने नृत्यशाला है, जिससे पूर्वी द्वार अवरोधित होने के कारण अनुपयोगी सिद्ध होता है। नैऋर्त्य कोण में छायादेवी के मंदिर की नींव प्रधानालय से अपेक्षाकृत नीची है। उससे नैऋर्त्य भाग में मायादेवी का मंदिर और नीचा है।आग्नेय क्षेत्र में विशाल कुआं स्थित है। दक्षिण एवं पूर्व दिशाओं में विशाल द्वार हैं, जिस कारण मंदिर का वैभव एवं ख्याति क्षीण हो गई हैं।

चुम्बकीय पत्थर :- 

कई कथाओं के अनुसार, सूर्य मन्दिर के शिखर पर एक चुम्बकीय पत्थर लगा है। इसके प्रभाव से, कोणार्क के समुद्र से गुजरने वाले सागर पोत, इस ओर खिंचे चले आते हैं, जिससे उन्हें भारी क्षति हो जाती है। अन्य कथा अनुसार, इस पत्थर के कारण पोतों के चुम्बकीय दिशा निरूपण यंत्र सही दिशा नहीं बताते। इस कारण अपने पोतों को बचाने हेतु, मुस्लिम नाविक इस पत्थर को निकाल ले गये। यह पत्थर एक केन्द्रीय शिला का कार्य कर रहा था, जिससे मंदिर की दीवारों के सभी पत्थर संतुलन में थे। इसके हटने के कारण, मंदिर की दीवारों का संतुलन खो गया और परिणामतः वे गिर पड़ीं। परन्तु इस घटना का कोई ऐतिहासिक विवरण नहीं मिलता, ना ही ऐसे किसी चुम्बकीय केन्द्रीय पत्थर के अस्तित्व का कोई ब्यौरा उपलब्ध है।

कालापहाड़ द्वारा नष्ट किया जाना:- 

कोणार्क मंदिर के गिरने से सम्बन्धी एक अति महत्वपूर्ण कारण , कालापहाड से जुड़ा है। उड़ीसा के इतिहास के अनुसार कालापहाड़ सन 1508 में यहां आक्रमण किया और कोणार्क मंदिर समेत उड़ीसा के कई हिन्दू मंदिर ध्वस्त कर दिये। पुरी के जगन्नाथ मंदिर के मदाला पंजी बताते हैं, कि कैसे कालापहाड़ ने उड़ीसा पर हमला किया। कोणार्क मंदिर सहित उसने अधिकांश हिन्दू मंदिरों की प्रतिमाएं भी ध्वस्त करीं। हालांकि कोणार्क मंदिर की 20- 25 फीट मोटी दीवारों को तोड़ना असम्भव था, उसने किसी प्रकार से दधिनौति (मेहराब की शिला) को हिलाने का प्रयोजन कर लिया, जो कि इस मंदिर के गिरने का कारण बना। दधिनौति के हटने के कारण ही मन्दिर धीरे-धीरे गिरने लगा तथा छत से भारी पत्थर गिरने से, मूकशाला की छत भी ध्वस्त हो गयी। उसने यहाँ की अधिकांश मूर्तियां और कोणार्क के अन्य कई मंदिर भी ध्वस्त कर दिये।

पूजा-अर्चना सम्बन्धी बाधाएँ :- 

सन् 1568 में ओड़िशा में मुस्लिमों का आतंक नियंत्रण में हो चुका था। परन्तु इसके बाद भी हिन्दू मन्दिरों को तोड़ने के निरंतर प्रयास होते रहे। कई लोगों का कहना है, कि सूर्य देव की मूर्ति, जो नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी है, वही कोणार्क की प्रधान पूज्य मूर्ति है। फिर भी कोणार्क में, सूर्य वंदना मंदिर से मूर्ति के हटने के बाद से बंद हो गयी। इस कारण कोणार्क में तीर्थयात्रियों का आना जाना बंद हो गया। कोणार्क का पत्तन (बंदरगाह) भी डाकुओं के हमले के कारण, बंद हो गया। कोणार्क सूर्य वंदना के समान ही वाणिज्यिक गतिविधियों हेतु भी एक कीर्तिवान नगर था, परन्तु इन गतिविधियों के बन्द हो जाने के कारण, यह एकदम निर्वासित हो चला और वर्षों तक एक गहन जंगल से ढंक गया।

जंगमुक्त लोहे के गार्टर का प्रयोग:- 

कोणार्क सूर्य मंदिर के निर्माण में पारंपरिक धातु कर्म ज्ञान का उपयोग करके लोहे के गार्टर या स्तंभों को संरचना को मजबूत बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया था, जो आज तक जंग मुक्त हैं। ये स्तंभ सदियों पुरानी तकनीक का एक उदाहरण हैं, जो 13वीं सदी में राजा नरसिंह प्रथम द्वारा बनवाया गया थामंदिर से निकले हुए ये गाटर आज भी बड़ी संख्या में मन्दिर के निकास द्वार के तरफ प्रांगण में देखे जा सकते हैं।

अन्य मंदिर और स्मारक :- 

कोणार्क सूर्य मंदिर परिसर में मुख्य मंदिर के आसपास कई सहायक मंदिरों और स्मारकों के खंडहर भी हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं- 

मायादेवी मंदिर  - पश्चिम में स्थित - 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध का माना जाता है, जो मुख्य मंदिर से पहले का है।  इसमें एक अभयारण्य, एक मंडप और उसके सामने एक खुला मंच है। इसकी खोज 1900 और 1910 के बीच की गई खुदाई के दौरान हुई थी। शुरुआती सिद्धांतों ने माना कि यह सूर्य की पत्नी को समर्पित था और इस प्रकार इसका नाम मायादेवी मंदिर पड़ा। हालाँकि, बाद के अध्ययनों से पता चला है कि यह भी एक सूर्य मंदिर था, हालाँकि एक पुराना मंदिर जिसे स्मारक मंदिर के निर्माण के समय परिसर में मिला दिया गया था।  इस मंदिर में भी कई नक्काशी हैं और एक चौकोर मंडप के ऊपर एक सप्त-रथ स्थापित है । इस सूर्य मंदिर के गर्भगृह में नटराज की मूर्ति है । आंतरिक भाग में अन्य देवताओं में अग्नि, वरुण, विष्णु और वायु के साथ कमल धारण किए हुए क्षतिग्रस्त सूर्य शामिल हैं। 

वैष्णव त्रिविक्रम मंदिर :- 

तथाकथित मायादेवी मंदिर के दक्षिण-पश्चिम में स्थित, यह 1956 में खुदाई के दौरान खोजा गया था। यह खोज महत्वपूर्ण थी क्योंकि इसने पुष्टि की कि कोणार्क सूर्य मंदिर परिसर सभी प्रमुख हिंदू परंपराओं का सम्मान करता है, और यह सौर पंथ के लिए एक विशेष पूजा स्थल नहीं है जैसा कि पहले माना जाता था। यह एक छोटा मंदिर है जिसके गर्भगृह में बलराम , वराह और वामन -त्रिविक्रम की मूर्तियां हैं, जो इसे एक वैष्णव मंदिर के रूप में चिह्नित करती हैं। इन छवियों को धोती और बहुत सारे गहने पहने हुए दिखाया गया है। गर्भगृह की प्राथमिक मूर्ति गायब है, जैसा कि मंदिर के कुछ आलों से छवियां हैं। 

रसोईघर  :- यह स्मारक भोग मंडप (भोजन कक्ष) के दक्षिण में स्थित है। यह भी 1950 के दशक में हुई खुदाई में मिला था। इसमें पानी लाने के साधन, पानी जमा करने के लिए कुण्ड, नालियाँ, खाना पकाने के लिए फर्श, संभवतः मसाले या अनाज पीसने के लिए फर्श में गड्ढे, और खाना पकाने के लिए कई तिहरे चूल्हे शामिल हैं। यह संरचना संभवतः उत्सवों के लिए या सामुदायिक भोजन कक्ष का एक हिस्सा रही होगी। थॉमस डोनाल्डसन के अनुसार, रसोई परिसर का निर्माण मूल मंदिर के निर्माण के कुछ समय बाद हुआ होगा। 

कुआँ 1  :- यह स्मारक रसोईघर के उत्तर में, उसके पूर्वी किनारे की ओर स्थित है। संभवतः इसका निर्माण सामुदायिक रसोईघर और भोग मंडप में पानी की आपूर्ति के लिए किया गया था । कुएँ के पास एक स्तंभयुक्त मंडप और पाँच संरचनाएँ हैं, जिनमें से कुछ में अर्ध वृत्ताकार सीढ़ियाँ हैं, जिनकी भूमिका अस्पष्ट है।

कुआँ 2  :– यह स्मारक और उससे जुड़ी संरचनाएँ मुख्य मंदिर की उत्तरी सीढ़ी के सामने स्थित हैं, जिनमें पाँव रखने के लिए जगह, एक धुलाई मंच और धुलाई के पानी की निकासी व्यवस्था है। संभवतः इसे मंदिर में आने वाले तीर्थयात्रियों के उपयोग के लिए डिज़ाइन किया गया था। 

       गिरी हुई मूर्तियों का एक संग्रह कोणार्क पुरातत्व संग्रहालय में देखा जा सकता है , जिसका रखरखाव भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किया जाता है । ऐसा माना जाता है कि मंदिर के गिरे हुए ऊपरी हिस्से में कई शिलालेख जड़े हुए हैं। 


नवग्रह पट्ट:- 

मुखशाला के सामने, एक बड़ा प्रस्तर खण्ड नवग्रह पाट, होता था। मध्यकालीन ओडिशा में सौर पूजा (सूर्य पंथ) की शुरुआत के साथ, नवग्रहों की पूजा ने भी गति प्राप्त की। यह संभावित रूप से इस तथ्य पर आधारित था कि सूर्य (सूर्य) हिंदू मान्यता के अनुसार ग्रहों में से एक है, जो किसी व्यक्ति की नियति को नियंत्रित करता है। नवग्रहों की समन्वित पूजा को जनता के बीच उचित स्वीकार्यता और सम्मान भी मिला हुआ है। नवग्रह पूजा का अभ्यास सूर्य पंथ के पतन के साथ बाधित हुआ था। खासकर जब कोणार्क में सूर्य मंदिर वीरान हो गया था। यद्यपि, ग्रह पूजा / ग्रहा स्तोत्र (भजनों का पाठ / जप)अभी भी व्यक्तियों द्वारा किसी भी कार्य की शुरुआत से पहले सभी ग्रहाओं को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है। उड़ीसा स्थित खुर्दा के तत्कालीन राजा ने वह प्रस्तर खण्ड हटवा दिया, साथ ही कोणार्क से कई शिल्प कृत पाषाण भी ले गया था। मन्दिर के निकास द्वार से लगा नव ग्रह मन्दिर प्राइवेट पुजारियों द्वारा आधिपत्य में लिया गया है और यहां वर्तमान समय में पूजा आराधना व्यवहार में है।

लाइट और साउंड शो :- 

कोणार्क सूर्य मंदिर में लाइट और साउंड शो शाम को होता है और यह हिंदी, अंग्रेजी और उड़िया भाषाओं में उपलब्ध की सूचना है। शो प्रतिदिन शाम 6:30 बजे और 7:30 बजे दो बार होता है, और प्रत्येक शो लगभग 40 मिनट तक चलता है। यह शो कोणार्क सूर्य मंदिर की वास्तुकला और इतिहास को प्रदर्शित करता है। यह शो कोणार्क सूर्य मंदिर की समृद्ध वास्तुकला, इतिहास और पौराणिक कथाओं को एक लाइट एंड साउंड शो के माध्यम से दिखाता है। यह लाइट और साउंड शो कोणार्क सूर्य मंदिर की यात्रा का एक अविस्मरणीय हिस्सा हो सकता है, जो आगंतुकों को इस यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल की गहराई को समझने में मदद करता है। वर्तमान में इस लेखक ने  16 अगस्त 2025 को जब इस मंदिर का अवलोकन किया तो देखा कि दो समय के अलावा अन्य कई शिफ्ट में यह शो संचालित होते हैं। इसका अलग से टिकट ना होकर स्मारक के प्रवेश शुल्क रुपया 50.00  में ही यह सुविधा उपलब्ध है।

पुरी मन्दिर में स्थापित कोणार्क की कलाकृतियां :- 

सन 1626 में, खुर्दा के राजा, नृसिंह देव, सुपुत्र श्री पुरुषोत्तम देव, सूर्यदेव की मूर्ति को दो अन्य सूर्य और चन्द्र की मूर्तियों सहित पुरी ले गये। अब वे पुरी के मंदिर के प्रांगण में मिलती हैं। पुरी के मादाला पंजी के इतिहास से ज्ञात होता है, कि सन 1028 में, राजा नॄसिंहदेव ने कोणार्क के सभी मंदिरों के नाप-जोख का आदेश दिया था। मापन के समय, सूर्य मंदिर अपनीअमलक शिला तक अस्तित्व में था, यानि कि लगभग 200 फीट ऊंचा। कालापहाड़ ने केवल उसका कलश, बल्कि पद्म-ध्वजा, कमल-किरीट और ऊपरी भाग भी ध्वंस किये थे। नव ग्रह पट्ट पुरी के मंदिर के निर्माण में उनका प्रयोग किया था। मराठा काल में, पुरी के मंदिर की चहारदीवारी के निर्माण में कोणार्क के पत्थर प्रयोग किये गये थे। यह भी बताया जाता है, कि नट मंदिर के सभी भाग, सबसे लम्बे काल तक, अपनी मूल अवस्था में रहे हैं। और इन्हें मराठा काल में जान बूझ कर अनुपयोगी भाग समझ कर तोड़ा गया। अठ्ठारहवीं शताब्दी के अन्त तक, कोणार्क ने अपना, सारा वैभव खो दिया और एक जंगल में बदल गया। इसके साथ ही मंदिर का क्षेत्र भी जंगल बन गया, जहां जंगली जानवर और डाकुओं के अड्डे थे। यहां स्थानीय लोग भी दिन के प्रकाश तक में जाने से डरते थे।

अरुण स्तम्भ :- 

18वीं शताब्दी (1779 ई में ) अरुण स्तम्भ को कोणार्क मंदिर के प्रवेश द्वार से हटा दिया गया था और पुरी में जगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार (सिंह द्वार) पर एक मराठ साधु ने लगवाया था।यह स्तंभ 33 फीट 8 इंच (10.26  मीटर) लंबा है और सूर्य देव के सारथी अरुण को समर्पित है ।

1984 में विश्व धरोहर स्थल घोषित :- 

इसे युनेस्को द्वारा सन् 1984 में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है। भारतीय सांस्कृतिक विरासत के लिए इसके महत्व को दर्शाने के लिए भारतीय 10 रुपये का नोट के पीछे कोणार्क सूर्य मंदिर को दर्शाया गया है।

मुख्य मन्दिर गर्भ गृह बन्द है:- 

कोणार्क मंदिर में पूजा न होने के पीछे कई कारण बताए जाते हैं। मुख्य रूप से, मंदिर के सूर्य देवता की मूर्ति खंडित हो जाने और मंदिर के मुख्य वास्तुकार के पुत्र द्वारा आत्महत्या करने की घटनाओं को इसके पीछे का कारण माना जाता है।मंदिर के गर्भगृह को 19वीं शताब्दी में बंद कर दिया गया था, जब अंग्रेजों ने इसे रेत से भर दिया था ताकि इसे ढहने से बचाया जा सके। कोणार्क के सूर्य मंदिर में पूजा बंद होने का मुख्य कारण मंदिर का क्षतिग्रस्त होना और मुख्य मूर्ति का गर्भगृह से हटा दिया जाना है। मंदिर का शिखर समय के साथ ढह गया, जिससे गर्भगृह में पूजा करना असंभव हो गया। इसके अतिरिक्त, मुस्लिम आक्रमणों के दौरान मंदिर को काफी नुकसान पहुंचाया गया था, जिससे इसकी संरचना और भी कमजोर हो गई।

शापित मन्दिर :- 

यह मंदिर शापित है। सैकड़ों वर्षों तक यह मंदिर रेत में दबा रहा। मंदिर से 52 टन का चुंबक लगा हुआ था। इस मंदिर को बनाने वाले शिल्पकार ने आत्महत्या कर ली थी। 

      इस लिंक में इसके 118 साल से बन्द होने का राज दफन है- 

https://www.facebook.com/share/v/15wsJ8npfa/

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

वॉट्सप नं.+919412300183