पीले मिश्रित लाल रंग को सिंदूरी रंग कहा जाता है। यह रंग नारंगी और लाल के बीच का होता है। इसे कुमकुम भी कहा जाता है, जो आमतौर पर हिंदू महिलाओं द्वारा उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त, सिंदूर को अबीर और गुलाल के रूप में भी जाना जाता है, जो होली जैसे त्योहारों में उपयोग किए जाते हैं । इसके अलावा, इसे "नाग-संभूत" या "नागज" भी कहा जाता है, क्योंकि कुछ मान्यताओं के अनुसार इसकी खोज नागों द्वारा की गई थी।
सिंदूर का इतिहास:-
शिव पुराण में वर्णन मिलता है कि माता पार्वती ने वर्षों तक शिव जी को वर के रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या की थी। जब भगवान शिव ने मां पार्वती को अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लिया तो मां पार्वती ने सुहाग के प्रतीक के रूप में सिंदूर मांग में लगाया था। उन्होंने कहा कि जो स्त्री सिंदूर लगाएगी उसकी पति को सौभाग्य और लंबीआयु की प्राप्ति होगी। धार्मिक मतों के अनुसार सबसे पहले माता पार्वती ने ही सिंदूर लगाया था और तभी से ये परंपरा चल पड़ी। सिंदूर को देवी पार्वती से जोड़ा जाता है, और इसे पति की लंबी उम्र और वैवाहिक जीवन की सुख-समृद्धि के लिए लगाया जाता है। यह माना जाता है कि इसे लगाने से देवी पार्वती का आशीर्वाद मिलता है।
नवपाषाण काल में सिंदूर का प्रयोग:-
बलूचिस्तान के मेहरगढ़ गहराई में मिली नवपाषाण काल की महिला कारीगरों की मूर्ति से प्रतीत होता है कि उस समय के महिलाओं के बालों के बीच में सिन्दूर जैसा रंग लगाया जाता था। सिंदूर भारतीय संस्कृति और परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो विवाहित स्त्रियों के सौभाग्य और शुभता का प्रतीक माना जाता है। सिंदूर का प्रयोग और इसका सांस्कृतिक महत्व हजारों वर्षों से प्रचलित है। विवाहित स्त्रियाँ अपनी माँग में सिन्दूर भरने की यह प्रथा लगभग 8000 वर्ष पूर्व से ही प्रचलित है।
हड़प्पा - मोहनजोदड़ो की सभ्यता :-
सिंदूर का उपयोग हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की सभ्यता में भी देखा गया है, जहाँ खुदाई में स्त्रियों की मूर्तियों के मांग में सिंदूर के निशान पाए गए हैं। यह प्रमाणित करता है कि सिंदूर का प्रयोग भारत में बहुत पुराने समय से हो रहा है।इस सभ्यता सबसे बड़ी स्थल राखीगढ़ी में खुदाई के दौरान महिलाओं के सजने संवरने को लेकर काफी चीजें मिलीं हैं । पत्थर की मालाएं, मिट्टी,तांबा व फियांस से बनीं चूड़ियां, कंगन, सोने के आभूषण, मिट्टी की माथे की बिंदी, सिंदूर दानी, अंगूठी, कानों की बालियां आदि प्रमुख हैं। इससे ये पता चल जाता है कि महिलाएं लगभग आठ हजार साल पहले भी सिंदूर लगाती थीं और सजने संवरने के लिए कंगन-चूड़ी, अंगूठी, बिंदी आदि का उपयोग करती थीं। पता चलता है कि पुराने जमाने में हल्दी, फिटकिरी, या चूने से सिंदूर को बनाया जाता था। इस सभ्यता से भी कुछ ऐसे सबूत मिलते हैं जो बताते हैं कि सिंदूर लगाने की परंपरा तब भी थी। जिनमें महिलाओं की मांग में सिंदूर लगाने के साक्ष्य हैं। इस काल से जुड़ी देवियों की कुछ ऐसी मूर्तियां मिली हैं जिनके सिर के बीच में एक सीधी रेखा है और उस पर लाल रंग भरा गया है। पुरातत्वविदों का मानना है कि यह और कुछ नहीं बल्कि सिंदूर है।
पारंपरिक सिन्दूर का उपयोग :-
हल्दी और फिटकरी या चूने, या अन्य सामग्री से बनाया गया था। लाल सीसा और सिन्दूर के विपरीत, ये अपराध नहीं होते हैं। कुछ व्यावसायिक सिन्दूर के बारीक कणों के मसाले मौजूद होते हैं, जिनमें से कुछ मानक के अनुसार निर्मित नहीं होते हैं और उनमें सीसा हो सकता है। सिंदूर का इस्तेमाल पारंपरिक रूप से औषधीय कारणों से भी किया जाता रहा है। आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों में, हिंदू धर्म में ऐतिहासिक जड़ों वाली चिकित्सा पद्धति में, लाल सिंदूर पाउडर में औषधीय गुण होते हैं जो महिलाओं को लाभ पहुंचाते हैं, जिसमें उनकी कामोत्तेजना को बढ़ाने के लिए रक्त प्रवाह को सक्रिय करना शामिल है - यही कारण है कि अविवाहित महिलाओं और विधवाओं को इसे लगाने की अनुमति नहीं रही है।
सिंदूर का आध्यात्मिक महत्व :-
सिंदूर का महत्व भारतीय समाज में अत्यधिक है। यह केवल सौंदर्य का प्रतीक नहीं है, बल्कि इसका धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व भी है। विवाहित स्त्रियों के लिए सिंदूर एक शुभ संकेत है। मांग में भरने का अर्थ होता है कि वह स्त्री विवाहित है और अपने पति की लंबी आयु और समृद्धि की कामना करती है। सिंदूर का लाल रंग शक्ति और उर्वरता का प्रतीक है, जो स्त्रियों की ऊर्जा और जीवंतता को दर्शाता है।
सौभाग्य और सुहाग का प्रतीक:-
सिंदूर विवाहित महिलाओं के लिए सौभाग्य और सुहाग का प्रतीक है। यह माना जाता है कि सिंदूर लगाने से पति की रक्षा होती है और वैवाहिक जीवन में खुशहाली आती है। सिंदूर लगाने से सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है, ऐसा माना जाता है।
सिंदूर का सांस्कृतिक महत्त्व :-
सिंदूर का सांस्कृतिक महत्त्व भी अत्यधिक है। हिंदू धर्म में, विवाह के समय पति द्वारा पत्नी की मांग में सिंदूर भरना एक महत्वपूर्ण रस्म है, जो उन्हें आधिकारिक रूप से पति-पत्नी घोषित करता है। यह रस्म भारतीय समाज के विभिन्न हिस्सों में थोड़े-बहुत भिन्न रूपों में प्रचलित है, लेकिन इसका मूल अर्थ वही रहता है। विवाहित स्त्रियाँ प्रतिदिन अपनी मांग में सिंदूर भरती हैं, जिसे वे अपने पति के प्रति समर्पण और सम्मान के रूप में देखती हैं। इसकेअलावा, विशेष अवसरों और त्योहारों पर भी सिंदूर का प्रयोग विशेष रूप से किया जाता है। छठ पूजा में माताएं बहुत लंबे शिर के बीचोबीच मांग से नाक तक सिन्दूर लगाती हैं और छठ माता से आशीर्वाद प्राप्त करती हैं।
विभिन्न साहित्यिक ग्रंथों में सिंदूर का उल्लेख:
प्राचीन भारतीय साहित्य में सिन्दूर का उल्लेख विभिन्न संदर्भों में मिलता है, जिसमें धार्मिक, सौंदर्य, और वैवाहिक प्रथाएं शामिल हैं। हालांकि सिन्दूर को स्पष्ट रूप से विवाह के प्रतीक के रूप में उल्लेख करने की प्रथा मध्यकाल में अधिक स्पष्ट हुई, प्राचीन साहित्य में इसका उपयोग सौभाग्य, शक्ति, और सौंदर्य प्रसाधन के रूप में देखा जाता है।
वैदिक साहित्य (1500-500 ईसा पूर्व)में सिन्दूर का प्रयोग :-
लाल रंग के पदार्थों का सामान्य उल्लेख है, जिसे विवाहित महिलाओं के अलंकरण से जोड़ा गया है। कन्या के मांग में पहले सिन्दूर उसके शादी के दिन पति द्वारा सजाया जाता है जिसे हिंदूविवाह में सिंदूर दान कहा जाता है। सिन्दूर के संबंध में कुछ वैदिक धारणा भी है कि इसे लगाने के बाद पति को अपनी पत्नी का रक्षक बनना होता है तथा उसे हर सुख दुःख का साथी भी बनना पड़ता है।
ऋग्वेद और अथर्ववेद में सिन्दूर का सीधा उल्लेख नहीं है, लेकिन लाल रंग के पदार्थों (जैसे गेरू, कुमकुम, या हरिद्रा) का उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों और सौंदर्य प्रसाधन में वर्णित है। उदाहरण के लिए, अथर्ववेद (6.138) में सौभाग्य और प्रजनन से संबंधित मंत्रों में लाल रंग के पदार्थों का उल्लेख है, जिसे सिन्दूर से जोड़ा जा सकता है।
पंच-सौभाग्य में समलित:-
सिंदूर को वैदिक काल में पंच-सौभाग्य में शामिल किया गया था। पंच सौभाग्य बालों पर पुष्प, मंगल सूत्र, पैर की उंगली में छल्ले, चेहरे पर हल्दी और सिंदूर को कहा गया है। गृह्यसूत्र (वैदिक अनुष्ठान ग्रंथ) में विवाह संस्कारों के दौरान सौंदर्य प्रसाधनों और मांगलिक चिह्नों का उल्लेख है, जिसमें लाल रंग का उपयोग सिन्दूर के रूप में हो सकता है। सौभाग्य वती स्त्री के लिए मांगलिक प्रथाओं का उल्लेख मिलता है ।)
(संदर्भ: ऋग्वेद (10.85, विवाह सूक्त)
महाकाव्य: रामायण और महाभारत (500 ईसा पूर्व-300 ईस्वी) में सिंदूर का महत्व:-
सिंदूर लगाने का चलन प्राचीन काल से चला रहा है और इसका संबंध माता पार्वती व देवी सीता से भी जुड़ता है। वाल्मीकि रामायण में सीता के सौंदर्य प्रसाधन का वर्णन है, जिसमें लाल रंग के पदार्थों (संभवतः सिन्दूर या कुमकुम) का उपयोग मस्तक पर किया गया है। उदाहरण के लिए, सुंदरकांड (5.15) में सीता के मांगलिक अलंकरण का उल्लेख है, जो सिन्दूर से संबंधित हो सकता है। सिंदूर का उल्लेख रामायण काल में भी किया गया था। माना जाता है कि माता सीता नित दिन शृंगार के रूप में सिंदूर का प्रयोग करती थीं। बिंदी की तरह, सिंदूर का महत्व सिर के केंद्र में तीसरे नेत्र चक्र (उर्फ अजना चक्र) के पास इसके स्थान से उपजा है। मस्तिष्क से अजना चक्र की निकटता इसे एकाग्रता, इच्छा और भावनात्मक विनियमन से जोड़ती है। जो लोग चक्रों की शक्ति में विश्वास करते हैं, उनके लिए इस स्थान पर सिंदूर लगाने का अर्थ है एक महिला की मानसिक ऊर्जा को अपने पति पर ध्यान केंद्रित करने के लिए उपयोग करना।
एक कथा के अनुसार, हनुमान जी ने जब मां सीता को सिंदूर लगाते हुए देखा और तो जिज्ञासावश उनसे यह पूछा लिया कि वह हर दिन सिंदूर क्यों लगाती हैं? तब जानकी जी ने उन्हें बताया कि वह भगवान श्री राम की लंबी आयु के लिए मांग में सिंदूर भरती हैं और भगवान श्री राम इससे प्रसन्न होते हैं। तब श्री राम के अनन्य भक्त हनुमान जी ने अपने प्रभु को प्रसन्न करने के लिए पूरे शरीर पर सिंदूर का लेप लगा लिया था। इसलिए वर्तमान काल में भी हनुमान जी की पूजा में सिंदूर का प्रयोग निश्चित रूप से किया जाता है। ऐसा करने से हनुमान जी प्रसन्न होते हैं और साधक की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है।
द्रौपदी की सिंदूरी मांग सजाने की कहानी:-
प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत में, पांडवों की पत्नी द्रौपदी , हस्तिनापुर में घटने वाली घटनाओं से लेकर घृणा और विध्वंस तक, अपना सिन्दूर लिखा हुआ है । विवाह और सौभाग्य के संदर्भ में मांग में लाल रंग लगाने की प्रथा का संकेत है। द्रौपदी ने चीरहरण के गुस्से में बाल खोल दिए थे और सिंदूर नहीं पोछा। कहा जाता है कि उसके बाद सिंदूर भी नहीं लगाया था। द्रौपदी ने चीरहरण का बदला पूर होने पर महाभारत युद्ध में दुशासन के खून से बाल धोए थे और उसके बाद लाल सिंदूर से मांग सजाया था।
( संदर्भ:आदिपर्व, 1.189)।
ललिता सहस्रनाम और सौंदर्य लहरी ग्रंथों में सिन्दूर के प्रयोग का अक्सर उल्लेख किया गया है । सौंदर्य लहरी में प्राचीन कला कृतियाँ वर्णित हैं -
तनोतु क्षेमं नः तव
वदना सौन्दर्यलहरी
परिवह-स्त्रोतः शरणिरिव सीमन्त-सारणीः।
वहन्ती सिन्दूरं प्रबल
काबरी भारतीमिरा-
द्विशां बृंदैर बंदी-कृतमिव
नवीनार्का किरणम् ॥
(हे माँ, आपके केशों के बीच की वह रेखा,जो एक चैनल की तरह दिखती है,जिसके माध्यम से आपके प्राकृतिक की तेज़ लहरें उतरती हैं,और जो दोनों तरफ से आयोजित होती है,आपका सिंदूर, जो उगते सूरज की तरह है,आपके शत्रुओं के सैनिकों की तरह काले बालों का उपयोग करके, हमारी रक्षा करें और हमें शांति दें।
(-आदि शंकराचार्य,सौंदर्य लहरी,पृष्ठ 44)
दांपत्य जीवन में सिंदूर का महत्व:-
शास्त्रों में बताया गया है कि जिन सुहागिन महिलाओं द्वारा मांग में सिंदूर लगाया जाता है, उन्हें पति की अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। साथ ही समूचे परिवार को संकटों से छुटकारा मिल जाता है। नवरात्रि व दीपावली में मां दुर्गा और माता लक्ष्मी की उपासना में भी सोलह शृंगार में सिंदूर का स्थान श्रेष्ठ माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार, सिंदूर का प्रयोग करने से माता सती और मां पार्वती का आशीर्वाद प्राप्त होता है। इसके साथ दांपत्य जीवन में सुख और समृद्धि आती है। प्राचीन साहित्य में सिन्दूर का उपयोग मुख्य रूप से सौंदर्य और धार्मिक संदर्भों में है, लेकिन विवाह से इसका संबंध पुराणों और महाकाव्यों में अधिक स्पष्ट है। मार्कण्डेय पुराण और देवी भागवत में सिन्दूर को विवाहित स्त्रियों के सौभाग्य और पति की दीर्घायु से जोड़ा गया है, जो इसे विवाह के प्रतीक के रूप में स्थापित करता है।
जैन धर्म में सिंदूर :-
जैन महिलाएं सिन्दूर लगाती हैं, पूर्वोत्तर शहरों में। जैन ननों को यह अपने बालों या कपड़ों पर लगाना पसंद है। सिन्दूर की देवियों की वैधानिक स्थिति के दर्शन के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, कई स्थानीय कला कृतियाँ, सिन्दूर देवियों को भी सिन्दूर लगाती हैं।
(- संदर्भ: रामायण और महाभारत में विवाहित स्त्रियों के अलंकरण।)
पुराण (300-1000 ईस्वी) में सिन्दूर के संदर्भ :-
मार्कण्डेय पुराण और कामसूत्र में सिंदूर को सौभाग्य और वैवाहिक जीवन से जोड़ते हैं। मार्कण्डेय पुराण और देवी भागवत पुराण में सिन्दूर को माता पार्वती और अन्य देवियों के साथ जोड़ा गया है। सिन्दूर को देवी पूजा में चढ़ाया जाता था, और इसे सौभाग्य का प्रतीक माना जाता था। मार्कण्डेय पुराण (चंडी सप्तशती) में सिन्दूर के उपयोग को वैवाहिक सुख और पति की दीर्घायु से जोड़ा गया है।
विष्णु पुराण और भागवत पुराण में भी कुमकुम और सिन्दूर जैसे पदार्थों का उल्लेख पूजा और सौंदर्य के संदर्भ में है, जो विवाहित स्त्रियों की प्रथाओं से संबंधित है।
(- संदर्भ: मार्कण्डेय पुराण (7.2) में देवी पूजा और सिन्दूर का उल्लेख।)
काव्य और नाटक (200 ईसा पूर्व- 1000 ईस्वी) में सिन्दूर:-
कालिदास के साहित्य : जैसे कुमार - संभवम और रघुवंशम में स्त्रियों के सौंदर्य प्रसाधन में लाल रंग के पदार्थों (सिन्दूर या कुमकुम) का उल्लेख है। उदाहरण के लिए, कुमार संभवम (7.12) में पार्वती के मस्तक पर लाल रंग के अलंकरण का वर्णन है, जो सिन्दूर से जोड़ा जा सकता है।
भास और शूद्रक जैसे नाटककारों के नाटकों (जैसे मृच्छ कटिकम्) में विवाहित स्त्रियों के मांग में लाल रंग लगाने की प्रथा का उल्लेख मिलता है, जो सामाजिक और वैवाहिक प्रतीक के रूप में देखा जाता है।
(- संदर्भ: कालिदास की रचनाओं में सौंदर्य वर्णन।)
कामसूत्र और अन्य स्मृति ग्रंथ (200- 400 ईस्वी) में सिन्दूर का उल्लेख :-
वात्स्यायन का कामसूत्र में सौंदर्य प्रसाधनों और अलंकरणों का विस्तृत वर्णन है, जिसमें सिन्दूर और कुमकुम जैसे लाल रंग के पदार्थों का उपयोग विवाहित स्त्रियों के लिए वर्णित है (अध्याय 4)। यह सौभाग्य और आकर्षण का प्रतीक माना जाता था। मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति में विवाहित स्त्रियों के लिए विशिष्ट अलंकरणों का उल्लेख है, जिसमें मांगलिक चिह्न (संभवतः सिन्दूर) शामिल हो सकते हैं।
(- संदर्भ: कामसूत्र (4.1) में सौंदर्य प्रसाधन।)
भक्ति साहित्य (600-1000 )ईस्वी में सिंदूर :-
भक्ति काल के दौरान, विशेष रूप से दक्षिण भारत में, आलवार और नयनार संतों के तमिल भक्ति साहित्य में सिन्दूर और कुमकुम का उल्लेख देवी पूजा और वैवाहिक सौभाग्य के संदर्भ में है। उदाहरण के लिए, तिरुक्कुरल में सौभाग्यवती स्त्री के अलंकरणों का वर्णन है, जो सिन्दूर से संबंधित हो सकता है। मध्यकालीन साहित्य (जैसे भक्ति काव्य और क्षेत्रीय साहित्य) में सिन्दूर का उपयोग विवाह के प्रतीक के रूप में और अधिक स्पष्ट हो जाता है।
(- संदर्भ: तमिल भक्ति साहित्य में सौंदर्य और पूजा।)
सिंदूरी शाम के विविध उल्लेख:-
यह एक बहुत ही लोकप्रिय वाक्यांश है जिसका उपयोग अक्सर कविता, गीत और कला में किया जाता है, विशेष रूप से सूर्यास्त के समय के सौंदर्य का वर्णन करने के लिए। श्रीप्रकाश पाण्डेय की एक रचना दृष्टव्य है -
धड़कन में संगीत प्यार का
होंठों पर तुम्हारा नाम
सूरज ने भी रच दी देखो
वहां नभ पर सिन्दूरी शाम
घर-घर गूंजी एक कहानी
बस्ती-बस्ती फैली ये बात
पलकों पर चाँद सजाने में
यहां कट गयी सारी रात
शब्दों से गीतों को ढलने में
कितना दर्द हुआ बदनाम।
रहे प्रतीक्षा रत जीवन भर
मंजिल तक ना पहुंचे पास
सांस-सांस पर नाम तुम्हारा
पल-पल मिलने की आस
राहों में यादों के जंगल
भटकन सुबह और शाम।
पूनम श्रीमाली की ये पंक्तियां भी दिल को छू लेती हैं -
शाम सिंदूरी , ये डूबता सूरज और ये सिंदूरी नज़ारा ,
ये झील का किनारा ..!!
ये खूबसूरत कुदरती नज़ारा
उस पर ये खामोशी और ख्वाब तुम्हारा।
ऐसे कैसे जाने देंगे प्रियतम
अभी तो शुरू हुआ है
(तुम्हें सोचना) हमारा ..…....!!
संस्कृति में सिन्दूर:-
सिन्दूर से जुड़ी हैं कई भारतीय फ़िल्में और नाटक, थीम थीम इस स्मारक का महत्व- गिर्द घूमती है। इनसे सिंदूर (1947),सिंदूरम(1976),रक्त सिंधुरम (1985 ), सिंदूर(1987) और सिंदूर तेरे नाम का सीरीज़, (2005- -2007) शामिल हैं।
ऑपरेशन सिंदूर 2025 :-
अभी हाल ही 2025 में भारतीय सशस्त्र बल ने पहलगाम हमले का जवाब पाकिस्तान पर मिसाइल हमले करके दिया। पहलगाम हमलों में पुरुष हिंदू क्रॉटल की मौत के संदर्भ में, मिसाइल हमले को ऑपरेशन सिंदूर नाम दिया गया था। आतंकियों ने सिंदूर उजाड़ी तो हमने बदले के लिए ऑपरेशन सिंदूर से करारा जवाब दिया । भारत ने सबसे पहले सिंधु नदी का पानी रोक कर आतंक पर चुप्पी साधी पाकिस्तान सरकार को जगाया। उसके बाद ऑपरेशन सिंदूर ने आतंकियों को राख करने का काम किया। ये संयोग समझिए या कुछ और…जो सिंधु और सिंदूर आज पाकिस्तान के लिए काल बने हैं।
सिंदूर का वैज्ञानिक दृष्टिकोण:-
सिंदूर का प्रयोग केवल धार्मिक और सांस्कृतिक कारणों से नहीं किया जाता, बल्कि इसका वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का ब्रह्मरंद्र यानी मस्तिष्क का उपरी भाग बहुत ही संवेदनशील और कोमल होता है। ऐसे में सिंदूर लगाने से विद्युत ऊर्जा पर नियंत्रण पाई जा सकती है और इससे नकारात्मक विचार दूर रहते हैं। ऐसा भी देखा गया है कि सिंदूर लगाने से सिर दर्द, अनिद्रा, मस्तिष्क से जुड़ा रोग समाप्त हो जाता है। यह भी कहा जाता है कि सिंदूर के प्रयोग से चेहरे पर जल्दी झुर्रियां भी नहीं पड़ती है और बढ़ती उम्र के संकेत दिखाई नहीं देते हैं।
सिंदूर हल्दी और चूने के मिश्रण से बनाया जाता है, जो शरीर के लिए फायदेमंद होता है। यह माना जाता है कि सिंदूर लगाने से तनाव और मानसिक दबाव को कम करने में मदद मिलती है।इससे रक्त चाप तथा पीयूष ग्रंथि भी नियंत्रित होती है। सिंदूर में पाए जाने वाले पारंपरिक घटक, जैसे हल्दी और पारा, स्वास्थ्य के लिए लाभकारी माने जाते हैं। हल्दी एक प्राकृतिक एंटीसेप्टिक है, जबकि पारा रक्तचाप को नियंत्रित करने में मदद करता है।
निष्कर्ष :-
प्राचीन भारतीय साहित्य में सिन्दूर का उल्लेख सौंदर्य प्रसाधन, धार्मिक अनुष्ठान, और सौभाग्य के प्रतीक के रूप में मिलता है। वैदिक साहित्य में लाल रंग के पदार्थों का सामान्य उल्लेख है, जबकि रामायण, महाभारत, और पुराणों में इसे विवाहित स्त्रियों के अलंकरण से जोड़ा गया है। मार्कण्डेय पुराण और कामसूत्र जैसे ग्रंथ सिन्दूर को सौभाग्य और वैवाहिक जीवन से जोड़ते हैं, जो विवाह प्रतीक के रूप में इसकी प्रारंभिक भूमिका को दर्शाता है। मध्यकालीन साहित्य में यह प्रथा और स्पष्ट हो जाती है। इस प्रकार सिंदूर भारतीय समाज और संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। इसका इतिहास, महत्व और सांस्कृतिक महत्त्व हमें हमारे पुरखों से विरासत में मिला है, जिसे हमें संजोकर रखना चाहिए। सिंदूर का प्रयोग केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि स्त्रियों के जीवन में जीवन में सौभाग्य, प्रेम और शक्ति का प्रतीक है। यह न केवल एक श्रृंगार है, बल्कि विवाहित महिलाओं के लिए सौभाग्य, प्रेम, समर्पण और सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक है।
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।
मोबाइल नंबर +91 8630778321;
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