व्यक्तित्व और कृतित्व
आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी
जीवन परिचय:-
अनेक-अनेक कालजयी कविताओं की रचना करने वाले स्मृति शेष श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म बस्ती शहर के पिपरा शिव गुलाम नामक मोहल्ले में श्री विश्वेश्वर दयाल सक्सेना जी के घर 15 सितम्बर, 1927 को हुआ था। पिता श्री विश्वेश्वर दयाल जी ने बड़ी मेहनत से मालवीय रोड बस्ती स्थित अनाथालय के पास एक छोटा सा घर बनवाया था। उनके साथ उनके भाई श्री श्रद्धेश्वर दयाल सक्सेना और उनके पुत्र संजीव व संजय का परिवार भी रहता था। सर्वेश्वर जी की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा भी ज़िला बस्ती में ही हुई। जब वे बस्ती के राजकीय हाईस्कूल में नवीं कक्षा में पढ़ रहे थे, राजनीतिक चुहलबाजी और विद्रोही प्रकृति के कारण उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया। उन्हें एंग्लो संस्कृत हाईस्कूल, बस्ती के प्रधानाचार्य श्री चक्रवर्ती ने शरण दी। इसी विद्यालय से सर्वेश्वर जी ने 1941 में हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। मालवीय रोड के नए घर में सर्वेश्वर के छोटे भाई एवं छोटी बहन का जन्म हुआ था । इस दौरान सर्वेश्वर जी की माँ जो प्राध्यापिका थी, का तबादला बस्ती से बांसगांव - गोरखपुर और फिर वाराणसी हो गया। सर्वेश्वर भी अध्ययन के लिए अपनी माँ के साथ वाराणसी चले गए। 1943 में उन्होंने वाराणसी के क्वींस कॉलेज से इन्टर मीडियट की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन 1944-45 में आर्थिक विपन्नता और बहन की शादी हेतु पैसा एकत्र करने हेतु सर्वेश्वर ने पढ़ाई छोड़ दी थी।
ग्रामीण-कस्बाई परिवेश तथा निम्न मध्यवर्ग की आर्थिक विसंगतियों के बीच सर्वेश्वर का व्यक्तित्व पका एवं निखरा था। गरीबी एवं संघर्षशील जीवन की उनके व्यक्तित्व पर गहरी छाप पड़ी। उनके मन में गहन मानवीय पीड़ा बोध तथा आम आदमी से लगाव था। दिल्ली में रहने के बावजूद बचपन की अनुभूति उनके साथ बनी रहीं। सर्वेश्वर के पिता गांधीवादी विचारों से प्रभावित थे। मां के प्राध्यापिका होने से उनमें अच्छे संस्कार एवं लोगों के प्रति संवेदना के बीज उगे। व्यवस्था एवं यथास्थितिवाद के खिलाफ हमेशा खड़े रहे। पारिवारिक जिम्मेदारियों, मां-पिता की मृत्यु ने सर्वेश्वर की जीवनचर्या ही बदल दी। सर्वेश्वर ने बस्ती के खैर इण्डस्ट्रियल इण्टर कॉलेज में नौकरी भी की। यहाँ उन्हें उस जमाने में साठ रुपए प्रतिमाह वेतन प्राप्त हो रहा था। वे इसके बाद ज्यादा दिनों तक बस्ती न रह पाए।
उनकी दिली तमन्ना कुछ कर दिखाने की थी। इसी अभिलाषा को हृदय में संजोए वे बस्ती से प्रयाग पहुंच गए। इलाहाबाद से उन्होंने बी.ए. और सन् 1949 में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1949 का यह साल पत्रकार सर्वेश्वर के मर्मान्तक पीड़ा देने वाला साबित हुआ और उनकी प्यारी माँ अपने स्वास्थ्य एवं आर्थिक विपन्नता को झेलते हुए उनसे हमेशा के लिए बिछुड़ गई। उस वर्ष घोर दुःख एवं विपन्नता को सहते हुए सर्वेश्वर किसी प्रकार लगभग चार माह अपने पिता के साथ बस्ती रहे। यहीं उन्होंने प्रख्यात उर्दू शायर और सकसेरिया इण्टर कालेज के पूर्वप्राचार्य श्री ताराशंकर ‘नाशाद’ के साथ ‘परिमल’ नामक (साहित्यिक संस्था) की स्थापना की। उनके काव्य-लेखन की सक्रियता 1951 से शुरू हुई। ‘परिमल गोष्ठी’ में उनकी चर्चा बढ़ी और उनमें नई कविता की पर्याप्त संभावनाएँ देखी गई।
बस्ती की माटी का असर:-
बस्ती की माटी से ही वे उगकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करने में सफल हुए। इस सबके बीच बस्ती का ग्राम्य परिवेश, आंचलिकता, शहर के किनारे बहने वाली साधारण सी शांति कुआनो नदी, खलीला- बाद के पास स्थित भुजैनिया का पोखरा आदि प्रतीक सर्वेश्वर के भोले मन को सदैव प्रभावित करते रहे।
साहित्यिक परिचय :-
समकालीन हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता में जहां तक जनता से जुड़े क़लमकारों का सवाल है, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना अपनी बहुमुखी रचनात्मक प्रतिभा के साथ एक जवाब की तरह सामने आते हैं। कविता हो या कहानी, नाटक हो या पत्रकारिता, उनकी जन प्रतिबद्धता हर मोर्चे पर कामयाब है। सर्वेश्वर जी ने साहित्य के हर विधा को अपनाया था। उनसे कोई विधा छूट नहीं सका था। कविता के अतिरिक्त उन्होंने कहानी, नाटक और बाल साहित्य भी रचा। उनकी रचनाओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है।
काव्य साहित्य:-
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी का साहित्यिक जीवन काव्य से प्रारंभ हुआ। वे ‘चरचे और चरखे’ स्तम्भ में दिनमान में छपते रहे। सर्वेश्वर जी एक बेहद संवेदनशील कवि थे।कहानी के बाद वे कविता लेखन के क्षेत्र में 1950 में आए। कम समय में उन्होंने अपने समय के लोगों में जो ख़ास जगह दर्ज कराई, उससे वे हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर बन गए। 1959 में अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित ‘तीसरा सप्तक’ के कवि के रूप में पहचाने गए। सही अर्थों में सर्वेश्वर नई कविता के अधिष्ठाता कवियों में एक थे।
कविता-संग्रह : -
काठ की घंटियाँ,1959 में प्रकाशित हुई। इसी वर्ष ‘तीसरा सप्तक’ में उनकी कविताएँ शामिल की गई। इसके बाद
बाँस का पुल, एक सूनी नाव, गर्म हवाएँ, कुआनो नदी, जंगल का दर्द, खूँटियों पर टँगे लोग, क्या कह कर पुकारूँ, कोई मेरे साथ चले और गधा आदि उनकी प्रमुख कृतियां प्रकाशित हुई हैं। कविता-संग्रह ‘खूँटियों पर टँगे लोग’ के लिए उन्हें 1983 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
संपादन :-
शमशेर (मलयज के साथ), रूपांबरा (सहायक संपादन, संपादक : अज्ञेय जी), अँधेरों का हिसाब आदि ग्रंथों का सम्पादन किया था।उन्होंने नेपाली काव्य संग्रह 'रक्तबीज' का भी संपादन किया था।
बाल साहित्य :-
बच्चों के लिए उन्होंने काफ़ी साहित्य लिखा। उनके दो बाल कविता संग्रह 'बतूता का जूता' एवं 'महंगू की टाई' नाम से छप चुके हैं। इसके अलावा ' भों-भों खों-खों,' और लाख की नाक, उनका बाल साहित्य भी रहा है।
उपन्यास :-
सूने चौखटे उनका प्रिय उपन्यास रहा। पागल कुत्तों का मसीहा, सोया हुआ जल उनका लघु उपन्यास रहा।
नाटक : -
बकरी, लड़ाई, अब ग़रीबी हटाओ, कल भात आएगा और हवालात उनके प्रिय नाटक रहे।
यात्रा-संस्मरण :- उन्होंने यात्रा संस्मरण भी लिखे, जो कुछ 'रंग-कुछ गंध' नाम से छपकर आया है।
पत्रकारिता और सम्पादन:-
सर्वेश्वर जी को ए.जी. ऑफिस, इलाहाबाद के सेक्रेटरी, जो स्वयं साहित्यिक रुचि के थे, तार देकर प्रयाग बुलाया था। सर्वेश्वर जी प्रयाग पहुंचे और उन्हें ए.जी. ऑफिस में प्रमुख डिस्पैचर के पद पर कार्य मिल गया। ऑफिस के प्रमुख अधिकारी सर्वेश्वर जी की साहित्यिक रुचियों से ख़ासे प्रभावित थे, इसके चलते उन्हें वहाँ काम में बहुत स्वतंत्रता मिली। इस प्रकार सर्वेश्वर के लिए यह नौकरी वरदान साबित हुई तथा प्रयाग के साहित्यिक-सांस्कृतिक वातावरण में उन्हें रमने एवं बेहतर रचने का मौका मिल गया था। वे ए.जी.ऑफिस में 1955 तक रहे।
तत्पश्चात ऑल इंडिया रेडियो के सहायक संपादक (हिंदी समाचार विभाग) पद पर आपकी नियुक्ति हो गई। इस पद पर दिल्ली में वे 1960 तक रहे। सन 1960 के बाद वे दिल्ली से लखनऊ रेडियो स्टेशन आ गए। 1964 में लखनऊ रेडियो की नौकरी के बाद वे कुछ समय भोपाल एवं इंदौर रेडियो में भी कार्यरत रहे। वे अध्यापन तथा आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर भी रहे ।
'दिनमान' एवं 'पराग' का सम्पादन :-
वह मानते थे कि जिस देश के पास समृद्ध बाल साहित्य नहीं है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं रह सकता। सन 1964 में जब दिनमान पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ तो वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के आग्रह पर वे पद से त्यागपत्र देकर दिल्ली आ गए और दिनमान से जुड़ गए। ‘अज्ञेय’ जी के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने काफ़ी कुछ सीखा। 1982 में प्रमुख बाल पत्रिका 'पराग' के सम्पादक बने।
इस बीच उनकी पत्नी विमला देवी का निधन हो गया। तत्पश्चात् सर्वेश्वर की बहन यशोदा देवी ने आकर उनकी दोनों बच्चियों को मातृत्व भाव से लालन-पालन किया। पराग के संपादक के रूप में आपने हिंदी बाल पत्रकारिता को एक नया शिल्प एवं आयाम दिया। नवंबर 1982 में पराग का संपादन संभालने के बाद वे 23 सितम्बर 1983 तक मृत्युपर्यन्त उससे जुड़े रहे। इसके अलावा सर्वेश्वर ने प्रख्यात कवि शमशेर बहादुर सिंह पर केन्द्रित शमशेर का संपादन भी किया था।
कथा साहित्य:-
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना एक कथाकार एवं उपन्यासकार के रूप में भी हिंदी साहित्य संसार में समादृत हुए। विश्व- विद्यालीय जीवन में ही उन्हें उनकी कहानियों के लिए पुरस्कार मिले। अपना लेखक जीवन उन्होंने वस्तुतः एक कथाकार के रूप में आरंभ किया। सन 1950 तक वे कहानियां लिखते रहे। तीन-चार सालों बाद उन्होंने फिर कहानियां लिखीं। इसी समय उनका लघु उपन्यास ‘सोया हुआ जल’ छपकर आया, फिर उनका उपन्यास ‘उड़े हुए रंग’ छपा। एक अन्य कथा संग्रह ‘अंधेरे पर अंधेरा’ की ख़ासी चर्चा हुई।
नाट्य साहित्य:-
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने एक नाटककार के रूप में अपनी अलग पहचान दर्ज कराई। उनके नाटकों में ‘बकरी’ सर्वाधिक चर्चित हुआ, जिसके ढेरों मंचन हुए। उनके नाटकों में राजनीतिक विद्रूपताओं एवं यथास्थितिवाद के ख़िलाफ़ तीखा व्यंग्य मिलता है। वे अपने पात्रों के माध्यम से देश की सड़ांध मारती राजनीतिक व्यवस्था पर सीधी चोट करते नजर आते हैं। इसके अलावा उन्होंने लड़ाई, अब ग़रीबी हटाओ, कल भात आएगा, हवालात, रूपमती बाजबहादुर, होरी घूम मचोरी नामक नाटक एवं एकांकी लिखे।
डा.कृष्णदत्त पालीवाल का अभिमत:-
सर्वेश्वर ने नाटक, उपन्यास, कहानी के समान पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अनेक ऊँचाइयां प्राप्त की लेकिन उनका कवि व्यक्तित्व ही सर्वाधिक प्रखर है। प्रख्यात आलोचक डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल मानते हैं कि “समसामयिक जीवन-संदर्भों, समस्याओं से सीधे जुड़ने के कारण उनकी ताजी संवेदनात्मक क्षमता एक क्षमता संपन्न कवि के काव्य को नवीन विचारों-दृष्टियों से भरा-पूरा बना रही है ।”
चयनित प्रमुख कविताएं :-
1.ताजी कविता :-
सर्वेश्वर की कविता में भाषा की कामधेनु का दूध इतना ताजा एवं जीवनप्रद है कि नई कविता का संसार उससे पुष्ट ही हुआ है। सामाजिक परिवर्तन को लगातार नजरुल इस्लाम की तरह अराजकतावादी स्वर की तरह पहचानते हैं। सामाजिक व्यवस्था के विद्रोहपूर्ण क्षण में वे अपने से भी विद्रोह करते हैं–
“मैं जहां होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ
अक्सर एक व्यथा
एक यात्रा बन जाती है।”
अपनी कविता और अपने उद्देश्य को वे पूरे खुलेपन से स्वीकारते हैं और कहते हैं–
“अब मैं कवि नहीं रह
एक काला झंडा हूँ ।
तिरपन करोड़ भौंहों के बीच मातम में
खड़ी है मेरी कविता।”
सुनना चाहता हूँ
एक समर्थ सच्ची आवाज़
यदि कहीं हो
अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता,
सुनना चाहता हूँ
एक समर्थ सच्ची आवाज़
यदि कहीं हो।
अन्यथा
इसके पूर्व कि
मेरा हर कथन
हर मंथन
हर अभिव्यक्ति
शून्य से टकराकर फिर वापस लौट आए,
उस अनंत मौन में समा जाना चाहता हूँ
जो मृत्यु है।
‘वह बिना कहे मर गया’
यह अधिक गौरवशाली है
यह कहे जाने से -
‘कि वह मरने के पहले
कुछ कह रहा था
जिसे किसी ने सुना नहीं।’
2.तुम्हारे साथ रहकर :-
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गई हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गई है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकांत नहीं
न बाहर, न भीतर।
हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गए हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
संभावनाओं से घिरे हैं,
हर दीवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।
शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।
दर्द उठे तो, सूने पथ पर
पाँव बढ़ाना, चलते जाना ।
हंसा ज़ोर से जब, तब दुनिया
बोली इसका पेट भरा है
और फूट कर रोया जब
तब बोली नाटक है नखरा है
जब गुमसुम रह गया, लगाई
तब उसने तोहमत घमंड की
कभी नहीं वह समझी इसके
भीतर कितना दर्द भरा है
दोस्त कठिन है यहाँ किसी को भी
अपनी पीड़ा समझाना
दर्द उठे तो, सूने पथ पर
पाँव बढ़ाना, चलते जाना ।।
3.प्रेम :-
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे को बिना जाने
पास-पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है,
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं।
शब्दों की खोज शुरू होते ही
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं।
हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
ख़ुद से दुश्मनी ठान लेना है।
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे के पास बैठ ख़ुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना।
4.चीजें /क्रांति /देश:-
धीरे-धीरे
भरी हुई बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सा
मैं रख दिया गया हूँ।
धीरे-धीरे अँधेरा आएगा
और लड़खड़ाता हुआ
मेरे पास बैठ जाएगा।
वह कुछ कहेगा नहीं
मुझे बार-बार भरेगा
ख़ाली करेगा,
भरेगा-ख़ाली करेगा,
और अंत में
ख़ाली बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सा
छोड़ जाएगा।
मेरे दोस्तो!
तुम मौत को नहीं पहचानते
चाहे वह आदमी की हो
या किसी देश की
चाहे वह समय की हो
या किसी वेश की।
सब-कुछ धीरे-धीरे ही होता है
धीरे-धीरे ही बोतलें ख़ाली होती हैं
गिलास भरता है,
हाँ, धीरे-धीरे ही
आत्मा ख़ाली होती है
आदमी मरता है।
उस देश का मैं क्या करूँ
जो धीरे-धीरे लड़खड़ाता हुआ
मेरे पास बैठ गया है।
मेरे दोस्तो!
तुम मौत को नहीं पहचानते
धीरे-धीरे अँधेरे के पेट में
सब समा जाता है,
फिर कुछ बीतता नहीं
बीतने को कुछ रह भी नहीं जाता
ख़ाली बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सा सब पड़ा रह जाता है—
झंडे के पास देश
नाम के पास आदमी
प्यार के पास समय
दाम के पास वेश,
सब पड़ा रह जाता है
ख़ाली बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सा
धीरे-धीरे'-
मुझे सख़्त नफ़रत है
इस शब्द से।
धीरे-धीरे ही घुन लगता है
अनाज मर जाता है,
धीरे-धीरे ही दीमकें सब-कुछ चाट जाती हैं
साहस डर जाता है।
धीरे-धीरे ही विश्वास खो जाता है
सकंल्प सो जाता है।
मेरे दोस्तो!
मैं उस देश का क्या करूँ
जो धीरे-धीरे
धीरे-धीरे ख़ाली होता जा रहा है
भरी बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सा
पड़ा हुआ है।
धीरे-धीरे
अब मैं ईश्वर भी नहीं पाना चाहता,
धीरे-धीरे
अब मैं स्वर्ग भी नहीं जाना चाहता,
धीरे-धीरे
अब मुझे कुछ भी नहीं है स्वीकार
चाहे वह घृणा हो चाहे प्यार।
मेरे दोस्तो!
धीरे-धीरे कुछ नहीं होता
सिर्फ़ मौत होती है,
धीरे-धीरे कुछ नहीं आता
सिर्फ़ मौत आती है,
धीरे-धीरे कुछ नहीं मिलता
सिर्फ़ मौत मिलती है,
मौत-
ख़ाली बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सी।
सुनो,
ढोल की लय धीमी होती जा रही है
धीरे-धीरे एक क्रांति-यात्रा
शव-यात्रा में बदल रही है।
सड़ाँध फैल रही है-
नक़्शे पर देश के
और आँखों में प्यार के
सीमांत धुँधले पड़ते जा रहे हैं
और हम चूहों-से देख रहे हैं।
5.प्रेम चीजें:-
तुमसे अलग होकर लगता है
अचानक मेरे पंख छोटे हो गए हैं,
और मैं नीचे एक सीमाहीन सागर में
गिरता जा रहा हूँ।
अब कहीं कोई यात्रा नहीं है,
न अर्थमय, न अर्थहीन;
गिरने और उठने के बीच कोई अंतर नहीं।
तुमसे अलग होकर
हर चीज़ में कुछ खोजने का बोध
हर चीज़ में कुछ पाने की
अभिलाषा जाती रही
सारा अस्तित्व रेल की पटरी-सा बिछा है
हर क्षण धड़धड़ाता हुआ निकल जाता है।
तुमसे अलग होकर
घास की पत्तियाँ तक इतनी बड़ी लगती हैं
कि मेरा सिर उनकी जड़ों से
टकरा जाता है,
नदियाँ सूत की डोरियाँ हैं
पैर उलझ जाते हैं,
आकाश उलट गया है
चाँद-तारे नहीं दिखाई देते,
मैं धरती पर नहीं, कहीं उसके भीतर
उसका सारा बोझ सिर पर लिए रेंगता हूँ।
तुमसे अलग होकर लगता है
सिवा आकारों के कहीं कुछ नहीं है,
हर चीज़ टकराती है
और बिना चोट किए चली जाती है।
तुमसे अलग होकर लगता है
मैं इतनी तेज़ी से घूम रहा हूँ
कि हर चीज़ का आकार
और रंग खो गया है,
हर चीज़ के लिए
मैं भी अपना आकार और रंग खो चुका हूँ,
धब्बों के एक दायरे में
एक धब्बे-सा हूँ,
निरंतर हूँ
और रहूँगा
प्रतीक्षा के लिए
मृत्यु भी नहीं है।
6.मृत्यु :-
अन्त में
अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता,
सुनना चाहता हूँ
एक समर्थ सच्ची आवाज़
यदि कहीं हो।
अन्यथा
इसके पूर्व कि
मेरा हर कथन
हर मंथन
हर अभिव्यक्ति
शून्य से टकराकर फिर वापस लौट आए,
उस अनंत मौन में समा जाना चाहता हूँ
जो मृत्यु है।
‘वह बिना कहे मर गया’
यह अधिक गौरवशाली है
यह कहे जाने से-
‘कि वह मरने के पहले
कुछ कह रहा था
जिसे किसी ने सुना नहीं।’
विषय:सौंदर्यसन्नाटा। :-
तुम्हारा मौन
तुम्हारे
पतले होंठों के नीचे
एक तिल है
गोया ईश्वर की ओर से
एक कील जड़ी हुई,
जो तुम्हारे
हर मौन को
अलौकिक बनाता है।
7.स्त्री :-
सिगरेट पीती हुई औरत
पहली बार
सिगरेट पीती हुई औरत
मुझे अच्छी लगी।
क्योंकि वह प्यार की बातें
नहीं कर रही थी।
चारों तरफ़ फैलता धुआँ
मेरे भीतर धधकती आग के
बुझने का गवाह नहीं था।
उसकी आँखों में
एक अदालत थी :
एक काली चमक
जैसे कोई वकील
उसके भीतर जिरह कर रहा हो
और उसे सवालों का अनुमान ही नहीं
उनके जवाब भी मालूम हों।
वस्तुतः वह नहा कर आई थी
किसी समुद्र में,
और मेरे पास इस तरह बैठी थी
जैसे धूप में बैठी हो।
उस समय धुएँ का छल्ला
समुद्र-तट पर गड़े छाते की तरह
खुला हुआ था-
तृप्तिकर, सुखविभोर, संतुष्ट,
उसको मुझमें खोलता और बचाता भी।
8.हिंसा प्रतिरोध /साहस /राजनीति संघर्ष/भेड़िया:-
एक
भेड़िए की आँखें सुर्ख़ हैं।
उसे तब तक घूरो
जब तक तुम्हारी आँखें
सुर्ख़ न हो जाएँ।
और तुम कर भी क्या सकते हो
जब वह तुम्हारे सामने हो?
यदि तुम मुँह छिपा भागोगे
तो भी तुम उसे
अपने भीतर इसी तरह खड़ा पाओगे
यदि बच रहे।
भेड़िए की आँखें सुर्ख़ हैं।
और तुम्हारी आँखें?
दो
भेड़िया ग़ुर्राता है
तुम मशाल जलाओ।
उसमें और तुममें
यही बुनियादी फ़र्क़ है
भेड़िया मशाल नहीं जला सकता।
अब तुम मशाल उठा
भेड़िए के क़रीब जाओ
भेड़िया भागेगा।
करोड़ों हाथों में मशाल लेकर
एक-एक झाड़ी की ओर बढ़ो
सब भेड़िए भागेंगे।
फिर उन्हें जंगल के बाहर निकाल
बर्फ़ में छोड़ दो
भूखे भेड़िए आपस में ग़ुर्राएँगे
एक-दूसरे को चीथ खाएँगे।
भेड़िए मर चुके होंगे
और तुम?
तीन
भेड़िए फिर आएँगे।
अचानक
तुममें से ही कोई एक दिन
भेड़िया बन जाएगा
उसका वंश बढ़ने लगेगा।
भेड़िए का आना ज़रूरी है
तुम्हें ख़ुद को चहानने के लिए
निर्भय होने का सुख जानने के लिए
मशाल उठाना सीखने के लिए।
इतिहास के जंगल में
हर बार भेड़िया माँद से निकाला जाएगा।
आदमी साहस से, एक होकर,
मशाल लिए खड़ा होगा।
इतिहास ज़िंदा रहेगा
और तुम भी
और भेड़िया?
9.आवाज सन्नाटा :-
मेरे भीतर की कोयल
मेरे भीतर कहीं
एक कोयल पागल हो गई है।
सुबह, दुपहर, शाम, रात
बस कूदती ही रहती है
हर क्षण
किन्हीं पत्तियों में छिपी
थकती नहीं।
मैं क्या करूँ?
उसकी यह कुहू-कुहू
सुनते-सुनते मैं घबरा गया हूँ।
कहाँ से लाऊँ
एक घनी फलों से लदी अमराई?
कुछ बूढ़े पेड़
पत्तियाँ सँभाले खड़े हैं
यही क्या कम है!
मैं जानता हूँ
वह अकेली है
और भूखी
अपनी ही कूक की
प्रतिध्वनि के सहारे
वह जिए जा रहे है
एक आस में-
अभी कोई आएगा
उसके साथ मिलकर गाएगा
उसकी चोंच से चोंच रगड़ेगा
पंख सहलाएगा
यह बूढ़े पेड़ फलों से लद जाएँगे।
कुहू-कुहू
उसकी आवाज़-
वह नहीं जानती
मैं जानता हूँ
अब दिन-पर-दिन कमज़ोर होती जा रही है।
कुछ दिनों बाद
इतनी शिथिल हो जाएगी
कि प्रतिध्वनियाँ बनाने की
उसकी सामर्थ्य चुक जाएगी।
वह नहीं रहेगी।
मेरे भीतर की यह पागल कोयल
तब मुझे पागल कर जाएगी।
मैं बूढ़े पेड़ों की छाँह नापता रहूँगा
और पत्तियाँ गिनता रहूँगा
बाल साहित्य
10.नक्शा :-
एक बच्चा नक़्शा बनाता है
तुम जानते हो वह कहाँ जाता है?
एक बच्चा नक़्शे में रंग भरता है
तुम जानते हो वह कहाँ गया?
एक बच्चा नक़्शा फाड़ देता है
तुम जानते हो वह कहाँ पहुँचा?
यदि तुम जानते होते
तो चुप नहीं बैठते
इस तरह।
11.इच्छा:-
मैं नहीं चाहता
सड़े हुए फलों की पेटियों की तरह
बाज़ार में एक भीड़ के बीच मरने की अपेक्षा
एकांत में किसी सूने वृक्ष के नीचे
गिरकर सूख जाना बेहतर है।
मैं नहीं चाहता कि मुझे
झाड़-पोंछकर दुकान पर सजाया जाए,
दिन-भर मोल-तोल के बाद
फिर पोटियों में रख दिया जाए,
और एक ख़रीदार से
दूसरे ख़रीदार की प्रतीक्षा में
यह जीवन अर्थहीन हो जाए।
12.हिंसा /सांप्रदायिकता/ भूख :-
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट
गोली खाकर
एक के मुँह से निकला-
‘राम’।
दूसरे के मुँह से निकला-
‘माओ’।
लेकिन
तीसरे के मुँह से निकला-
‘आलू’।
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
कि पहले दो के पेट
भरे हुए थे।
13.प्रतिरोध संघर्ष :-
पिछड़ा आदमी
जब सब बोलते थे
वह चुप रहता था
जब सब चलते थे
वह पीछे हो जाता था
जब सब खाने पर टूटते थे
वह अलग बैठा टूँगता रहता था
जब सब निढाल हो सो जाते थे
वह शून्य में टकटकी लगाए रहता था
लेकिन जब गोली चली
तब सबसे पहले
वही मारा गया।।
14.आवाज़ :-
सब कुछ कह लेने के बाद
सब कुछ कह लेने के बाद
कुछ ऐसा है जो रह जाता है,
तुम उसको मत वाणी देना।
वह छाया है मेरे पावन विश्वासों की,
वह पूँजी है मेरे गूँगे अभ्यासों की,
वह सारी रचना का क्रम है,
वह जीवन का संचित श्रम है,
बस उतना ही मैं हूँ,
बस उतना ही मेरा आश्रय है,
तुम उसको मत वाणी देना।
वह पीड़ा है जो हमको, तुमको, सबको अपनाती है,
सच्चाई है-अनजानों का भी हाथ पकड़ चलना सिखलाती है,
वह यति है-हर गति को नया जन्म देती है,
आस्था है-रेती में भी नौका खेती है,
वह टूटे मन का सामर्थ है,
वह भटकी आत्मा का अर्थ है,
तुम उसको मत वाणी देना।
वह मुझसे या मेरे युग से भी ऊपर है,
वह भावी मानव की थाती है, भू पर है,
बर्बरता में भी देवत्व की कड़ी है वह,
इसलिए ध्वंस और नाश से बड़ी है वह,
अंतराल है वह-नया सूर्य
उगा लेती है,
नए लोक, नई सृष्टि, नए स्वप्न देती है,
वह मेरी कृति है
पर मैं उसकी अनुकृति हूँ,
तुम उसको मत वाणी देना।
15.भूख :-
जब भी
भूख से लड़ने
कोई खड़ा हो जाता है
सुंदर दीखने लगता है।
झपटता बाज़,
फन उठाए साँप,
दो पैरों पर खड़ी
काँटों से नन्हीं पत्तियाँ खाती बकरी,
दबे पाँव झाड़ियों में चलता चीता,
डाल पर उल्टा लटक
फल कुतरता तोता,
या इन सबकी जगह
आदमी होता।
जब भी
भूख से लड़ने
कोई खड़ा हो जाता है
सुंदर दीखने लगता है।
16.दुःख :-
अक्सर एक व्यथा
अक्सर एक गंध
मेरे पास से गुज़र जाती है,
अक्सर एक नदी
मेरे सामने भर जाती है,
अक्सर एक नाव
आकर तट से टकराती है,
अक्सर एक लीक
दूर पार से बुलाती है।
मैं जहाँ होता हूँ
वहीं पर बैठ जाता हूँ,
अक्सर एक प्रतिमा
धूल में बन जाती है।
अक्सर चाँद जेब में
पड़ा हुआ मिलता है,
सूरज को गिलहरी
पेड़ पर बैठी खाती है,
अक्सर दुनिया
मटक का दाना हो जाती है,
एक हथेली पर
पूरी बस जाती है।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से उठ जाता हूँ,
अक्सर रात चींटी-सी
रेंगती हुई आती है।
अक्सर एक हँसी
ठंडी हवा-सी चलती है,
अक्सर एक दृष्टि
कनटोप-सा लगाती है,
अक्सर एक बात
पर्वत-सी खड़ी होती है,
अक्सर एक ख़ामोशी
मुझे कपड़े पहनाती है।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ,
अक्सर एक व्यथा
यात्रा बन जाती है।
17.प्रकृति पेड़ /पृथ्वी समाज /चिड़िया
थोड़ी धरती पाऊँ
बहुत दिनों से सोच रहा था,
थोड़ी धरती पाऊँ
उस धरती में बाग़-बग़ीचा,
जो हो सके लगाऊँ।
खिलें फूल-फल, चिड़ियाँ बोलें,
प्यारी ख़ुशबू डोले
ताज़ी हवा जलाशय में
अपना हर अंग भिगो ले।
लेकिन एक इंच धरती भी
कहीं नहीं मिल पाई
एक पेड़ भी नहीं, कहे जो
मुझको अपना भाई।
हो सकता है पास, तुम्हारे
अपनी कुछ धरती हो
फूल-फलों से लदे बग़ीचे
और अपनी धरती हो।
हो सकता है छोटी-सी
क्यारी हो, महक रही हो
छोटी-सी खेती हो जो
फ़सलों में दहक रही हो।
हो सकता है कहीं शांत
चौपाए घूम रहे हों
हो सकता है कहीं सहन में
पक्षी झूम रहे हों।
तो विनती है यही,
कभी मत उस दुनिया को खोना
पेड़ों को मत कटने देना,
मत चिड़ियों को रोना।
एक-एक पत्ती पर हम सब
के सपने सोते हैं
शाख़ें कटने पर वे भोले,
शिशुओं सा रोते हैं।
पेड़ों के संग बढ़ना सीखो,
पेड़ों के संग खिलना
पेड़ों के संग-संग इतराना,
पेड़ों कं संग हिलना।
बच्चे और पेड़ दुनिया को
हरा-भरा रखते हैं
नहीं समझते जो,
दुष्कर्मों का
वे फल चखते हैं।
आज सभ्यता वहशी बन,
पेड़ों को काट रही है
ज़हर फेफड़ों में भरकर
हम सब को बाँट रही है।
18. बाल साहित्य : हाथी
हाथी
सूंड उठा कर हाथी बैठा
पक्का गाना गाने, मच्छर
इक घुस गया कान में,
लगा कान खुजलाने।
फटफट-फटफट तबले
जैसा हाथी कान बजाता,
बड़े मौज से भीतर
बैठा मच्छर गाना गाता।
पूछ रहा है एक-दूसरे से
जंगल—‘ऐ भैया, हमें बता दो,
इन दोनों में अच्छा कौन गवैया?
19.माँ की याद
चींटियाँ अंडे उठाकर जा रही हैं,
और चींटियाँ नीड़ को चारा दबाए,
थान पर बछड़ा रँभाने लग गया है
टकटकी सूने विजन पथ पर लगाए,
थाम आँचल, थका बालक रो उठा है,
है खड़ी माँ शीश का गट्ठर गिराए,
बाँह दो चुमकारती-सी बढ़ रही है,
साँझ से कह दो बुझे दीपक जलाए।
शोर डैनों में छिपाने के लिए अब,
शोर, माँ की गोद जाने के लिए अब,
शोर घर-घर नींद रानी के लिए अब,
शोर परियों की कहानी के लिए अब,
एक मैं ही हूँ—कि मेरी साँझ चुप है,
एक मेरे दीप में ही बल नहीं है,
एक मेरी खाट का विस्तार नभ-सा
क्योंकि मेरे शीश पर आँचल नहीं है।
बाल साहित्य:-
20.बादल सुख वर्षा:-
मेघ आए
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।
आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली,
दरवाज़े-खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली,
पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के।
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।
पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए,
आँधी चली, धूल भागी घाघरा उठाए,
बाँकी चितवन उठा, नदी ठिठकी, घूँघट सरके।
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।
बूढ़े पीपल ने आगे बढ़कर जुहार की,
‘बरस बाद सुधि लीन्हीं’—
बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की,
हरसाया ताल लाया पानी परात भर के।
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।
क्षितिज अटारी गहराई दामिनि दमकी,
‘क्षमा करा गाँठ खुल गई अब भरम की’,
बाँध टूटा झर-झर मिलन के अश्रु ढरके।
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।
21.अकाल स्मृति / सूखा
सूखा
हाँ, वह पगडंडी
अब रसातल में चली गई है।
अभ्यासवश ही मैं यहाँ खड़ा हूँ
दौड़कर पार भी कर जाना चाहता हूँ
चीथड़ों-सी पड़ी इस धरती को
जिसकी दरारों में
आकाश तक के पैर फँस गए हैं,
और सूरज सारी हरियाली
के साथ लुढ़क गया है।
अभ्यासवश ही मैं यहाँ हूँ
जलहीन कूपों की आँखों में झाँकता,
जलती धरती के माथे पर
ठंडे हाथ रखता।
(शायद कोई अंकुर उगे)
अभ्यासवश ही देखता हूँ, सुनता हूँ,
बोलता हूँ, चुप रहता हूँ,
ख़ाली ज़मीन को घेरता हूँ
और बाड़े बनाने के लिए
काँटे उठा-उठाकर लाता हूँ।
‘तुम एक भयानक सूखे से घिर गए हो’—
लोग मुझसे कहते है।
(शायद यह हमदर्दी है!)
कोई कुछ देने आया है दे जाए,
लूट लेने आया है ले जाए।
मुझे सभी एक जैसे लगते हैं।
किसी का होना न होना
कोई मतलब नहीं रखता।
सूखा-
हाँ, अब मुझमें कुछ उगेगा नहीं
अब कहीं कोई प्रतिक्षा नहीं होगी,
एक ख़ाली पेट की तरह
मेरी आत्मा पिचक गई है
और ईश्वर मरे हुए डाँगर-सा गँधा रहा है।
फिर भी अभ्यासवश मैं यहाँ खड़ा हूँ
पुजागृहों की दीवारों से टिका
जलहीन स
रोवरों के हाथ बिका
निष्प्राण होने पर भी इस धरती को पहचानता
कुछ न मिलने पर भी अपना मानता।
22.यात्रा :-
लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।
साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट,
कि उनमें गा रहा है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं।
शेष जो भी हैं-
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ;
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़,
हिलती क्षितिज की झालरें;
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मंडली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यंत्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के सहारे हैं।
लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।
23.नाव अवसाद:-
एक सूनी नाव
तट पर लौट आई।
रोशनी राख-सी
जल में घुली, बह गई,
बंद अधरों से कथा
सिमटी नदी कह गई,
रेत प्यासी
नयन भर लाई।
भीगते अवसाद से
हवा श्लथ हो गई
हथेली की रेख काँपी
लहर-सी खो गई
मौन छाया
कहीं उतराई।
स्वर नहीं,
चित्र भी बहकर
गए लग कहीं,
स्याह पड़ते हुए जल में
रात खोई-सी
उभर आई।
एक सूनी नाव
तट पर लौट आई।
24.किसान:-
आकाश का साफ़ा बाँधकर
सूरज की चिलम खींचता
बैठा है पहाड़,
घुटनों पर पड़ी है नदी चादर-सी,
पास ही दहक रही है
पलाश के जंगल की अँगीठी
अंधकार दूर पूर्व में
सिमटा बैठा है भेड़ों के गल्ले-सा।
अचानक—बोला मोर।
जैसे किसी ने आवाज़ दी—
‘सुनते हो’।
चिलम औंधी
धुआँ उठा—
सूरज डूबा
अँधेरा छा गया।
25.धूल पर दो रचनाएं
एक
तुम धूल हो—
पैरों से रौंदी हुई धूल।
बेचैन हवा के साथ उठो,
आँधी बन
उनकी आँखों में पड़ो
जिनके पैरों के नीचे हो।
ऐसी कोई जगह नहीं
जहाँ तुम पहुँच न सको,
ऐसा कोई नहीं
जो तुम्हें रोक ले।
तुम धूल हो
पैरों में रौंदी हुई धूल,
धूल से मिल जाओ।
दो
तुम धूल हो
ज़िंदगी की सीलन से
दीमक बनो।
रातों-रात
सदियों से बंद इन
दीवारों की
खिड़कियाँ
दरवाज़े
और रोशनदाल चाल दो।
तुम धूल हो
ज़िंदगी की सी
लन से जन्म लो
दीमक बनो, आगे बढ़ो।
एक बार रास्ता पहचान लेने पर
तुम्हें कोई ख़त्म नहीं कर सकता।
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