बस्ती के पं.श्रीनारायण चतुर्वेदी
इटावा के अलावा एक और पं.श्रीनारायण चतुर्वेदी उत्तर प्रदेश के सन्त कबीर नगर के मलौली गाँव में प्रसिद्ध साहित्यिक कुल में भी हुआ था जिसमें अभी तक ज्ञात सात उच्च कोटि के छंदकार अवतरित हुए हैं। इस पं.श्रीनारायण चतुर्वेदी का जन्म कार्तिक कृष्ण 15,संवत् 1938 विक्रमी को दीपावली के दिन हैसर बाजार धनघटा नगर पंचायत के गांव सभा मलौली में हुआ था । जो अब नवगठित नगर पंचायत हैसर बाजार-धनघटा के वार्ड नंबर 6 में आता है। यह पूरे नगर पंचायत क्षेत्र के बीचो बीच है। यह एक प्रसिद्ध चौराहा भी है जो राम जानकी रोड पर स्थित है ।
छः भाइयों में सबसे कुशाग्र
श्रीनारायण चतुर्वेदी के पिता का नाम कृष्ण सेवक चतुर्वेदी था। जिनके छः पुत्र थे - प्रभाकर प्रसाद, भास्कर प्रसाद, हर नारायण, श्री नारायण, सूर्य नारायण और राम नारायण। इनमें भास्कर प्रसाद , श्री नारायण और राम नारायण उच्च कोटि के छंदकार हो चुके हैं। ये सभी भास्कर प्रसाद चतुर्वेदी 'दिनेश' के भाई थे। श्री नारायण बचपन में बड़े प्रतिभाशाली थे। अपने छः भाइयों में श्रीनारायण इतने कुशाग्र थे कि कोई भी भाई इनसे तर्क वितर्क नहीं कर पाता था। संस्कृत, फारसी, आयुर्वेद और ज्योतिष पर इनका पूर्ण नियंत्रण था। वे महीनों सरयू नदी और गंगा नदी के तट पर कल्प वास किया करते थे।
अनेक लहरियों के मध्य "सरयू लहरी "
पदमाकर जी के गंगा लहरी की भांति श्री नारायण जी ने 109 छंदों की "सरयू लहरी" लिखा था जो दुर्भाग्य बस गायब हो गया। इससे पहले महाकवि सूरदास ने साहित्य लहरी नामक 118 पदों की एक लघु रचना लिखी है। पंडित जगन्नाथ मिश्र द्वारा संस्कृत में रचित गंगा लहरी में 52 श्लोक हैं। इसमें उन्होंने गंगा के विविध गुणों का वर्णन करते हुए उनसे अपने उद्धार के लिए अनुनय किया गया है। इसी प्रकार त्रिलोकी नाथ पाण्डेय ने प्रेम लहरी, जम्मू के जाने-माने साहित्यकार प्रियतम चंद्र शास्त्री की शृंगार लहरी रचना है। बद्री नारायण प्रेमधन की लालित्य लहरी आदि लहरी रचनाएँ रही हैं। मूलतः लहरियों में धारा प्रवाह या भाव प्रभाव रचनाओं की अभिव्यंजना मिलती है। इसी तरह भारतेंदु हरिश्चंद्र' ने भी “सरयूपार की यात्रा” नामक एक यात्रा वृतांत लिखा है है। जिसका रचनाकाल 1871 ईस्वी के आसपास माना जाता है।
रीतिकालीन शृंगार का प्रस्फुटन
श्रीनारायण चतुर्वेदी रीतिशास्त्र के ज्ञाता थे। उन्होंने देव बिहारी और चिन्तामणि के छंदों को कंठस्थ कर लिया था। लोग घण्टों उनके पास बैठ कर श्रृंगार परक रचना का रसास्वादन किया करते थे। उन्हें भाषा ब्रज, छंद मनहरन और सवैया प्रिय था। उनका श्रृंगार रस का एक छंद (डा मुनि लाल उपाध्याय 'सरस' कृत 'बस्ती के छंदकार' भाग 1, पृष्ठ 13 - 14 के अनुसार ) द्रष्टव्य है -
कंज अरुणाई दृग देखत लजाई खंग
समता न पायी चपलायी में दृगन की।
वानी सरसायी दीन धुनिको लजायी पिक,
समता न पायी वास किन्हीं लाजवन की।
जंघ चिकनाई रम्भा खम्भ हू न पायी नाभि,
भ्रमरी भुलाई मन नीके मुनिजन की।
बुद्धि गुरुवायी श्री नारायण की जाती फंसि,
देखि गुरुवायी बाल उरज सूतन की।।
एक अन्य छंद भी द्रष्टव्य है -
बाल छबीली तियान के बीच सो बैठी प्रकाश करै अलगै।
चंद विकास सो हांसी हरौ उपमा कुच कंच कलीन लगै।
दृग की सुधराई कटाछन में श्रीनारायण खंज अली बनगै।
मृदु गोल कपोलन की सुषमा त्रिवली भ्रमरी ते मनोज जगै।
श्रीनारायण कवि का यह छंद शृंगार की अभिव्यक्ति का प्रतीक है। ये मलौली के कवि परम्परा के प्रथम चरण के अंतिम कवि थे।
आचार्य डॉक्टर राधेश्याम द्विवेदीलेखक परिचय
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं. वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम-सामयिक विषयों, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर +91 8630778321, वर्डसैप्प नम्बर+ 91 9412300183)
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