पंडितों में कर लेने की प्रथा:-
बात दसवीं - ग्यारहवी शताब्दी के उन दिनों की है जब दक्षिण भारत में राजा पांड्य राज करते थे। उनके दरबार में कोलाहल नामक एक विद्वान ब्राह्मण राजपंडित के पद पर नियुक्त थे । वह विद्वान के साथ ही साथ बड़ा घमंडी भी था। राजा पांड्य भी इसका बहुत सम्मान करते थे। वह विद्वान ब्राह्मïणों से शास्त्रार्थ करता था और शास्त्रार्थ में पराजित होने वाले ब्राह्मïणों से प्रति वर्ष कर वसूला करता था। सामान्य जीवन यापन करने वाले और हारे हुए पंडितों को राज पंडित को मजबूरन कर देना पड़ता था।
उन्हीं गुरु भाष्याचार्य के एक शिष्य थे यमुनाचार्य, जिन्होंने वैष्णव सम्प्रदाय की स्थापना की थी। वे बचपन से ही काफी प्रतिभाशाली और विद्वान थे। उनकी विशेषता यह थी कि वे जिस पुस्तक को पढ़ लेते, वह उनको कंठस्थ हो जाया करती थी। भाष्याचार्य की अनुपस्थिति में कोलाहल का सेवक आया और यमुनाचार्य से कर की मांग करने लगा। कर की बात सुनकर यमुनाचार्य को बहुत आश्चर्य हुआ और बोले, ‘ किस बात का कर? तुम्हें किसने कर लेने के लिए भेजा है? मेरे गुरु तो किसी को कर नहीं देते।’ सेवक ने सोचा यह जानबूझकर ऐसा बोल रहा है। यही सोचकर क्रोधित होकर बोला, ‘जानकर भी अनजान बन रहे हो यामुन मुनि । तुम्हारे गुरु हमारे राजपंडित से शास्त्रार्थ में पराजित हो गये हैं। नियमानुसार पराजित होने वाले प्रत्येक विद्वान को कर देना पड़ता है। तुम्हारे गुरु ने पिछले कई वर्षों से कर नहीं दिया है और मुंह छिपाये फिर रहे हैं। यदि अपना कुशल चाहते हो, तो हमारा कर चुकता कर दो, वरना इसका परिणाम बुरा होगा।’
महापंडित, राज पुरोहित कोलाहल अन्य पंडितो को हरा कर आनंदित होता और इन सबकी खिल्ली उड़ाता था। उस समय गुरु भाष्याचार्य की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, फिर भी किसी प्रकार से वे कर दे रहे थे। यह बात उन्होंने अपने शिष्यों को नहीं बतायी थी। आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के से वे कई वर्षों तक कर नहीं चुका पाये और किसी आवश्यक कार्य से कहीं बाहर चले गये थे।
कोलाहल अपने प्रतिनिधियों को पंडितों के पास भेज कर उनसे कर वसुल करने को भेजता है । एक दिन कोलाहल का एक शिष्य ‘वंजि’ आया और बकाया कर की वसूली के लिए वहां बैठे यामुनाचार्य को अपशब्द बोल दिया। गुरु की अनुपस्थिति में उनका बारह वर्षीय शिष्य यामुन मुनि ने वंजि से कहा,"अपने गुरु तथा राजा को मेरा संदेश सम्मान के साथ दे देना कि मैं उन महापंडित ‘कोलाहल’ जी से शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित कर दूंगा।"
उसी समय इस नए पंडित श्री यामुन मुनि की विद्वता की ख्याति फैल रही थी जो धीरे धीरे राजा पांड्य के कानों तक पहुंच गई थी। राजा को अपने महा पंडित के पांडित्य पर पूर्ण विश्वास था ही, अतः कुतुहल बस नए पंडित श्री यामुन मुनि को कोलाहल से शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित कर दिया ।
यामुनाचार्यजी एक श्लोक भेजते हैं, जिसमे वह स्पष्ट रूप से कहते है, वह उन सब कवियों का जो अपना स्वप्रचार के लिये अन्य विद्वानों पर अत्याचार करते है, उनका नाश करेंगे। यह देखकर कोलाहल को गुस्सा आता है और अपने सैनिकों को यमुनाचार्य को राजा के अदालत में लाने के लिए भेजता है।
ज्ञान के घमंड का टूटना :-
उस समय यमुनाचार्य की आयु मात्र बारह वर्ष की थी। उन्हें अपने गुरु का अपमान सहन न हुआ और बोल पड़े, ‘यदि कोलाहल को अपने ज्ञान का घमंड हो गया है । जाओ, जाकर अपने राजपंडित से कह दो, पहले भाष्याचार्य के शिष्य यमुनाचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित करें, फिर कर लेने की बात करें।’ सेवक ने राजदरबार में जाकर कोलाहल को सारी बातें बतायीं। उस समय दरबार में राजा पांड्य भी मौजूद थे। यह सुनकर कोलाहल भी आग -बबूला हो गया और उसने राजा से कहा, ‘महाराज, उस धृष्ट बालक को बुलाया जाये।’
राजा ने तुरंत अपने सेवकों को आदेश दिया, ‘जाओ और उस बालक को शीघ्र दरबार में पेश करो।’ सेवक ने शीघ्र यमुनाचार्य के पास जाकर राजा का संदेश सुनाया और दरबार में चलने को कहा। यमुनाचार्य बड़े गर्व से बोले, ‘जाओ और अपने राजा से कह दो हम इस प्रकार राजदरबार नहीं जा सकते। यदि वे राज पंडित के साथ शास्त्रार्थ के लिए बुलाना चाहते हैं, तो मुझे सम्मानपूर्वक आमंत्रित करें और मेरे आने के लिए सवारी भेजें।’
सेवक ने जाकर राजा को सारी बात बतायी। राजा ने तुरंत आमंत्रण पत्र और सवारी सहित ससम्मान यमुनाचार्य को लाने के लिए सेवक को भेजा। उस समय तक उनके गुरु भाष्याचार्य भी बाहर से लौट आये थे। अपने द्वार पर राजा का रथ देखकर, वे भयभीत हो गये। उन्होंने सोचा कि शायद कोलाहल का कर न देने के कारण राजा के अधिकारी उन्हें दंड देने के लिए आये हैं। तभी सेवक ने आकर यमुनाचार्य को राजा का निमंत्रण पत्र दिया। भाष्याचार्य को बड़ा आश्चर्य हुआ। यमुनाचार्य ने अपने गुरु को सारी बातें बता दीं और कहा, ‘मैं कोलाहल के घमंड को चकनाचूर कर दूंगा। आप मुझे आशीर्वाद दें।’ यह सुनकर भाष्याचार्य ने अपना सिर पीटते हुए कहा, ‘यमुना, यह तूने क्या किया? कोलाहल जैसे विद्वान को पराजित करना कोई सरल कार्य नहीं। तू अभी बच्चा है। फिर तेरे लिए भी प्रतिवर्ष मुझे कर देना होगा। मेरा कहा मान तू अपना हठ छोड़ दे। राजा और कोलाहल से क्षमा मांग ले।’ लेकिन यमुनाचार्य अपनी जिद पर अड़े हुए थे। गुरु के लाख समझाने पर भी नहीं माने। वे राजा के दूत के साथ राज सभा में उपस्थित हो गए।
राज दरबार में राजा ने सभा में उन्हें ऊंचा आसन दिया। बालक होकर भी यमुनाचार्य सबसे अधिक प्रभावशाली लग रहे थे। उस दिन दरबार में महारानी भी मौजूद थीं। तब बालक को देखकर बोली, ‘यह तो साक्षात् विद्या का अवतार है। यह बालक अवश्य कोलाहल को पराजित करेगा।’
यह सुनकर राजा बोला, ‘क्या कहती हो रानी? कोलाहल जैसे विद्वान को पराजित करने की हिम्मत बड़े-बड़े विद्वानों में नहीं है, फिर इस बालक की क्या बिसात! कोलाहल जैसे विद्वान तो इसके गुरु भी नहीं हैं।’
इस बात को लेकर दोनों में बहस शुरू हो गयी। राजा ने उत्तेजित होकर कहा, ‘यदि तुम्हारी बात सच निकली, तो मैं इसे अपना आधा राज्य दे दूंगा।’
रानी भी कहां पीछे रहने वाली थी। बोली, ‘यदि आप की बात सच निकली, तो मैं आपकी दासी की दासी बनकर रहूंगी।’
शास्त्रार्थ आरंभ हुआ। राजा को ही निर्णायक बनाया गया। राजा ने पहले यमुनाचार्य से कहा, ‘आप प्रश्न पूछिए। यदि निश्चित समय में उत्तर नहीं मिला, तो कोलाहल की हार मानी जाएगी।’
यमुनाचार्य ने प्रश्न किया, ‘शास्त्रों में कहा गया है, यह संसार अपार है। भगवान ने एक से एक बड़ा पापी और धर्मात्मा संसार में उत्पन्न किया है। कहा जाता है, राजा पांड्य बड़े धर्मात्मा हैं। क्या यह सबसे बड़े धर्मात्मा हैं?’
यह प्रश्न सुनकर कोलाहल चुप हो गए। अगर सबसे बड़ा धर्मात्मा राजा को बताये, तो शास्त्र के विरुद्ध। अगर न बताये तो राजा के अपमान का भय। वह कोई उत्तर न दे सका।
यमुनाचार्य ने फिर प्रश्न किया, ‘सतियों में सावित्री का नाम आता है। आपने कई बार अपनी रानी को महान सती बताकर प्रशंसा की है। क्या वह सावित्री से भी महान है। हैं तो प्रमाण दीजिए।’ बेचारे कोलाहल को काटो तो खून नहीं। कोलाहल को कोई उत्तर न सूझ पड़ा। वे चुपचाप सिर झुकाए खड़े थे।
यमुनाचार्य ने राजा से कहा, ‘आप अपना निर्णय दें।’ राजा ने हाथ उठाकर यमुनाचार्य को विजयी घोषित कर दिया। शर्त के अनुसार उन्हें आधा राज्य दे दिया गया। कोलाहल को भी अपनी गलती का अहसास हो गया। उसने उसी दिन से ज्ञान का घमंड न करने और किसी पराजित विद्वान से कर न लेने का संकल्प कर लिया।
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