सनातन रामानंद सम्प्रदाय परम्परा (11वीं कड़ी)
आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी
नाभादास के भक्तमाल के 1से 27वें छप्पय में सतयुग त्रेता और द्वापर युग के भक्त चारितों का वर्णन मिलता है। 28वें छप्पय से कलियुग के भक्त चरित्रों का वर्णन मिलता है। इस प्रसंग में कलियुग से इतर आचार्यों का निरुपन किया जा रहा है। वैष्णव-सम्प्रदाय भगवान विष्णु और उनके स्वरूपों को आराध्य मानने वाला सम्प्रदाय है। पौराणिक काल में विभिन्न देवी- देवताओं द्वारा वैष्णव महामंत्र दीक्षा परंपरा से इन संप्रदायों का प्रवर्तन हुआ है। वर्तमान में ये सभी संप्रदाय अपने प्रमुख आचार्यो के नाम से जाने जाते हैं। यह सभी प्रमुख आचार्य दक्षिण भारत में जन्म ग्रहण किए थे। इसके अन्तर्गत मूल रूप से चार संप्रदाय आते हैं।
(१) श्री सम्प्रदाय जिसकी आद्य प्रवरर्तिका विष्णुपत्नी महालक्ष्मीदेवी और प्रमुख आचार्य रामानुजाचार्य हुए। जो वर्तमान में रामानुज/रामानन्द सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।
(२) ब्रह्म सम्प्रदाय जिसके आद्य प्रवर्तक चतुरानन ब्रह्मादेव और प्रमुख आचार्य माधवाचार्य हुए। जो वर्तमान में माध्व सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।
(३) रुद्र सम्प्रदाय जिसके आद्य प्रवर्तक देवादिदेव महादेव और प्रमुख आचार्य विष्णु स्वामी /वल्लभाचार्य हुए जो वर्तमान में वल्लभ सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।
(४) कुमार संप्रदाय जिसके आद्य प्रवर्तक सनतकुमार गण और प्रमुख आचार्य निम्बार्काचार्य हुए जो वर्तमान में निम्बार्क सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।
रामानुजं श्रीः स्वीचक्रे मध्वाचार्य चतुर्मुखः।
श्री विष्णुस्वामिनं रुद्रो निम्बादित्यं चतुस्सनः।
(पद्मपुराण)।
इन सम्प्रदायों में श्री सम्प्रदाय' ही सबसे पुरातन है। इसके अनुयायी ‘श्री वैष्णव' कहलाते हैं। बैरागियों के चार सम्प्रदायों में अत्यन्त प्राचीन रामानंदी सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय को बैरागी सम्प्रदाय, रामावत सम्प्रदाय और श्री सम्प्रदाय भी कहते हैं। 'श्री' शब्द का अर्थ लक्ष्मी के स्थान पर 'सीता' किया जाता है। इस सम्प्रदाय का सिद्धान्त विशिष्टाद्वैत कहलाता है। इन सम्प्रदायों में श्री सम्प्रदाय' ही सबसे पुरातन है। इसके अनुयायी ‘श्री वैष्णव' कहलाते हैं। इन अनुयायियों की मान्यता है कि भगवान् नारायण ने अपनी शक्ति श्री (लक्ष्मी) को अध्यात्म ज्ञान प्रदान किया।
सतयुग त्रेता द्वापर युग के दिव्य आचार्य:-
(नित्य-बिहारी, एवं विभूति)
( लोक प्राकट्य: श्री रामनवमी, त्रेतायुग)
"जब जब होई धर्म की हानी " को निवारण हेतु परम ब्रह्म श्री राम जी ने अपने चार स्वरूपों में अयोध्या में अवतार लेकर" विप्र धेनु सुर संत हित" वा वैष्णव सनातन परम्परा और धर्म की रक्षा किया था। पूरे विश्व में हर साल चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी पर भगवान श्री राम का जन्मोत्सव मनाया जाता है। इसी दिन भगवान श्रीराम का प्राकट्य हुआ था।
नवमी तिथि मधुमास पुनीता, शुक्ल पक्ष अभिजीत नव प्रीता।
मध्य दिवस अति सीत न घामा, पवन काल लोक विश्रामा।।
भगवान राम को विष्णु का अवतार माना जाता है।अयोध्या वासी की भी उन्होंने इस प्रकार सेवा की थी ---
जेहि विधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहीं कृपा निधि सोई संयोगा।
धरती पर असुरों का संहार करने के लिए भगवान विष्णु ने त्रेतायुग में श्रीराम के रूप में मानव अवतार लिया था। भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है। उन्होंने दीर्घ काल तक पृथ्वी पर अभूत पूर्व सुशासन स्थापित कर प्रजा को ताप त्रय से मुक्ति दिलाकर राम राज्य की स्थापना की थी।
( नित्य-बिहारिणी)
(लोक प्राकट्य: वैशाख शुक्ल नवमी, त्रेतायुग )
परम ब्रह्म का अंग स्वरूपा श्री शक्ति लक्ष्मी जी ने भू देवी द्वारा
अवतरण लिया है। भगवती लक्ष्मी विष्णु वल्लभा है, वे भगवान विष्णु से अभिन्न हैं। वे भी भगवान की तरह नित्य और सर्व व्यापक हैं।पौराणिक ग्रंथों में माता सीता के प्राक्ट्य की कथा कुछ इस प्रकार है। एक बार मिथिला में भयंकर अकाल पड़ा उस समय मिथिला के राजा जनक हुआ करते थे। वह बहुत ही पुण्यात्मा थे, धर्म कर्म के कार्यों में बढ़ चढ़कर रूचि लेते। ज्ञान प्राप्ति के लिए वे आये दिन सभा में कोई न कोई शास्त्रार्थ करवाते और विजेताओं को गौदान भी करते। लेकिन इस अकाल ने उन्हें बहुत विचलित कर दिया, अपनी प्रजा को भूखों मरते देखकर उन्हें बहुत पीड़ा होती। उन्होंने ज्ञानी पंडितों को दरबार में बुलवाया और इस समस्या के कुछ उपाय जानने चाहे। सभी ने अपनी-अपनी राय राजा जनक के सामने रखी। कुल मिलाकर बात यह सामने आयी कि यदि राजा जनक स्वयं हल चलाकर भूमि जोते तो अकाल दूर हो सकता है। अब अपनी प्रजा के लिये राजा जनक हल उठाकर चल पड़े। वह दिन था वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी का। जहां पर उन्होंने हल चलाया वह स्थान वर्तमान में बिहार के सीतामढी के पुनौरा राम गांव को बताया जाता है। तो राजा जनक हल जोतने लगे। हल चलाते-चलाते एक जगह आकर हल अटक गया, उन्होंने पूरी कोशिश की लेकिन हल की नोक ऐसी धंसी हुई थी जिसकी खुदाई करने पर सुंदर और बड़ा सा कलश मिला है जो हल की नोक उलझी हुई थी । कलश को बाहर निकाला तो देखा उसमें एक नवजात कन्या है। धरती मां के आशीर्वाद स्वरूप राजा जनक ने इस कन्या को अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया। बताते हैं कि उस समय मिथिला में जोर की बारिश हुई और राज्य का अकाल दूर हो हुआ। जब कन्या का नामकरण किया जाने लगा तो चूंकि हल की नोक को सीता कहा जाता है और उसी की बदौलत यह कन्या उनके जीवन में आयी तो उन्होंने इस कन्या का नाम सीता रखा जिसका विवाह आगे चलकर प्रभु श्री राम से हुआ।
3.श्री हनुमान जी
( लोक प्राकट्य कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी, त्रेतायुग)
भगवान शिव के अंश से वायु के द्वारा कपिराज केशरी की पत्नी अंजना से 11 रूद्रावतार हनुमान जी का प्रादुर्भाव हुआ है । भगवान शंकर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का स्वंम सेवा नही कर सकते हैं इसलिए 11वें रूद्रावतार के बानर रूप में अवतरित हुए हैं। मान्यता है कि नरक चतुर्दशी यानी कार्तिक कृष्ण चतुदर्शी के दिन हनुमान जी का जन्म हुआ था। भगवान राम त्रेतायुग में धर्म की स्थापना करके पृथ्वी से अपने लोक बैकुण्ठ चले गये लेकिन धर्म की रक्षा के लिए हनुमान को अमरता का वरदान दिया। इस वरदान के कारण हनुमान जी आज भी जीवित हैं और भगवान के भक्तों और धर्म की रक्षा में लगे हुए हैं। शास्त्रों का ऐसा मत है कि जहां भी राम कथा होती है वहां हनुमान जी अवश्य होते हैं। इसलिए हनुमान की कृपा पाने के लिए श्री राम की भक्ति जरूरी है। जो राम के भक्त हैं हनुमान उनकी सदैव रक्षा करते हैं।
4.श्री ब्रह्मा जी
( लोक प्राकट्य: अक्षय नवमी, सतयुग)
ब्रह्मा सनातन धर्म के अनुसार सृजन के देव हैं। द्वादश प्रधान महाभागवतों में ब्रह्मा जी अग्रगण्य हैं। हिन्दू दर्शनशास्त्रों में ३ प्रमुख देव बताये गये है जिसमें ब्रह्मा सृष्टि के सर्जक, विष्णु पालक और महेश विलय करने वाले देवता हैं।व्यास लिखित पुराणों में ब्रह्मा का वर्णन किया गया है कि उनके पाँच मुख थे।अब उनके चार मुख ही है जो चार दिशाओं में देखते हैं।
ब्रह्मा जी के पिता का नाम ब्रह्म (ज्योति निरंजन) है जिनको परमात्मा ने पांच वेद दिए थे उन पांचों वेदों में पांचवा वेद सूक्ष्म वेद था । समुद्र मंथन के दौरान ब्रह्म ने अपने पुत्र ब्रह्मा को चार वेद दिए तथा पांचवे वेद को नष्ट कर दिया । कबीर सागर के अनुसार पांचवा वेद सूक्ष्म वेद है।ब्रह्मा की उत्पत्ति के विषय पर वर्णन किया गया है। ब्रह्मा की उत्पत्ति विष्णु की नाभि से निकले कमल में स्वयंभू हुई थी। इसने चारों ओर देखा जिनकी वजह से उनके चार मुख हो गये। भारतीय दर्शनशास्त्रों में निर्गुण, निराकार और सर्वव्यापी माने जाने वाली चेतन शक्ति के लिए ब्रह्म शब्द प्रयोग किया गया है। इन्हें परब्रह्म या परम् तत्व भी कहा गया है। पूजा-पाठ करने वालों के लिए ब्राह्मण शब्द प्रयोग किया गया हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, आंवले की उत्पत्ति परमपिता ब्रह्मा जी के आंसू की बूंदों से हुई है. आंवले को विश्व की शुरुआत का पहला फल मानकर पूजा की जाती है।
5. श्री वशिष्ठ जी
( लोक प्राकट्य: ऋषि पंचमी, सतयुग)
वशिष्ठ वैदिक काल के विख्यात ऋषि थे। उनकी उत्पत्ति पुराणों में विभिन्न रूप में कहीं ब्रह्मा, कहीं अग्नि कहीं मित्रवरूण से उत्पत्ति हुई है। वे एक सप्तर्षि हैं - यानि के उन सात ऋषियों में से एक जिन्हें ईश्वर द्वारा सत्य का ज्ञान एक साथ हुआ था , जिन्होंने मिलकर वेदों का दर्शन किया। वेदों की रचना की, ऐसा कहना अनुचित होगा क्योंकि वेद तो अनादि है। उनकी पत्नी अरुन्धती है। वह योग-वासिष्ठ में श्री राम के गुरु हैं। वशिष्ठ राजा दशरथ के राजकुल गुरु भी थे। वशिष्ठ ब्रम्हा के मानस पुत्र थे। त्रिकाल दर्शी तथा बहुत ज्ञानवान ऋषि थे। सूर्य वंशी राजा इनकी आज्ञा के बिना कोई धार्मिक कार्य नही करते थे। त्रेता के अंत मे ये ब्रम्हा लोक चले गए थे । आकाश में चमकते सात तारों के समूह में पंक्ति के एक स्थान पर वशिष्ठ को स्थित माना जाता है। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को आती है ऋषि पंचमी। अंजाने में हुए पाप से मुक्ति तभी मिलती है जब ऋषि पंचमी का व्रत रखा जाये। इस व्रत में सप्तऋषियों समेत अरुन्धती का पूजन होता है।
6.श्री पराशर जी
(लोक प्राकट्यआश्विन शुक्ल १५, सतयुग)
ऋग्वेद के मंत्रदृष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक सप्त ऋषियों में से एक महर्षि वशिष्ठ के पौत्र महान वेदज्ञ, ज्योतिषाचार्य, स्मृतिकार एवं ब्रह्मज्ञानी ऋषि पराशर के पिता का नाम शक्तिमुनि और माता का नाम अद्यश्यंती था। ऋषि पराशर ने निषादाज की कन्या सत्यवती के साथ उसकी कुंआरी अवस्था में समागम किया था जिसके चलते 'महाभारत' के लेखक वेदव्यास का जन्म हुआ। सत्यवती ने बाद में राजा शांतनु से विवाह किया था। पराशर बाष्कल और याज्ञवल्क्य के शिष्य थे। पराशर ऋषि के पिता को राक्षस कल्माषपाद ने खा लिया था। जब यह बात पराशर ऋषि को पता चली तो उन्होंने राक्षसों के समूल नाश हेतु राक्षस-सत्र यज्ञ प्रारंभ किया जिसमें एक के बाद एक राक्षस खिंचे चले आकर उसमें भस्म होते गए। कई राक्षस स्वाहा होते जा रहे थे, ऐसे में महर्षि पुलस्त्य ने पराशर ऋषि के पास पहुंचकर उनसे यह यज्ञ रोकने की प्रार्थना की और उन्होंने अहिंसा का उपदेश भी दिया। पराशर ऋषि के पुत्र वेदव्यास ने भी पराशर से इस यज्ञ को रोकने की प्रार्थना की। उन्होंने समझाया कि बिना किसी दोष के समस्त राक्षसों का संहार करना अनुचित है। पुलस्त्य तथा व्यास की प्रार्थना और उपदेश के बाद उन्होंने यह राक्षस-सत्र यज्ञ की पूर्णाहुति देकर इसे रोक दिया। एक दिन की बात है कि शक्ति एकायन मार्ग द्वारा पूर्व दिशा से आ रहे थे। दूसरी ओर (पश्चिम) से आ रहे थे राजा कल्माषपाद। रास्ता इतना संकरा था कि एक ही व्यक्ति निकल सकता था तथा दूसरे का हटना आवश्यक था। लेकिन राजा को राजदंड का अहंकार था और शक्ति को अपने ऋषि होने का अहंकार। राजा से ऋषि बड़ा ही होता है, ऐसे में तो राजा को ही हट जाना चाहिए था। लेकिन राजा ने हटना तो दूर उन्होंने ऋषि शक्ति को कोड़ों से मारना प्रारंभ कर दिया। राजा का यह कर्म राक्षसों जैसा था अत: शक्ति ने राजा को राक्षस होने का शाप दे दिया। शक्ति के शाप से राजा कल्माषपाद राक्षस हो गए। राक्षस बने राजा ने अपना प्रथम ग्रास शक्ति को ही बनाया और ऋषि शक्ति की जीवनलीला समाप्त हो गई।
ऋषि पराशरजी एक दिव्य और अलौकिक शक्ति से संपन्न ऋषि थे। उन्होंने धर्मशास्त्र, ज्योतिष, वास्तुकला, आयुर्वेद, नीतिशास्त्र, विषयक ज्ञान को प्रकट किया। उनके द्वारा रचित ग्रंथ वृहत्पराशर होराशास्त्र, लघुपराशरी, वृहत्पराशरीय धर्म संहिता, पराशर धर्म संहिता, पराशरोदितम, वास्तुशास्त्रम, पराशर संहिता (आयुर्वेद), पराशर महापुराण, पराशर नीतिशास्त्र, आदि मानव मात्र के लिए कल्याणार्थ रचित ग्रंथ जगप्रसिद्ध हैं जिनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।
7. श्री व्यास जी
(लोक प्राकट्य:गुरु पूर्णिमा, द्वापर युग)
आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा और व्यास पूर्णिमा का विशेष पर्व मनाया जाता है। गुरु पूर्णिमा के दिन शिष्य अपने गुरु की पूजा करते हैं और उन्हें उपहार भी देते हैं। भारतीय संस्कृति में गुरु देवता को तुल्य माना गया है। महर्षि वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को लगभग 3000 ई. पूर्व में हुआ था। उनके सम्मान में ही हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा और व्यास पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। वेद, उपनिषद और पुराणों का प्रणयन करने वाले वेद व्यासजी को समस्त मानव जाति का गुरु माना जाता है। बहुत से लोग इस दिन व्यासजी के चित्र का पूजन और उनके द्वारा रचित ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। बहुत से मठों और आश्रमों में लोग ब्रह्मलीन संतों की मूर्ति या समाधी की पूजा करते। समय आने पर सत्यवती को एक पुत्र हुआ, जिनका नाम कृष्ण द्वैपायन रखा। यही कृष्ण आगे चलकर वेद व्यास के नाम से प्रसिद्ध हुए। वेदों के विस्तार के कारण ये वेदव्यास के नाम से जाने जाते हैं। वेद व्यास ने चारो वेदों के विस्तार के साथ-साथ 18 महापुराणों तथा ब्रह्मसूत्र का भी प्रणयन किया। महर्षि वेदव्यास महाभारत के रचयिता हैं, बल्कि वह उन घटनाओ के भी साक्षी रहे हैं जो घटित हुई हैं।
8. श्री शुकदेव जी
(लोक प्राकट्य:श्रावण शुक्ल १५, द्वापर युग)
शुकदेव वेदव्यास के पुत्र थे। वे बचपन में ही ज्ञान प्राप्ति के लिये वन में चले गये थे। इन्होंने ही परीक्षित को 'श्रीमद्भागवत पुराण' सुनाया था। शुकदेव जी ने व्यास से 'महाभारत' भी पढ़ा था और उसे देवताओं को सुनाया था। शुकदेव मुनि कम अवस्था में ही ब्रह्मलीन हो गये थे। कहीं इन्हें व्यास की पत्नी वटिका के तप का परिणाम और कहीं व्यास जी की तपस्या के परिणामस्वरूप भगवान शंकर का अद्भुत वरदान बताया गया है। विरजा क्षेत्र के पितरों के पुत्री पीवरी से शुकदेव का विवाह हुआ था। एक कथा ऐसी भी है कि जब जब इस धराधाम पर भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधिकाजी का अवतरण हुआ, तब श्रीराधिकाजी का क्रीडाशुक भी इस धराधाम पर आया। उसी समय भगवान शिव पार्वती को अमर कथा सुना रहे थे। पार्वती जी कथा सुनते-सुनते निद्रा के वशीभूत हो गयीं और उनकी जगह पर शुक ने हुंकारी भरना प्रारम्भ कर दिया। जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई, तब उन्होंने शुक को मारने के लिये उसका पीछा किया। शुक भागकर व्यास के आश्रम में आया और सूक्ष्म रूप बनाकर उनकी पत्नी के मुख में घुस गया। भगवान शंकर वापस लौट गये। यही शुक व्यासजी के अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट हुए। गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था।
कहा जाता है कि ये बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिये जंगल की राह ली। व्यास जी इनके पीछे-पीछे 'हा पुत्र! पुकारते रहे, किन्तु इन्होंने उन पर कोई ध्यान न दिया।
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