बाबा विश्वनाथ का मंदिर काशी में भगवान शिव और माता पार्वती का आदि स्थान कहा जाता है। 11वीं सदी तक यह अपने मूल रूप में बना रहा। काशी शिव की नगरी के रूप में पूरे विश्व के सनातनियो द्वारा पूजी जाती रही है।
विश्वनाथ मंदिर पर घात प्रतिघात
सबसे पहले इस मंदिर के टूटने का उल्लेख 1034 में मिलता है। इसके बाद 1194 में मोहम्मद गोरी ने इसे लूटने के बाद तोड़ा। काशी वासियों ने इसे उस समय अपने हिसाब से बनाया लेकिन वर्ष 1447 में एक बार फिर इसे जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने तुड़वा दिया। फिर वर्ष 1585 में राजा टोडरमल की सहायता से पंडित नारायण भट्ट ने इसे बनवाया था । वर्ष 1632 में शाहजहाँ ने एक बार फिर काशी विश्वनाथ मंदिर को तुड़वाने के लिए मुग़ल सेना की एक टुकड़ी भेज दी। हिन्दुओं के प्रतिरोध के कारण मुग़लों की सेना अपने मकसद में कामयाब न हो पाई। इस संघर्ष में काशी के 63 मंदिर नष्ट हो गए थे।
काशी के माथे पर सबसे बडा कलंक औरंगजेब
सबसे बड़ा विध्वंश आततायी औरंगजेब था, जो काशी के माथे पर सबसे बड़े कलंक के रूप में आज भी विद्यमान है। साक़ी मुस्तइद खाँ की किताब ‘मासिर -ए-आलमगीरी’ के मुताबिक़ 16 जिलकदा हिजरी- 1079 यानी 18 अप्रैल 1669 को एक फ़रमान जारी कर औरंगजेब ने मंदिर तोड़ने का आदेश दिया था। साथ ही यहाँ के ब्राह्मणों-पुरोहितों, विद्वानों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया था। औरंगजेब के ग़ुस्से की एक वजह यह थी यह परिसर संस्कृत शिक्षा बड़ा केन्द्र था और दाराशिकोह यहाँ संस्कृत पढ़ता था। इस बार मंदिर की महज एक दीवार को छोड़कर जो आज भी मौजूद है और साफ दिखाई देती है, समूचा मंदिर संकुल ध्वस्त कर दिया गया। 15 रब- उल-आख़िर यानी 2 सितम्बर 1669 को बादशाह को खबर दी गई कि मंदिर न सिर्फ़ गिरा दिया है, बल्कि उसकी जगह मस्जिद की तामीर करा दी गई है।औरंगजेब के आदेश पर उस समय मंदिर संकुल को तुड़वा कर बाबा विश्वनाथ मंदिर के ही ऊपर एक मस्जिद बना दी गई। जिसे बाद में औरंगजेब द्वारा दिया गया नाम था अंजुमन इंतजामिया जामा मस्जिद। जिसे बाद में ज्ञानवापी के नाम पर ज्ञानवापी मस्जिद कहा गया। कई चरणों में काशीवासियों, होल्कर और सिन्धिया सरदारों की मदद से मंदिर परिसर का स्वरुप बनता-बिगड़ता रहा। उसकी वह अलौकिक भव्यता नहीं लौटी जो काशी में कभी हुआ करती थी। मंदिर के खंडहरों पर ही बना वह मस्जिद बाहर से ही स्पष्ट दीखता है। जिसके लिए न किसी पुरातात्विक सर्वे की जरुरत है न किसी खुदाई की। प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर की वह आखिरी बची दीवार जो ज्ञानवापी मस्जिद का हिस्सा है। विश्वनाथ मंदिर परिसर से दूर रहे ज्ञानवापी कूप और विशाल नंदी को एक बार फिर विश्वनाथ मंदिर परिसर में शामिल कर लिया गया है। इस प्रकार 352 साल पहले अलग हुआ यह ज्ञानवापी कूप एक बार फिर विश्वनाथ धाम परिसर में आ गया है।
औरंगजेब के जाने बाद मंदिर के पुनर्निर्माण का संघर्ष जारी रहा। 1752 से लेकर 1780 तक मराठा सरदार दत्ता जी सिन्धिया और मल्हार राव होल्कर ने मंदिर की मुक्ति के प्रयास किए। पर 1777 और 80 के बीच इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर को सफलता मिली। महारानी अहिल्याबाई ने मंदिर तो बनवा दिया पर वह उसका वह पुराना वैभव और गौरव नहीं लौटा पाई। 1836 में महाराजा रणजीत सिंह ने इसके शिखर को स्वर्ण मंडित कराया। वहीं तभी से संकुल के दूसरे मंदिरों पर पुजारियों-पुरोहितों का क़ब्ज़ा हो गया और धीरे-धीरे मंदिर परिसर एक ऐसी गलियों की बस्ती में बदल गया जिसके घरों में प्राचीन मंदिर तक क़ैद हो गए।
आने वाले समय में काशी मंदिर पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया, जिस कारण मंदिर का निर्माण रोक दिया गया। फिर साल 1809 में काशी के हिन्दुओं द्वारा मंदिर तोड़कर बनाई गई ज्ञानवापी मस्जिद पर कब्जा कर लिया गया। इस प्रकार काशी मंदिर के निर्माण और विध्वंस की घटनाएँ 11वीं सदी से लेकर 15वीं सदी तक चलती रही। हालाँकि, 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने ‘वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल’ को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने के लिए कहा था, लेकिन यह कभी संभव ही नहीं हो पाया। तब से ही जारी यह विवाद आज तक चल रहा है।
28 जनवरी, 1983 को मंदिर को सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इसका प्रबंधन तब से डॉ विभूति नारायण सिंह को एक ट्रस्ट के रूप में सौंपा गया है। इसमें पूर्व काशी नरेश, अध्यक्ष के रूप में और मंडल के आयुक्त के चेयरमैन के साथ एक कार्यकारी समिति बनाई गई। अभी एक न्यास परिषद भी है जो मंदिर के पूजा सम्बन्धी प्रावधानों को भी देखता है।
एक और बात वर्तमान आकार में मुख्य मंदिर 1780 में इंदौर की स्वर्गीय महारानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा बनाया गया था। 1785 में गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के कहने पर तत्कालीन कलेक्टर मोहम्मद इब्राहीम खान द्वारा मंदिर के सामने एक नौबतखाना बनाया गया था। 1839 में, मंदिर के दो गुंबदों को पंजाब केसरी महाराजा रणजीत सिंह द्वारा दान किए गए सोने से कवर किया गया। तीसरा गुंबद अभी भी वैसे ही बिना स्वर्ण जड़ित है। जिस पर योगी सरकार ने ध्यान देते हुए संस्कृति धार्मिक मामले मंत्रालय के जरिए मंदिर के तीसरे शिखर को भी स्वर्णमंडित करने में गहरी दिलचस्पी ले रहा है।
जब भी इतिहास में काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर के पुनर्निर्माण का ज़िक्र किया जाएगा, मंदिर का पुनरुद्धार करने वाली महारानी अहिल्या बाई होल्कर, इसके शिखर को स्वर्ण मंडित करने वाले महाराजा रणजीत सिंह और मंदिर को उसकी ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आभा लौटाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम सामने आ रहा है।
18 अप्रैल 1669 में औरंगजेब के फरमान के बाद जब श्री काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ा जाने लगा तब उस वक्त मौजूद संत और पुजारियों ने बाबा विश्वनाथ के शिवलिंग को बचाने के उद्देश्य उन्हें ज्ञानवापी कूप में डाल दिया था. ऐसा कहा जाता है कि स्वयंभू ज्योतिर्लिंग विश्वेश्वर आज भी इसी कुएं में मौजूद है. जिसकी पूजा तो होती ही है साथ ही इस कुएं का जल पीने मात्र से ही मोक्ष और मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त होता है. यही वजह है कि ज्ञानवापी कूप आज भी अपने आप में काशी की अलग पहचान है. इस पूरे कूप की विस्तृत जानकारी स्कंद पुराण में भी वर्णित है. महारानी अहिल्याबाई ने 1777 में जब काशी विश्वनाथ मंदिर की पुनर्स्थापना करवायी, उसके पहले से यह कुआं यहां पर मौजूद है.
जब धरती पर बारिश नहीं होती थी नदियां नहीं थी तब भी यह कुआं लोगों की प्यास बुझाने के लिए मौजूद था. ऐसा माना जाता है कि काशी में इस कुएं का निर्माण भगवान शिव के त्रिशूल के वेग से हुआ था इसलिए माता पार्वती और भगवान शिव का यहां पर वास बताया जाता है. इस का जल इतना मीठा और लाभकारी है कि इसका आचमन काशी यात्रा के पूर्ण होने के साथ ही मोक्ष की राह को भी प्रशस्त करता है.
नए प्लान के मुताबिक अब 351 सालों के बाद ज्ञानवापी कुआं एक बार फिर से विश्वनाथ मंदिर परिसर में शामिल होने जा रहा है. विशाल नंदी के साथ ही इस कुएं के दर्शन के अलावा इसके भव्य रूप को निखारने की तैयारी भी की जा रही है.
नंदी महराज की दिशा और दृष्टि से कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है। जो कहीं न कहीं बाबा विश्वनाथ की मुक्ति का आवाहन तब तक करते रहेंगे जब तक वो अपने महादेव को देख नहीं लेते।
एक और घटना जो उस समय घटी वह यह है कि स्वयंभू ज्योतिर्लिंग को कोई क्षति न हो इसके लिए मंदिर के महंत शिवलिंग को लेकर ज्ञानवापी कुंड में ही कूद गए थे। हमले के दौरान मुगल सेना ने मंदिर के बाहर स्थापित विशाल नंदी की प्रतिमा को भी तोड़ने का प्रयास किया था लेकिन तमाम प्रयासों के बाद भी वे नंदी की प्रतिमा को नहीं तोड़ सके। जो आज भी अपने महादेव के इंतजार में मंदिर के उसी पुराने परिसर जो अब ज्ञानवापी मस्जिद है, की तरफ एक टक देख रहे हैं।
नंदी की प्रतीक्षा पूरी हुई
महंत पन्ना कुंए मे कूदने से पहले नंदी के कान में कुछ कहा
मुझे तो मरना है पर आपका तप बड़ा है, आपको सदियों तक इंतजार करना है" काशी में मंदिर के बाहर बैठे नंदी के कान में ये वाक्य बोल कर "महंत पन्ना कुंए मे कूदने से पहले नंदी के पास गए, आँखे बंद की और उनके कान में कहने लगे, 'विपत्ति भगवान राम पर भी पड़ी थी"
महंत पन्ना कुंए मे कूदने से पहले नंदी के पास गए, आँखे बंद की और उनके कान में कहने लगे, 'विपत्ति भगवान राम पर भी पड़ी थी, त्रिलोक स्वामिनी माता सीता को रावण हर ले गया था। जब हनुमान जी माता की खोज में अशोक वाटिका पहुँचे और उन्हें अपने साथ चलने के लिए कहा तो माता ने मना कर दिया और कहा कि सीता की प्रतीक्षा ही श्रीराम द्वारा लंका के विनाश की प्रेरणा बनेगी। यदि तुम्हारे साथ मैं जाऊंगी तो कदाचित मुझे पाकर श्रीराम वापस चले जाएंगे, इसलिए हे पुत्र मुझे प्रतीक्षा करने दो।
हे नंदी महाराज, यही बात मैं आपको स्मरण करा रहा हूँ, प्रतीक्षा करना, इस तीर्थ का उद्धार करने कोई न कोई अवश्य आएगा। माता सीता सा विश्वास रखकर प्रतीक्षा करना, मेरे हिस्से समाधि आएगी आपके हिस्से प्रतीक्षा है शिव वाहन।' यह कहकर महंत पन्ना कुंए में कूद गए।
आताताइयों की फौज आई, अविमुक्तेश्वर क्षेत्र को ध्वस्त कर दियागया। नंदी जटायु से हत होकर यह देखते रहे, फिर एक दिन एक रानी आयीं, उसने महादेव को आँचल से उठाया, नंदी ने देखा उनके सिर पर माँ अनुसूइया का वात्सल्य स्पर्श हो रहा था पर नंदी की प्रतीक्षा शेष थी। सदियाँ बीतीं, युग बदला, नंदी दिन गिन रहे थे।
एक दिन नंदी ने देखा अविमुक्तेश्वर क्षेत्र का पुनरुद्धार हो रहा है, उन्होंने सुना नए भारत के राजा ने काशी का कायाकल्प करने का आदेश दिया है। एक दिन नंदी के शरीर को माँ गंगा से आने वाली हवाओं ने छुआ। तीन सौ बावन साल बीत गए माँ गंगा को निहारे।
नंदी का आनंद लौट आया, विश्वनाथ धाम की अलौकिकता लौट आयी, पर नंदी अभी भी ज्ञानवापी तीर्थ की ओर देख रहे थे, महंथ पन्ना को देख रहे थे।
नए भारत के राजा के खंडित कार्यों की कीर्ति पर नंदी का तप भारी पड़ा। उसे यह समझ में आया कि महादेव का काम अधूरा है, माँ गंगा से किया हुआ वादा अधूरा है। उसने आदेश दिया कि ज्ञानवापी तीर्थ को मुक्त किया जाए।कुंए में समाधिस्थ महंत पन्ना मुस्कराये, नंदी की प्रतीक्षा पूर्ण होने को है। उस पंडित ने शिवलिंग के साथ कुएं में छलांग लगा दी।
औरंगजेब की सेना ने काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने के लिए पूरे क्षेत्र को घेर लिया था। पूरे काशी में मुग़ल सैनिकों के हाथों में तलवारें और मंदिर को छोड़कर भागते लोगों की चीखें ही दिखाई और सुनाई दे रहीं थी।
तब एक पुजारी ने हिम्मत दिखाई और महादेव के स्वयंभू ज्योतिर्लिंग को बचाने के लिए शिवलिंग के साथ ही ज्ञानवापी कुएं में कूद गए।
मोदी सरकार के प्रयासों से 353 साल पुराना ज्ञानवापी कुंड काशी विश्वनाथ मंदिर के विस्तार में कॉरिडोर का हिस्सा बना
350 साल से अपने महादेव की प्रतीक्षा करते इस नंदी की प्रतीक्षा अब समाप्त होने को है।
नंदी की प्रतीक्षा खत्म होने वाली है
भए प्रकट कृपाला ! दीनदयाला विश्वेश्वर त्रिपुरारी l
मैं शिलाद-पुत्र नंदी हूँ ! 1669 ई से ज्ञानवापी के प्रांगण में शीत,आतप, वर्षा सह रहा हूँ, इसी आशा में – “एक दिन बाबा प्रकट होंगे।”
दीर्घ 353 वर्षों की कठोर तपस्या से थककर एक दिन मैंने महादेव से पूछा “प्रभु ! आप अपना त्रिशूल क्यों नही चलाते ?” बाबा ने मुझे श्रीराम कथा सुनाई और कहा, “यदि प्रभु राम चाहते तो बिना फणवाले एक बाण से दशानन के दसों शीश काट देते और समूची लंका का विनाश कर देते l पर इससे सामान्य जन पर कोई प्रभाव नही पड़ता। राम और रावण की लड़ाई मात्र दो लोगों की लड़ाई नही थी, बल्कि सामान्य जन में मर्यादा की पुन:स्थापना और अन्याय के विरुद्ध उन्हें उठ खड़े होने का साहस देने की लड़ाई थी। अधर्म के विरुद्ध युद्ध को जन-संघर्ष बनाना ही राम का उद्देश्य था l भारत में भी जब हिन्दू जगेगा तभी मैं प्रकट होऊंगा l”
राम-कथा ने मेरा हर संदेह दूर कर दिया l मैं जान गया, “मेरे यहाँ होने का उद्देश्य क्या है। मैं काशी पर हुए अत्याचार की गवाही देने के लिए समाधि लगाए बैठा हूँ। भारत-भूमि में निवास करने वाले लोगों में धर्म और सामर्थ्य के जागरण के लिए तप कर रहा हूँ। काशी धाम आने वाले शिव-भक्त मुझे देखते हैं l मैं गवाह हूँ कि मेरे बाबा विश्वनाथ ज्ञानव्यापी-तीर्थ के अधिष्ठाता हैं। मैं हर घड़ी, हर पल महादेव की ओर मुँह करके जम्बूद्वीप के प्रत्येक कोने से आने वाले सभी सनातनियों को बता रहा हूँ कि विश्वेश्वर यहीं हैं, यहीं हैं – ठीक मेरे सामने । सम्पूर्ण भरतखंड के एक- एक व्यक्ति को मैं सदियों से इसी बात की गवाही दे रहा हूँ ।“
आज मैं महादेव की माया पर मुस्कुरा रहा हूँ l उसने कैसी लीला रचाई है ? उन्हें भी पता चल चूका है कि हिन्दू जाग रहा है l तभी तो विधि व्यवस्था ने मेरी पीड़ा समझी, विडिओग्राफी हुई और जल में समाधि लिए भोलेनाथ प्रकट हो गए l आज मैं बहुत प्रसन्न हूँ, मेरा रोम-रोम सिहर उठा है, आँखों से अश्रु-धारा बह रही है और मेरे सम्मुख मेरे नाथ खड़े हैं !
भए प्रकट कृपाला, दीनदयाला विश्वेश्वर त्रिपुरारी l
हर्षित नर-नारी, जन-मन हारी हर-हर घोष उचारी ll
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