देवताओं और दैत्यों के संघर्ष की गाथाओं से भारतीय ग्रन्थ भरे पड़े हैं। एक प्रचलित कथा के अनुसार ब्रह्मा के मानसपुत्र महर्षि कश्यप ने प्रजापति दक्ष की तेरह कन्याओं से विवाह किया था, उनमें से दिति और अदिति विशेष थीं। वाल्मीकि रामायण के एक प्रसंग में ऋषि विश्वामित्र का सुन्दर आख्यान है — “सत्ययुग में दिति के पुत्र दैत्य बड़े बलवान थे; और अदिति के पुत्र बड़े धर्मात्मा देवता हुए।”
कश्यप की अन्य पत्नियों—दनु से दानव, अरिष्ट से गन्धर्व, सुरसा से सर्प, काष्ठा से यक्ष एवं रक्ष, सुरभि से गोवंश, विनिता से अरुण और गरुड़ (पक्षीराज) इत्यादि के उद्भव की कथाएँ भी प्रचलित हैं। दैत्यवंश हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यपु प्रभृति शक्तिशाली राजाओं से सुसज्जित है; महादानवीर राजा बलि भी इसी वंशावली से हैं। नारायण का वामन अवतार इन्हीं के आसपास अवतरित होने की कथा है। अदिति के पुत्रों में विष्णु, शक्र, अर्यमा, धाता, त्वष्टा, विवस्वान इत्यादि थे। कुल मिलाकर निचोड़ यह है कि दैत्य और देव आपस में भाई हुए। इस कथा से पूर्व इनमें आपसी संघर्ष के उल्लेख नहीं मिलते। आपस में भाई-चारा और विमर्श के प्रमाण अवश्य हैं।
एक दिन दैत्यों और देवताओं को अमर और नीरोग होने का विचार आया। दोनों में गंभीर चिंतन हुआ। निष्कर्ष निकला कि क्षीरसागर का मंथन किया जाए, हो सकता है कि उसमें से अमृतमयी रस प्राप्त हो। निर्णय हुआ, वासुकि नाग (क्रोधवशा- कश्यप की संतान) को रस्सी और मन्दराचल पर्वत को मथनी बनाकर क्षीरसागर का मंथन प्रारम्भ हुआ। एक हज़ार साल तक मंथन चला। बहुसंख्यक मुँह वाले वासुकि लगातार घर्षण के कारण मुख से विष उगलते हुए, मन्दराचल को लगातार डसने लगे। इस कारण वहाँ भयंकर धुएँ के साथ हलाहल नामक विष ऊपर उठा। श्रीहरि के कहने पर शिव ने उन सबके कल्याणार्थ अग्रपूजा के रूप में विष को ग्रहण किया।
मंथन पुनः आरम्भ हुआ, लेकिन निरंतर घर्षण के कारण मथनी बना मन्दराचल पाताल में घुस गया। तब श्रीहरि ने कच्छप रूप धारण करके उसे अपनी पीठ पर रखा, और विश्वात्मा केशव स्वयं भी मंथन करने लगे।
पुनः एक हजार साल के मंथन के बाद उस क्षीरसागर से एक आयुर्वेदमय पुरुष प्रकट हुआ। उनका नाम धन्वन्तरि था, उनके एक हाथ में दंड और कमंडल था। धन्वन्तरि उत्पत्ति की इस कथा की पुष्टि प्राचीन आयुर्वेद ग्रन्थ भी करते हैं। वहाँ कथन है — ‘धन्वन्तरि के हाथ में अमृतकलश था, उसे विष्णु को देने के पश्चात उन्होंने अपने योग्य आदेश की प्रार्थना की। तब विष्णु ने उन्हें मृत्युलोक में जाकर आयुर्वेद की स्थापना का आदेश दिया।’
एक अन्य कथा के अनुसार कालांतर में इन्होंने पृथ्वी पर पुण्यक्षेत्र काशी की स्थापना की। इन्हें काशीराज दिवोदास धन्वन्तरि के साथ जोड़कर देखा जाता है। धन्वन्तरि सम्प्रदाय (इंडियन स्कूल ऑफ़ सर्जरी) का श्रेय भी इन्हें प्राप्त है। आचार्य सुश्रुत इसी परम्परा से निकले हैं। आयुर्वेद में शल्य चिकित्सकों को धन्वन्तरि उपाधि देने का यही अभिप्राय है।
धन्वन्तरि के पीछे जल (अप्) से सुन्दर स्त्रियाँ प्रकट हुईं। उन्हें साधरणा कहकर सबने उनका परित्याग कर दिया। इसके बाद उनका क्या हुआ, कथा में उल्लेख नहीं। परन्तु अप् (जल) से प्रकट होने के कारण इन्हें अप्सराएँ कहा गया।
तदोपरांत क्षीरसागर से वरुण की कन्या प्रकट हुई। वह अत्यंत अभिमानिनी सुरा की देवी थी। प्रकट होते ही वह अपने वरणयोग्य पुरुष खोजने लगी। दैत्यों ने उस अभिमानिनी सुरा को स्वीकार नहीं किया, लेकिन अदिति के पुत्रों ने उस सुरा सुन्दरी को ग्रहण कर लिया। सुरा को ग्रहण करने वाले सुर कहलाए; इसका परित्याग करने वालों को असुर कहा गया।
' अनिन्द्य सुन्दरी’ क्यो
हमारे समक्ष प्रश्न यह है कि महर्षि वाल्मीकि ने सुरा को ‘जगृहुस्तामनिन्दिताम्’ अर्थात ‘अनिन्द्य सुन्दरी’ क्यूँ कहा होगा? आयुर्वेदीय चरकसंहिता में मदात्यय चिकित्सा नामक अध्याय है। इसमें सुरा के प्रकार सहित उसके औषधीय गुणों-अवगुणों की विस्तृत चर्चा की गयी है। एक लम्बे विमर्श के अंत में एक श्लोक है —
"यत्रैकः स्मृतिविभ्रंशः तत्र सर्वमसाधुवत् ।
इत्येवं मद्य दोषज्ञा मद्यं गर्हन्ति यत्नतः।।”
—अर्थात, वर्तमान परिस्थितियों की स्मृति नष्ट होने के प्रभाव-वश मनुष्य का आचरण अप्रशंसनीय हो जाता है। जो लोग मद्य के इस प्रभाव से परिचित हैं, वे प्रयत्नपूर्वक मद्य को स्वयं से दूर रखते हैं। कहने का तात्पर्य केवल इतना कि औषधीय गुणों से परिपूर्ण होने पर भी आयुर्वेद में मद्य-सेवन का अनुमोदन नहीं किया गया है – निन्दित ही माना।
अस्तु, इसके पश्चात क्षीरसागर से उच्चैःश्रवा अश्व, बहुमूल्य मणि कौस्तुभ और अमृत प्रकट हुआ। अब यदि रामायण में उल्लिखित कथा को आधार मानें तो क्षीरसागर मंथन से आयुर्वेदीय पुरुष के प्राकट्य पर उनके हाथ में अन्य प्रचलित कथाओं में उद्धृत अमृतकलश नहीं था। इस विरोधाभास के क्या कारण होंगे, विचारणीय रहेगा।
जो भी हो, अमृत के लिए दिति और अदिति के पुत्रों में घमासान हुआ। सुरा के आवेश में अदिति के पुत्र अपेक्षाकृत बलशाली दैत्यों पर भारी पड़े। पिटे हुए असुरों ने रक्षों को साथ मिलाया और सुरों पर फिर आक्रमण किया। उन्मत्त देवताओं ने घोर संग्राम में असुरों और राक्षसों का विनाश किया। दिति के पुत्रों की विशेष हानि हुई।
इसी बीच विष्णु ने मोहिनी माया के सहयोग से अमृत का अपहरण कर लिया। बचे-खुचे असुर जो विष्णु से अमृत छीनने आए, उन्हें विष्णु ने मसल डाला। दैत्यवध पश्चात इंद्र को त्रिलोकी का राज्य प्राप्त हुआ। दिति अपने पुत्रों के शोक में संतप्त थी। अमरता प्राप्त करने के उद्योग में भाईयों में दरार पड़ चुकी थी। इस विवाद ने एक लम्बे संघर्ष का सूत्रपात कर दिया।
प्राचीन कथाएँ अनेकार्थी हैं। प्रत्येक सन्दर्भ में अनेक शिक्षाएँ निहित हैं। इस कथा के आधार पर कहा जा सकता है कि हम वर्तमान परिस्थितियों से असंतुष्ट होकर जब अतिमहत्वकांक्षा में कुछ अभूतपूर्व प्राप्त करने का प्रयास करते हैं तो बहुत कुछ दांव पर लगता है। दैत्यों ने जब अपनी हार पर मंथन किया होगा तो हो सकता है कि उन्होंने सुरा को देवताओं की अदम्य शक्ति का कारक जाना, तत्पश्चात सुरा संधान का प्रयास किया हो। परन्तु ‘अनिन्द्य सुंदरी’ केवल क्षीरसागर से उत्पन्न सुरा थी, वैकल्पिक सुरा की निंदा आयुर्वेद में की गई है। कुछ भी हो, दैत्य थे बड़े उद्योगी। संकल्पना और संधान करने की उनकी महारत विशेष कही जा सकती है।
मोहिनी (मोह और वासना की देवी) हिन्दू भगवान विष्णु का एकमात्र स्त्री अवतार है। इसमें उन्हें ऐसे स्त्री रूप में दिखाया गया है जो सभी को मोहित कर ले। उसके प्रेम में वशीभूत होकर कोई भी सब भूल जाता है, इस अवतार का उल्लेख महाभारत में भी आता है। समुद्र मंथन के समय जब देवताओं व असुरों को सागर से अमृत मिल चुका था, तब देवताओं को यह डर था कि असुर कहीं अमृत पीकर अमर न हो जायें। तब वे भगवान विष्णु के पास गये व प्रार्थना की कि ऐसा होने से रोकें। तब भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लेकर अमृत देवताओं को पिलाया व असुरों को मोहित कर अमर होने से रोका।
मोहिनी अवतार में भगवान श्री विष्णु जी नर से नारी बनकर सारे संसार की, राक्षसों से रक्षा की थीं।अगर भगवान विष्णु जी मोहिनी रूप में नहीं आते तो मानव जाति इस दुनिया से लुप्त हो गये होते।
मोहिनी अवतार और भस्मासुर
भस्मासुर पौराणिक कथाओं में ऐसा दैत्य था जिसने भगवान शिव से वरदान माँगा था कि वो जिसके सिर पर हाथ रखेगा, वह भस्म हो जाएगा। कथा के अनुसार भस्मासुर ने इस शक्ति का गलत प्रयोग शुरू किया और स्वयं शिव जी को भस्म करने चला। शिव जी ने विष्णु जी से सहायता माँगी। विष्णु जी ने एक सुन्दर स्त्री का रूप धारण किया, भस्मासुर को आकर्षित किया और नृत्य के लिए प्रेरित किया। नृत्य करते समय भस्मासुर विष्णु जी की ही तरह नृत्य करने लगा और उचित मौका देखकर विष्णु जी ने अपने सिर पर हाथ रखा, जिसकी नकल शक्ति और काम के नशे में चूर भस्मासुर ने भी की। भस्मासुर अपने ही वरदान से भस्म हो गया।
समुद्र मन्थन के दौरान अंतिम रत्न अमृत कलश लेकर भगवान विष्णु धनवंतरी रूप में प्रकट हुए। असुर भगवान धन्वंतरि से अमृत कलश लेकर भाग गए तो धन्वंतरि एक सुन्दर नारी के रूप मेंप्रकट हुए जो बहुत सुन्दर थी उस नारी का नाम मोहिनी रखा गया। मोहिनी ने असुरों से अमृत लिया और देवताओं के पास गईं। उन्होंने असुरों को अपनी ओर मोहित कर लिया और देवताओं को अमृत पिलाने लगीं। मोहिनी रूपी विष्णु की चाल स्वरभानु नाम का दानव समझ गया और वह देवता का भेस लेकर अमृत पीने चला गया। मोहिनी को जब ये बात पता चली तो उन्होंने स्वरभानु का सिर सुदर्शन चक्र से काट दिया किंतु तब तक उसके गले से अमृत की घूंट नीचे चली गई और वह अमर हो गया और राहु के नाम से उसका सिर और केतु के नाम से उसका धड़ प्रसिद्ध हुआ।
No comments:
Post a Comment