Tuesday, February 8, 2022

श्रीमद् भागवत कथा पुराण की सप्ताह यज्ञ की विधि श्रीमद भागवतपुराणमाहात्म्य षष्टोंsध्यायः( प्रसंग 28)

श्रीमद् भागवत कथा पुराण की सप्ताह यज्ञ की विधि 
श्रीमद भागवतपुराणमाहात्म्य षष्टोंsध्यायः( प्रसंग 28) 
डा. राधे श्याम द्विवेदी 
कुमार बोले अब भागवत श्रवण की विधि बताई जा रही है 
सनकादि ऋषि नारद और भक्ति के पुत्रो को अब श्रीमद् भागवत कथा पुराण का माहात्म्य, नियम व् पूजन विधि की बताते है।
श्रीमद् भागवत कथा पुराण का आयोजन प्रायः सभी लोगो के सहयोग और उनके धन के द्वारा ही होता है। सबसे पहले किसी विद्वान ज्योतिषी को बुलाकर शुभ मुहूर्त के बारे में पूछना चाहिए। फिर जिस प्रकार एक गरीब कन्या की विवाह के लिए धन एकत्रित किया जाता है वैसे ही सभी लोगो का सहयोग लेना चाहिए।
भागवत कथा का मुहूर्त –
श्रीमद् भागवत कथा पुराण का आयोजन भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीष, आषाढ़ और श्रावण के महीने श्रेष्ठ होते है। इन महीनो में कथा सुनने से मोक्ष की प्राप्ति आसान हो जाती है।
श्रीमद् भागवत कथा पुराण में सबका सहयोग –
इस आयोजन में ऐसे लोगो को शामिल करना चाहिए जो इस आयोजन के लिए अति उत्साही हो। फिर उन्ही लोगो की सहायता से जितने लोगो को सूचित कर सकते है ज्यादा से ज्यादा करे । उन्हें सपरिवार कथा स्थल पर पधारने के लिए अनुरोध करे। इसमें चारो वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के साथ साथ स्त्रियों को भी बुलाये और उनके बैठने की उचित व्यवस्था करे।
उन वैष्णव, हरिकीर्तन के प्रेम, और साधु सन्तु को विशेष तौर पर बुलाये जो इसके लिए लालायित रहते है। उनके पास श्रीमद् भागवत कथा पुराण का यह निमंत्रण पत्र अवश्य भेजे। जो इस प्रकार लिखा हो –
हे महानुभावो ! – हमारे यहाँ सात दिन तक सत्पुरुषों का बड़ा दुर्लभ समागम होगा और अपूर्व रसमयी श्रीमदभागवत कथा होगी। आप लोग इस श्रीभगवद रसके रसिक है। अतः श्रीमद भागवत कथा का रसामृत पान करने के लिए प्रेमपूर्वक शीघ्र पधारने की कृपा करे। यदि आपको अवकाश न हो तब भी आपको समय निकालना चाहिए। क्योंकि यहाँ का तो एक क्षण भी बड़ा दुर्लभ है। ”
इस प्रकार उन्हें विनयपूर्वक आमंत्रित करे।
श्रीमद् भागवत कथा पुराण का स्थान –
श्रीमद् भागवत कथा पुराण का श्रवण अगर किसी तीर्थ स्थान, वन में, तथा अपने घर जहाँ लम्बा चौड़ा मैदान हो, पर अत्यंत शुभ माना गया है। भूमि खोजने के बाद वहाँ साफ सफाई करे। आस पास पुष्पोंऔर तुलसी के पौधे लगाए। जगह जगह पर चौक पूरे, लेपन करे।
श्रीमद् भागवत पूजन विधि –
पांच दिन पहले से सभी लोग मिलकर विछाने के वस्त्र एकत्रित करे। मुख्य द्वार पर केले के खम्वो का ऊँचा मंडप अवश्य बनाये। फिर सब और फल, फूल और आम पत्रों की माला, झंडियों से उस क्षेत्र को सजाये। ठीक उसी तरह से जैसे पुत्री के विवाह में सजाते है। क्योंकि यहाँ श्री भगवान् के साथ साथ देवता भी पधारते है। उस मंडप में सात विशाल लोकों की कल्पना करे या सात लोक में बांटे। फिर उनमे से एक लोक में ब्राह्मण, साधु संत, दूसरे लोक में अन्य दूरस्थ गांव के लोग, तीसरे लोक में स्वयं के गांव के लोग, चौथे लोक में अपने घर, परिवार, रिश्तेदार के लोग, पांचवे लोक में स्त्रियाँ, छठे लोक में बच्चों को बैठाये। एक लोक को श्री भगवान् और देवताओ के लिए आसान ख़ाली छोड़े।
श्रीमद् भागवत कथा के नियम –
आगे की और प्रथम लोक, जहाँ साधु संतो के बैठने की व्यवस्था होती है। उसके आगे एक दिव्य सिहासन का प्रवन्ध करे। यदि वक्ता का मुख उत्तर की तरफ हो तो मुख्य यजमान जो परीक्षित रूप बनता है उसे पूर्व की तरफ मुख करके बैठना चाहिए। वक्ता और श्रोता को पूर्वामुख करके बैठना चाहिए।
जो वेद शास्त्र की स्पष्ट व्याख्या करने में समर्थ हो। कठिन बातों को सरल दृष्टांत के द्वारा समझा सके। विवेकशील और नि:स्पृह हो। ऐसे विरक्त विष्णुभक्त वैष्णव ब्राह्मण को ही वक्ता बनाना चाहिए।
ऐसे लोगो को वक्ता नहीं बनाना चाहिए जो वक्ता या पंडित होते हुए भी दूसरे धर्मो की बात करे। जिसकी वहाँ आवश्यकता नहीं हो।जो स्त्री लम्पट हो, जो पाखंड का प्रचारक हो, नास्तिक हो, वामपंथी हो। ऐसे लोगो को वक्ता नियुक्त न करे।
कथा-प्रारम्भके दिनसे एक दिन पूर्व व्रत ग्रहण करनेके लिये वक्ता को क्षौर करा लेना चाहिये। तथा अरुणोदयके समय शौच से निवृत्त होकर अच्छी तरह स्नान करे । वह संध्यादि अपने नित्यकर्मो कों संक्षेप से समाप्त करके कथा के विघ्नों की निर्वत्ति के लिये गणेशजीका पूजन करें।
तदनन्तर पितृगण का तर्पण कर पूर्व पापों की शुद्धिके लिये प्रायश्चित्त करे और एक मण्डल बनाकर उसमें श्रीहरिको स्थापित करे। 
फिर भगवान्‌ श्रीकृष्ण को लक्ष्य करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक क्रमशः षोडशोपचारविधिसे पूजन करे और उसके पश्चात्‌ प्रदक्षिणा तथा नमस्कारादि कर इस प्रकार स्तुति करे-
हे “करुणानिधान ! मैं संसार-सागरमें डूबा हुआ और बड़ा दीन हूँ। मुझे मोहरूपी ग्राह ने मुझे पकड़ रखा है। आप इस संसार- सागरसे मेरा उद्धार कीजिये “।
इसके पश्चात्‌ धूप-दीप आदि सामग्रियोंसे श्रीमद्धागवतकी भी बड़े उत्साह और विधि पूर्वक और विधि -विधानसे पूजा करे। फिर पुस्तक के आगे नारियल रखकर नमस्कार करें और प्रसन्नच्तिसे इस प्रकार स्तुति करे –
“श्रीमद्भागवतके रूपमें आप साक्षात्‌ श्रीकृष्णचन्द्र ही विराजमान हैं। नाथ ! मैंने भवसागरसे छुटकारा पाने के लिये आपको शरण ली है। मेरा यह मनोरथ आप बिना किसी विघ्न-बाधा के सारे कार्य पूरा करें। हे केशव ! मैं आपका दास हूँ’। 
इस प्रकार दीन बचन कहकर फिर वक्ता का पूजन करे। उसे सुन्दर वस्त्रो से विभूषित करें और फिर पूजाके पश्चात्‌ उसकी इस प्रकार स्तुति करे–
“शुक स्वरूप भगवन्‌ ! आप समझाने की कला में कुशल और सब शास्त्रों में विद्वान और पारंगत हैं; कृपया इस कथा को प्रकाशित करके मेरा अज्ञान दूर करें!
फिर अपने कल्याण के लिये प्रसन्नता पूर्वक उसके सामने नियम ग्रहण करे और सात दिनों तक यथाशक्ति उसका पालन करे। कथा में विघ्न न हो, इसके लिये पाँच ब्राह्मणों कों और बरण करे। वे द्वादशाक्षर मन्त्र द्वारा भगवान के नामों का जप करें। फिर ब्राह्मण, अन्य विष्णु भक्त एवं कीर्तन करने वालो को नमस्कार करके उनकी पूजा करें । उनकी आज्ञा पाकर स्वयं भी आसान ग्रहण करे।
बुद्धिमान्‌ वक्ता को चाहिये कि सू्योदय से कथा शुरू करके साढ़े तीन पहर तक मध्यम स्वर से अच्छी तरह कथा वांचे। 
दोपहर के समय दो घड़ी तक कथा बंद रखे। उस समय कथा के प्रसंग के अनुसार साधु, संतो और वैष्णवों को भगवानके गुणों का कीर्तन करना चाहिये। फालतू की बातें नहीं करनी चाहिये। शास्तार्थ किया जा सकता है।     
कथाके समय मल-मूत्र के वेग को काबू में रखने के लिये अल्प आहार सुखकारी होता है। इसलिये श्रोता केवल एक ही समय हल्का भोजन करे। यदि शक्ति हो तो सातों दिन निराहार या उपवास रहकर कथा सुने अथवा केवल घी या दूध पीकर सुखपूर्वक श्रवण करे अथवा फलाहार या एक समय हो भोजन करे। यदि उपवास से श्रवण में बाधा पहुँचती हो तो वह किसी काम का नहीं। 
सनकादि ऋषि कहते है – नारदजी ! नियम से सप्ताह कथा सुनने वाले पुरुषो के नियम भी सुनिये--
विष्णुभक्त की दीक्षा से रहित पुरुष कथा श्रवण का अधिकारी नहीं है। जो पुरुष नियम से कथा सुने, उसे ब्रह्मचर्यसे रहना, भूमिपर सोना और नित्यप्रति कथा समाप्त होने पर पत्तल में भोजन करना चाहिये। दाल, मधु, तेल, गरिष्ठ अन्न, भावदूषित पदार्थ और बासी अन्न, इनका उसे सर्वदा ही त्याग करना चाहिये। 
काम, क्रोध, मद, मान, मत्सर, लोभ, दम्भ, मोह और द्वेष को तो अपने पास भी नहीं फटकने देना चाहिये। 
वह पुरुष वेद, वैष्णव, ब्राह्मण, गुरु, गोसेवक तथा स्त्री, राजा, और अन्य महापुरुषों की निंदा से बचना चाहिए। नियम से कथा सुनने वाले व्यक्ति को रजस्वला स्त्री, मलेच्छ, पतित, गायत्रीहीन द्विज, नीच (वामपंथी /नास्तिक ) से बात नहीं करनी चाहिए।
हमेशा सत्य, शौंच, दया, मौन, सरलता, विनय और उदारता का वर्ताव करना चाहिए। धनहीन, क्षयरोगी, किसी अन्य रोगसे पीड़ित, भाग्यहीन, पापी, पुत्रहींन और मुमुक्षु भी यह कथा श्रवण करे।
जिस स्त्री का रजोदर्शन रुक गया हो, जिसके एक ही संतान होकर रह गयी हो, जो बाँझ हो, जिसकी संतान होकर मर जाती हो अथवा जिसका गर्भ गिर जाता हो, वह यत्रपूर्वक इस कथाको सुने। ये सब यदि विधिवत्‌ कथा सुनें तो इन्हें अक्षय फल की प्राप्ति हो सकती है। यह अत्युत्तम दिव्य कथा करोड़ों यज्ञों का फल देने वाली है। 
इस प्रकार इस ब्रत की विधियों का पालन करके फिर उद्यापन करे। जिन्हे इसके विशेष फल की इच्छा हो, वे जन्माष्टमी व्रत के समान हो इस कथा का उद्यापन करें। किन्तु जो भगवानके अकिच्चन भक्त हैं।उनके लिये उद्यापन का कोई आग्रह नहीं है। वे श्रवणसे ही पवित्र हैं; क्‍योंकि वे तो निष्काम भगवद्धक्त हैं।
इस प्रकार जब सप्ताहयज्ञ समाप्त हो जाय, तब श्रोताओं को अत्यन्त भक्तिपूर्वक पुस्तक और वक्ता की पूजा करनी चाहिये।
फिर वक्ता श्रोताओं को प्रसाद, तुलसी और प्रसादी मालाएँ दे तथा सब लोग मृदंग और झाँझ की मनोहर ध्वनि से सुन्दर कीर्तन करें।जय-जयकार, नमस्कार और शक्गुध्वनिका घोष कराये, कथा पश्चात ब्राह्मण और याचको को धन और अन्न दे।
श्रोता विरक्त हो तो कर्म की शान्तिके लिये दूसरे दिन गीतापाठ करे। गृहस्थ हो तो हवन करें। उस हवन में दशमस्कथ का एक-एक श्लोक पढ़कर विधिपूर्वक खीर, मधु, घृत, तिल और अन्नादि सामग्रियोंसे आहृति दे।या फिर एकाग्र चित्त से गायत्री महामंत्र का जाप करे, क्योंकि गायत्री महामंत्र भी श्रीमदभागवत कथा रूप है।
फिर बारह ब्राह्मणों को खीर और मधु आदि उत्तम-उत्तम पदार्थ खिलाये तथा व्रत की पूर्ति के लिये गौदान और सुवर्णका दान करे।सामर्थ्य हो तो तीन तोले सोने का एक सिंहासन बनवाये। उस पर सुन्दर अक्षरो मे लिखी हुई श्रोमद्भागवत की पोथी रखकर उसकी आबाहनादि विविध उपचारोंसे पूजा करे और फिर जितेन्द्रिय आचार्य को उसका वस्त्र, आभूषण एवं गन्धादिसे पूजकर दक्षिणा के सहित समर्पण कर दे।
सनकादि कहते है- नारदजी ! इस प्रकार तुम्हें यह सप्ताह श्रवण को विधि माहात्म्य हमने पूरी-पूरी सुना दी। इस श्रीमद्धागवत से भोग और मोक्ष दोनों ही हाथ लग जाते हैं।
सूतजी कहते हैं–शौनकजी ! यों कहकर महामुनि सनकादि ने एक सप्ताह तक विधिपूर्वक इस सर्व-पापनाशिनी, परम पवित्र तथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली भागवत कथाका प्रवचन किया। सब प्राणियों ने नियमपूर्वक इसे श्रवण किया। इसके पश्चात्‌ उन्होंने विधिपूर्वक भगवान्‌ पुरुषोत्तमकी स्तुति की कथा के अत्त में ज्ञान-वैराग्य और भक्ति को बड़ी पुष्टि मिली । वे तीनो एकदम तरुण होकर सब जीवो का चित्त अपनी और आकर्षित करने लगे।
शौनक जी ने पूछा – सूत जी, शुकदेव जी राजा परीक्षित को, गोकर्ण ने धुंधकारी को, और सनकादि ऋषि ने नारद को किस किस समय यह ग्रन्थ सुनाया?
सूत जी ने कहा – द्वापर युग में जब भगवान् कृष्ण अपने धाम बैकुंठ को वापस चले गए तो फिर उसके 30 साल बाद पृथ्वी पर कलयुग का आगमन हुआ। कलयुग ने राजा परीक्षित से अपने लिए जगह मांगी थी। फिर राजा परीक्षित कलयुग के वशीभूत होकर एक पाप कर देते है, जिससे उन्हें श्राप मिलता है। उस श्राप से मुक्ति के लिए श्री शुकदेव महाराज ने पहली बार भाद्रपद मास की शुक्ला नवमी को राजा परीक्षित को श्रीमद भागवत कथा सुनाना आरम्भ किया था।
इसके बाद राजा परीक्षित के कथा सुनने के बाद, अर्थात कलयुग के 200 वर्ष बीत जाने के बाद आषाढ़ मास की शुक्ला नवमी पर गोकर्ण जी ने ये कथा अपने भाई धुंधकारी को सुनाई थी। जो अपने बुरे कर्मो से प्रेत बन गया था।  यहाँ पढ़े -
इसके बाद कलयुग के 30 वर्ष और बीत जाने पर जब श्रीनारद तीनो लोको का भ्रमण करते हुए पृथ्वी पर यमुना तट से निकले तो उन्होंने भक्ति को उसके पुत्र ज्ञान और वैराग्य के साथ अचेत अवस्था में यमुना तट पर देखा। फिर उनके उद्धार के लिए कार्तिक शुक्ल नवमी को सनकादि ऋषि ने नारद और भक्ति के पुत्रो को यमुना के तट पर यह कथा सुनाई थी।  यहाँ पढ़े –
सूत जी बोले – शौनक जी आपने जो कुछ पूछा था उसका उत्तर मेने आपको दे दिया है। इस कलयुग में भागवत कथा हर रोग की रामवाण औषधि है। संत जानो इस कथा को बड़े ध्यान से सुनो, यह श्रीकृष्ण को अत्यंत प्रिय, सम्पूर्ण पापो को नाश करने वाली है, और भक्ति को बढ़ने वाली है।
सूत जी हरिद्वार के घाट पर शौनक जी यह श्रीमद्भागवत कथा सुना रहे है। सूत जी इस कथा में भक्ति और नारद का वृतांत बताते है, जिसमे सनकादि ऋषि ने नारद और भक्ति के पुत्रो को प्राचीनकाल यही कथा बताई थी। सनकादि ऋषि ने ही प्राचीन आत्मदेव का इतिहास नारद को बताया, जिसमे गोकर्ण महाराज अपने भाई धुंधकारी को श्रीमद्भागवत कथा सुनाई थी।
नारद जी ने उनकी पूजा की तथा भगवान को एक ऊंचे सिंहासन पर विराजमान किए और सब लोग कीर्तन करने लगे, कीर्तन देखने के लिए शिव पार्वती और ब्रम्हा जी भी आये |
प्रहादस्तालधारी तरल गतितया चौद्धवः कांस्यधारी, वीणाधारी सुरषिं: स्वर कुशलता समकर्तार्जुनोऽभूत्।
इन्द्रोऽवादीन्मृदंगं जयजयसुकराः कार्तने ते कुमारा,यत्राग्रे भावक्ता सरसरचनया व्यास पुत्रो बभूव।।
प्रहलाद जी करताल बजाने लगे, उद्धव जी मंजीरे बजाने लगे ,नारद जी वीणा बजाने लगे, अर्जुन गाने लगे , इंद्र मृदंग बजाने लगे सनकादि बीच-बीच में जय-जय घोष करने लगे लगे , सुखदेव भाव दिखाने लगे ,भक्ति ज्ञान वैराग्य नृत्य करने लगे इस कीर्तन से भगवान बड़े प्रसन्न हुए । 
व्यास नन्दन आदरणीय शुकदेवजी महाराज बीच-बीच में व्याख्या करने लगे, इतनी सुन्दर स्वर लहरी, इतना सुंदर कीर्तन हुआ कि मेरे प्रभु से रहा नहीं गया और भगवान् कीर्तन में प्रकट हो गयेऔर कहां मैं आप लोगों की कथा एवम् कीर्तन से बड़ा प्रसन्न हूँ, इसलिए कोई उत्तम वरदान माँगे, क्या चाहिये?
भक्तों ने कहा प्रभु! यही वर दे दो, जब-जब आपका कीर्तन करें, तब-तब आपका दर्शन कर लिया करें, भगवान वर देकर चले गये, ज्ञान-वैराग्य का बुढापा मिट गया, भक्ति देवी के मन की कष्ट की निवृत्ति हुई, सूतजी ने ये प्रसंग शौनकादि ऋषियों को बता दिया, यही प्रसंग सनत्कुमारों ने नारदजी से कहा और यहीं प्रसंग श्री आदरणीय शुकदेवजी महाराज ने राजा परीक्षित से कहा।
भागवत अमृत है, इसका जो पान करे उसका जीवन धन्य हो जाता है। 
                        षष्टम अध्याय समाप्त। 
  ।।श्रीमद् भागवत कथा-सार माहात्म्य समाप्त।।




No comments:

Post a Comment