श्रीमद भागवतपुराणमाहात्म्य पंचमोsध्यायः( प्रसंग 27)
डा. राधे श्याम द्विवेदी
पिता के वन चले जाने पर धुंधकारी पर अपनी मां की आशक्ति अभी भी परिवार में थी।एक दिन धुन्धुकारी ने अपनी माता को बहुत पीटा और कहा:-‘बता, धन कहाँ रखा है ? नहीं तो अभी तेरी लुआठी (जलती लकड़ी)-से खबर लूँगा।
धुंधुकारी की इस बात से डरकर धुन्धुली कुएँ में गिर पड़ी और उसकी मौत हो गई। योगनिष्ठ गोकर्णजी तीर्थयात्रा के लिये निकल गये।क्योंकि उन्हें किसी प्रकार का सुख दुःख नहीं होता था।माँ की मृत्यु के बाद धुन्धकारी पाँच वेश्याओं के साथ घर में रहने लगा। दिन रात उन वैश्याओं की सेवा में लगा रहता और सारे गलत काम करता।एक दिन ये चोरी करके बहुत सारा धन लाया। चोरी का बहुत माल देखकर रात्रि के समय एक दिन वैश्याओं ने मन में विचार किया कि यह चोरी करके धन लाता है यह तो मरेगा ही साथ में ही हम भी मारी जाएंगी । अतः इसे अब समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि अब हमारे पास धन तो पर्याप्त हो ही गया है।
रात्रि में उसे खूब शराब पिलाई जब वह बेसुध हो गया। उन्होंने सोये हुए धुन्धुकारी को रस्सियों से कस दिया और उसके गले में फाँसी लगाकर उसे मारने का प्रयत्न किया।इससे जब वह जल्दी न मरा तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई।तब उन्होंने उसके मुख पर बहुत- से दहकते अँगारे डाले। इससे वह अग्नि की लपटों से बहुत छटपटाकर मर गया।उन्होंने उसके शरीर को घर के आंगन में एक गड्ढ़े में डालकर गाड़ दिया।
वे कुलटाएँ धुन्धकारी की सारी सम्पत्ति समेटकर वहाँ से चंपत हो गयीं।उनके ऐसे न जाने कितने पति थे और धुन्धकारी अपने कुकर्मों के कारण भयंकर प्रेत बन गया।
कभी कोई ग्रामवासी के तीर्थ पर गया। वह गोकर्ण जी मिला तो उन्हें धुंधकारी के मारे जाने की खबर ग्रामवासी ने सुनाई ।अब गोकर्ण जी ने उसका गया में जाकर श्राद्ध किया । वह जहाँ-जहाँ जाते थे,उसका श्राद्ध अवश्य करते थे।
इस प्रकार घूमते-घूमते गोकर्णजी अपने नगर में आये और रात्रि के समय दूसरों की दृष्टि से बचकर सीधे अपने घर के आँगन में सोने के लिये पहुँचे।
अपने भाई को घर पर सोया देख आधी रात के समय धुन्धकारी ने अपना बड़ा विकट रूप दिखाया।वह कभी भेड़ा,कभी हाथी, कभी भैंसा,कभी इन्द्र और कभी अग्नि का रूप धारण करता। अन्त में वह मनुष्य के आकार में प्रकट हुआ।
गोकर्ण ने कहा:-“तू कौन है ? रात्रि के समय ऐसे भयानक रूप क्यों दिखा रहा है ?'”
गोकर्ण के इस प्रकार पूछने पर वह बार-बार जोर-जोर से रोने लगा।उसमें बोलने की शक्ति नहीं थी,इसलिये उसने केवल संकेतमात्र किया।तब गोकर्ण ने अंजलि में जल लेकर उसे अभिमन्त्रित करके उस पर छिड़का।इससे उसके पापों का कुछ शमन हुआ और वह इस प्रकार कहने लगा:- ‘मैं तुम्हारा भाई हूँ।मेरा नाम है धुन्धकारी।मैंने अपने ही दोष से अपना ब्राम्हणत्व नष्ट कर दिया।मेरे कुकर्मों की गिनती नहीं की जा सकती।मैं तो महान् अज्ञान में चक्कर काट रहा था।इसी से मैंने लोगों की बड़ी हिंसा की।अन्त में कुलटा स्त्रियों ने मुझे तड़पा-तड़पा कर मार डाला। इसी से अब प्रेतयोनि में पड़कर यह दुर्दशा भोग रहा हूँ।भाई! तुम दया के समुद्र हो; अब किसी प्रकार जल्दी ही मुझे इस योनि से छुड़ाओ।’
गोकर्ण ने धुन्धकारी की सारी बातें सुनीं और कहा-भाई! मुझे इस बात का बड़ा आश्चर्य है-मैंने तुम्हारे लिये विधि पूर्वक गयाजी में पिण्डदान किया,फिर भी तुम प्रेतयोनि से मुक्त कैसे नहीं हुए?
प्रेत ने कहा:-मेरी मुक्ति सैकड़ों गया-श्राद्ध करने से भी नहीं हो सकती।अब तो तुम इसका कोई और उपाय सोचो।
गोकर्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ।वे कहने लगे-‘यदि सैकड़ों गया-श्राद्धों से भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हो सकती,तब तो तुम्हारी मुक्ति असम्भव ही है।अच्छा, अभी तो तुम निर्भय होकर अपने स्थान पर रहो,मैं विचार करके तुम्हारी मुक्ति के लिये कोई दूसरा उपाय करूँगा’।गोकर्ण ने रात भर विचार किया,तब भी उन्हें कोई उपाय नहीं सूझा।
श्रीमद्भागवत कथा के द्वारा धुंधुकारी की मुक्ति:-
प्रातःकाल उनको आया देख लोग प्रेम से उनसे मिलने आये।तब गोकर्ण ने रात में जो कुछ जिस प्रकार हुआ था, वह सब उन्हें सुना दिया।उनमें जो लोग विद्वान्, योगनिष्ठ, ज्ञानी और वेदज्ञ थे,उन्होंने भी अनेकों शास्त्रों को उलट-पलटकर देखा; तो भी उसकी मुक्ति का कोई उपाय न मिला।तब सबने यही निश्चय किया कि इस विषय में सूर्यनारायण जो आज्ञा करें,वही करना चाहिये।गोकर्ण ने अपने तपोबल से सूर्य की गति को रोक दिया।उन्होंने स्तुति की-
“भगवन्!आप सारे संसार के साक्षी है,मैं आपको नमस्कार करता हूँ।आप मुझे कृपा करके धुन्धकारी की मुक्ति का साधन बताइये।”
गोकर्ण की यह प्रार्थना सुनकर सूर्यदेव ने दूर से ही स्पष्ट शब्दों में कहा:-“श्रीमद्भागवत से मुक्ति हो सकती है,इसलिये तुम उसका सप्ताह पारायण करो।”
अब गोकर्ण जी भागवत जी की तैयारी करने लगे।देश और गावों से अनेकों लोग कथा सुनने के लिये आये।बहुत-से लँगड़े-लूले, अंधे,बूढ़े और मन्दबुद्धि पुरुष भी अपने पापों की निवृत्ति के उद्देश्य से वहाँ आ पहुँचे। इस प्रकार वहाँ इतनी भीड़ हो गयी कि उसे देखकर देवताओं को भी आश्चर्य होता था।जब गोकर्णजी व्यासगद्दी पर बैठकर कथा कहने लगे,तब वह प्रेत भी वहाँ आ पहुँचा और इधर-उधर बैठने के लिये स्थान ढूँढने लगा।इतने में ही उसकी दृष्टि एक सीधे रखे हुए सात गाँठ के बाँस पर पड़ी।उसी के नीचे के छिद्र में घुसकर वह कथा सुनने के लिये बैठ गया।वायु रूप होने के कारण वह बाहर कहीं बैठ नहीं सकता था,इसलिये बाँस में घुस गया।
गोकर्णजी ने एक वैष्णव ब्राम्हण को मुख्य श्रोता बनाया और प्रथमस्कन्ध से ही स्पष्ट स्वर में कथा सुनानी आरम्भ कर दी। सायंकाल में जब कथा को विश्राम दिया गया,तब एक बड़ी विचित्र बात हुई।देखते-देखते सबके सामने उस बाँस की एक गाँठ तड़-तड़ शब्द करती फट गई।इसी प्रकार दूसरे दिन सायंकाल में दूसरी गाँठ फटी और तीसरे दिन उसी समय तीसरी।इस प्रकार सात दिनों में सातों गाँठों को फोड़कर धुन्धकारी बारहों स्कन्धों के सुनने से पवित्र होकर प्रेतयोनि से मुक्त हो गया और दिव्य रूप धारण करके सबके सामने प्रकट हुआ।
इसने अपने भाई गोकर्ण को प्रणाम करके कहा-‘भाई!तुमने कृपा करके मुझे प्रेतयोनि की यातनाओं से मुक्त कर दिया। यह प्रेतपीड़ा का नाश करने वाली श्रीमद्भागवत की कथा धन्य है। श्रीकृष्णचन्द्र के धाम की प्राप्ति कराने वाला इसका सप्ताह- पारायण भी धन्य है।विद्वानों ने देवताओं की सभा में कहा है कि जो लोग इस भारतवर्ष में श्रीमद्भागवत की कथा नहीं सुनते, उनका जन्म वृथा ही है।
सब प्रकार के दोषों की निवृत्ति के लिये एकमात्र यही साधन है।जो लोग भागवत की कथा से वंचित हैं,वे तो जल में बुदबुदे और जीवों में मच्छरों के समान केवल मरने के लिये ही पैदा होते हैं।भला,प्रभाव से जड़ और सूखे हुए बाँस की गाँठे फट सकती हैं,उस भागवत कथा का श्रवण करने से चित्त की गाँठों का खुल जाना कौन बड़ी बात है।सप्ताह श्रवण करने से मनुष्य के ह्रदय की गाँठ खुल जाती है,उसके समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और सारे कर्म क्षीण हो जाते हैं।यह भागवत कथा रूप तीर्थ संसार के कीचड़ को ढोने में बड़ा ही पटु है।
उसी समय बैकुण्ठवासी पार्षदों के सहित एक विमान उतरा।
उससे सब ओर मण्डलाकार प्रकाश फैल रहा था। सब लोगों के सामने ही धुन्धकारी उस विमान पर चढ़ गया।तब उस विमान पर आये हुए पार्षदों को गोकर्ण ने देखा।
गोकर्ण जी महाराज उनसे कहते हैं- यहाँ पर इतने श्रोतागण हैं लेकिन उन सबके लिये आप लोग एक साथ बहुत-से विमान क्यों नहीं लाये? हम देखते हैं कि यहाँ सभी ने समान रूप से कथा सुनी है,फिर फल में इस प्रकार का भेद क्यों हुआ,यह बताइये।
भगवान के सेवकों ने कहा-हे मानद! इस फल भेद का कारण इनके श्रवण का भेद ही है।यह ठीक है कि श्रवण तो सबने समान रूप से ही किया है,किन्तु इसके-जैसा मनन नहीं किया। इसी से एक साथ भजन करने पर भी उसके फल में भेद रहा।इस प्रेत ने सात दिनों तक निराहार रहकर श्रवण किया था,तथा सुने हुए विषय स्थिरचित्त से यह खूब मनन-निदिध्यासन भी करता रहता था।जो ज्ञान दृढ़ नहीं होता,वह व्यर्थ हो जाता है।इसी प्रकार ध्यान न देने से श्रवण का,संदेह से मन्त्र का और चित्त के इधर उधर भटकते रहने से जप का भी कोई फल नहीं होता।
कथा में चित्त की एकाग्रता इत्यादि नियमों का यदि पालन किया जाय तो श्रवण का यथार्थ फल मिलता है।यदि ये श्रोता फिर से श्रीमद्भागवत की कथा सुनें तो निश्चय ही सबको वैकुण्ठ की प्राप्ति होगी।और गोकर्णजी!आपको तो भगवान् स्वयं आकर गोलोकधाम में ले जायेंगे।यह कहकर वे सब पार्षद हरि कीर्तन करते वैकुण्ठलोक को चले गये।
श्रावण मास में गोकर्णजी ने फिर उसी प्रकार सप्ताहक्रम से कथा कही और उन श्रोताओं ने उसे फिर सुना। अबकी बार इस कथा की समाप्ति पर भक्तों से भरे हुए विमानों के साथ भगवान् प्रकट हुए।सब ओर से खूब जय-जयकार और नमस्कार की ध्वनियाँ होने लगीं।भगवान स्वयं हर्षित होकर अपने पांचजन्य शंख की ध्वनि करने लगे और उन्होंने गोकर्ण को ह्रदय से लगाकर अपने ही समान बना लिया।
उन्होंने क्षणभर में ही अन्य सब श्रोताओं को भी मेघ के समान श्यामवर्ण,रेशमी पीताम्बरधारी तथा किरीट और कुण्डलादि से विभूषित कर दिया।उस गाँव में कुत्ते और चाण्डाल पर्यन्त जितने भी जीव थे,वे सभी गोकर्णजी की कृपा से विमानों पर चढ़ा लिये गये। जहाँ योगिजन जाते हैं,उस भगवद्धाम में वे भेज दिये गये।इस प्रकार भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण कथा श्रवण से प्रसन्न होकर गोकर्णजी को साथ लेकर अपने ग्वालबालों के प्रिय गोलोकधाम में चले गये।पूर्वकाल में जैसे अयोध्यावासी भगवान श्रीराम के साथ साकेतधाम सिधारे थे,उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण उन सबको योगी दुर्लभ गोलोक धाम को ले गये।
इति पंचमो अध्यायः
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