Monday, February 28, 2022

अयोध्या में सोलह में से बच सके हैं सात श्रीहरि के मंदिर डा. राधे श्याम द्विवेदी

अयोध्या में सोलह में से बच सके हैं सात श्रीहरियों के मंदिर 

डा. राधे श्याम द्विवेदी

श्रीहरि विष्णु ने रक्ष संस्कृति के विनाश के लिए अयोध्या में राजा दशरथ के यहां श्रीराम के रूप में अवतार लिया था। यह अवातर त्रेता युग में हुआ था लेकिन इसके पहले भी श्री हरि के अयोध्या की सांस्कृतिक सीमा ८४ कोस में लेने से जुड़े होने के संकेत हैं।अयोध्या में प्राचीन काल में हरि अर्थात भगवान विष्णु के 16 मंदिर अति प्रसिद्ध मंदिर थे. कालांतर में अयोध्या में चक्रहरि चंद्रहरि धर्महरि विष्णुहरि ,गुप्तहरि, पुण्यहरि ,बिल्लहरि हरि स्थान बचे हैं।इन स्थानों की स्थिति वर्तमान वर्तमान में अत्यंत दयनीय हो चुकी है . यह  माना जाता है कि ये सप्त हरि स्थानों का अस्तित्व और प्रमाण 12वी शताब्दी से पूर्व से रहा है ।

प्रथम: विष्णु हरि मन्दिर अयोध्या :-

त्रेतायुग में श्री हरि विष्णु का रामावतार सर्वविदित है। लंकाधिपति रावण के आतंक से ऋषि, महर्षियों व मानव कल्याण के लिए श्रीराम के रूप में अयोध्या में राजा दशरथ के पुत्र के रूप में अवतार लिया। राम अवतार वाला वह विष्णुहरि मंदिर कई बार बना और विलुप्त हुआ  है।  इसके पुरातात्विक प्रमाण विष्णु हरि शिलालेख संस्कृत भाषा में पाया गया है। यह शिलालेख उत्तर प्रदेश  के अयोध्या में वर्तमान श्री राम जन्म भूमि स्थल में पाया गया है। । यह गोविंदचंद्र नामक राजा के एक सामंत, अनयचंद्र द्वारा मंदिर के निर्माण को रिकॉर्ड करता है।  इसमें अनयचंद्र के वंश का एक स्तुति भी शामिल है। इसकी तारीख का हिस्सा गायब है, और इसकी प्रामाणिकता विवाद का विषय रही है। कहा जाता है कि यह शिलालेख अयोध्या में बाबरी मस्जिद के मलबे के बीच पाया गया था। जो 1992 में हिंदू कार्यकर्ताओं के एक समूह ने मस्जिद को ध्वस्त कर दिया था। इसमें दावा किया था कि मुस्लिम शासक बाबर ने जन्मस्थान को चिह्नित करने वाले एक हिंदू मंदिर को नष्ट करने के बाद मस्जिद का निर्माण किया था।  जो हिंदू देवता राम ( विष्णु का एक अवतार )  से सम्बन्धित था। लोगों का मानना है कि एक मंदिर बाबरी मस्जिद स्थल पर ही अस्तित्व में अपने दावे के सबूत के रूप में शिलालेख पर विचारनीय है। इसे 12 वीं सदी के राजा की  गहड़वाल राजा गोविंदचंद्रा के रूप में पहचान हुई है। श्लोक 21 में हरि मंदिर का निर्माण की बात कही जाती है।          

श्लोक 21 में कहा गया है कि उपरोक्त शासक (अनयचंद्र या मेघसूता) ने "सांसारिक आसक्तियों के सागर" (यानी मोक्ष या मोक्ष प्राप्त ) को पार करने का सबसे आसान तरीका खोजने के लिए, विष्णु-हरि के इस खूबसूरत मंदिर को बनवाया था । मंदिर का निर्माण बड़े-बड़े तराशे हुए पत्थरों के खंडों का उपयोग करके किया गया था। किसी पूर्ववर्ती राजा ने इस पैमाने पर मंदिर नहीं बनाया था। शिखर ( शिखर मंदिर के) एक सुनहरा साथ सजी हुई थी कलश ( कुपोला ) है।

द्वितीय:  चक्र हरि मन्दिर गुप्तार घाट, अयोध्या  

भगवान विष्णु नेअपने चक्र पर  अयोध्या नगरी बसाई थी। विष्णु की भी प्रिय नगरी रही है अयोध्या। स्कंदपुराण में अगस्त्य ऋषि अयोध्या को विष्णुपुरी कहकर संबोधित करते हैं। स्कंद पुराण में ही लिखा है कि अयोध्या की स्थापना स्वयं भगवान विष्णु ने अपने चक्र पर की थी।  स्कंद पुराण में ही लिखा है कि अयोध्या की स्थापना स्वयं भगवान विष्णु ने अपने चक्र पर की थी। अयोध्या का ‘अ‘ कार ब्रह्मा, ‘य‘ विष्णु और ‘घ‘ कार रुद्र का स्वरूप है। पौराणिक कथाएं बताती हैं कि ब्रह्मा से जब मुन ने अपने लिए एक नगर के निर्माण की जब बात कही तो ब्रह्मा और मनु के साथ विश्वकर्मा को भेजा गया। उसी समय विष्णु के मन में राम के अवतार के रूप में अयोध्या में जन्म लेने की लालसा जगी। विश्वकर्मा ने इस नगर का निर्माण किया। वशिष्ठ ने राम अवतार के लिए इसका चयन किया। स्कंद प्रराण के वैष्णव खंड में इस बात का जिक्र मिलता है कि भगवान विष्णु को अयोध्या के वासी जान ब्रह्मा अपना लोक छोड़कर अयोध्या आ गये थे।देवासुर संग्राम के दौरान विष्णु ने सरयू तट पर तपस्या की थी।आज की राम जन्मभूमि से बामुश्किल पांच सौ मीटर दूर चक्रतीर्थ का अस्तित्व है। चक्रधारी का संपूर्ण क्षेत्र किसी मलिन बस्ती की तरह उपेक्षित पड़ा है। कहा जाता है बहुत समय पूर्व विष्णु शर्मा नाम के ब्राह्मण की तपस्या से प्रकट हुए भगवान विष्णु ने अपने चक्र से तीर्थ की रचना की। अयोध्या के गुप्तार घाट पर स्थित गुप्त हरि और चक्र हरि मंदिर इसके गवाह हैं।

श्रीचक्रहरि का पीठ:- अयोध्या से पश्चिम सरयू तट पर गुप्तार घाट स्थित है। स्कंद पुराण में इसे श्रीगुप्तहरि और श्रीचक्रहरि का पीठ स्थान माना है। एक अन्य कथा के मुताबिक इसी स्थान पर भगवान विष्णु के हाथ से छूटकर सुदर्शन चक्र गिरा था, इसलिए इसका एक नाम श्रीचक्रहरि भी है। मौके पर इस भवन के भूतल पर भगवान राम के चरण चिंह्न बने हुए हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान राम मानव अवतार के रूप में सरयू नदी में डुबकी लगाने से पूर्व अपने खड़ाऊं को यहीं पर उतारा था। प्रथम तल पर स्थित मंदिर को चक्रहरि मंदिर के रूप में मान्यता है। यहां पर भगवान विष्णु की मूर्ति श्रीचक्रहरि के रूप में मौजूद है। श्रीहरि के दर्शन से सभी प्रकार के दोष व पाप शांत होते है। चक्र हरजी मंदिर, फैजाबाद में गुप्‍तार घाट पर सरयू नदी के तट पर स्थित है। यह मंदिर दो कारणों से हिंदू धर्म के श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता है। पहला यह है कि भगवान विष्‍णु की चक्र धारण किए हुए मूर्ति भक्‍तों के बीच सदैव रहस्‍य की भावना उत्‍पन्‍न करता है, क्‍योंकि साधारण तौर पर माना जाता है कि भगवान विष्‍णु केवल युद्ध क्षेत्र में ही सुदर्शन चक्र को धारण किया करते है ताकि वह दुष्‍टों का संहार कर सके। भगवान विष्‍णु को चक्र धारण किए हुए  देखना एक दुर्लभ दृश्‍य है।  इस मंदिर में अन्‍य देवताओं की मूर्ति भी रखी हुई हैं। सरयू नदी के किनारे पर स्थित यह मंदिर बेहद शांत और शांति भरा वातावरण प्रदान करता है।

तृतीय: श्री धर्महरि चित्रगुप्त मंदिर ,अयोध्या

"श्री धर्महरि चित्रगुप्त मंदिर” वर्तमान में, सरयू नदी के दक्षिण, नयाघाट से फैजाबाद, राजमार्ग पर स्थिति तुलसी उद्यान से लगभग 500 मीटर पूरब दिशा में, डेरा बीबी मोहल्ले में, बेतिया राज्य के मंदिर के बग़ल मैं है। नयाघाट से मंदिर की सीधी दूरी लगभग एक किमी. होगी। पौराणिक गाथाओं के अनुसार, स्वंय भगवान विष्णु ने इस मंदिर की स्थापना की थी और धर्मराज जी को दिये गये वरदान के फलस्वरुप ही धर्मराज जी के साथ इनका नाम जोड़ कर इस मंदिर को ‘श्री धर्म-हरि मंदिर’ का नाम दिया है। श्री अयोध्या महात्मय में भी इसे श्री धर्महरि मंदिर कहा गया है। किवदंति है कि विवाह के बाद जनकपुर से वापिस आने पर श्रीराम-सीता ने सर्वप्रथम धर्महरि चित्रगुप्त जी के ही दर्शन किये थे। धार्मिक मान्यता है कि अयोध्या आने वाले सभी तीर्थयात्रियों को अनिवार्यत: श्री धर्महरि चित्रगुप्त राजदरबार के दर्शन करना चाहिये, अन्यथा उसे इस तीर्थ यात्रा का पुण्यफल प्राप्त नहीं होता। अयोध्या के इतिहास में उल्लेख है कि सरयू के जल प्रलय से अयोध्या नगरी पूर्णतया नष्ट हो गर्इ थी और विक्रमी संवत के प्रवर्तक सम्राट विक्रमादित्य ने जब अयोध्या नगरी की पुनस्र्थापना की तो सर्वप्रथम श्री धर्महरि चित्रगुप्त मंदिर की स्थापना कराया था।   एक किदवंती यह भी हैं कहा जाता हैं,जब भगवान राम रावण को मार कर राजतिलक के लिये अयोध्या लौट रहे थे।भरत जी उनके खडाऊं को राजसिंहासन पर रख कर राज्य चला रहे  थे। तब भरत जी ने गुरु वशिष्ठ को भगवान राम के राज्यतिलक के लिए सभी देवी देवताओं को निमंत्रण भेजने की व्यवस्था करने को कहा। गुरु वशिष्ठ ने ये काम अपने शिष्यों को सौंप कर राज्यतिलक की तैयारी शुरू कर दीं। ऐसे में जब राज्यतिलक में सभी देवी-देवता आ गए तब भगवान राम ने अपने अनुज भरत से पूछा चित्रगुप्त जी नहीं दिखाई दे रहे है, इस पर जब उनकी खोज हुई। खोज में जब चित्रगुप्त जी नहीं मिले,तब पता चला कि गुरु वशिष्ठ के शिष्यों ने भगवान चित्रगुप्त जी को निमत्रण पहुंचाया ही नहीं था, जिसके चलते भगवान चित्रगुप्त नहीं आये।इधर भगवान चित्रगुप्त सब जान तो चुके थे, और इसे भी नारायण के अवतार प्रभु राम की महिमा समझ रहे थे। फलस्वरूप उन्होंने गुरु वशिष्ठ की इस भूल को अक्षम्य मानते हुए यमलोक में सभी प्राणियों का लेखा-जोखा लिखने वाली कलम दवात को उठा कर किनारे रख दिया। सभी देवी देवता जैसे ही राजतिलक से वापस लौटे तो पाया की स्वर्ग और नरक के सारे काम रुक गये थे।  प्राणियों का  लेखा-जोखा ना लिखे जाने के चलते ये तय कर पाना मुश्किल हो रहा था की किसको कहाँ स्वर्ग/ नरक भेजना है।भगवान विष्णु ने  था इस मंदिर की स्थापना किया था।  गुरु वशिष्ठ की इस गलती को समझते हुए भगवान राम ने अयोध्या में भगवान् विष्णु द्वारा स्थापित भगवान चित्रगुप्त के मंदिर में गुरु वशिष्ठ के साथ जाकर भगवान चित्रगुप्त की स्तुति की और गुरु वशिष्ठ की गलती के लिए क्षमा याचना की। श्री अयोध्या महात्मय में भी इसे श्री धर्महरि चित्रगुप्त मंदिर कहा गया है धार्मिक मान्यता है कि अयोध्या आने वाले सभी तीर्थयात्रियों को अनिवार्यत: श्री धर्म-हरि श्री चित्रगुप्त भगवान जी के दर्शन करना चाहिये, अन्यथा उसे इस तीर्थ यात्रा का पुण्यफल प्राप्त नहीं होता अयोध्या यात्रा अधूरी मानी जाती हैं।

चतुर्थ: चंद्रहरि महादेव मन्दिर, अयोध्या

चंद्रहरि को 16 हरियों में चौथा स्थान प्राप्त है। चंद्रहरि स्वर्गद्वार स्थित राम की पैड़ी पर  सुरक्षित अवस्था में है। इस मंदिर में भी कुल 5 मंदिर हैं. मंदिर के मुख्य गर्भगृह में चंद्रहरि भगवान विराजमान हैं, जबकि उसके दाहिने ओर मंदिर में भगवान राधा-कृष्ण, बाईं ओर द्वादश ज्योतिर्लिंग मंदिर है. द्वादश ज्योतिर्लिंग एक विशाल अर्घ्य के ऊपर है और वह भी मूर्ति में साक्षात ओमकार का दर्शन कराता है। चंद्रजी मंदिर का पावन वैभव अति विशिष्ट है. अयोध्या के विभिन्न कोणों पर स्थित सप्त हरि में चंद्रहरि को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यह मंदिर ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही, साथ ही मंदिर के परिसर में स्थित मुख्य गर्भगृह में विराजमान काले कसौटी के एक ही पत्थर में 11 मूर्तियां विराजित हैं। ये मूर्तियां अति महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। माना जाता है इस मंदिर में दर्शन-पूजन करने से समस्त मनोकामनाएं पूरी होती हैं और नित्य दर्शन से बैकुंठ लोक की प्राप्ति होती है। स्वर्ग द्वार राम पैडी के पास स्थित प्राचीन चन्द्र हरि मंदिर है। इस स्थान पर यह मंदिर भगवान चन्द्रमा द्वारा स्थापित किया गया था। इसका महत्व कई धार्मिक ग्रंथो व पुराणों में वर्णित है। सैकड़ों वर्षों पूर्व इस मंदिर को महाराज विक्रमादित्य द्वारा पुनः जीर्णोद्धार किया गया। तब से लेकर आज भी यह मंदिर स्थापित है। इस मंदिर में भगवान चंद्र्हरेश्वर के साथ बारह ज्योतिर्लिंग स्थापित है।

एक प्राचीन कुआं :-  इस मंदिर परिसर में एक प्राचीन कुआं भी है। इसके जल के स्नान से चर्म रोग ठीक होते हैं, लेकिन मुगल काल में इस मंदिर की प्रतिष्ठा और महत्ता के कारण लगने वाले मेले और जुटने वाले श्रद्धालुओं की संख्या को देखते हुए इसे बंद करवा दिया गया. वर्तमान में कूप के ऊपर लोहे का मोटा चद्दर रखकर उसे बंद किया गया है। स्कंध पुराण में स्थान के महत्व बताया है कि स्वर्ग द्वार में इस मंदिर में प्रवेश करने मात्र से जन्म जन्मान्तरो के पाप नष्ट हो जाते है। तथा लिखा है कि इस स्थान पर भगवान विष्णु की परम शक्ति व गूढ़ स्थान है। मनुष्य भगवान विष्णु का व्रत धारण कर विष्णु लोक आकांक्षा रख कर जिस प्रकार का धर्म फल पाता है वैसा अन्य किसी स्थान पर नहीं प्राप्त होती है। इस मंदिर में स्थापित कुएं के जल से स्नान कर वस्त्र व आनाज दान करने से बड़ा फल मिलता है। इस मंदिर की परंपरानुसार प्रत्येक वर्ष के एक माह तक धनुर्मास महोत्सव का आयोजन होता है। जिसे श्री गोदाम्बा पर्व कहा जाता है।


पंचम: पुण्य हरि मंदिर, पुनहद, पूरा बाजार अयोध्या

अयोध्या के सप्तहरि तीर्थों में एक पुण्यहरि कुंड भी है। इसे पुण्य हरि तीर्थ के नाम से भी जाना जाता है। यह पूरा बाजार ब्लाक के खानपुर के पुनहद में स्थित है। इसी के नाम पर इस स्थान का नाम पुनहद पड़ा। गांव में मान्यता है कि श्रीराम वन से लौटने के पश्चात अयोध्या में प्रवेश के पहले सभी भाई यहीं पर मिले थे। इसीलिए इसे बंधुबाबा स्थान भी कहा जाता है।

षष्टम: विल्ब् हरि मंदिर बिल्हरघाट, अयोध्या

अयोध्या धाम में राजा दशरथ के समाधि स्थल बिल्व हरि घाट पर बिल्वे सर महादेव का प्राचीन मंदिर है।इसकी स्थापना भगवान राम ने बिल्व नामक राक्षस का वध करने के बाद किया था।अधिकमास में यँहा कथा,पूजन का विशेष महत्व है।


गुप्त हरि मन्दिर गुप्तार घाट अयोध्या :-

अयोध्या से पश्चिम सरयू तट पर गुप्तार घाट स्थित है। स्कंद पुराण में इसे श्रीगुप्तहरि और श्रीचक्रहरि का पीठ स्थान माना गया है। जब दैत्यों ने देवों को पराजित करके स्वर्ग पर कब्जा कर लिया था तो देवताओं की प्रार्थना पर श्रीहरि विष्णु भगवान ने देवताओं को शक्ति प्रदान करने के लिए यहीं पर घोर तपस्या की थी। इसीलिए इसका नाम श्रीगुप्तहरि माना गया।   

अयोध्या इक्ष्वाकु वंशी पांच जैन तीर्थैंकरों की भी जन्मभूमि

                   श्वेतांबर जैन मन्दिर अयोध्या
अयोध्या इक्ष्वाकु वंशी पांच जैन तीर्थैंकरों की भी जन्मभूमि
डा. राधे श्याम द्विवेदी
रामभक्तों के अलावा जैन अनुयायियों के लिए भी पवित्र नगरी है । मंदिर के कारण अयोध्या विश्व में प्रसिद्ध हो गया। आज हम आपको बता रहे हैं कि यह नगरी केवल रामभक्तों के ही लिए पवित्र नहीं है, बल्कि  जैन और बौद्ध धर्म का संयुक्त तीर्थ स्थल है। जैन मत के अनुसार यहां प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभनाथ सहित 5 तीर्थंकरों का जन्म हुआ था। अयोध्या में आदिनाथ ( ऋषभदेव) के अलावा अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ का भी जन्म हुआ था।
 जैन धर्म के सभी 24 तीर्थंकरों का जन्म भगवान श्रीराम के इक्ष्वाकु वंश से माना जाता है। इसमें पांच तीर्थंकर का जन्म अयोध्या में हुआ था। अयोध्याको अब तक केवल भगवान् राम की जन्मस्थली के रूप में देखा जा रहा है लेकिन वास्तविकता यह है कि अयोध्या हिन्दू, जैन और बौद्ध धर्म का संयुक्त तीर्थ स्थल है। अयोध्या न केवल हिन्दुओं के लिए पवित्र नगरी है बल्कि जैन धर्म के अनुयायियों के लिए भी पवित्र नगरी है।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में चैत्रबदी अष्टमी को हुआ था। दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ का जन्म माघ शुदी अष्टमी को हुआ था। चौथे तीर्थंकर अभिनंदन स्वामी का जन्म अयोध्या में माघ शुदी द्वितीया को हुआ था। पांचवें तीर्थंकर सुमतिनाथ का जन्म अयोध्या में वैशाखसुदी अष्टमी को हुआ था। 14वें तीर्थंकर अनंतनाथ का जन्म अयोध्या में वैशाख बदी त्रयोदशी को हुआ था।
श्रीरामजन्मभूमि के पीछे आलमगंज कटरा मोहल्ला में जैन श्वेतांबर मंदिर है। कटरा मोहल्ला में जैन मंदिर बहुत ही भव्य बना हुआ है जहां पांचों तीर्थंकरों की बहुत ही सुंदर मूर्ति विराजमान है।यहाँ जैन समाज की आबादी नहीं है, इसलिए आसपास के घरों के हिंदू बेटियों को पूजा-आरती पद्धति सिखाई गई है। अयोध्या के हिंदू श्रधालु जैन तीर्थंकरों की आरती-पूजा विधिवत करते हैं। आखिरकार यह धर्म अयोध्या से ही है, सभी तीर्थंकर इक्ष्वाकु वंश से हैं, जो श्रीराम के पूर्वज हैं। 
अयोध्या में एक दिगंबर जैन मंदिर है जहां ऋषभदेवजी का जन्म हुआ था। ऋषभदेव को आदिनाथ, पुरदेव, वृषभदेव व आदिब्रह्म आदि नामों से भी जाना जाता है।त्रेतायुग कालीन इस मंदिर को बाद में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के द्वारा पुनर्निर्मित किया गया था।इस स्थान पर ऋषभदेव की 31 फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित है जो बड़ी मूर्ति के नाम से प्रसिद्ध है।
दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ का जन्म अयोध्या में बकसारिया टोला में हुआ था। इस जगह को बेगमपुरा भी कहा जाता है। यहां उनके लिए समर्पित एक मंदिर है जिसका नाम ‘अजीतनाथ की टोक’ है।
अयोध्या में चौथे तीर्थंकर अभिनंदन स्वामी का जन्म रामकोट मुहल्ला में हुआ था। यहां श्री रत्नपुरी जैन श्‍वेतांबर मंदिर स्थापित है।
पांचवें तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ का जन्म अयोध्या में मुहल्ला मोनधियाना राजघाट में हुआ था। यहां उन्हें समर्पित एक मंदिर है।
मोहल्ला-मोन्धिआना राजघाट, अयोध्या में 14 वें तीर्थंकर श्री अनंतनाथ का जन्म वैशाख महीने के कृष्ण पक्ष के 13वें दिन हुआ था। यहां उन्हें समर्पित एक मंदिर है।
विभिन्न कल्याणक कार्यक्रम:-
पांचों तीर्थंकरों के साल में होने वाले विभिन्न कल्याणक कार्यक्रमों में देश-विदेश के बड़े उद्योगपति समूह के परिवार समेत अनुयायियों का जमावड़ा यहां के अर्थतंत्र को हमेशा ऊंचाई देता है। यहां इन तीर्थंकरों के जीवन से संबंधित 18 कल्याणक भी घटित हुए हैं। रत्नपुरी
फैजाबाद जिले में सोहावल स्टेशन से डेढ़ मील दूरी पर है। धर्मनाथ स्वामी के चार कल्याणक यहाँ हुए हैं।यहां देश-विदेश से जैन समुदाय के लोग आते-जाते हैं।कल्याणक आयोजनों में देश-विदेश से जैन समाज के लोग आते हैं।  यहाँ जैन धर्म के दो पीठ दिगंबर व श्वेताबंर है।
पांच एकड़ जमीन सरकार दान में देगी:-
जैन तीर्थ को विकसित करने में केंद्र सरकार पांच एकड़ भूमि देने की तैयारी कर रही है। जैन समाज के पास अभी सात एकड़ भूमि है। पांच तीर्थंकरों के चरण स्थानों का जीर्णोद्धार करने की योजना है। दिगंबर जैन अयोध्या तीर्थ क्षेत्र कमेटी के मंत्री मनोज जैन ने बताया कि पांच तीर्थंकरों के चरण चिन्हों का भी विकास किया जाएगा। इसके लिए समिति के द्वारा तैयारी की जा रही है। आने वाले समय में जैन धर्म प्रेमियों के साथ अन्य सभी के लिए अयोध्या एक अलग धार्मिक स्वरूप नजर आएगा।
तीर्थंकरों की इन तिथियों पर कार्यक्रम होते हैं :-
१.     प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पिता के नाम नाभिराजा व माता का नाम मरूदेवी था। इनका जन्म चैत्रबदी आठ और मृत्यु माघ बदी 13 को हुआ था। 
२.   दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ का जन्म माघ शुदी आठ को हुआ था। उनके पिता का नाम जितशत्रु व माता का नाम विजया था। उनकी मृत्यु चैत्र शुदी पांच को सम्मेेतशिखर में हुई थी। 
३.   चौथे तीर्थंकर अभिनंदन स्वामी का जन्म अयोध्या में माघ शुदी दो को और मृत्यु वैशाख शुदी आठ को सम्मेतशिखर में हुई थी। 
४.  पांचवे तीर्थंकर सुमतिनाथ का जन्म अयोध्या में वैशाखसुदी आठ को और मृत्यु सम्मेतशिखर में चैत्रसुदी नौ को हुई थी। 
५. 14वें तीर्थंकर अनंतनाथ का जन्म अयोध्या में वैशाख बदी        13 व मृत्यु सम्मेतशिखर में चैत्र शुदी 5 को हुई थी। 






 

Friday, February 25, 2022

मत्स्य व श्रीरामअवतार की साक्षी सरयू नदी औरअयोध्या नगरी


मत्स्य व श्रीरामअवतार की साक्षी सरयू नदी औरअयोध्या नगरी
डा. राधे श्याम द्विवेदी
       अयोध्या हिंदुओं के प्राचीन व सात पवित्र तीर्थस्थलों (सप्तपुरियों) में एक है। अयोध्या को ईश्वर का नगर बताया गया है। इसकी सम्पन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है।अयोध्या को अथर्ववेद में ईशपुरी बताया गया है। इसके वैभव की तुलना स्वर्ग से की गई है। भगवान श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या त्रेतायुग की मानी जाती है। हालांकि, मौजूदा अयोध्या राजा विक्रमादित्य की बसाई हुई 2,000 साल पुरानी है। अयोध्या में दिवाली का वर्णन भी वेदों-पुराणों में है। प्रभु राम जब लंकाधिपति रावण का वध कर अयोध्या आए तो अयोध्या नगरी ने उनका स्वागत किया था। घर-घर दीप जलाए गए, पकवान बने और उल्लास छा गया था। 
अथर्ववेद में यौगिक प्रतीक के रूप में अयोध्या का उल्लेख है-
अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।
तस्यां हिरण्मयः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः॥
        (अथर्ववेद -- 10.2.31)
          रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना मनु ने की थी। यह पुरी सरयू के तट पर बारह योजन  (लगभग १४४ कि.मी) लम्बाई और तीन योजन (लगभग ३६ कि.मी.) चौड़ाई में बसी थी।  कई शताब्दी तक यह नगर सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी रहा। स्कन्दपुराण के अनुसार सरयू के तट पर दिव्य शोभा से युक्त दूसरी अमरावती के समान अयोध्या नगरी है। इसी भाव को इस प्रकार व्यक्त किया गया है--
          " है अयोध्या अवनि की अमरावती।
          इन्द्र हैं दशरथ विदित वीरब्रती। 
          वह मृतकों को मात्र पार उतारती।            
           यह जीवितों को यहीं से तारती।। "
          --स्वर्गीय राम धारी सिंह "दिनकर "
       अयोध्या मूल रूप से हिंदू मंदिरो का शहर है। यहां आज भी हिंदू धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं। जैन मत के अनुसार यहां चौबीस तीर्थंकरों में से पांच तीर्थंकरों का जन्म हुआ था। क्रम से पहले तीर्थंकर ऋषभनाथ जी, दूसरे तीर्थंकर  अजितनाथ  जी, चौथे तीर्थंकर अभिनंदननाथ जी, पांचवे तीर्थंकर  सुमतिनाथ जी और चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ जी। इसके अलावा जैन और वैदिक दोनों मतो के अनुसार भगवान  रामचन्द्र जी का जन्म भी इसी भूमि पर हुआ। उक्त सभी तीर्थंकर और भगवान रामचंद्र जी सभी इक्ष्वाकु वंश से थे। इसका महत्त्व इसके प्राचीन इतिहास में निहित है क्योंकि भारत के प्रसिद्ध एवं प्रतापी क्षत्रियों (सूर्यवंशी) की राजधानी यही नगर रहा है। उक्त क्षत्रियों में दाशरथी रामचन्द्र अवतार के रूप में पूजे जाते हैं। पहले यह कोसल जनपद की राजधानी था।अयोध्या नगरी की सीमा मौजूदा शहर के 3 से 4 किलोमीटर के दायरे तक सीमित नहीं है। अयोध्या 144 किलोमीटर तक पूर्व-पश्चिम में और उत्तर-दक्षिण में 36 किलोमीटर तक है।
         मत्स्य आकार वाली अयोध्या का निर्माण भगवान राम के जन्म से बहुत पहले हुआ था। अयोध्या में भगवान राम का जन्म हो इसके लिए देवताओं और ऋषि- मुनियों ने इसकी चौरासी कोस की परिधि में सालों तक कठोर तप किया, जिसके परिणामस्वरूप भगवान विष्णु ने अवतार लिया। वैवसत् मनु ने कोसल देश बसाया और अयोध्या को उसकी राजधानी बनाया । मत्स्यपुराण में लिखा है कि अपना राज अपने बेटे को सौंप कर मनु मलयपर्वत पर तपस्या करने चले गये। यहाँ हजारों वर्ष तक तपस्या करने पर ब्रह्मा उनसे प्रसन्न होकर बोल "बर मांग" ।  राजा उनको प्रणाम करके बोले, "मुझं एक ही बर मांगना है। प्रलयकाल में मुझे जड़चेतन सब की रक्षा की शक्ति मिले" | इसपर 'एवमस्तु' कहकर ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये और देवताओं ने फूल बरसाये। इसके अनन्तर मनु फिर अपनी राजधानी को लौट आये । एक दिन पितृ तर्पण करते हुये उनके हाथ से पानी के साथ एक नन्ही सी मछली गिर पड़ी। दयालु राजा ने उसे उठाकर घड़े में डाल दिया। परन्तु दिन में वह नन्ही सी मछली इतनी बड़ी हो गयी कि घड़े में न समायी। मनु ने उसे निकाल कर बड़े मटके में रख दिया परन्तु रात ही भर में प्रलय की कथा हिन्दू, मुसल्मान, ईसाई सब के धर्मग्रन्थों में है।
        जबमछली तीन हाथ की हो गयी और मनु से कहने लगी श्राप हम पर दया कीजिये और हमें बचाइये । तब मनु ने उसे मटके में से निकाल कर कुयें में डाल दिया । थोड़ी देर में कुआं भी छोटा पड़ गया तब वह मछली एक बड़े तलाव में पहुँचा दी गयी । यहाँ वह योजन भर लम्बी हो गई तब मनु ने उसे गंगा में डाला । वहाँ भी बढ़ी तो महासागर भेजी गयी, फिर भी उसकी बाढ़ न रुकी तब तो मनु बहुत घबराये और कहने लगे "क्या तुम असुरों के राजा हो ? या साक्षात् बासुदेव हो जो बढ़ते बढ़ते सौ याजन के हो गये । हम तुम्हें पहचान गये, तुम केशव हृषीकेश जगन्नाथ और जगद्धाम हो।" 
     भगवान् बोले "तुमने हमें पहचान लिया । थोड़े ही दिनों में प्रलय होने वाली है जिसमें बन और पहाड़ सब डूब जायेंगे । सृष्टि को बचाने के लिये देवताओं ने यह नाव बनायी है । इसी में स्वंदज, अण्डज, उद्भिज और जरायुज रक्खे जायेंगे । तुम इस नाव को ले लो और आनेवाली विपत्ति से सृष्टि को बचाओ। जब तुम देखना कि नाव बही जाती है तो इसे हमारे सोंग में बाँध देना । दुखियों को इस संकट से बचाकर तुम बड़ा उपकार करोगे । तुम कृतयुग में एक मन्वन्तर राज करोगे और देवता तुम्हारी पूजा करेंगे।" 
        मनु ने पूछा कि प्रलय कब होगी और आप के फिर कब दर्शन होंगे। मत्स्य भगवान् ने उत्तर दिया कि “ सौ वर्ष तक अनावृष्टि होगी, फिर काल पड़ेगा और सूर्य की किरणें ऐसी प्रचंड होंगी कि सारे जीव जन्तु भस्म हो जायेंगे फिर पानी बरसेगा और सब जलथल हो जायगा। उस समय हम सींगधारी मत्स्य के रूप में प्रकट होंगे। तुम इस नाव में सब को भर कर इस रस्सी से हमारे सींग में बाँध देना। 
         यह गंगा रामगंगा (सरयू ) है क्योंकि गंगा राजा भगीरथ की लाई हुई। और भगीरथ मनु से चौवालीसवीं पीढ़ी में थे। अयोध्या का इतिहास देना।" यह कह कर भगवान् तो अन्तर्धान हो गये और मनु योगाभ्यास करने लगे।
अयोध्यापुरी का वर्णन करते हुए कहा कि जिस प्रकार मत्स्य का आकार होता है। उसी प्रकार से अयोध्या का आकार है। अयोध्या 12 योजन लंबी और 3 योजन चौड़ी है। 
       ऐसा कहा जाता है कि अयोध्या में 10,000 मंदिर हैं , लेकिन सापेक्ष महत्व के लगभग 100 मंदिर हैं। प्राचीन उल्लेखों के अनुसार तब इसका क्षेत्रफल 96 वर्ग मील था। यहाँ पर सातवीं शाताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग आया था। उसके अनुसार यहाँ 20 बौद्ध मंदिर थे तथा 3000 भिक्षु रहते थे।          
       तुसली कृत रामचरित मानस की इस चौपाई में भगवान राम का अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम और पतित पावनी सरयू की महिमा का बखान है। 
            'अवधपुरी मम पुरी सुहावनि,
           दक्षिण दिश बह सरयू पावनि।’
          अयोध्या हिंदुओं के प्राचीन और सात पवित्र तीर्थ स्थलों में एक है। यहां 10 हजार मंदिर हैं और इसे मंदिरों का नगर कहा जाता है। श्रीरामजन्मभूमि सहित 84 कोस की अयोध्या में 200 ऐसे तीर्थ स्थल हैं, जो ऐतिहासिक हैं। वैसे तो मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण सहित कई पुराणों में अयोध्या का उल्लेख है पर स्कंद पुराण में सरयू नदी, प्रमुख मंदिर, कुंड का उल्लेख मिलता है।अयोध्या के 10 हजार मंदिरों में से सबसे ज्यादा मंदिर श्रीराम और मां सीता के हैं।  सारे तीर्थ अयोध्या में आकर निवास करते हैं। अयोध्या के 100 से ज्यादा कुंडों का वर्णन भी पुराण में है। इसमें मनु से लेकर सूर्य, भरत, सीता, हनुमान, विभीषण समेत भगवान से जुड़े लोगों के नाम से भी कुंड हैं।
भगवान विष्णु के चक्र पर बसी है अयोध्या:-
अयोध्या विश्व की पहली नगरी है। मानवेंद्र मनु का जन्म अयोध्या में ही हुआ। यह अत्यन्त प्राचीन नगरी है जिसका वर्णन वेद, पुराण आदि में बखूबी मिलता है। अयोध्या के वर्तमान मंदिर 200 से 500 साल पुराने हैं, पर धर्मस्थल लाखों साल पहले के हैं। अयोध्या धनुषाकार है और यह भगवान विष्णु के चक्र पर बसी हुई है। इसके 9 द्वार का उल्लेख प्राचीन धर्मग्रंथों में मिलता है। अयोध्या नगरी की बसावट मत्स्याकार  और धनुषाकार है।
इस मत्स्य का मुख पूर्व की ओर तथा पुंछ दक्षिण पश्चिम की ओर आज भी देखा जा सकता है। 
अर्पण और समर्पण की नगरी है अयोध्या:-
अयोध्या शब्द सुनते ही स्वत: अर्थ बोध होने लगता है। जहां कोई युद्ध न हो। जहां के लोग युद्ध प्रिय न हों, जहां के लोग प्रेम प्रिय हों। जहां प्रेम का साम्राज्य हो। जो श्रीराम प्रेम से पगी हों, वो अयोध्या है। इसका एक नाम अपराजिता भी है। जिसे कोई पराजित न कर सके। जिसे कोई जीत न सके या जहां आकर जीतने की इच्छा खत्म हो जाए। जहां सिर्फ अर्पण हो समर्पण हो, वो अयोध्या है। भगवान के अवतार के बिना उनके विज्ञान को समझा नहीं जा सकता है । जहां आस्था है, वहीं रास्ता है। आस्था, आत्मविश्वास और कड़ी मेहनत से हम अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं। अध्यात्म के बिना भौतिक उत्थान का कोई महत्व नहीं है। मन की पवित्रता के बिना तन की पवित्रता संभव नहीं है। हृदय के पवित्र भाव ही वाच् रूप में भक्ति, सरलता और आचरण के रूप में प्रकट होते हैं। इस आचरण के अभाव में सर्वत्र अराजकता दिखाई देती है। जीवन से सुख-शांति और सरलता मानो विदा हो चुकी है। ऐसे में परमात्मा का आधार ही सुख व आनंद प्राप्ति का कारण है।

सरयू नदी से सम्बन्धित कुछ रोचक बातें:-
राम नगरी के चरण पखारने वाली सरयू नदी वर्णन ना हो तो अयोध्या की गाथा अधूरी रह जाएगी क्योंकि श्रीराम के जन्म से वनगमन और बैकुंठ गमन की यह साक्षी रही है। 
ऋग्वेद में सरयू नदी का उल्लेख:-
अयोध्या तक यह नदी सरयू के नाम से जानी जाती है, लेकिन उसके बाद यह नदी घाघरा के नाम से जानी जाती है। सरयू की कुल लंबाई करीब 160 किमी है। भगवान श्री राम के जन्मस्थान अयोध्या से होकर बहने से हिंदू धर्म में इस नदी का विशेष महत्व है। सरयू नदी का वर्णन ऋग्वेद में भी मिलता है।
पुराणों में सरयू नदी का वर्णन:-
वामन पुराण के 13वें अध्याय, ब्रह्म पुराण के 19वें अध्याय और वायुपुराण के 45वें अध्याय में गंगा, यमुना, गोमती, सरयू और शारदा आदि नदियों का हिमालय से प्रवाहित होना बताया गया है। सरयू का प्रवाह कैलास मानसरोवर से कब बंद हुआ, इसका विवरण तो नहीं मिलता, लेकिन सरस्वती व गोमती की तरह इस नदी में भी प्रवाह भौगोलिक कारणों से बंद होना माना जा रहा है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, सरयू व शारदा नदी का संगम तो हुआ ही है, सरयू व गंगा का संगम श्रीराम के पूर्वज भगीरथ ने करवाया था।
विष्णु के नेत्रों से प्रगट हुई सरयू नदी:-
पुराणों में वर्णित है कि सरयू भगवान विष्णु के नेत्रों से प्रगट हुई हैं। आनंद रामायण के यात्रा कांड में उल्लेख है कि प्राचीन काल में शंखासुर दैत्य ने वेदों को चुराकर समुद्र में डाल दिया और स्वयं भी वहां छिप गया था। तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण कर दैत्य का वध किया और ब्रह्माजी को वेद सौंपकर अपना वास्तविक स्वरूप धारण किया। उस समय हर्ष के कारण भगवान विष्णु की आंखों से प्रेमाश्रु टपक पड़े। ब्रह्माजी ने उस प्रेमाश्रु को मानसरोवर में डालकर उसे सुरक्षित कर लिया। इस जल को महापराक्रमी वैवस्वत महाराज ने बाण के प्रहार से मानसरोवर से बाहर निकाला। यही जलधारा सरयू नदी कहलाई।
स्वर्ग के समान अयोध्या नगरी बाद में भगीरथ अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए गंगा को पृथ्वी पर लाए और उन्होंने ही गंगा व सरयू का संगम करवाया।
 "अवधपुरी मम पुरी सुहावनि, दक्षिण दिश बह सरयू पावनि।"
तुलसी कृत मानस की इस चौपाई में सरयू नदी को अयोध्या की पहचान का प्रमुख प्रतीक बताया गया है। राम की जन्मभूमि अयोध्या उत्तर प्रदेश में सरयू नदी के दाएं तट पर स्थित है।
कैलाश से भी निकली है सरयू नदी:-
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के अवतरण व लीला परमधाम-गमन की साक्षी रही सरयू नदी का उदगम स्थल यूं तो कैलास मानसरोवर माना जाता है, परंतु अब यह नदी उत्तर प्रदेश के लखीमपुरी खीरी जिले के खैरीगढ़ रियासत की राजधानी रही सिंगाही के जंगल की झील से श्रीराम नगरी अयोध्या तक ही बहती है। मत्स्यपुराण के अध्याय 121 और वाल्मीकि रामायण के 24वें सर्ग में इस नदी का वर्णन मिलता है। इसमें कहा गया है कि हिमालय पर कैलाश पर्वत है, जिससे लोकपावन सरयू निकली है, यह अयोध्यापुरी से सट कर बहती है।
शिव जी का शाप:-
 रामायण के अनुसार, भगवान राम ने इसी नदी में प्रवेश करके जल समाधि ली थी। उत्तर रामायण में उल्लेख मिलता है कि भगवान राम के सरयू में जल समाधि लेने पर शिवजी बहुत नाराज हुए। क्रोधित होकर शिवजी ने सरयू को शाप दे दिया कि तुम्हारे जल में आचमन करने पर भी लोगों को पाप लगेगा। तुम्हारे जल में कोई स्नान भी नहीं करेगा। सरयू इस शाप से आहत होकर शिव की शरण में पहुंची और बोली कि मेरे जल में भगवान के जल समाधि लेने में मेरा क्या अपराध है, यह तो पहले से ही विधि का विधान बना हुआ था। शिवजी सरयू के तर्क से शांत हुए और कहा कि मेरा शाप व्यर्थ नहीं जाएगा, तुम्हारे जल में स्नान करने से पाप नहीं लगेगा, लेकिन तुम्हारे जल का प्रयोग पूजा में नहीं होगा। इस नदी के साथ एक शाप है जिसकी वजह से पूजा कर्म में इसके जल का प्रयोग नहीं होता है। 
बहराइच के मैदान से नदी का उद्गम:-
सरयू नदी का उद्गम उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले से हुआ है। बहराइच से निकलकर यह नदी गोंडा से होती हुई अयोध्या तक जाती है। पहले यह नदी गोंडा के परसपुर तहसील में पसका नामक तीर्थ स्थान पर घाघरा नदी से मिलती थी। अब यहां बांध बन जाने से यह नदी पसका से करीब आठ किमी आगे चंदापुर नामक स्थान पर मिलती है।
अयोध्या में 360 से अधिक घाट:-
सरयू नदी को इसके ऊपरी हिस्से में काली नदी के नाम से जाना जाता है, जब यह उत्तराखंड में बहती है। मैदान में उतरने के पश्चात् इसमें करनाली या घाघरा नदी आकर मिलती है और इसका नाम सरयू हो जाता है। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्रों में इसे शारदा भी कहा जाता है।ज्यादातर ब्रिटिश मानचित्रकार इसे पूरे मार्ग पर्यंत घाघरा या गोगरा के नाम से प्रदर्शित करते रहे हैं किन्तु परम्परा में और स्थानीय लोगों द्वारा इसे सरयू (या सरजू) कहा जाता है। इसके अन्य नाम देविका, रामप्रिया इत्यादि हैं। यह नदी बिहार के आरा और छपरा के पास गंगा में मिल जाती है। हमने एक सर्वेक्षण में अनुमान लगाया है कि अप और डाउन सब मिलाकर अयोध्या में 360 से अधिक घाट हैं। नदी के किनारे मात्र अयोध्या नगर में 14 प्रमुख घाट हैं। इनमें गुप्तद्वार घाट, कैकेयी घाट, कौशल्या घाट, पापमोचन घाट, लक्ष्मण घाट या सहस्रधारा घाट, ऋणमोचन घाट, शिवाला घाट, जटाई घाट, अहिल्याबाई घाट, धौरहरा घाट, नया घाट और जानकी घाट आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इनका वर्णन स्कंद पुराण के 22वें अध्याय में किया गया है।





Sunday, February 20, 2022

परीक्षित का अनशन ब्रत व शुकदेवजी का आगमन ( प्रसंग50) श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, एकोनविंशो अध्यायः

परीक्षित का अनशन ब्रत व शुकदेवजी का आगमन                ( प्रसंग50) 
श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, एकोनविंशो अध्यायः
डा. राधे श्याम द्विवेदी
                   🌷जय श्री कृष्ण जय श्री राधे। 🌷
        मेरे प्रिय मित्रों! जय श्री कृष्ण,जय श्री राधे। जय श्री परम वन्दनीय अकारण करूणा वरूनालय भक्तवान्छा कल्पतरू श्री कृष्णचन्द्र जी के चरणों में बरम्बार प्रणाम है। आप सभी सौभाग्य शाली  मित्रों को भी मेरा सादर प्रणाम है । आप सभी पर परमात्मा की अत्यन्त कृपा है कि आप परमात्मा की रसोमय लीला का रसास्वादन कर पा रहे हैं I  
भगवान श्रीकृष्ण के अवतार समाप्ति के बाद पृथ्वीपर कलियुग आरम्भ हो गया । जब कलियुग ने अभिमन्यु पुत्र परीक्षित के राज्य में प्रवेश किया तब परीक्षित कलियुग को मारने के लिए तैयार हो गये । राजा को हाथमे तलवार लिए देख , कलियुग परीक्षित की शरण मे आगया और कुछ सीमित स्थानों में रहने के लिए अनुमति मांगी । राजा परीक्षित शरण मे आये हुए की सदा रक्षा करते थे इसलिए उनोहनें कलियुग को द्यूत, मद्यपान, स्त्री-संग , हिंसा और सुवर्ण में रहने की अनुमति दी है। 
एक दिन राजा शिकार करते हुए जंगल मे बहुत दूर चले गए । थकान के कारण उन्हें भूख और प्यास लग गयी । जंगल मे बहुत ढूंढने पर भी राजा को कहीं भी जल नही मिला तब राजा ने पास ही में ऋषि एक आश्रम में चले गए । जब राजा आश्रम में गए तब ऋषि ध्यान में थे इसीलिए राजा का आदर सत्कार नही कर पाए और राजा की प्यास भी नही बुझा सके । राजा ने इसे अपना अपमान समझा और एक मारे हुए सांप को ऋषि के गले मे डाल दिया और वहां से चले गए । राजा का यह व्यवहार कलियुग के प्रभाव से हुआ था जो राजा के स्वर्ण मुकुट में बस गया था । पूर्व में राजा ने कलियुग को सीमित स्थानों में रहने की अनुमति दी थी । स्वर्ण भी उन स्थानों में से एक था ।
राजधानीमें पहुँचनेपर राजा परीक्षित्को अपने उस निन्दनीय कर्मके लिये बड़ा पश्चात्ताप हुआ । वे अत्यन्त उदास हो गये और सोचने लगे-‘मैंने निरपराध एवं अपना तेज छिपाये हुए ब्राह्मणके साथ अनार्य पुरुषोंके समान बड़ा नीच व्यवहार किया , यह बड़े खेदकी बात है । अवश्य ही उन महात्माके अपमानके फलस्वरूप शीघ्र-से शीघ्र मुझपर कोई घोर विपत्ति आवेगी । मैं भी ऐसा ही चाहता हूँ ,क्योंकि उससे मेरे पाप का प्रायश्चित्त हो जायगा और फिर कभी मैं ऐसा काम करनेका दुःसाहस नहीं करूँगा । ब्राह्मणोंकी क्रोधाग्नि आज ही मेरे राज्य, सेना और भरे-पूरे खजाने को जलाकर खाक कर दे। जिससे फिर कभी मुझ दुष्टकी ब्राह्मण, देवता और गौओं के प्रति ऐसी पापबुद्धि न हो ।
राजा इस प्रकार चिन्ता कर ही रहे थे कि उन्हें मालूम हुआ। ऋषिकुमार के शापसे तक्षक मुझे डसेगा। उन्हें वह धधकती हुई आग के समान तक्षक का डसना बहुत भला मालूम हुआ। उन्होंने सोचा कि बहुत दिनों से मैं संसारमें आसक्त हो रहा था। अब मुझे शीघ्र वैराग्य होनेका कारण प्राप्त हो गया । वे इस लोक और परलोक के भोगों को तो पहलेसे ही तुच्छ और त्याज्य समझते थे। अब उनका स्वरूपत: त्याग करके भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमलों की सेवाको ही सर्वोपरि मानकर आमरण अनशनव्रत लेकर वे गंगातट पर बैठ गये ।
 गंगाजीका जल भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलों का वह पराग लेकर प्रवाहित होता है, जो श्रीमती तुलसी की गन्धसे मिश्रित है। यही कारण है कि वे लोकपालों के सहित ऊपर-नीचेके समस्त लोकों को पवित्र करती हैं। कौन ऐसा मरणासन्न पुरुष होगा, जो उनका सेवन न करेगा । इस प्रकार गंगाजीके तटपर आमरण अनशनका निश्चय करके उन्होंने समस्त आसक्तियों का परित्याग कर दिया और वे मुनियोंका व्रत स्वीकार करके अनन्यभाव से श्रीकृष्ण के चरण कमलों का ध्यान करने लगे । उस समय त्रिलोकी को पवित्र करने वाले बड़े-बड़े महानुभाव ऋषि-मुनि अपने शिष्यों के साथ वहाँ पधारे । इस प्रकार विभिन्न गोत्रों के मुख्य-मुख्य ऋषियों को एकत्र देखकर राजा ने सबका यथायोग्य सत्कार किया और उनके चरणों पर सिर रखकर वन्दना की ।
जब सब लोग आरामसे अपने-अपने आसनो पर बैठ गये, तब महाराज परीक्षित् ने उन्हें फिरसे प्रणाम किया और उनके सामने खड़े होकर शुद्ध हृदयसे अंजलि बाँधकर वे जो कुछ करना चाहते थे, उसे सुनाने लगे ।
राजा परीक्षित्ने कहा-अहो! समस्त राजाओं में हम धन्य हैं ,धन्यतम हैं । क्योंकि अपने शील स्वभावके कारण हम आप महापुरुषों के कृपापात्र बन गये हैं । राजवंश के लोग प्रायः निन्दित कर्म करने के कारण ब्राह्मणोंके चरण-धोवनसे दूर पड़ जाते हैं । यह कितने खेद की बात है, मैं भी राजा ही हूँ । निरन्तर देह-गेहमें आसक्त रहनेके कारण मैं भी पापरूप ही हो गया हूँ । इसीसे स्वयं भगवान ही ब्राह्मण के शाप के रूप में मुझ पर कृपा करने के लिये पधारे हैं । यह शाप वैराग्य उत्पन्न करने वाला है । क्योंकि इस प्रकारके शापसे संसारासक्त पुरुष भयभीत होकर विरक्त हो जाया करते हैं ।
ब्राह्मणो! अब मैंने अपने चित्त को भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया है। आपलोग और माँ गंगाजी शरणागत जानकर मुझपर अनुग्रह करें, ब्राह्मणकुमार के शापसे प्रेरित कोई दूसरा कपट से तक्षक का रूप धरकर मुझे डस ले अथवा स्वयं तक्षक आकर डस ले ,इसकी मुझे तनिक भी परवा नहीं है । आपलोग कृपा करके भगवान की रसमयी लीलाओंका गायन करें ।
मैं आप ब्राह्मणों के चरणों में प्रणाम करके पुन: यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे कर्मवश चाहे जिस योनि में जन्म लेना पड़े, भगवान् श्रीकृष्णके चरणों में मेरा अनुराग हो । उनके चरणाश्रित महात्माओं से विशेष प्रीति हो और जगत्के समस्त प्राणियों के प्रति मेरी एक-सी मैत्री रहे ,ऐसा आप आशीर्वाद दीजिये ।
महाराज परीक्षित ऐसा दृढ़ निश्चय करके गंगाजीके दक्षिण तटपर उत्तरमुख होकर बैठ गये। राज-काजका भार तो उन्होंने पहले ही अपने पुत्र जनमेजयको सौंप दिया था ।
राजा के ऐसे वचन सुनकर सारे देवता आकाश से परिक्षितपर फूल बरसाने लगे । वहां पर आए सभी ऋषियों ने भी महाराज परीक्षित की प्रशंसा की और कहा , महाराज भगवान श्रीकृष्ण के सेवक आप पांडव वंशियों के लिए ए कोई बड़ी बात नही है । महाराज जबतक अब आप अपना शरीर त्यागकर भगवान के धाम में नही चले जाते । 
ऋषियों की बाते सुनकर राजा परीक्षित ने सभी का अभिनंदन किया और भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं को सुनाने की प्रार्थना की । वहां उपस्थित ऋषियों से राजा परीक्षित ने कहा ,विप्रवरो! आपलोगों पर पूर्ण विश्वास करके मैं अपने कर्तव्यके सम्बन्ध में यह पूछने योग्य प्रश्न करता हूँ । आप सभी विद्वान् परस्पर विचार करके बतलाइये कि सबके लिये सब अवस्थाओंमें और विशेष करके थोड़े ही समयमें मरने वाले पुरुष के लिये अन्तःकरण और शरीर से करने योग्य विशुद्ध कर्म कौन-सा है ।
उसी समय पृथ्वीपर स्वेच्छासे विचरण करते हुए, किसी की कोई अपेक्षा न रखने वाले व्यास नंदन भगवान् श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ प्रकट हो गये। वे वर्ण अथवा आश्रमके बाह्य चिह्नोंसे रहित एवं आत्मानुभूतिमें सन्तुष्ट थे। बच्चों और स्त्रियोंने उेने घेर रखा था । उनका वेष अवधूतका था । 
राजा परीक्षित् ने अतिथि रूपसे पधारे हुए श्रीशुकदेवजी को सिर झुकाकर प्रणाम किया और उनकी पूजा की । उनके स्वरूप को न जानने वाले बच्चे और स्त्रियाँ उनकी यह महिमा देखकर वहाँसे लौट गये; सबके द्वारा सम्मानित होकर श्रीशुकदेवजी श्रेष्ठ आसनपर विराजमान हुए ।
जब प्रखरबुद्धि श्रीशुकदेवजी शान्त भावसे बैठ गये, तब भगवान् के परम भक्त परीक्षित् ने उनके समीप आकर और चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया। फिर खड़े होकर हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उसके पश्चात् बड़ी मधुर वाणीसे उनसे यह पूछा 
प्रभु अवश्य ही पाण्डवों के सुहृद् भगवान् श्रीकृष्ण मुझपर अत्यन्त प्रसन्न हैं । भगवान् श्रीकृष्णकी कृपा न होती तो आप- सरीखे एकान्त वनवासी अव्यक्तगति परम सिद्ध पुरुष स्वयं पधार कर इस मृत्युके समय हम-जैसे प्राकृत मनुष्यों को क्यों दर्शन देते आप योगियों के परम गुरु हैं, इसलिये मैं आपसे परम सिद्धि के स्वरूप और साधन के सम्बन्धमें प्रश्न कर रहा हूँ । जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है, उसको क्या करना चाहिये ।
भगवन्! साथ ही यह भी बतलाइये कि ,मनुष्य मात्र को क्या करना चाहिये। वे किसका श्रवण , किसका जप, किसका स्मरण और किसका भजन करें तथा किसका त्याग करें ।
परीक्षित का प्रश्न सुनकर शुकदेव जी कहनें लगे , परिक्षीत जो मनुष्य अभय पद को प्राप्त करना चाहता हो उसे तो भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण ही करना चाहिए । श्रीकृष्ण की लीलाओं से भरे इस श्रीमद भागवत नाम के पुराण को मैंने अपने पिता के मुख से सुना था । उसे ही मैं अब तुम्हें सुनता हूं । परीक्षित , जब राजर्षि खट्वांग अपनी आयु की केवल दो घड़ी शेष देखकर सबकुछ त्यागकर भगवान के अभय पद को प्राप्त हो गए थे । तुमरे पास तो सात दिन है उसमें तुम अपने कल्याण के लिए जो चाहिए ओ कर सकते हो । इतना कहकर शुकदेव जी ने परिक्षितको भागवत पुराण सुनाया जिसके श्रवण से राजा मुक्त होगये । इस तरह श्रृंगी ऋषि के शाप के बाद राजा परीक्षित ने भागवत पुराण श्रवण करके मोक्ष प्राप्त किया था ।

                 🌷 ।।इति एकोनविंशो अध्यायः।। 🌷
                  🌹✳ इति प्रथम स्कन्ध सम्पूर्णम् ✳🌷

Saturday, February 19, 2022

राजा परीक्षित को श्रृंगी ऋषि का श्राप ( प्रसंग 49) श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, अष्टदशो अध्याय

राजा परीक्षित को श्रृंगी ऋषि का श्राप ( प्रसंग 49) 
श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, अष्टदशो अध्याय
डा. राधे श्याम द्विवेदी
                   🌷जय श्री कृष्ण जय श्री राधे। 🌷
        मेरे प्रिय मित्रों! जय श्री कृष्ण,जय श्री राधे। जय श्री परम वन्दनीय अकारण करूणा वरूनालय भक्तवान्छा कल्पतरू श्री कृष्ण चन्द्र जी के चरणों में बरम्बार प्रणाम है। आप सभी सौभाग्य शाली  मित्रों को भी मेरा सादर प्रणाम है । आप सभी पर परमात्मा की अत्यन्त कृपा है कि आप परमात्मा की रसोमय लीला का रसास्वादन कर पा रहे हैं I द्वापर युग के अंत में भगवान श्री कृष्ण ने पृथ्वी पर अवतार धारण करके अधर्मी राजाओं के भार से पृथ्वी को मुक्त किया था  । जब भगवान श्रीकृष्ण  अपना अवतार कार्य समाप्त करके अपने धाम को चले गए तब पाडवो ने भी अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राज सिंहासन पर बैठा दिया और स्वयं हिमायल को चले गए । राजा परीक्षित ने अपने राज्य में आने पर कलियुग का दमन किया । राजा परीक्षित के काल मे कलियुग का प्रभाव बहुत ही सीमित था । शरण मे आने पर राजा परीक्षित ने कलियुग को कुछ ही स्थानों में रहने की अनुमति दी थी ओ स्थान थे ,द्यूत, मद्यपान, स्त्री-संग , हिंसा और सुवर्ण ।
जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्णने पृथ्वीका परित्याग किया, उसी समय पृथ्वीमें अधर्म का मूल कारण कलियुग आ गया था । भ्रमर के समान सारग्राही ,सम्राट् परीक्षित् कलियुगसे कोई द्वेष नहीं रखते थे । क्योंकि इसमें यह एक बहुत बड़ा गुण है कि पुण्यकर्म तो संकल्पमात्र से ही फलीभूत हो जाते हैं, परन्तु पापकर्म का फल शरीर से करने पर ही मिलता है,संकल्पमात्र से नहीं । यह भेड़िये के समान ,बालकों के प्रति शूरवीर और धीर वीर पुरुषों के लिये बड़ा भीरु है । यह प्रमादी मनुष्यों को अपने वशमें करनेके लिये ही सदा सावधान रहता है । 

 राजा परीक्षित के राज्य में कलियुग ने प्रवेश कर लिया था तब राजा परीक्षित ने कलियुग को अपने राज्य से निकालने के लिए दिग्विजय करने का निश्चय कर दिग्विजय करने के लिए चल पडे थे । एक दिन राजा परीक्षित् धनुष लेकर वनमें शिकार खेलने गये हुए थे। हरिणों के पीछे दौड़ते दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोर की भूख और प्यास लगी । जब कहीं उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तब वे पासके ही एक ऋषि के आश्रम में घुस गये उन्होंने देखा कि वहाँ आँखें बंद करके शान्त भावसे एक मुनि आसन पर बैठे हुए हैं ।  इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि के निरुद्ध हो जाने से वे संसार से ऊपर उठ गये थे । जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं से रहित निर्विकार ब्रह्मरूप तुरीय पदमें वे स्थित थे । उनका शरीर बिखरी हुई जटाओंसे और कृष्ण मृगचर्म से ढका हुआ था । राजा परीक्षित् ने ऐसी ही अवस्थामें उनसे जल माँगा, क्योंकि प्यास से उनका गला सूखा जा रहा था ।  जब राजा को वहाँ बैठने के लिये तिनके का आसन भी न मिला, किसी ने उन्हें भूमिपर भी बैठने को न कहा-अर्घ्य और आदर भरी मीठी बातें तो कहाँसे मिलती-तब अपने को अपमानित-सा मानकर वे क्रोध के वश हो गये ।

राजा परीक्षित भूख-प्यास से छटपटा रहे थे, इसलिये एकाएक उन्हें ब्राह्मणके प्रति ईर्ष्या और  क्रोध हो आया । उनके जीवन में इस प्रकार का यह पहला ही अवसर था , वहाँ से लौटते समय उन्होंने क्रोधवश धनुषकी नोकसे एक मरा साँप  उठाकर ऋषिके गले में डाल दिया और अपनी राजधानी में चले आये ।  उनके मनमें यह बात आयी कि इन्होंने जो अपने नेत्र बंद कर रखे हैं, सो क्या वास्तवमें इन्होंने अपनी सारी इन्द्रियवृत्तियोंका निरोध कर लिया है अथवा इन राजाओंसे हमारा क्या प्रयोजन है, यों सोचकर इन्होंने झूठ-मूठ समाधि का ढोंग रच रखा है । राजा ने पूर्व समयमे कलियुग को सुवर्ण में रहने के लिए स्थान दिया था । राजा ने अपने सरपर सुवर्ण का मुखोटा पहन रखा था इसलिये कुछ समय के लिए कलियुग ने उनकी बुद्धिपर अपना प्रभाव बना लिया था ।

उन शमीक मुनि का पुत्र बड़ा तेजस्वी था । वह दूसरे ऋषिकुमारों के साथ पास ही खेल रहा था । जब उस बालक ने सुना कि राजा ने मेरे पिताके साथ दुर्व्यवहार किया है, तब वह इस प्रकार कहने लगा ।  ‘ये नरपति कहलाने वाले लोग उच्छिष्ट भोजी कौओं के समान संड-मुसंड होकर कितना अन्याय करने लगे हैं । ब्राह्मणों के दास होकर भी ये दरवाजे पर पहरा देने वाले कुत्तेके समान अपने स्वामी का ही तिरस्कार करते हैं ।

 ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को अपना द्वारपाल बनाया है। उन्हें द्वार पर रहकर रक्षा करनी चाहिये, घर में घुसकर स्वामीके बर्तनों में खाने का उसे अधिकार नहीं है । अतएव उन्मार्गगामियों के शासक भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम पधार जाने पर इन मर्यादा तोड़नेवालों को आज मैं दण्ड देता हूँ , मेरा तपोबल देखो’ ।  अपने साथी बालकोंसे इस प्रकार कहकर क्रोध से लाल-लाल आँखों वाले उस ऋषिकुमार ने कौशिकी नदीके जलसे आचमन करके अपने वाणी-रूपी वज्रका प्रयोग किया । ‘कुलांगार परीक्षित् ने मेरे पिताका अपमान करके मर्यादा का उल्लंघन किया है, इसलिये मेरी प्रेरणासे आज के सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा ।

इसके बाद वह बालक अपने आश्रमपर आया और अपने पिताके गले में साँप देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा ।   शमीक मुनि ने अपने पुत्र का रोना चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोली और देखा कि उनके गले में एक मरा साँप पड़ा है । अपने गले मे पड़े उस मारे हुए सांप को फेंककर, उन्होंने अपने पुत्रसे पूछा-‘बेटा! तुम क्यों रो रहे हो? किसने तुम्हारा अपकार किया है ?’ उनके इस प्रकार पूछने पर बालक ने सारा हाल कह दिया । 

 ब्रह्मर्षि शमीक ने राजा के शाप की बात सुनकर अपने पुत्र का अभिनन्दन नहीं किया। उनकी दृष्टिमें परीक्षित् शापके योग्य नहीं थे ,उन्होंने कहा- ‘ओह, मूर्ख बालक! तूने बड़ा पाप किया! खेद है कि उनकी थोड़ी-सी गलती के लिये तूने उनको इतना बड़ा दण्ड दिया । तेरी बुद्धि अभी कच्ची है ।  तुझे भगवत् स्वरूप राजा को साधारण मनुष्यों के समान नहीं समझना चाहिये , क्योंकि राजा के दुस्सह तेजसे सुरक्षित और निर्भय रहकर ही प्रजा अपना कल्याण सम्पादन करती है ।

जिस समय राजा का रूप धारण करके भगवान् पृथ्वी पर नहीं दिखायी देंगे, उस समय चोर बढ़ जायेंगे और अरक्षित भेड़ों के समान एक क्षणमें ही लोगों का नाश हो जायगा ।  राजा के नष्ट हो जाने पर धन आदि चुराने वाले चोर जो पाप करेंगे, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध न होनेपर भी वह हमपर भी लागू होगा । क्योंकि राजा के न रहने पर लुटेरे बढ़ जाते हैं और वे आपस में मार-पीट, गाली-गलौज करते हैं, साथ ही पशु, स्त्री और धन-सम्पत्ति भी लूट लेते हैं । 

उस समय मनुष्यों का वर्णाश्रमाचार युक्त वैदिक आर्यधर्म लुप्त हो जाता है, अर्थ-लोभ और काम-वासना के विवश होकर लोग कुत्तों और बंदरों के समान वर्णसंकर हो जाते हैं । सम्राट परीक्षित् तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर हैं । उन्होंने बहुत-से अश्वमेध यज्ञ किये हैं और वे भगवान के  परम प्यारे भक्त हैं ,वे ही राजर्षि भूख प्यास से व्याकुल होकर हमारे आश्रम पर आये थे, वे शापके योग्य कदापि नहीं हैं ।

ऋषि शमीक ने भगवान से प्रार्थना की , इस नासमझ बालक ने हमारे निष्पाप सेवक राजा का अपराध किया है, सर्वात्मा भगवान कृपा करके इसे क्षमा करें ।  भगवान के भक्त में भी बदला लेने की शक्ति होती है, परंतु वे दूसरे द्वारा किये हुए अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौज, आक्षेप और मार-पीट का कोई बदला नहीं लेते । महामुनि शमीक को पुत्र के अपराध पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ । राजा परीक्षित् ने जो उनका अपमान किया था, उसपर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया । महात्माओंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि जगत् में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दुःखादि द्वन्द्वों में डाल देते हैं, तब भी वे प्रायः हर्षित या व्यथित नहीं होते; क्योंकि आत्मा का स्वरूप तो गुणों से सर्वथा परे है ।
इस तरह शमीक ऋषि के पुत्र श्रृंगी ऋषि ने राजा परीक्षित को शाप दिया था ।शमीक ऋषि अब अपने पुत्र के कृत्य पर पश्चाताप कर रहे हैं।        
                       ।।इतिअष्टदशोsअध्याय:।। 


महाराज परीक्षित द्वारा कलियुग का दमन (प्रसंग 48) श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, सप्तदशो अध्याय

 महाराज परीक्षित द्वारा कलियुग का दमन (प्रसंग 48) 
श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, सप्तदशो अध्याय
डा. राधे श्याम द्विवेदी
                   🌷जय श्री कृष्ण जय श्री राधे। 🌷
        मेरे प्रिय मित्रों! जय श्री कृष्ण,जय श्री राधे। जय श्री परम वन्दनीय अकारण करूणा वरूनालय भक्तवान्छा कल्पतरू श्री कृष्ण चन्द्र जी के चरणों में बरम्बार प्रणाम है। आप सभी सौभाग्य शाली  मित्रों को भी मेरा सादर प्रणाम है । आप सभी पर परमात्मा की अत्यन्त कृपा है कि आप परमात्मा की रसोमय लीला का रसास्वादन कर पा रहे हैं I पिछले अध्याय में राजा परीक्षित के राज्य में कलियुग ने प्रवेश करने और धर्म व पृथ्वी संवाद का प्रसंग पढ़ा है। इस अध्याय में महाराज परीक्षित द्वारा कलियुग का दमन का वृतांत है। 
पांडवों के शरीर त्यागने के बाद अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित राजा हुए । परीक्षित बहुत ही धर्मात्मा और प्रजा स्नेही थे । वे सदा ही ब्राह्मणो की सलाह के अनुसार राज्य का कार्यभार चलाते । एक समय उनको सूचना मिली कि उनके राज्य में कलियुग ने प्रवेश कर लिया है । तब राजा परीक्षित ने कलियुग को अपने राज्य से निकलने के लिए दिग्विजय करने का निश्चय किया । अपनी सेना को साथ लेकर राजा परीक्षित उसी समय दिग्विजय करने के लिए चल पडे ।
राजा ने बहुत से राजाओं को परास्त करके उनको अपने अधीन कर लिया । एक दिन राजा ने अपने शिविर के समीप दराजा परीक्षित् ने देखा कि एक राजवेषधारी शूद्र हाथ में डंडा लिये हुए है और गाय-बैलके एक जोड़े को इस तरह पीटता जा रहा है, जैसे उनका कोई स्वामी ही न हो ।
वह श्वेत रंगका बैल एक पैर से खड़ा काँप रहा था तथा शूद्र की ताड़ना से पीड़ित और भयभीत होकर मूत्र-त्याग कर रहा था । धर्मोपयोगी दूध, घी आदि हविष्य पदार्थों को देने वाली वह गाय भी बार-बार शूद्रके पैरों की ठोकरें खाकर अत्यन्त दीन हो रही थी । एक तो वह स्वयं ही दुबली-पतली थी, दूसरे उसका बछड़ा भी उसके पास नहीं था। उसे भूख लगी हुई थी और उसकी आँखोंसे आँसू बहते जा रहे थे । 
 स्वर्ण जटित रथ पर चढ़े हुए राजा परीक्षित् ने अपना धनुष चढ़ाकर  मेघ के समान गम्भीर वाणी से उस राजवेषधारी पुरुष को ललकारा ।  अरे! तू कौन है, जो बलवान् होकर भी मेरे राज्य के इन दुर्बल प्राणियों को बलपूर्वक मार रहा है? तूने नट की भाँति वेष तो राजा का-सा बना रखा है, परन्तु कर्म से तू शूद्र जान पड़ता है । हमारे दादा अर्जुन के साथ भगवान् श्रीकृष्ण के परमधाम पधार जाने पर इस प्रकार निर्जन स्थान में निरपराधों पर प्रहार करने वाला तू अपराधी है, अतः वधके योग्य है ।
राजा परीक्षित ने धर्म से पूछा ,कमल नाल के समान आप का श्वेतवर्ण है । तीन पैर न होने पर भी आप एक ही पैर से चलते-फिरते हैं । यह देखकर मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। बतलाइये, आप क्या बैल के रूप में कोई देवता हैं? अभी यह भूमण्डल कुरुवंशी नरपतियों के बाहुबल से सुरक्षित है। इसमें आपके सिवा और किसी भी प्राणी की आँखों से शोक के आँसू बहते मैंने नहीं देखे ।
 अब आप शाक ने करें। इस शुद्र से भयभीत होने की आवश्यकता नही है ।  गोमाता! मैं दुष्टों को दण्ड देने वाला हूँ ,अब आप रोयें नहीं । आपका कल्याण हो । देवि। जिस राजा के राज्य में दुष्ठों के उपद्रवसे सारी प्रजा त्रस्त रहती है । उस मतवाले राजा की कीर्ति,  आयु, ऐश्वर्य और परलोक नष्ट हो जाते हैं ।
राजाओं का परम धर्म यही है कि वे दुखियों का दुःख दूर करें । यह महादुष्ट और प्राणियों को पीड़ित करने वाला है। अतः मैं अभी इसे मार डालूँगा ।  सुरभिनन्दन! आप तो चार पैर वाले जीव है। आपके तीन पैर किसने काट डाले? श्रीकृष्णा के अनुयायी राजाओं के राज्य में कभी कोई भी आप की तरह दुःखी न हो ।
वृषभ! आपका कल्याण हो। बताइये, आप जैसे निरपराध साधुओं का अंग-भंग करके किस दुष्ट ने पाण्डवों की कीर्ति में कलंक लगाया है । जो किसी निरपराध प्राणी को सताता है, उसे चाहे वह कहीं भी रहे, मेरा भय अवश्य होगा । दुष्टों का दमन करने से साधुओं का कल्याण ही होता है । जो उद्दण्ड व्यक्ति निरपराध प्राणियों को दुःख देता है, वह चाहे साक्षात् देवता ही क्यों न हो, मैं उसकी बाजूबंद से विभूषित भुजा को काट डालूँगा । बिन आपत्ति काल के मर्यादा का उल्लंघन करने वालों को शास्त्रानुसार दण्ड देते हुए अपने धर्में में स्थित लोगों का पालन करना राजाओं का परम धर्म है ।
बैल के रूप में स्थित धर्म ने कहा-राजन्! आप महाराज पाण्डुके वंशज हैं। आप का इस प्रकार दुःखियोंको आश्वासन देना आप के योग्य ही है; क्योंकि आपके पूर्वजोंके श्रेष्ठ गुणोंने भगवान् श्रीकृष्ण को उनका सारथि और दूत आदि बना दिया था । हे नरेन्द्र ! शास्त्र के विभिन्न वचनों से मोहित होने के कारण हम उस पुरुष को नहीं जानते, जिससे क्लेशों के कारण उत्पन्न होते हैं ।
जो लोग किसी भी प्रकार के द्वैत को स्वीकार नहीं करते, वे अपने-आप को ही अपने दुःखका कारण बतलाते हैं। कोई प्रारब्ध को कारण बतलाते हैं, तो कोई कर्म को। कुछ लोग स्वभाव को, तो कुछ लोग ईश्वर को दुःखका कारण मानते हैं ।  किन्हीं- किन्हीं का ऐसा भी निश्चय है कि दुःख का कारण न तो तर्क के द्वारा जाना जा सकता है और न वाणीके द्वारा बतलाया जा सकता है। राजर्षे! अब इनमें कौन-सा मत ठीक है, यह आप अपनी बुद्धि से ही विचार लीजिये ।
 धर्म का यह प्रवचन सुनकर सम्राट् परीक्षित् बहुत प्रसन्न हुए, उनका खेद मिट गया। उन्होंने शान्त चित्त होकर धर्म से कहा । 
परीक्षित् ने कहा-धर्मका तत्त्व जानने वाले वृषभदेव! आप धर्म का उपदेश कर रहे हैं। अवश्य ही आप वृषभ के रूपमें स्वयं धर्म हैं। आपने अपने को दुःख देने वाले का नाम इसलिये नहीं बताया है क्यों कि , अधर्म करने वाले को जो नरकादि प्राप्त होते हैं, वे ही चुगली करने वाले को भी मिलते हैं । धर्मदेव! सत्ययुग में आपके चार चरण थे-तप, पवित्रता, दया और सत्य। इस समय अधर्म के अंश गर्व, आसक्ति और मद से तीन चरण नष्ट हो चुके हैं । 
 अब आपका चौथा चरण केवल ‘सत्य’ ही बच रहा है। उसी के बलपर आप जी रहे हैं। असत्य से पुष्ट हुआ यह अधर्म रूप कलियुग उसे भी ग्रास कर लेना चाहता है । ये गौ माता साक्षात् पृथ्वी हैं। भगवान ने इनका भारी बोझ उतार दिया था और ये उनके राशि राशि सौन्दर्य बिखेरने वाले चरण चिह्नों से सर्वत्र उत्सव मयी हो गयी थीं अब ये उनसे बिछुड़ गयी हैं । वे साध्वी अभागिनी के समान नेत्रों में जल भरकर यह चिन्ता कर रही हैं कि अब राजा का स्वांग बनाकर ब्राह्मण द्रोही शूद्र मुझे भोगेंगे ।
महारथी परीक्षित् ने इस प्रकार धर्म और पृथ्वी को सान्त्वना दी। फिर उन्होंने अधर्म के कारण रूप कलियुग को मारने के लिये तीक्ष्ण तलवार उठायी । कलियुग डर गया कि ये तो अब मुझे मार ही डालना चाहते हैं ।अत: झटपट उसने अपने राज वस्त्र उतार डाले और भय विह्नल होकर उनके चरणों में अपना सिर रख दिया ।

परीक्षित् बड़े यशस्वी, दीनवत्सल और शरणागत रक्षक थे। उन्होंने जब कलियुग को अपने पैरों पर पड़े देखा तो कृपा करके उसको मारा नहीं । अपितु हँसते हुए, उससे कहा  ,परीक्षित् बोले-जब तू हाथ जोड़ कर शरण आ गया, तब अर्जुन के यशस्वी वंशमें उत्पन्न हुए किसी भी वीर से तुझे कोई भय नहीं है । परन्तु तू अधर्म का सहायक है, इसलिये तुझे मेरे राज्यमें बिलकुल नहीं रहना चाहिये । तेरे राजाओं के शरीर में रहने से ही लोभ, झूठ, चोरी, दुष्टता, स्वधर्म त्याग, दरिद्रता, कपट, कलह, दम्भ और दूसरे पापों की बढ़ती हो रही है । अतः अधर्मके साथी! इस ब्रह्मावर्त में तू एक क्षण के लिये भी न ठहरना; क्योंकि यह धर्म और सत्य का निवास स्थान है । इस क्षेत्रमें यज्ञविधि के जानने वाले महात्मा यज्ञों के द्वारा यज्ञपुरुष भगवान की आराधना करते रहते हैं ।
इस देशमें भगवान् श्रीहरि यज्ञोंके रूप में निवास करते हैं, यज्ञोंके द्वारा उनकी पूजा होती है और वे यज्ञ करनेवालों का कल्याण करते हैं । वे सर्वात्म भगवान् वायुकी भाँति समस्त चराचर जीवोंके भीतर और बाहर एकरस स्थित रहते हुए उनकी कामनाओंको पूर्ण करते रहते हैं ।
परीक्षित् की यह आज्ञा सुनकर कलियुग घबरा गया । यमराज के समान मारनेके लिये उद्यत, हाथमें तलवार लिये हुए परीक्षित् से वह बोला । कलि ने कहा-सार्वभौम! आप की आज्ञा से जहाँ कहीं भी मैं रहने का विचार करता हूँ, वहीं देखता हूँ कि आप धनुष पर बाण चढ़ाये खड़े हैं । धार्मिक शिरोमणे! आप मुझे वह स्थान बतलाइये, जहाँ मैं आपकी आज्ञा का पालन करता हुआ स्थिर होकर रह सकूँ ।
कलियुग की प्रार्थना स्वीकार करके राजा परीक्षित् ने उसे चार स्थान दिये-द्यूत, मद्यपान, स्त्री-संग और हिंसा। इन स्थानों में क्रमश: असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयता-ये चार प्रकारके अधर्म निवास करते हैं । कलियुग ने  और भी स्थान माँगे । तब समर्थ परीक्षत् ने उसे रहनेके लिये एक और स्थान-सुवर्ण’ (धन) दिया । इस प्रकार कलियुग के पाँच स्थान हो गये झूठ, मद, काम, वैर और रजोगुण ।
परीक्षित् के दिये हुए इन्हीं पाँच स्थानों में अधर्म का मूल कारण कलि उनकी आज्ञाओं का पालन करता हुआ निवास करने लगा  । इसलिये आत्म कल्याण कामी पुरुष को इन पाँचों स्थानों का सेवन कभी नहीं करना चाहिये । धार्मिक राजा, प्रजावर्ग के लौकिक नेता और गुरुओं को तो बड़ी सावधानी से इनका त्याग करना चाहिये ।
राजा परीक्षित् ने इसके बाद वृषभ रूप धर्म के तीनों चरण- तपस्या, शौच और दया जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वीका संवर्धन किया । इस तरह राजा परीक्षित ने कलियुग का दमन किया और अपने जीवन काल तक कलियुग के प्रभाव को सीमित रखा ।

                 ।। इति सप्तदशो अध्याय।। 

परीक्षित की दिग्विजय तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, ( षोडषोsध्याय)(प्रसंग 47)

परीक्षित की दिग्विजय तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद
श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, ( षोडषोsध्याय)(प्रसंग 47) 
डा. राधे श्याम द्विवेदी
       🌷जय श्री कृष्ण जय श्री राधे। 🌷
        मेरे प्रिय मित्रों! जय श्री कृष्ण,जय श्री राधे। जय श्री परम वन्दनीय अकारण करूणा वरूनालय भक्तवान्छा कल्पतरू श्री कृष्ण चन्द्र जी के चरणों में बरम्बार प्रणाम है। आप सभी सौभाग्य शाली  मित्रों को भी मेरा सादर प्रणाम है । आप सभी पर परमात्मा की अत्यन्त कृपा है कि आप परमात्मा की रसोमय लीला का रसास्वादन कर पा रहे हैं I पिछले अध्याय में अर्जुन का द्वारका से लौटने के बाद यदुवंश विनाश और पांडवों का स्वर्गारोहण का प्रसंग पढ़ा है। 
पांडवों के वंशज महाराज परीक्षित हस्तिनापुर साम्राज्य का शासन करने लगे थे। ब्राह्मणों की शिक्षा और सलाह के अनुसार परीक्षित अपना राज्य चलाया करते थे । उनके जन्म के समय ज्योतिषियों ने उनके बारे में जो कुछ भी कहा था वह सारे गुण उनमें परिलक्षित हो रहे थे ।
राजा परीक्षित ने अपने मामा उत्तर की पुत्री इरावती से विवाह किया । इरावती से परीक्षित ने जन्मेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न किए । कृपाचार्य को आचार्य बनाकर उन्होंने तीन अश्वमेध यज्ञ किये । इन यज्ञों के बाद राजा परीक्षित ने ब्राह्मणों में बहुत सारी दक्षिणा बाटी थी। इन सभी यज्ञोंमें देवताओं ने प्रत्यक्ष रूप में प्रकट होकर अपना अपना भाग ग्रहण किया था ।
एक समय की बात है राजा परीक्षित ने सुना कि उनके सेना के द्वारा ठीक से सुरक्षित साम्राज्य में कलियुग ने प्रवेश कर लिया है । कलियुग के अपने साम्राज्य में प्रवेश को सुनकर महाराज परीक्षित को बहुत दुख हुआ था। राजा ने यह सोच कर की युद्ध करने का अवसर मिला है इतना दुख नहीं किया । इसके बाद परीक्षित ने धनुष हाथ में लिया और घोड़ों से जुते हुए सिंह की ध्वजा वाले सुसज्जित रथ पर सवार होकर दिग्विजय करने के लिए नगर से बाहर निकल पड़े ।
उस समय रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सेना उनके साथ-साथ चल रही थी । उन्होंने भद्राश्व, केतुमाल, भारत, उत्तरकुरु और किम्पुरुष आदि सभी वर्षोंको जीतकर वहाँ कै राजाओं से भेंट ली । उन्हें उन देशोंमें सर्वत्र अपने पूर्वज महात्माओं का सुयश सुनने को मिला । उस यशोगान से पद-पद पर भगवान श्रीकृष्ण की महिमा प्रकट होती थी । इसके साथ ही उन्हें यह भी सुनने को मिलता था कि भगवान् श्रीकृष्णने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्रकी ज्वालासे किस प्रकार उनकी रक्षा की थी । 
यदुवंशी और पाण्डवों में परस्पर कितना प्रेम था तथा पाण्डवो की भगवान् श्रीकृष्ण में कितनी भक्ति थी । जो लोग उन्हें ये चरित्र सुनाते, उनपर महामना राजा परीक्षित् बहुत प्रसन्न होते ,उनके नेत्र प्रेम से खिल उठते। वे बड़ी उदारता से उन्हें बहुमूल्य वस्त्र और मणियों के हार उपहार रूप में देते । वे सुनते कि भगवान् श्रीकृष्णने प्रेम परवश होकर पाण्डवों के सारथि का काम किया, उनके सभासद् बने ,यहाँ तक कि उनके मन के अनुसार काम करके उनकी सेवा भी की । 
श्रीकृष्ण उनके सखा तो थे ही, दूत भी बने। वे रात को शस्त्र ग्रहण करके वीरासन से बैठ जाते और शिविर का पहरा देते, उनके पीछे-पीछे चलते, स्तुति करते तथा प्रणाम करते; इतना ही नहीं, अपने प्रेमी पाण्डवों के चरणों में उन्होंने सारे जगत को झुका दिया। तब परीक्षित् की भक्ति भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमलों में और भी बढ़ जाती । इस प्रकार राजा परीक्षित पाण्डवोंके आचरणका अनुसरण करते हुए दिग्विजय कर रहे थे।
 उन्हीं दिनों उनके शिविर से थोड़ी ही दूर पर एक आश्चर्यजनक घटना घटी । धर्म बैल का रूप धारण करके एक पैर से घूम रहा था। एक स्थान पर उसे गाय के रूप में पृथ्वी मिली । पुत्र के मत्यु से दुःखिनी माताके समान उसके नेत्रों से आँसु के झरने बह रहे थे। उसका शरीर श्री हीन हो गया था।
धर्म पृथ्वी से पूछने लगा ,तुम्हारा मुख कुछ-कुछ मलिन हो रहा है। तुम श्री हीन हो रही हो, मालूम होता है तुम्हारे हृदयमें कुछ न कुछ दुःख अवश्य है । क्या तुम्हारा कोई सम्बन्धी दूर देश में चला गया है, जिसके लिये तुम इतनी चिंता कर रही हो ? 
कहीं तुम मेरी तो चिन्ता नहीं कर रही हो कि अब इसके तीन पैर टूट गये, एक ही पैर रह गया है? सम्भव है, तुम अपने लिये शोक कर रही हो कि अब शुद्र तुम्हारे ऊपर शासन करेंगे । तुम्हें देवताओं के लिये भी खेद हो सकता है, जिन्हें अब यज्ञों में आहुति नहीं दी जाती, अथवा उस प्रजा के लिय भी, जो वर्षा न होने के कारण अकाल से पीड़ित हो रही है ।
देवि! क्या तुम राक्षस-सरीखे मनुष्यों के द्वारा सतायी हुई अरक्षित स्त्रियों एवं बालकों के लिये शोक कर रही हो? सम्भव हैं, विद्या अब कुकर्मी ब्राह्मणों के चंगुल में पड़ गयी है और ब्राह्मण विप्र द्रोही राजाओं की सेवा करने लगे हैं, और इसी का तुम्हे दुख हो ।
आज के नाम मात्र के राजा तो सोलहों आने कलियुगी हो गये हैं, उन्होंने बड़े-बड़े देशों को भी उजाड़ डाला है। क्या तुम उन राजाओं या देशों के लिये शोक कर रही हो । आज की जनता खान-पान वस्त्र, स्नान और स्त्री-सहवास आदि में शास्त्रीय नियमों का पालन न करके स्वेच्छाचार कर रही है। क्या इसके लिये तुम दुःखी हो? 
मां पृथ्वी अब मुझे समझ आ गया भगवान श्रीकृष्णने अवतार लेकर तुम्हारे ऊपर बोझ बने पाप रूपी राजाओं का अंत किया था । उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण के अब इस पृथ्वी को त्याग देने के कारण तुम शायद दुखी हो रही हो। देवी तुम जल्दी से अब मुझे अपने दुखों का कारण बतलाओ ।
एक पैर से खड़े हुए धर्मकी बातें सुनकर पृथ्वी देवी ने कहना आरंभ कर दिया , धर्मदेव आप तो अच्छी तरह से जानते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण अब अपनी लीलाओं को समाप्त करके अपने स्वधाम गोलोक को चले गए हैं । उनके चले जाने के बाद अब कलियुग ने पृथ्वी पर अपना अधिकार जमा लिया है ,इसी कारण से मैं दुखी हूं । अपने लिए, तुम्हारे लिए और उन महात्मा ऋषियों के लिए जो सदा ही धर्म में लगे रहते हैं उन सब के लिए दुखी हूँ । समस्त वर्णों के शुद्ध हृदय उन मनुष्यों के लिए दुखी हूं जो कलयुग के प्रभाव से कष्ट भोग रहे हैं ।
धर्म ,द्वापर के अंत में अनेक राक्षसों ने जन्म लेकर मुझे बहुत कष्ट पहुंचाया था । परंतु भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार धारण करके मेरे सारे कष्टों का अंत किया और मुझे उनके सानिध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ । लेकिन भगवान के जाने के बाद अब वह सौभाग्य भी चला गया है । तुम भी सतयुग में चार पैरों वाले थे किंतु अब कलीयुग के आते ही तुम्हारे तीन पैर चले गए हैं और केवल एक पैर वाले ही हो गए हो इसी कारण से मैं बहुत दुखी हूं ।
पृथ्वी और धर्म इस तरह बातें कर ही रहे थे कि अभिमन्यु पुत्र परीक्षित वहां पर आए और उन्होंने कलियुग को दंड दिया , दंड देकर पृथ्वी और धर्म की रक्षा की ।
इस तरह पांडुवंशी परीक्षित ने कलीयुग के प्रभाव से धर्म और पृथ्वी को अपने जीवन काल में बचाया था ।
                 ।। इति षोडशो अध्यायः।। 

यदुवंश विनाश और पांडवों का स्वर्गारोहणश्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, ( पंचदशोsध्याय)(प्रसंग 46)

यदुवंश विनाश और पांडवों का स्वर्गारोहण
श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, ( पंचदशोsध्याय)(प्रसंग 46) 
डा. राधे श्याम द्विवेदी
       🌷जय श्री कृष्ण जय श्री राधे। 🌷
        मेरे प्रिय सौभाग्य शाली मित्रों जय श्री कृष्ण,जय श्री राधे। जय श्री परम वन्दनीय अकारण करूणा वरूनालय भक्तवान्छा कल्पतरू श्री कृष्ण चन्द्र जी के चरणों में बरम्बार प्रणाम है। आप सभी सौभाग्य शाली  मित्रों को भी मेरा सादर प्रणाम है । आप सभी पर परमात्मा की अत्यन्त कृपा है कि आप परमात्मा की रसोमय लीला का रसास्वादन कर पा रहे हैं I पिछले अध्याय में अर्जुन का विलंब से द्वारका से वापसी होने पर युधिष्ठिर द्वारा प्रश्नो के बौछार से अर्जुन बड़ी मुश्किल से द्वारका की घटना का उल्लेख कर पा रहे हैं। इस अध्याय में अर्जुन का द्वारका से लौटने के बाद यदुवंश विनाश और पांडवों का स्वर्गारोहण का प्रसंग है। 
धर्मराज युधिष्ठिर के प्रश्नों की बौछार से अर्जुन और भी व्याकुल एवं शोकाकुल हो गये। उनका रंग फीका पड़ गया।नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। हिचकियाँ बँध गईं, रुँधे कण्ठ से उन्होंने कहा- "हे भ्राता! हमारे प्रियतम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने हमें ठग लिया। वे हमें त्याग कर इस लोक से चले गये। जिनकी कृपा से मेरे परम पराक्रम के सामने देवता भी सिर नहीं उठाते थे। मेरे उस परम पराक्रम को भी वे अपने साथ ले गये। प्राणहीन मुर्दे जैसी गति हो गई मेरी। मैं द्वारका से भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की पत्नियों को हस्तिनापुर ला रहा था, किन्तु मार्ग में थोड़े से भीलों ने मुझे एक निर्बल की भाँति परास्त कर दिया। मैं उन अबलाओं की रक्षा नहीं कर सका। मेरी वे ही भुजाएँ हैं, वही रथ है, वही घोड़े हैं, वही गाण्डीव धनुष है और वही बाण हैं, जिनसे मैंने बड़े-बड़े महारथियों के सिर बात की बात में उड़ा दिये थे। जिस अर्जुन ने कभी अपने जीवन में शत्रुओं से मुँहकी नहीं खाई थी।वही अर्जुन आज कायरों की भाँति भीलों से पराजित हो गया। उनकी सम्पूर्ण पत्नियों तथा धन आदि को भील लोग लूट ले गये और मैं निहत्थे की भाँति खड़ा देखता रह गया। उन भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के बिना मेरी सम्पूर्ण शक्ति क्षीण हो गई है।
 हे भाई भगवान श्री कृष्ण हमें छोड़ कर चले गए इसलिए मैं तेज हीन हो गया, अब हमारा कोई नहीं रहा |
अर्जुन के मुख से श्रीकृष्ण के स्वधाम गमन:-
 हे भाई आपने द्वारका में जिन यादवों की कुशल पूछी है, वे समस्त यादव ब्राह्मणों के शाप से दुर्बुद्धि अवस्था को प्राप्त हो गये थे और वे अति मदिरा पान करके परस्पर एक-दूसरे को मारते- मारते मृत्यु को प्राप्त हो गये। यह सब उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र की लीला है।" यदुवंशियों के नाश का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने तुरन्त अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया और अर्जुन से बोले- "हे अर्जुन! भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने इस लौकिक शरीर से इस पृथ्वी का भार उतार कर उसे इस प्रकार त्याग दिया, जिस प्रकार कोई काँटे से काँटा निकालने के पश्चात् उन दोनों काँटों को त्याग देता है। अब घोर कलियुग भी आने वाला है। अतः अब शीघ्र ही हम लोगों को स्वर्गारोहण करना चाहिये।”
 जब माता कुन्ती ने भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वधाम गमन का समाचार सुना तो उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र में अपना ध्यान लगाकर शरीर त्याग दिया। धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने महापराक्रमी पौत्र परीक्षित को सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का राज्य देकर हस्तिनापुर में उसका राज्याभिषेक किया और शूरसेन देश का राजा बनाकर  मथुरापुरी  में  अनिरुद्ध के पुत्र बज्रनाभ का राजतिलक किया। तत्पश्चात् परमज्ञानी युधिष्ठिर ने प्रजापति यज्ञ किया और श्रीकृष्ण में लीन होकर सन्यास ले लिया। उन्होंने मान, अपमान, अहंकार तथा मोह को त्याग दिया और मन तथा वाणी को वश में कर लिया। सम्पूर्ण विश्व उन्हें ब्रह्म रूप दृष्टिगोचर होने लगा। उन्होंने अपने केश खोल दिये, राजसी वस्त्राभूषण त्याग कर चीर वस्त्र धारण करके और अन्न-जल का परित्याग करके मौनव्रत धारण कर लिया। इतना करने के बाद बिना किसी की ओर दृष्टि किये । भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के प्रेम में मग्न होकर वे सब उत्तराखंड की ओर चल पड़े। सभी पाण्डव मार्ग में श्री हरि के अष्टोत्तरशत नामों का जप करते हुए यात्रा कर रहे थे। वे चमोली जिले उत्तराखंड के केदारनाथ, बद्रीनाथ होते हुए सतो पंथ और स्वर्गारोहण पर्वत पर पहुंचे वहीं से क्रमशः द्रौपदी, सहदेव, नकुल ,अर्जुन, भीम गिरते गए पर किसी ने भी मुडकर नहीं देखा। 
उत्तराखण्ड में हिमालय पर्वत के चौखंबा शिखर की तलहटी पर बसा सतोपंथ झील एक हिमरूप झील है, जिसे उत्तराखंड के सुरम्य झीलों में से एक माना जाता है। बदरीनाथ धाम से 10 किमी की दूरी पर लक्ष्मी वन, फिर 10 किमी आगे चक्रतीर्थ और उसके बाद छह किमी आगे सतोपंथ पड़ता है। यहां से चार किमी खड़ी चढ़ाई चढ़कर होते हैं स्वर्गारोहिणी के दर्शन। प्राचीन काल में यात्री इन्हीं पड़ावों पर स्थित गुफाओं में रात्रि विश्राम करते थे। 
पांडव भाई इसी मार्ग से होते हुए 'स्वर्ग के रास्ते' की ओर गए थे। जिस कारण इस झील को सतोपंथ झील नाम दिया गया। कुछ मान्यताओं के अनुसार इसे धरती पर स्वर्ग जाने का रास्ता भी कहा जाता है। पांडवों ने स्वर्गारोहिणी (स्वर्ग की सीढ़ियां) से स्वर्ग जाने से पहले इसी स्थान पर स्नान ध्यान किया था। यही कारण है कि स्थान हिंदू धर्म के लोगों के बीच विशेष महत्व रखता है। इसके अलावा कहा ये भी जाता है कि युधिष्ठिर को इसी झील के समीप स्वर्ग तक जाने के लिए 'आकाशीय वाहन' की प्राप्ति भी हुई थी। 
इस झील के त्रिभुजाकार होने के पीछे भी एक कथा जुड़ी हुई है कि जो इस प्रकार है कि एकादशी के दिन यहां त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु महेश इस झील में पधारे थे और तीनों देवताओं ने झील के अलग-अलग कोनों पर खड़े होकर पवित्र डुबकी लगाई। इसलिए कहा जाता है कि यह झील त्रिभुज के आकार में है। स्वर्गारोहिणी बदरीनाथ धाम से नारायण पर्वत पर 30 किमी दूर पर स्थित है। मान्यता है कि ज्येष्ठ पांडव धर्मराज युधिष्ठिर ने स्वान के साथ स्वर्गारोहिणी से ही सशरीर वैकुंठ के लिए प्रस्थान किया था। स्वर्गारोहिणी पहुँचने के लिए भक्तो को बदरीनाथ धाम से नारायण पर्वत पर 30 किमी का पैदल रास्ता तय करना होता है। चारों ओर बर्फ से ढकी पहाड़ियां मन को असीम शांति प्रदान करती हैं तो वहीं दूर दूर तक फैले हुए रंग-बिरंगे फूल यात्रियों का स्वागत करते हुए नजर आते हैं।पहाड़िया असीम शांति का अहसास कराती हैं। जिधर नजर दौड़ाओ सैकड़ों प्रजाति के रंग-बिरंगे फूल यात्रियों की आगवानी करते नजर आते हैं।
पौराणिक कथा के मुताबिक, राजपाट छोड़ने के बाद पांचों भाई पांडव द्रोपदी सहित इसी रास्ते से स्वर्ग गए थे। भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव व द्रोपदी तो स्वर्गारोहिणी पहुंचने से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गए। अब मात्र युधिष्ठिर ही जीवित बचे थे। युधिष्ठिर देवराज इन्द्र के द्वारा लाये हुए रथ पर आरूढ़ होकर एक स्वान के साथ सदेह स्वर्ग को चले गये। इस मान्यता ने स्वर्गारोहिणी का महत्व और बढ़ा दिया। विदुर ने भी गुजरात के प्रभास क्षेत्र में अपना शरीर पहले ही छोड़ दिया था । पांडवों की यह महाप्रयाण कथा बडी पुण्य दायी है । 
                          ।। इति पंचदशोअध्यायः। । 

Friday, February 18, 2022

युधिष्ठिर की आशंका, अर्जुन का द्वारका से वापसी श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, (चतुर्दशोsध्याय)(प्रसंग 45)

युधिष्ठिर की आशंका, अर्जुन का द्वारका से वापसी
श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, (चतुर्दशोsध्याय)(प्रसंग 45)  डा. राधे श्याम द्विवेदी
       🌷जय श्री कृष्ण जय श्री राधे। 🌷
        मेरे प्रिय सौभाग्य शाली मित्रों जय श्री कृष्ण,जय श्री राधे। जय श्री परम वन्दनीय अकारण करूणा वरूनालय भक्तवान्छा कल्पतरू श्री कृष्ण चन्द्र जी के चरणों में बरम्बार प्रणाम है। आप सभी सौभाग्य शाली  मित्रों को भी मेरा सादर प्रणाम है । आप सभी पर परमात्मा की अत्यन्त कृपा है कि आप परमात्मा की रसोमय लीला का रसास्वादन कर पा रहे हैं I इस अध्याय में अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना अर्जुन का द्वारका से लौटने का प्रसंग है। 
धर्मराज युधिष्ठिर के शासनकाल में हस्तिनापुर की प्रजा सुखी तथा समृद्ध थी। कहीं भी किसी प्रकार का शोक व भय आदि नहीं था। कुछ समय बाद श्रीकृष्ण से मिलने के लिये  अर्जुन  द्वारिकापुरी गये। जब उन्हें गए कई महीने व्यतीत हो गये, तब धर्मराज युधिष्ठिर को विशेष चिन्ता हुई। 
युधिष्ठिर ने कहा- भीमसेन! अर्जुन को हमने द्वारका इसलिये भेजा था कि वह वहाँ जाकर, पुण्यश्लोक भगवान श्रीकृष्ण क्या कर रहे हैं, इसका पता लगा आये और सम्बन्धियों से मिल भी आये। तब से सात महीने बीत गये; किन्तु तुम्हारे छोटे भाई अब तक नहीं लौट रहे हैं। मैं ठीक-ठीक यह नहीं समझ पाता हूँ कि उनके न आने का क्या कारण है। कहीं देवर्षि नारद के द्वारा बतलाया हुआ वह समय तो नहीं आ पहुँचा है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने लीला-विग्रह का संवरण करना चाहते हैं? उन्हीं भगवान की कृपा से हमें यह सम्पत्ति, राज्य, स्त्री, प्राण, कुल, संतान, शत्रुओं पर विजय और स्वर्गादि लोकों का अधिकार प्राप्त हुआ है। भीमसेन तुम तो मनुष्यों में व्याघ्र के समान बलवान् हो; देखो तो सही- आकाश में उल्कापातादि, पृथ्वी में भुकम्पादि और शरीरों में रोगादि कितने भयंकर अपशकुन हो रहे हैं। इनसे इस बात की सूचना मिलती है कि शीघ्र ही हमारी बुद्धि को मोह में डालने वाला कोई उत्पात होने वाला है। प्यारे भीमसेन! मेरी बायीं जाँघ, आँख और भुजा बार-बार फड़क रही है। हृदय जोर से धड़क रहा है। अवश्य ही बहुत जल्दी कोई अनिष्ट होने वाला है। देखो, यह सियारिन उदय होते ही सूर्य की ओर मुँह करके रो रही है। अरे! उसके मुँह से तो आग भी निकल रही है। यह कुत्ता बिलकुल निर्भय-सा होकर मेरी ओर देखकर चिल्ला रहा है। भीमसेन! गौ आदि अच्छे पशु मुझे अपने बायें करके जाते हैं और गधे आदि बुरे पशु मुझे अपने दाहिने कर देते हैं। मेरे घोड़े आदि वाहन मुझे रोते हुए दिखायी देते हैं। यह मृत्यु का दूत पेडुखी, उल्लू और उसका प्रतिपक्षी कौआ रात को अपने कर्ण-कठोर शब्दों से मेरे मन को कँपाते हुए विश्व को सूना कर देना चाहते हैं। दिशाएँ धुँधली हो गयी हैं, सूर्य और चन्द्रमा के चारों ओर बार-बार मण्डल बैठते हैं। यह पृथ्वी पहाड़ों के साथ काँप उठती है, बादल बड़े जोर-जोर से गरजते हैं और जहाँ तहाँ बिजली भी गिरती ही रहती है। बड़े-बड़े बवण्डर उठकर अन्धकारमय भयंकर आंधी उत्पन्न करते हैं। सियारिन सूर्योदय के सम्मुख मुँह करके चिल्ला रही हैं। कुत्ते बिलाव बारम्बार रोते हैं। गधे, उल्लू, कौवे और कबूतर रात को कठोर शब्द करते हैं। गौएँ निरंतर आँसू बहाती हैं। घृत में अग्नि प्रज्जवलित करने की शक्ति नहीं रह गई है। सर्वत्र श्री हीनता प्रतीत होती है। इन सब बातों को देखकर मेरा हृदय धड़क रहा है। न जाने ये अपशकुन किस विपत्ति की सूचना दे रहे हैं। क्या भगवान श्रीकृष्णचन्द्र इस लोक को छोड़कर चले गये या अन्य कोई दुःखदाई घटना होने वाली है?”

          उसी क्षण आतुर अवस्था में अर्जुन द्वारका से वापस आये। उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे। शरीर कान्तिहीन था और गर्दन झुकी हुई थी। वे आते ही धर्मराज युधिष्ठिर के चरणों में गिर पड़े। तब युधिष्ठिर ने घबरा कर पूछा- "हे अर्जुन! द्वारकापुरी में हमारे सम्बंधी और बन्धु-बान्धव सभी लोग तो प्रसन्न हैं न? हमारे नाना शूरसेन तथा छोटे मामा वसुदेव तो कुशल से हैं न? हमारी मामी देवकी अपनी सातों बहनों तथा पुत्र-पौत्रादि सहित प्रसन्न तो हैं न? राजा उग्रसेन और उनके छोटे भाई देवक तो कुशल से हैं न? प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, साम्ब, ऋषभ आदि तो प्रसन्न हैं न? हमारे स्वामी भगवान श्रीकृष्णचन्द्र, उद्धव आदि अपने सेवकों सहित कुशल से तो हैं न? वे अपनी सुधर्मा सभा में नित्य आते हैं न? सत्यभामा, रुक्मिणी, जाम्वन्ती आदि उनकी सोलह सहस्त्र एक सौ आठ पटरानियाँ तो नित्य उनकी सेवा में लीन रहती हैं न? हे भाई अर्जुन! तुम्हारी कान्ति क्षीण क्यों हो रही है और तुम श्रीहीन क्यों हो रहे हो?"


                         इति चतुर्दशो अध्यायः

विदुरजीके उपदेश से धृतराष्ट्र एवं गांधारी के वन में जाना श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध,तेरहवां अध्याय(प्रसंग 44)

विदुरजीके उपदेश से धृतराष्ट्र एवं गांधारी के वन में जाना
श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध,तेरहवां अध्याय(प्रसंग 44) 
डा. राधे श्याम द्विवेदी
         🌷जय श्री कृष्ण जय श्री राधे। 🌷
        मेरे प्रिय सौभाग्यशाली मित्रों जय श्री कृष्ण,  जय श्री राधे। जय श्री परमवन्दनीय अकारण करूणा वरूनालय भक्तवान्छा कल्पतरू श्री कृष्ण चन्द्र जी के चरणों में बरम्बार प्रणाम है। आप सभी सौभाग्य शाली  मित्रों को भी मेरा सादर प्रणाम है । आप सभी पर परमात्मा की अत्यन्त कृपा है कि आप परमात्मा की रसोमय लीला का रसास्वादन कर पा रहे हैं I
इस अध्याय में विदुरजीके उपदेश से धृतराष्ट्र एवं गांधारी के वन में जानेका वृत्तान्त है | 
             दीन बिदुर उपदेश तब, अन्धराज को आय।
              गांधारी धृतराष्ट्र को, संग बन गये लिवाय॥
सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा करने पश्चात् विदुर जी हस्तिनापुर आये। उन्होंने मैत्रेय जी से आत्मज्ञान प्राप्त कर किया था। मुनि के शाप के कारण ही धर्मराज को विदुर जी का अवतार लेना पड़ा था। 
विदुर जी धर्मराज के अवतार थे। मांडव्य ऋषि ने धर्मराज को श्राप दे दिया था इसी कारण वे सौ वर्ष पर्यन्त शूद्र बन कर रहे। एक समय एक राजा के दूतों ने मांडव्य हषि के आश्रम पर कुछ चोरों को पकड़ा था। दूतों ने चोरों के साथ मांडव्य ऋषि को भी चोर समझ कर पकड़ लिया। राजा ने चोरों को शूली पर चढ़ाने की आज्ञा दी। उन चोरों के साथ मांडव्ठ ऋषि को भी शूली पर चढ़ा दिया गया किन्तु इस बात का पता लगते ही कि चोर नहीं हैं बल्कि ऋषि हैं, राजा ने उन्हें शूली से उतरवा कर अपने अपराध के लिये क्षमा मांगी। मांडव्य ऋषि ने धर्मराज के पहुँच कर प्रश्न किया कि तुमने मझे मेरे किस पाप के कारण शूली पर चढ़वाया? धर्मराज ने कहा कि आपने बचपन में एक टिड्डे को कुश को नोंक से छेदा था, इसी पाप में आप को यह दंड मिला। ऋषि बोले – “वह कार्य मैंने अज्ञानवश किया था और तुमने अज्ञानवश किये गये कार्य का इतना कठोर दंड देकर अपराध किया है। अतः तुम इसी कारण से सौ वर्ष तक शूद्र योनि में जन्म लेकर मृत्युलोक में रहो।”
वे काल की गति को भली भाँति जानते थे। उन्होंने अपने बड़े भ्राता धृतराष्ट्र को समझाया कि महाराज! अब भविष्य में बड़ा बुरा समय आने वाला है। काल की गति को जानकर महात्मा विदुरने अपने भाई धृतराष्ट्रसे कहा – ‘हम सबके सिर पर काल मंडराने लगा है, जिसके टालने का कोई उपाय नहीं है | 
आप यहाँ से तुरन्त वन की ओर निकल चलिये। कराल काल शीघ्र ही यहाँ आने वाला है जिसे संसार का कोई भी प्राणी टाल नहीं सकता। आपके पुत्र-पौत्रादि सभी नष्ट हो चुके हैं और वृद्धावस्था के कारण आपके इन्द्रिय भी शिथिल हो गईं हैं। आपने इन पाण्डवों को महान क्लेश दिये, उन्हें मरवाने कि कुचेष्टा की, उनकी पत्नी द्रौपदी को भरि सभा में अपमानित किया और उनका राज्य छीन लिया। फिर भी उन्हीं का अन्न खाकर अपने शरीर को पाल रहे हैं और भीमसेन के दुर्वचन सुनते रहते हैं। आप मेरी बात बात मान कर सन्यास धारण कर शीघ्र ही चुपचाप यहाँ से उत्तराखंड की ओर चले जाइये। विदुर जी के इन वचनों से धृतराष्ट्र को प्रज्ञाचक्षु प्राप्त हो गये और वे उसी रात गांधारी को साथ लेकर चुपचाप विदुर जी के साथ वन को चले गये।

जब सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा करने पश्चात् विदुर जी हस्तिनापुर आये। धर्मराज युधिष्ठिर एवं धृतराष्ट्रसहित सभी को बड़ी प्रसन्नता होती है | विदुरका बहुत आदर-सत्कार होता है | भोजन एवं विश्राम के बाद जब विदुर सुखपूर्वक आसनपर बैठे । धर्मराज यधिष्ठिर, भीम अर्जुन, नकुल सहदेव, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती गांधारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, कृपी नगर के गणमान्य नागरिकों के साथ विदुर जी के दर्शन के लिये आये। सभी के यथायोग्य अभिवादन के पश्चात् युधिष्ठिर ने कहा – “हे चाचाजी!आपने हम सब का पालन पोषण किया है और समय समय पर हमारी प्राणरक्षा करके आपत्तियों से बचाया है। अपने उपदेशों से हमें सन्मार्ग दिखाया है। अब आप हमें अपने तीर्थयात्रा का वृतान्त कहिये। अपनी इस यात्रा में आप द्वारिका भी अवश्य गये होंगे, कृपा करके हमारे आराध्य श्रीकृष्णचन्द्र का हाल चाल भी बताइये।”
अजातशत्रु युधिष्ठिर के इन वचनों को सुन कर विदुर जी ने उन्हें सभी तीर्थों का वर्णन सुनाया, किन्तु यदुवंश के विनाश का वर्णन को न कहना ही उचित समझा। वे जानते थे कि यदुवंश के विनाश का वर्णन सुन कर युधिष्ठिर को अत्यंत क्लेश होगा और वे पाण्डवों को दुखी नहीं देख सकते थे। कुछ दिनों तक विदुर प्रसन्नता पूर्वक हस्तिनापुर में रहे।
प्रातःकाल सन्ध्यावंदन से निवृत होकर ब्राह्मणों को तल, गौ, भूमि और सुवर्ण दान करके जब युधिष्ठिर अपने गुरुजन धृतराष्ट्र, विदुर और गांधारी के दर्शन करने गये तब उन्हें वहाँ न पाकर चिंतित हुये कि कहीं भीमसेन के कटुवचनों से त्रस्त होकर अथवा पुत्र शोक से दुखि हो कर कहीं गंगा में तो नहीं डूब गये। यदि ऐसा है तो मैं ही अपराधी समझा जाउँगा। वे उनके शोक से दुखी रहने लगे।
युधिष्ठिर का शोक और नारदजी द्वारा उन्हें ज्ञानोपदेश:-
जब युधिष्ठिरसहित सभी लोगोंको मालूम हुआ कि धृतराष्ट्र, गान्धारी और विदुर चले गये हैं तो सबको भारी दुःख हुआ | 
जब युधिष्ठिर को पता चला तो वह बड़े दुखी हुए वन में धृतराष्ट्र ने अपने प्राण त्याग दिए गांधारी सती हो गई |वे अनेक प्रकारसे शोक कर ही रहे थे कि इतने में नारदजी वहाँ आ पहुँचे नारदजीने युधिष्ठिरसहित सभीको समझाते हुए कहा-
मा कंचन शुचो राजन् यदीश्वरवशं जगत्|
लोकाः सपाला यस्येमे वहन्ति बलिमीशितुः|
स संयुनक्ति भूतानि स एव वियुनक्ति च ||
धर्मराज ! तुम किसीके लिये शोक मत करो, क्योकि यह सारा जगत ईश्वर के आधीन है | सारे लोक और लोकपाल विवश होकर ईश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं | वही एक प्राणी को दुसरे से मिलाता है और वही उन्हें अलग करता है | फिर नारदजी ने कहा- जैसे संसार में खिलाड़ी की इच्छा से ही खिलोनों का संयोग-वियोग होता है, वैसे ही भगवान की इच्छा से ही मनुष्यों का मिलना-बिछुड़ना होता है।
नारद जी आगे बोले – “हे युधिष्ठिर! तुम किसी प्रकार का शोक मत करो। यह सम्पूर्ण विशव परमात्मा के वश में है और वही सब की रक्षा करता है। तुम्हारा यह समझना कि मैं ही उनकी रक्षा करता हूँ, तुम्हारी भूल है। यह संसार नश्वर है तथा जाने वालों के लिये शोक नहीं करना चाहिये। शोक का कारण केवल मोह ही है, इस मोह को त्याग दो। यह पंचभौतिक शरीर नाशवान एवं काल के वश में है। तुम्हारे चाचा धृतराष्ट्र, माता गांधारी एवं विदुर उत्तराखंड में सप्तश्रोत नामक स्थान पर आश्रम बना कर रहते हैं। वे वहाँ तीनों काल स्नान कर के अग्नहोत्र करते हैं और उनके सम्पूर्ण पाप धुल चुके हैं। अब उनकी कामनाएँ भी शान्त हो चुकी हैं। सदा भगवान के ध्यान में रहने के कारण तमोगुण, रजोगुण, सतोगुण और अहंकार बुद्धि नष्ट हो चुकी है। उन्होंने अपने आप को भगवान में लीन कर दिया है।
“अब मैं तुम्हें बताता हूँ कि वे आज से पाँचवे दिन अपने शरीर को त्याग देंगे। वन में अग्नि लग जाने के कारण वे उसी में भस्म हो जायेंगे। उनकी साध्वी पत्नी गांधारी भी उसी अग्नि में प्रवेश कर जायेंगी। फिर विदुर जी वहाँ से तीर्थयात्रा के लिये चले जायेंगे। अतः तुम उनके विषय में चिंता करना त्याग दो।” इतना कह कर देवर्षि नारद आकाशमार्ग से स्वर्ग के लिये प्रस्थान कर गये। युधिष्ठिर ने देवर्षि नारद के उपदेश को समझ कर शोक का परित्याग कर दिया।
             इति त्रयोदशो अध्यायः




         

Wednesday, February 16, 2022

परीक्षित जन्म वृतांत ( प्रसंग 43) श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, ( बारहवां अध्याय)

परीक्षित जन्म वृतांत ( प्रसंग 43) 
श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, ( बारहवां अध्याय)
डा. राधे श्याम द्विवेदी
     मेरे प्रिय भागवत प्रेमी भाईयो और बहनो, देवियों और सज्जनों, मैं अपने अध्यात्मिक और भागवत कथा ब्लॉग में श्रो मद भागवद् कथा के कुछ एक 42 कड़िया आप सब के सामने पूर्व में प्रस्तुत किया था । चूँकि मैं इतिहास पुरातत्व और संस्कृति का छात्र रहा। इसलिए मूल कथा को कुछ समय तक विश्राम देते हुए प्रसंग बस आये द्वारका DWARKA की वर्तमान वस्तुस्थिति पर पांच ब्लागों के रूप में विचार किया था। मूल कथा थोड़े अंतराल के बाद पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है । 🌷जय श्री कृष्ण जय श्री राधे। 🌷
        मेरे प्रिय सौभाग्यशाली मित्रों जय श्री कृष्ण,  जय श्री राधे। जय श्री परमवन्दनीय अकारण करूणा वरूनालय भक्तवान्छा कल्पतरू श्री कृष्ण चन्द्र जी के चरणों में बरम्बार प्रणाम है। आप सभी सौभाग्य शाली  मित्रों को भी मेरा सादर प्रणाम है । आप सभी पर परमात्मा की अत्यन्त कृपा है कि आप परमात्मा की रसोमय लीला का एक संक्षिप्त अंतराल के बाद पुनः रसास्वादन कर पा रहे हैं I
         द्रौपदी को जब समाचार मिला कि उसके पाँचों पुत्रों की हत्या अश्वत्थामा ने कर दी है, तब उसने आमरण अनशन कर लिया और कहा कि वह अनशन तभी तोड़ेगी, जब अश्वत्थामा के मस्तक पर सदैव बनी रहने वाली मणि उसे प्राप्त होगी। अर्जुन अश्वत्थामा को पकड़ने के लिए निकल पड़े। अश्वत्थामा तथा अर्जुन के मध्य भीषण युद्ध छिड़ गया। अश्वत्थामा ने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, इस पर अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र छोड़ा। नारद तथा व्यास के कहने से अर्जुन ने अपने ब्रह्मास्त्र का उपसंहार कर दिया। किन्तु अश्वत्थामा ने पांडवों को जड़-मूल से नष्ट करने के लिए अभिमन्यु की गर्भवती पत्नी उत्तरा पर ब्रह्मास्त्र का वार किया।
       कृष्ण ने कहा- “उत्तरा को परीक्षित नामक बालक के जन्म का वर प्राप्त है। उसका पुत्र अवश्य ही जन्म लेगा। नीच अश्वत्थामा यदि तेरे शस्त्र-प्रयोग के कारण वह बालक मृत हुआ तो भी मैं उसे जीवन दान दूँगा। वह भूमि का सम्राट होगा और तू इतने वधों का पाप ढोता हुआ तीन हज़ार वर्ष तक निर्जन स्थानों में भटकेगा। तेरे शरीर से सदैव रक्त की दुर्गंध नि:सृत होती रहेगी। तू अनेक रोगों से पीड़ित रहेगा।” व्यास ने भी श्रीकृष्ण के वचनों का अनुमोदन किया। अर्जुन अश्वत्थामा को रस्सी में बांधकर द्रौपदी के पास ले आये। द्रौपदी ने दयार्द्र होकर उसे छोड़ने को कहा किंतु श्रीकृष्ण की प्रेरणा से अर्जुन ने उसके सिर से मणि निकालकर द्रौपदी को दी।
         उत्तरा के गर्भ में बालक ब्रह्मास्त्र के तेज से दग्ध होने लगा। तब श्रीकृष्ण ने सूक्ष्म रूप से उत्तरा के गर्भ में प्रवेश किया। उनका वह ज्योतिर्मय सूक्ष्म शरीर अँगूठे के आकार का था। वे चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुते थे। कानों में कुंडल तथा आँखें रक्तवर्ण थीं। हाथ में जलती हुई गदा लेकर उस गर्भ स्थित बालक के चारों ओर घुमाते थे।
           जिस प्रकार सूर्यदेव अन्धकार को हटा देते हैं, उसी प्रकार वह गदा अश्वत्थामा के छोड़े हुए ब्रह्मास्त्र की अग्नि को शांत करती थी। गर्भस्थित वह बालक उस ज्योतिर्मय शक्ति को अपने चारों ओर घूमते हुये देखता था। वह सोचने लगता कि यह कौन है और कहाँ से आया है? कुछ समय पश्चात् पाण्डव यज्ञ की दीक्षा के निमित्त राजा मरुत का धन लेने के लिये उत्तर दिशा में गये हुए थे। उसी बीच उनकी अनुपस्थिति में तथा श्रीकृष्ण की उपस्थिति में दस मास पश्चात् उस बालक का जन्म हुआ। परन्तु बालक गर्भ से बाहर निकलते ही मृतवत् हो गया। बालक को मरा हुआ देखकर रनिवास में रुदन आरम्भ हो गया। शोक का समुद्र उमड़ पड़ा। कुरु वंश को पिण्डदान करने वाला केवल एक मात्र यही बालक उत्पन्न हुआ था, सो वह भी न रहा।
कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा आदि सभी महान् शोक सागर में डूबकर आँसू बहाने लगीं। उत्तरा के गर्भ से मृत बालक के जन्म का समाचार सुनकर श्रीकृष्ण तुरन्त ही सात्यकि को साथ लेकर अन्तःपुर पहुँचे। वहाँ रनिवास में करुण क्रन्दन को सुनकर उनका हृदय भर अया। इतना करुण क्रन्दन युद्ध में मरे हुए पुत्रों के लिये भी सुभद्रा और द्रौपदी ने नहीं किया था, जितना कि उस नवजात शिशु की मृत्यु पर कर रही थीं।
        भगवान श्रीकृष्ण को देखते ही वे उनके चरणों पर गिर पड़ीं और दहाड़ मार-मार कर विलाप करते हुए बोलीं- “हे जनार्दन! तुमने यह प्रतिज्ञा की थी कि यह बालक इस ब्रह्मास्त्र से मृत्यु को प्राप्त न होगा तथा साठ वर्ष तक जीवित रहकर धर्म का राज्य करेगा। किन्तु यह बालक तो मृतावस्था में पड़ा हुआ है। यह तुम्हारे पौत्र अभिमन्यु का बालक है। हे हरिसूदन! इस बालक को अपनी अमृत भरी दृष्टि से जीवन दान दो।”
        श्रीकृष्ण सबको सान्त्वना देकर तत्काल प्रसूतिगृह में गये और वहाँ के प्रबन्ध का अवलोकन किया। चारों ओर जल के घट रखे थे, अग्नि भी जल रही थी, घी की आहुति दी जा रही थी, श्वेत पुष्प एवं सरसों बिखरे थे और चमकते हुए अस्त्र भी रखे हुए थे। इस विधि से यज्ञ, राक्षस एवं अन्य व्याधियों से प्रसूतिगृह को सुरक्षित रखा गया था। उत्तरा पुत्रशोक के कारण मूर्छित हो गई थी।
        उसी समय द्रौपदी आदि रानियाँ वहाँ आकर कहने लगीं- “हे कल्याणी! तुम्हारे सामने जगत् के जीवनदाता साक्षात भगवान श्रीकृष्णचन्द्र, तुम्हारे श्वसुर खड़े हैं। चेतन हो जाओ।” श्रीकृष्ण ने कहा- “पुत्री! शोक न करो। तुम्हारा यह पुत्र अभी जीवित होता है। मैंने जीवन में कभी झूठ नहीं बोला है। सबके सामने मैंने प्रतिज्ञा की है वह अवश्य पूर्ण होगी। मैंने तुम्हारे इस बालक की रक्षा गर्भ में की है तो भला अब कैसे मरने दूँगा।” इतना कहकर श्रीकृष्ण ने उस बालक पर अपनी अमृतमयी दृष्टि डाली और बोले- “यदि मैंने कभी झूठ नहीं बोला है, सदा ब्रह्मचर्य व्रत का नियम से पालन किया है, युद्ध में कभी पीठ नहीं दिखाई है, मैंने कभी भूल से भी अधर्म नहीं किया है तो अभिमन्यु का यह मृत बालक जीवित हो जाये।”
         उनके इतना कहते ही वह बालक हाथ पैर हिलाते हुए रुदन करने लगा। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सत्य और धर्म के बल से ब्रह्मास्त्र को पीछे लौटाकर ब्रह्मलोक में भेज दिया। उनके इस अद्भुत कर्म से बालक को जीवित देखकर अन्तःपुर की सारी स्त्रियाँ आश्चर्यचकित रह गईं और उनकी वन्दना करने लगीं। भगवान श्रीकृष्ण ने उस बालक का नाम ‘परीक्षित’ रखा, क्योंकि वह कुरुकुल के परिक्षीण (नाश) होने पर उत्पन्न हुआ था।
         जब युधिष्ठिर लौटकर आये और पुत्र जन्म का समाचार सुना तो वे अति प्रसन्न हुए और उन्होंने असंख्य गाय, गाँव, हाथी, घोड़े, अन्न आदि ब्राह्मणों को दान दिये। उत्तम ज्योतिषियों को बुलाकर बालक के भविष्य के विषय में प्रश्न पूछे। ज्योतिषियों ने बताया कि वह बालक अति प्रतापी, यशस्वी तथा इच्क्ष्वाकु समान प्रजापालक, दानी, धर्मी, पराक्रमी और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का भक्त होगा।
       एक ऋषि के शाप से तक्षक द्वारा मृत्यु से पहले संसार के माया मोह को त्यागकर गंगा के तट पर श्रीशुकदेव जी से आत्मज्ञान प्राप्त करेगा। धर्मराज युधिष्ठिर ज्योतिषियों के द्वारा बताये गये भविष्यफल को सुनकर प्रसन्न हुए और उन्हें यथोचित दक्षिणा देकर विदा किया। वह बालक शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। धर्मराज युधिष्ठिर ने राजा मरुत का गड़ा हुआ धन लाकर अश्वमेघ यज्ञ किया। श्रीकृष्ण की देख रेख-में यज्ञ निर्विघ्न सम्पन्न हो गया। सभी कार्य पूर्ण हो जाने पर श्रीकृष्ण भी द्वारका लौट गए।

Tuesday, February 15, 2022

श्रीकृष्ण की द्वारका का पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व

श्रीकृष्ण की द्वारका का पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व
 डा. राधे श्याम द्विवेदी                                                     
                 हम दंतकथाओं की महानता और सच्‍चाई के बारे में प्रायः परीक्षण करते रहते हैं। यदि हम1500 बीसी से पहले के समय की याद करें तो हमारे मस्तिष्‍क के सामने होगा, सोने का एक शहर-मंत्रमुग्‍ध कर देने वाली दिव्य द्वारका, अर्थात भगवान श्रीकृष्‍ण की पावन राजधानी। गुजरात में श्रीकृष्‍ण को रणछोडराय के नाम से पुकारा जाता है। मथुरा से आने के बाद द्वारका को श्रीकृष्‍ण ने अपनी राजधानी बनाया और शेष जीवन यही व्‍यतीत किया था। यह स्‍थान सौराष्‍ट्र के पश्चिमी द्वीप पर है, इस जगह का हिन्‍दू धर्म में उल्‍लेखनीय महत्‍व है। यह एकमात्र ऐसा स्‍थान है, जिसे चारों धामों में से एक धाम के रूप में और सप्‍तपुरी (प्राचीन सात शहर) में से एक पुरी के रूप में मान्‍यता दी गई है। इसी कारण, सदियों से लाखों तीर्थयात्री और इतिहास के विद्वान यहां आते जाते रहे हैं। और अपने को धन्य मान रहे हैं। 

            श्रीकृष्‍ण ने मथुरा में अत्‍याचारी राजा कंस का वध करके उसके श्‍वसुर जरासंध को क्रोधित कर दिया था। जरासंध ने अपने पुत्र की मृत्‍यु का प्रतिशोध लेने के लिए श्रीकृष्‍ण के राज्‍य पर 17 बार आक्रमण किया। श्रीकृष्‍ण को पता था कि उनके लोग जरासंध से एक और युद्ध लड़ने में समर्थ नहीं हैं। उन्‍हें इस बात का बखूबी ज्ञान था कि इस युद्ध से न केवल लोगों की जानें जाएंगी बल्कि इससे किसान और अर्थव्‍यवस्‍था पर भी बुरा असर पड़ेगा। इसीलिए श्रीकृष्‍ण युद्ध छोड़कर भाग गए और इसी कारण उन्‍हें रणछोड़जी (वह व्‍यक्ति जो रणभूमि छोड़कर भाग जाता है) के नाम से पुकारा जाने लगा।

           अपने कुछ यादव साथियों के साथ श्रीकृष्‍ण गोमांतक पर्वत पार करके सोमनाथ से 32 किमी. दूर सौराष्‍ट्र के किनारे पहुंचे। कुछ स्रोतों के मुताबिक श्रीकृष्‍ण वर्तमान स्थित ओखा के पास पहुंचे थे और बेट द्वारका नामक अपना नया राज्‍य बसाया। ऐसी धारणा है कि समुद्र देवता ने उन्‍हें अपना राज्‍य बसाने के लिए 12 योजन अर्थात लगभग 773 वर्ग किमी भूमि प्रदान की थी और हिन्‍दू मान्‍यताओं में सुंदर इमारतें बनाने वाले भगवान विश्‍वकर्मा ने श्रीकृष्‍ण की इच्‍छा को स्‍वीकार करके उनके लिए एक नए राज्‍य का निर्माण किया। धन-धान्‍य से संपन्‍न यह राज्‍य स्‍वर्ण नगरी कहलाया और द्वारका के राजा श्रीकृष्‍ण को द्वारकाधीश कहा जाने लगा। श्रीकृष्‍ण के जीवन का उद्देश्‍य एक ऐसे राज्‍य की स्‍थापना करना था, जो सत्‍य धर्म के सिद्धान्‍त पर आधारित हो। द्वारका द्वारावती के नाम से भी जानी जाती है, जो ‘द्वारा’ शब्‍द से बना है, जिसका अर्थ होता है द्वार या दरवाजा और ‘का’ का अर्थ होता है ब्रह्मा। इस प्रकार द्वारका को 
ब्रह्मलोक का द्वार माना गया, जो सत्‍य की अनिर्वचनीय भूमि है। दूसरे शब्‍दों में आध्‍यात्मिक रूप से यह मुक्ति का द्वार है।
         द्वारका नियोजित रूप से बसा शहर था, जहां छह सुसंगठित क्षेत्र थे- आवासीय, व्‍यावसायिक जोन, चौड़ी सड़कें, चौक, महल और कई सार्वजनिक सुविधाएं। जन सभाएं एक हाल में आयोजित होती थीं, जिसे सुधर्म सभा (सत्‍य धर्म सभा) कहा जाता था। नगर में सात ऐसे स्थान थे, जो सोने, चांदी व अन्‍य कीमती पत्‍थरों से बने थे, साथ ही सुंदर बाग व झीलें भी थीं। पूरा नगर चारो ओर से पानी से घिरा हुआ था, यहा से मुख्‍य भूमि तक जाने के लिए पुल बने हुए थे।
 जलमग्‍न द्वारका:-   
यह माना जाता है कि श्रीकृष्‍ण की मृत्‍यु और यादव वंश के पतन के पश्‍चात आई एक भयानक बाढ़ में द्वारका के साथ-साथ पूरा सोने का शहर भी समंदर की गहराई में डूब गया। हालांकि, वर्तमान की खुदाई हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्‍या इस दंतकथा का कोई ऐतिहासिक आधार है, जैसे कि सभी दंतकथाओं का होता है। ऐसा माना जाता है कि नगर समुंदर में जलमग्‍न हो गया और विभिन्‍न सभ्‍यताओं ने छह बार इसका पुनर्निर्माण कराया। आधुनिक युग में द्वारका का निर्माण सातवीं बार उसी क्षेत्र में हुआ। वर्तमान में द्वारका के अवशेष अरब समुद्र में गोमती नदी के मुहाने पर स्थित हैं और दूसरे विख्‍यात ऐतिहासिक और धार्मिक स्‍थलों की तरह ही द्वारकाधीश मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। ऐसा माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्‍ण की अनन्‍य भक्‍त मीराबाई ने अपने प्राणों का परित्‍याग यहीं पर किया था। प्रतिवर्ष जन्‍माष्‍टमी के उत्‍सव में भाग लेने के लिए पूरे विश्‍व से हजारों भक्‍तगण यहां आते हैं। 
वास्‍तविकता क्या :-
ऐसे कई सिद्धान्‍त हैं जो द्वारका के वास्‍तविक स्‍थान के बारे में सुझाव देते हैं। लेकिन कई ऐसे पुरातात्विक संकेत हैं जो इस विश्‍वास का समर्थन करते हैं कि प्राचीन द्वारका वर्तमान द्वारका के ठीक नीचे और बेट द्वारका से आगे उत्‍तर दिशा में है, दक्षिण में ओखमंडी और पूर्व में पिंडारा है।
        अभी हाल ही में मिली जानकारी यह संकेत करती है कि प्राचीन द्वारका की कथाओं का ऐतिहासिक आधार है। खुदाई के दौरान जो तीस तांबे के सिक्‍के, शिलाखंड का आधार, वर्तुल और पुराने समय के प्राचीन मिट्टी के बर्तन के नमूने मिले थे, वे 1500 ईसा पूर्व के हैं।
         भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण संस्‍था द्वारा समुद्री जल पर पानी के अंदर किया गया हालिया शोध यह दर्शाता है कि दो सहस्राब्दि पूर्व यहां एक नगर का अस्तित्‍व था। खोए हुए नगर की सन 1930 से खोज जारी है। सन 1983-1990 के बीच हुई छानबीन से यह पता चला कि नगर नदी के किनारे छह खण्‍डों में बसा हुआ था। उन्‍हें द्वारका नगरी के अवशेष भी मिले हैं, समुद्र में जिनका विस्‍तार आधे किलोमीटर से भी अधिक क्षेत्र में है। शिलाखण्‍ड के आधार पर सीधे बनीं दीवारें यह सिद्ध करती हैं कि भूमि वापस समुद्र में चली गई थी। समुद्री पुरातत्‍व इकाई द्वारा की गई खोज और प्रचीन लेखों में द्वारका के प्रारूप का वर्णन एक समान है।
       श्री कृष्ण जन्म को लेकर विद्वानों में मतभेद है अलग- अलग शोध में कृष्ण के जन्म की तारीख अलग-अलग बताई गई है। पहला शोध- 3112 ईसा पूर्व (यानी आज से 5125 वर्ष पूर्व) को हुआ। ब्रिटेन में रहने वाले शोधकर्ता ने खगोलीय घटनाओं, पुरातात्विक तथ्यों आदि के आधार पर कृष्ण जन्म और महाभारत युद्ध के समय का वर्णन किया है। ब्रिटेन में कार्यरत न्यूक्लियर मेडिसिन के फिजिशियन डॉ. मनीष पंडित ने महाभारत में वर्णित 150 खगोलिय घटनाओं के संदर्भ में कहा कि महाभारत का युद्ध 22 नवंबर 3067 ईसा पूर्व को हुआ था। इन गणनाओं के अनुसार कृष्ण का जन्म र्इसा पूर्व 3112 में हुआ था, यानि महाभारत युद्ध के समय कृष्ण की उम्र 54-55 साल की थी।अपनी खोज के लिए टेनेसी के मेम्फिन यूनिवर्सिटी में फिजिक्स के प्रोफेसर डॉ. नरहरि अचर द्वारा 2004-05 में किए  गए शोध का हवाला भी दिया। इसके संदर्भ में उन्होंने पुरातात्विक तथ्यों को भी शामिल किया। जैसे कि लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी के सबूत, पानी में डूबी द्वारका और वहाँ मिले कृष्ण बलराम के की छवियों वाले पुरातात्विक सिक्के और मोहरे, ग्रीक राजा हेलिडोरस द्वारा कृष्ण को सम्मान देने के पुरातात्विक सबूत आदि। 
कृष्ण जन्म को लेकर ऐतिहासिक प्रमाणिकता :-   
भारतवर्ष में मानव सभ्यता का इतिहास कितना प्राचीन है, इसका अंदाजा हम हडप्पा और मोहन जोदाडों से लेकर पुरातत्व के अवशेषों से लगा सकते हैं। इस अति प्राचीन और पवित्र धरती पर कई महापुरुष भी हुए। ऐसा ही ऐतिहासिक नाम है, भगवान श्री कृष्ण का, जिनका वर्णन प्राचीन ग्रंथों से लेकर आज भी जीवंत है। लेकिन उनका जन्म किस सन् में हुआ इसकी अभी तक कोई पुष्ट जानकारी नहीं थी, परंतु खगोलीय गणनाओं, गणितीय संक्रियाओं एवं आधुनिक सॉफ्टवेयर की मदद की गई। एक खोज के अनुसार यह दावा किया गया है कि भगवान श्री कृष्ण का जन्म 21 जुलाई 3228 ईसा पूर्व में हुआ था।
आधुनिक साफ्टवेयर की ली मदद:-
 विशेषज्ञों के अनुसार श्रीकृष्ण के जन्म के समय वर्णित घटनाओं को संदर्भ लेने पर 5 हजार वर्ष पूर्व जाना दुस्साहस हो सकता है, परंतु इन गणितीय खगोलीय संक्रियाओं को हम पारंपरिक गणितीय विधियों द्वारा हल कर सकते हैं। इसमें आधुनिक साफ्टवेयरों की सहायता से किसी भी पूर्व या संभावित ग्रह स्थिति का पुनः चित्रण कर क्रास चैक किया जा सकता है।
संकेतों और श्लोंकों का अध्ययन:-
अध्ययन के मुताबिक पहले भारतीय पंचांग सातवर्षीय रहा है, जिसमें 2700 वर्षों का एक चक्र था। इसकी गणना आकाश में सप्तर्षि तारामंडल की गति के संक्रमण द्वारा की जाती थी। जिसे 27 नक्षत्रों में विभाजित किया गया था। धर्मग्रंथों में श्रीकृष्ण जन्म के संदर्भ में जो संकेत हैं, वे भाद्रपद माह की अष्टमी को रोहणी नक्षत्र में अर्धरात्रि को हुए। उपरोक्त सकेतों का वर्णन विस्तार से श्री विष्णु पुराण, महाभारत व श्रीमदभागवत में हैं। श्री विष्णु पुराण के 38 वें अध्याय में एक श्लोंक के अनुसार श्रीकृष्ण की मृत्यु के दिन कलियुग का प्रारंभ हुआ। श्रीमदभागवत पुराण के खंड 11 के अध्याय छह में एक श्लोक में ब्रम्हा, श्रीकृष्ण की आयु के संदर्भ म कहते हैं, कि श्रीकृष्ण के जन्म के 125 वर्ष हो चुके हैं।
कर्नाटक मंदिर का अभिलेख :-
धर्मशास्त्रों के अनुसार कलियुग का आरंभ 3102 ईसा पूर्व से माना जाता है, क्यों हमारे सभी पंचांग या ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर 1991ई. तक कलियुग के 5100 वर्ष बीत चुके हैं। इस तरह गणितज्ञ आर्यभट्ट ने खगोलीय निबंध आर्यभट्टीय एवं संदर्भ में महाभारत के समय की खगोलीय घटनाओं का वर्णन है। जब श्रीकृष्ण 90 वर्ष के थे। तब दुर्लभ चंद, सूर्यग्रहण दोनों का होना। औष्ण पक्ष की अवधि घटकर 13 दिन हो जाना एवं आकाश में एक धूमकेतू का चमकते हुये गुजर जाना। उपरोक्त खगोलीय घटनाओं का वर्णन कर्नाटक के एक मंदिर में पाए गए अभिलेख के अनुसार भी सही पाया गया है।
श्रीकृष्ण की कुंडली भी तैयार:-  
विशेषज्ञों के अनुसार कलियुग प्रारंभ होने यानी 3102 ईसा पूर्व से 125 वर्ष घटाने पर कृष्ण के जन्म का वर्ष निकलता है जो कि 3228 ईसा पूर्व है। बाकी का कार्य ग्रहों की स्थिति डालते हुये श्री कृष्ण भगवान की कुंडली बन जाती है। 21 जुलाई 3228 ईसा पूर्व कृष्ण के जन्म के समय वर्णित सभी परिस्थितियों को संतुष्ट करने वाली तिथि है, इसी अधार पर कृष्ण की आयु में 125 वर्ष जोडने पर कृष्ण का अवसान 18 फरवरी 3102 ईसा पूर्व दोपहर को हुई थी। मृत्यु की घटनाओं से पूर्णतः मेल खाती है।