Saturday, February 19, 2022

परीक्षित की दिग्विजय तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, ( षोडषोsध्याय)(प्रसंग 47)

परीक्षित की दिग्विजय तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद
श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, ( षोडषोsध्याय)(प्रसंग 47) 
डा. राधे श्याम द्विवेदी
       🌷जय श्री कृष्ण जय श्री राधे। 🌷
        मेरे प्रिय मित्रों! जय श्री कृष्ण,जय श्री राधे। जय श्री परम वन्दनीय अकारण करूणा वरूनालय भक्तवान्छा कल्पतरू श्री कृष्ण चन्द्र जी के चरणों में बरम्बार प्रणाम है। आप सभी सौभाग्य शाली  मित्रों को भी मेरा सादर प्रणाम है । आप सभी पर परमात्मा की अत्यन्त कृपा है कि आप परमात्मा की रसोमय लीला का रसास्वादन कर पा रहे हैं I पिछले अध्याय में अर्जुन का द्वारका से लौटने के बाद यदुवंश विनाश और पांडवों का स्वर्गारोहण का प्रसंग पढ़ा है। 
पांडवों के वंशज महाराज परीक्षित हस्तिनापुर साम्राज्य का शासन करने लगे थे। ब्राह्मणों की शिक्षा और सलाह के अनुसार परीक्षित अपना राज्य चलाया करते थे । उनके जन्म के समय ज्योतिषियों ने उनके बारे में जो कुछ भी कहा था वह सारे गुण उनमें परिलक्षित हो रहे थे ।
राजा परीक्षित ने अपने मामा उत्तर की पुत्री इरावती से विवाह किया । इरावती से परीक्षित ने जन्मेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न किए । कृपाचार्य को आचार्य बनाकर उन्होंने तीन अश्वमेध यज्ञ किये । इन यज्ञों के बाद राजा परीक्षित ने ब्राह्मणों में बहुत सारी दक्षिणा बाटी थी। इन सभी यज्ञोंमें देवताओं ने प्रत्यक्ष रूप में प्रकट होकर अपना अपना भाग ग्रहण किया था ।
एक समय की बात है राजा परीक्षित ने सुना कि उनके सेना के द्वारा ठीक से सुरक्षित साम्राज्य में कलियुग ने प्रवेश कर लिया है । कलियुग के अपने साम्राज्य में प्रवेश को सुनकर महाराज परीक्षित को बहुत दुख हुआ था। राजा ने यह सोच कर की युद्ध करने का अवसर मिला है इतना दुख नहीं किया । इसके बाद परीक्षित ने धनुष हाथ में लिया और घोड़ों से जुते हुए सिंह की ध्वजा वाले सुसज्जित रथ पर सवार होकर दिग्विजय करने के लिए नगर से बाहर निकल पड़े ।
उस समय रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सेना उनके साथ-साथ चल रही थी । उन्होंने भद्राश्व, केतुमाल, भारत, उत्तरकुरु और किम्पुरुष आदि सभी वर्षोंको जीतकर वहाँ कै राजाओं से भेंट ली । उन्हें उन देशोंमें सर्वत्र अपने पूर्वज महात्माओं का सुयश सुनने को मिला । उस यशोगान से पद-पद पर भगवान श्रीकृष्ण की महिमा प्रकट होती थी । इसके साथ ही उन्हें यह भी सुनने को मिलता था कि भगवान् श्रीकृष्णने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्रकी ज्वालासे किस प्रकार उनकी रक्षा की थी । 
यदुवंशी और पाण्डवों में परस्पर कितना प्रेम था तथा पाण्डवो की भगवान् श्रीकृष्ण में कितनी भक्ति थी । जो लोग उन्हें ये चरित्र सुनाते, उनपर महामना राजा परीक्षित् बहुत प्रसन्न होते ,उनके नेत्र प्रेम से खिल उठते। वे बड़ी उदारता से उन्हें बहुमूल्य वस्त्र और मणियों के हार उपहार रूप में देते । वे सुनते कि भगवान् श्रीकृष्णने प्रेम परवश होकर पाण्डवों के सारथि का काम किया, उनके सभासद् बने ,यहाँ तक कि उनके मन के अनुसार काम करके उनकी सेवा भी की । 
श्रीकृष्ण उनके सखा तो थे ही, दूत भी बने। वे रात को शस्त्र ग्रहण करके वीरासन से बैठ जाते और शिविर का पहरा देते, उनके पीछे-पीछे चलते, स्तुति करते तथा प्रणाम करते; इतना ही नहीं, अपने प्रेमी पाण्डवों के चरणों में उन्होंने सारे जगत को झुका दिया। तब परीक्षित् की भक्ति भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमलों में और भी बढ़ जाती । इस प्रकार राजा परीक्षित पाण्डवोंके आचरणका अनुसरण करते हुए दिग्विजय कर रहे थे।
 उन्हीं दिनों उनके शिविर से थोड़ी ही दूर पर एक आश्चर्यजनक घटना घटी । धर्म बैल का रूप धारण करके एक पैर से घूम रहा था। एक स्थान पर उसे गाय के रूप में पृथ्वी मिली । पुत्र के मत्यु से दुःखिनी माताके समान उसके नेत्रों से आँसु के झरने बह रहे थे। उसका शरीर श्री हीन हो गया था।
धर्म पृथ्वी से पूछने लगा ,तुम्हारा मुख कुछ-कुछ मलिन हो रहा है। तुम श्री हीन हो रही हो, मालूम होता है तुम्हारे हृदयमें कुछ न कुछ दुःख अवश्य है । क्या तुम्हारा कोई सम्बन्धी दूर देश में चला गया है, जिसके लिये तुम इतनी चिंता कर रही हो ? 
कहीं तुम मेरी तो चिन्ता नहीं कर रही हो कि अब इसके तीन पैर टूट गये, एक ही पैर रह गया है? सम्भव है, तुम अपने लिये शोक कर रही हो कि अब शुद्र तुम्हारे ऊपर शासन करेंगे । तुम्हें देवताओं के लिये भी खेद हो सकता है, जिन्हें अब यज्ञों में आहुति नहीं दी जाती, अथवा उस प्रजा के लिय भी, जो वर्षा न होने के कारण अकाल से पीड़ित हो रही है ।
देवि! क्या तुम राक्षस-सरीखे मनुष्यों के द्वारा सतायी हुई अरक्षित स्त्रियों एवं बालकों के लिये शोक कर रही हो? सम्भव हैं, विद्या अब कुकर्मी ब्राह्मणों के चंगुल में पड़ गयी है और ब्राह्मण विप्र द्रोही राजाओं की सेवा करने लगे हैं, और इसी का तुम्हे दुख हो ।
आज के नाम मात्र के राजा तो सोलहों आने कलियुगी हो गये हैं, उन्होंने बड़े-बड़े देशों को भी उजाड़ डाला है। क्या तुम उन राजाओं या देशों के लिये शोक कर रही हो । आज की जनता खान-पान वस्त्र, स्नान और स्त्री-सहवास आदि में शास्त्रीय नियमों का पालन न करके स्वेच्छाचार कर रही है। क्या इसके लिये तुम दुःखी हो? 
मां पृथ्वी अब मुझे समझ आ गया भगवान श्रीकृष्णने अवतार लेकर तुम्हारे ऊपर बोझ बने पाप रूपी राजाओं का अंत किया था । उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण के अब इस पृथ्वी को त्याग देने के कारण तुम शायद दुखी हो रही हो। देवी तुम जल्दी से अब मुझे अपने दुखों का कारण बतलाओ ।
एक पैर से खड़े हुए धर्मकी बातें सुनकर पृथ्वी देवी ने कहना आरंभ कर दिया , धर्मदेव आप तो अच्छी तरह से जानते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण अब अपनी लीलाओं को समाप्त करके अपने स्वधाम गोलोक को चले गए हैं । उनके चले जाने के बाद अब कलियुग ने पृथ्वी पर अपना अधिकार जमा लिया है ,इसी कारण से मैं दुखी हूं । अपने लिए, तुम्हारे लिए और उन महात्मा ऋषियों के लिए जो सदा ही धर्म में लगे रहते हैं उन सब के लिए दुखी हूँ । समस्त वर्णों के शुद्ध हृदय उन मनुष्यों के लिए दुखी हूं जो कलयुग के प्रभाव से कष्ट भोग रहे हैं ।
धर्म ,द्वापर के अंत में अनेक राक्षसों ने जन्म लेकर मुझे बहुत कष्ट पहुंचाया था । परंतु भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार धारण करके मेरे सारे कष्टों का अंत किया और मुझे उनके सानिध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ । लेकिन भगवान के जाने के बाद अब वह सौभाग्य भी चला गया है । तुम भी सतयुग में चार पैरों वाले थे किंतु अब कलीयुग के आते ही तुम्हारे तीन पैर चले गए हैं और केवल एक पैर वाले ही हो गए हो इसी कारण से मैं बहुत दुखी हूं ।
पृथ्वी और धर्म इस तरह बातें कर ही रहे थे कि अभिमन्यु पुत्र परीक्षित वहां पर आए और उन्होंने कलियुग को दंड दिया , दंड देकर पृथ्वी और धर्म की रक्षा की ।
इस तरह पांडुवंशी परीक्षित ने कलीयुग के प्रभाव से धर्म और पृथ्वी को अपने जीवन काल में बचाया था ।
                 ।। इति षोडशो अध्यायः।। 

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