Wednesday, February 16, 2022

परीक्षित जन्म वृतांत ( प्रसंग 43) श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, ( बारहवां अध्याय)

परीक्षित जन्म वृतांत ( प्रसंग 43) 
श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, ( बारहवां अध्याय)
डा. राधे श्याम द्विवेदी
     मेरे प्रिय भागवत प्रेमी भाईयो और बहनो, देवियों और सज्जनों, मैं अपने अध्यात्मिक और भागवत कथा ब्लॉग में श्रो मद भागवद् कथा के कुछ एक 42 कड़िया आप सब के सामने पूर्व में प्रस्तुत किया था । चूँकि मैं इतिहास पुरातत्व और संस्कृति का छात्र रहा। इसलिए मूल कथा को कुछ समय तक विश्राम देते हुए प्रसंग बस आये द्वारका DWARKA की वर्तमान वस्तुस्थिति पर पांच ब्लागों के रूप में विचार किया था। मूल कथा थोड़े अंतराल के बाद पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है । 🌷जय श्री कृष्ण जय श्री राधे। 🌷
        मेरे प्रिय सौभाग्यशाली मित्रों जय श्री कृष्ण,  जय श्री राधे। जय श्री परमवन्दनीय अकारण करूणा वरूनालय भक्तवान्छा कल्पतरू श्री कृष्ण चन्द्र जी के चरणों में बरम्बार प्रणाम है। आप सभी सौभाग्य शाली  मित्रों को भी मेरा सादर प्रणाम है । आप सभी पर परमात्मा की अत्यन्त कृपा है कि आप परमात्मा की रसोमय लीला का एक संक्षिप्त अंतराल के बाद पुनः रसास्वादन कर पा रहे हैं I
         द्रौपदी को जब समाचार मिला कि उसके पाँचों पुत्रों की हत्या अश्वत्थामा ने कर दी है, तब उसने आमरण अनशन कर लिया और कहा कि वह अनशन तभी तोड़ेगी, जब अश्वत्थामा के मस्तक पर सदैव बनी रहने वाली मणि उसे प्राप्त होगी। अर्जुन अश्वत्थामा को पकड़ने के लिए निकल पड़े। अश्वत्थामा तथा अर्जुन के मध्य भीषण युद्ध छिड़ गया। अश्वत्थामा ने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, इस पर अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र छोड़ा। नारद तथा व्यास के कहने से अर्जुन ने अपने ब्रह्मास्त्र का उपसंहार कर दिया। किन्तु अश्वत्थामा ने पांडवों को जड़-मूल से नष्ट करने के लिए अभिमन्यु की गर्भवती पत्नी उत्तरा पर ब्रह्मास्त्र का वार किया।
       कृष्ण ने कहा- “उत्तरा को परीक्षित नामक बालक के जन्म का वर प्राप्त है। उसका पुत्र अवश्य ही जन्म लेगा। नीच अश्वत्थामा यदि तेरे शस्त्र-प्रयोग के कारण वह बालक मृत हुआ तो भी मैं उसे जीवन दान दूँगा। वह भूमि का सम्राट होगा और तू इतने वधों का पाप ढोता हुआ तीन हज़ार वर्ष तक निर्जन स्थानों में भटकेगा। तेरे शरीर से सदैव रक्त की दुर्गंध नि:सृत होती रहेगी। तू अनेक रोगों से पीड़ित रहेगा।” व्यास ने भी श्रीकृष्ण के वचनों का अनुमोदन किया। अर्जुन अश्वत्थामा को रस्सी में बांधकर द्रौपदी के पास ले आये। द्रौपदी ने दयार्द्र होकर उसे छोड़ने को कहा किंतु श्रीकृष्ण की प्रेरणा से अर्जुन ने उसके सिर से मणि निकालकर द्रौपदी को दी।
         उत्तरा के गर्भ में बालक ब्रह्मास्त्र के तेज से दग्ध होने लगा। तब श्रीकृष्ण ने सूक्ष्म रूप से उत्तरा के गर्भ में प्रवेश किया। उनका वह ज्योतिर्मय सूक्ष्म शरीर अँगूठे के आकार का था। वे चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुते थे। कानों में कुंडल तथा आँखें रक्तवर्ण थीं। हाथ में जलती हुई गदा लेकर उस गर्भ स्थित बालक के चारों ओर घुमाते थे।
           जिस प्रकार सूर्यदेव अन्धकार को हटा देते हैं, उसी प्रकार वह गदा अश्वत्थामा के छोड़े हुए ब्रह्मास्त्र की अग्नि को शांत करती थी। गर्भस्थित वह बालक उस ज्योतिर्मय शक्ति को अपने चारों ओर घूमते हुये देखता था। वह सोचने लगता कि यह कौन है और कहाँ से आया है? कुछ समय पश्चात् पाण्डव यज्ञ की दीक्षा के निमित्त राजा मरुत का धन लेने के लिये उत्तर दिशा में गये हुए थे। उसी बीच उनकी अनुपस्थिति में तथा श्रीकृष्ण की उपस्थिति में दस मास पश्चात् उस बालक का जन्म हुआ। परन्तु बालक गर्भ से बाहर निकलते ही मृतवत् हो गया। बालक को मरा हुआ देखकर रनिवास में रुदन आरम्भ हो गया। शोक का समुद्र उमड़ पड़ा। कुरु वंश को पिण्डदान करने वाला केवल एक मात्र यही बालक उत्पन्न हुआ था, सो वह भी न रहा।
कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा आदि सभी महान् शोक सागर में डूबकर आँसू बहाने लगीं। उत्तरा के गर्भ से मृत बालक के जन्म का समाचार सुनकर श्रीकृष्ण तुरन्त ही सात्यकि को साथ लेकर अन्तःपुर पहुँचे। वहाँ रनिवास में करुण क्रन्दन को सुनकर उनका हृदय भर अया। इतना करुण क्रन्दन युद्ध में मरे हुए पुत्रों के लिये भी सुभद्रा और द्रौपदी ने नहीं किया था, जितना कि उस नवजात शिशु की मृत्यु पर कर रही थीं।
        भगवान श्रीकृष्ण को देखते ही वे उनके चरणों पर गिर पड़ीं और दहाड़ मार-मार कर विलाप करते हुए बोलीं- “हे जनार्दन! तुमने यह प्रतिज्ञा की थी कि यह बालक इस ब्रह्मास्त्र से मृत्यु को प्राप्त न होगा तथा साठ वर्ष तक जीवित रहकर धर्म का राज्य करेगा। किन्तु यह बालक तो मृतावस्था में पड़ा हुआ है। यह तुम्हारे पौत्र अभिमन्यु का बालक है। हे हरिसूदन! इस बालक को अपनी अमृत भरी दृष्टि से जीवन दान दो।”
        श्रीकृष्ण सबको सान्त्वना देकर तत्काल प्रसूतिगृह में गये और वहाँ के प्रबन्ध का अवलोकन किया। चारों ओर जल के घट रखे थे, अग्नि भी जल रही थी, घी की आहुति दी जा रही थी, श्वेत पुष्प एवं सरसों बिखरे थे और चमकते हुए अस्त्र भी रखे हुए थे। इस विधि से यज्ञ, राक्षस एवं अन्य व्याधियों से प्रसूतिगृह को सुरक्षित रखा गया था। उत्तरा पुत्रशोक के कारण मूर्छित हो गई थी।
        उसी समय द्रौपदी आदि रानियाँ वहाँ आकर कहने लगीं- “हे कल्याणी! तुम्हारे सामने जगत् के जीवनदाता साक्षात भगवान श्रीकृष्णचन्द्र, तुम्हारे श्वसुर खड़े हैं। चेतन हो जाओ।” श्रीकृष्ण ने कहा- “पुत्री! शोक न करो। तुम्हारा यह पुत्र अभी जीवित होता है। मैंने जीवन में कभी झूठ नहीं बोला है। सबके सामने मैंने प्रतिज्ञा की है वह अवश्य पूर्ण होगी। मैंने तुम्हारे इस बालक की रक्षा गर्भ में की है तो भला अब कैसे मरने दूँगा।” इतना कहकर श्रीकृष्ण ने उस बालक पर अपनी अमृतमयी दृष्टि डाली और बोले- “यदि मैंने कभी झूठ नहीं बोला है, सदा ब्रह्मचर्य व्रत का नियम से पालन किया है, युद्ध में कभी पीठ नहीं दिखाई है, मैंने कभी भूल से भी अधर्म नहीं किया है तो अभिमन्यु का यह मृत बालक जीवित हो जाये।”
         उनके इतना कहते ही वह बालक हाथ पैर हिलाते हुए रुदन करने लगा। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सत्य और धर्म के बल से ब्रह्मास्त्र को पीछे लौटाकर ब्रह्मलोक में भेज दिया। उनके इस अद्भुत कर्म से बालक को जीवित देखकर अन्तःपुर की सारी स्त्रियाँ आश्चर्यचकित रह गईं और उनकी वन्दना करने लगीं। भगवान श्रीकृष्ण ने उस बालक का नाम ‘परीक्षित’ रखा, क्योंकि वह कुरुकुल के परिक्षीण (नाश) होने पर उत्पन्न हुआ था।
         जब युधिष्ठिर लौटकर आये और पुत्र जन्म का समाचार सुना तो वे अति प्रसन्न हुए और उन्होंने असंख्य गाय, गाँव, हाथी, घोड़े, अन्न आदि ब्राह्मणों को दान दिये। उत्तम ज्योतिषियों को बुलाकर बालक के भविष्य के विषय में प्रश्न पूछे। ज्योतिषियों ने बताया कि वह बालक अति प्रतापी, यशस्वी तथा इच्क्ष्वाकु समान प्रजापालक, दानी, धर्मी, पराक्रमी और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का भक्त होगा।
       एक ऋषि के शाप से तक्षक द्वारा मृत्यु से पहले संसार के माया मोह को त्यागकर गंगा के तट पर श्रीशुकदेव जी से आत्मज्ञान प्राप्त करेगा। धर्मराज युधिष्ठिर ज्योतिषियों के द्वारा बताये गये भविष्यफल को सुनकर प्रसन्न हुए और उन्हें यथोचित दक्षिणा देकर विदा किया। वह बालक शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। धर्मराज युधिष्ठिर ने राजा मरुत का गड़ा हुआ धन लाकर अश्वमेघ यज्ञ किया। श्रीकृष्ण की देख रेख-में यज्ञ निर्विघ्न सम्पन्न हो गया। सभी कार्य पूर्ण हो जाने पर श्रीकृष्ण भी द्वारका लौट गए।

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