Monday, February 7, 2022

श्रीमद भागवत पुराण माहात्म्य प्रथमो अध्यायः भक्ति का शोक (भागवत प्रसंग 23)

 श्रीमद भागवत पुराण माहात्म्य प्रथमो अध्यायः 
भक्ति का शोक (भागवत प्रसंग 23) 
डा. राधे श्याम द्विवेदी
          सच्चिदानंदस्वरुप भगवान श्रीकृष्ण को हम नमस्कार करते हैं जो जगत की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के हेतु तथा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक – तीनों प्रकार के तापों का नाश करने वाले हैं। अनेक पुराणों और महाभारत की रचना के उपरान्त भी भगवान व्यास जी को परितोष नहीं हुआ। परम आह्लाद तो उनको श्रीमद् भागवत की रचना के पश्चात् ही हुआ। भगवान श्रीकृष्ण इसके कुशल कर्णधार हैं, जो इस असार संसार सागर से सद्यः सुख-शांति पूर्वक पार करने के लिए सुदृढ़ नौका के समान हैं।
           यह श्रीमद् भागवत ग्रन्थ प्रेमाश्रुसक्ति नेत्र, गदगद कंठ, द्रवित चित्त एवं भाव समाधि निमग्न परम रसज्ञ श्रीशुकदेव जी के मुख से उद्गीत हुआ है । सम्पूर्ण सिद्धांतो का निष्कर्ष यह ग्रन्थ जन्म व मृत्यु के भय का नाश कर देता है, भक्ति के प्रवाह को बढ़ाता है तथा भगवान श्रीकृष्ण की प्रसन्नता का प्रधान साधन है। मन की शुद्धि के लिए श्रीमद् भगवत से बढ़कर कोई साधन नहीं है।
         यह श्रीमद् भागवत कथा देवताओं को भी दुर्लभ है तभी परीक्षित जी की सभा में शुकदेव जी ने कथामृत के बदले में अमृत कलश नहीं लिया। ब्रह्मा जी ने सत्यलोक में तराजू बाँध कर जब सब साधनों, व्रत, यज्ञ, ध्यान, तप, मूर्तिपूजा आदि को तोला तो सभी साधन तोल में हल्के पड़ गए और अपने महत्व के कारण भागवत ही सबसे भारी वजन का रहा।
           अपनी लीला समाप्त करके जब श्री भगवान निज धाम को जाने के लिए उद्यत हुए तो सभी भक्त गणों ने प्रार्थना कि- हम आपके बिना कैसे रहेंगे तब श्री भगवान ने कहा कि वे श्रीमद् भागवत में समाए हैं। यह ग्रन्थ शाश्वत उन्हीं का स्वरुप है। पठन-पाठन व श्रवण से तत्काल मोक्ष देने वाले इस महाग्रंथ को सप्ताह-विधि से श्रवण करने पर यह निश्चय ही भक्ति प्रदान करता है।
             अनंत कोटी ब्रम्हांड नायक परम ब्रह्म परमेश्वर परमात्मा भगवान नारायण की असीम अनुकंपा से आज हमें श्रीमद् भागवत भगवान श्री गोविंद का वांग्मय स्वरूप के कथा सत्र में सम्मिलित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है | निश्चय ही आज हमारे कोई पूर्व जन्म के पुण्य उदय हुए हैं |
               नैमिषारण्य नामक वन में श्री सूत जी महाराज हमेशा श्री सौनकादि अट्ठासी हजार ऋषियों को पुराणों की कथा सुनाते रहते हैं | आज की कथा में श्रीमद् भागवत की कथा सुनाने जा रहे हैं , ऋषि गण कथा सुनने के लिए उत्सुक हो रहे हैं |भागवत जी की महिमा का रसपान करें, पद्मपुराण के माध्यम से।आरम्भ में वेदव्यासजी ने मंगलाचरण किया तो हम भी यहां पर मंगलाचरण करते हैं। कोई शुभ कार्य करने से पहले मंगल कामना या मंगल आचरण किया जाता है। 
भागवत को सच्चिदाऽनन्दरूपाय कहा गया है। हमारे वेदों ने, शास्त्रों ने, संतो ने दो बात बताई है! एक बात तो यह कि परम तत्व का परिचय, और दूसरी बात उसकी प्राप्ति का उपाय! जब परिचय हुआ कि यह रसगुल्ला है, तो फिर उसकी प्राप्ति की इच्छा होती है!
 अब…प्रश्न उठता है, कि हम परमतत्व की प्राप्ति कैसे करें?
तो यहां पर गुरू जी ने प्राप्ति का साधन बताया है! पहले तो परिचय दिया है , वो भी एक नहीं पूरे तीन प्रकार से!
 (१)स्वरूप परिचय
 (२)कार्य परिचय और
 (३)स्वभाव परिचय! 
तो पहला स्वरूप परिचय में ही सच्चिदाऽनन्दरूपाय कह कर स्वरूप परिचय बताया गया है। 
अब स्वरूप कैसा है ?…
 सत चित और आनन्द स्वरूप हो।
 सत शब्द से सास्वता बताई है, अब सत है ठीक है, पर सत के साथ चित याने चेतन्यता, तो चेतन्यता का होना परम आवश्यक है, नहीं तो सत जड़ हो जायेगा! जैसे- माईक है पर बिजली नहीं है! तो?.. माईक जड़ हो गया न! इसलिए सत के साथ चित भी आवश्यक है! अब चलो ठीक है सत है चित भी है, पर आनन्द नहीं है। हां सत और चित के साथ आनन्द का होना अति आवश्यक है! 
क्यों?.. 
क्योंकी माईक है और बिजली भी है पर वक्ता अर्थात बोलने बाला नहीं है, तो ये दोनों व्यर्थ हैं!
इसलिए यदि माईक है तो लाईट का होना आवश्यक है और माईक लाईट दोनों हैं तो वक्ता का होना जरूरी है! अत्: सत है तो चित का होना आवश्यक है और सत चित दोनों हैं तो आनंद की अनुभूति होनी ही है! इसमें शंका नहीं, तो परमात्मा कैसा है? सत्य चित्य और आनन्द स्वरूप वाला हो।यह हुआ स्वरूप परिचय! 
किसी ने पूछा- गुरुदेव वो करते क्या हैं? तो यहां पर कार्य का परिचय दिया!
विश्वोत्पत्यादि हेतवे
क्या करते हैं?… विश्व की उत्पत्ती करते हैं! आगे आदि शब्द भी जुड़ा है, तो आदि का मतलब…? उत्पत्ती ही नहीं करते और भी कुछ करते हैं, क्या…? उत्पत्ती, स्थिती और लय, मतलब जन्म भी देते हैं, पालन, पोषण भी करते हैं, और फिर विनाश भी कर देते हैं!
किसी ने कहा महाराज​! उत्पत्ति, स्थिति और लय तो हम भी करते हैं! अच्छी बात है, पर उसकी उत्पत्ति, स्थिति, लय में और उत्पत्ति, स्थिति, लय में बहुत अंतर है! हमारी उत्पत्ति में मोह है, पालन में अपेक्षा है, और लय में शोक है! कैसे?.. हम उत्पत्ति करते हैं तो संतान से मोह होता है, हम उसका पालन, पोषण करते हैं, पढा़ते- लिखाते हैं, योग्य बनाते हैं! फिर हम उससे अपेक्षा रखते हैं, की अब तो हम बूढे़ हो ग​ए हैं, अब पुत्र ही हमारी सेवा करेगा, ये अपेक्षा है। पर हमें मिलता क्या है?.. उपेक्षा! हमारा ही बेटा हमें, अपनाने से मना कर देता है! मोह हुआ, अपेक्षा भी हुई, अब यदि दैव बस किसी दुर्घटना में वह पुत्र मारा गया, तो शोक भी हो गया!
परन्तु परमात्मा को, न तो अपनी उत्पत्ति पर मोह होता है, न ही अपेक्षा और न शोक, क्योंकि जहां मोह है, वहां शोक, और जहां अपेक्षा वहां उपेक्षा का होना अनिवार्य है! भगवान सूर्य नारायण, हमने जब से देखा वे समय से उदय समय से अस्त होते हैं, पूरी पृथ्वी को प्रकाशित करते हैं! जिस कारण ही हमारा जीवन है, तो क्या उन्होंने आपको कभी बिल भेजा! पवन देवता, वरुण देवता ने कभी किराया मांगा, हमारी हवा लेते हो, हमारा पानी पीते हो लो ये बिल चुकाओ! ब्रम्ह को अपनी श्रृष्टी में न तो मोह है, और न ही अपेक्षा! उत्पत्ति, स्थिति, और लय यह परमात्मा का कार्य परिचय हुआ!
 अब इनका स्वभाव कैसा है?..
तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम​:
तो स्वभाव कैसा है?..
महाराज नमस्कार करने मात्र से मानव के तीनों तापों को मिटा देतें हैं! इतने दयालु स्वभाव के हैं! केवल नमस्कार करने मात्र से सारे दु:ख दूर हो जाते हैं!
सूतोवाच- मा• 1.1
यह मंगलाचरण श्लोक के चारों चरणों में भगवान के नाम रूप गुण और लीला का वर्णन है | जो समस्त भागवत का सार है | 
प्रथम चरण में भगवान के स्वरूप का वर्णन है भगवान का स्वरूप है सत यानी प्रकृति तत्व समस्त जड़ जगत भगवान का ही रूप है | चिद् चैतन समस्त सृष्टि के जीव मात्र ये भी भगवान का ही रूप हैं। स्वयं भगवान आनंद स्वरूप हैं इस प्रकार भगवान श्रीमन्नारायण चैतन की अधिष्ठात्री श्री देवी तथा जड़त्व की अधिष्ठात्री भू देवी दोनों महा शक्तियों को धारण किए हुए हैं यह भगवान का स्वरूप है |
 दूसरे चरण में भगवान के गुणों का वर्णन है विश्वोत्पत्यादि हेतवे समस्त सृष्टि को बनाने वाले उसका पालन करने वाले तथा अंत में उसे समेट लेने वाले भगवान श्रीमन्नारायण है यह भगवान का गुण है |
तीसरे चरण में तापत्रय विनाशाय आज सारा संसार दैहिक दैविक भौतिक इन तीनों तापों से त्रस्त है और कोई शारीरिक व्याधियों से घिरा है , कोई दैविक विपत्तियों में फंसा है तो कोई भौतिक सुख सुविधाओं के अभाव में जल रहा है | किंतु परमात्मा- भगवान श्रीमन्नारायण अपने भक्तों के तापों को दूर करते हैं । यही भगवान की लीला है । 
चौथे चरण में भगवान का नाम है श्री कृष्णाय वयं नुमः हम सब उस परमात्मा भगवान श्री कृष्ण को नमस्कार करते हैं | 
          इस प्रकार श्री सूतजी ने कथा से पूर्व भगवान का स्मरण किया तो उन्हें याद आया कि बिना गुरु के तो भगवान भी कृपा नहीं करते तो उन्होंने अगले श्लोक में गुरु को स्मरण किया |
श्लोक- मा• 1.2
जिस समय श्री सुकदेव जी का यज्ञोपवीत संस्कार भी नहीं हुआ था तथा सांसारिक तथा वैदिक कर्म का भी समय नहीं था , तभी उन्हें अकेले घर से जाते देख उनके पिता व्यास जी कातर होकर पुकारने लगे ,"हा बेटा हा पुत्र मत जाओ रुक जाओ", सुकदेव जी को तन्मय देख वृक्षों ने उत्तर दिया , ऐसे सर्वभूत ह्रदय श्री सुकदेव जी को मैं प्रणाम करता हूं |
सूत जी द्वारा इस प्रकार मंगलाचरण करने के बाद श्रोताओं में प्रमुख श्रीसौनक जी बोले--
हे सूत जी आपका ज्ञान अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए करोड़ों सूर्यो के समान है हमारे कानों को अमृत के तुल्य सारगर्भित कथा सुनाइए | इस घोर कलयुग में जीव सब राक्षस वृत्ति के हो जाएंगे उनका उद्धार कैसे होगा , ऐसा भक्ति ज्ञान बढ़ाने वाला कृष्ण प्राप्ति का साधन बताएं क्योंकि पारस मणि व कल्पवृक्ष तो केवल संसार व स्वर्ग ही दे सकते हैं किंतु गुरु तो बैकुंठ भी दे सकते हैं | 
इस प्रकार सौनक जी का प्रेम देखकर सूत जी बोले सबका सार संसार भय नाशक भक्ति बढ़ाने वाला भगवत प्राप्ति का साधन तुम्हें दूंगा । जो भागवत कलयुग में श्री शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को दी थी, वही भागवत तुम्हें सुनाऊंगा |
         श्रीमद्भागवती वार्ता सुराणामपि दुर्लभा |
सौनक जी यह श्रीमद् भागवत की कथा देवताओं के लिए भी दुर्लभ है जब श्री सुखदेव जी ने देवताओं की हंसी उड़ा दी तो देवता मुंह लटका कर ब्रह्मा जी के पास आए तथा पृथ्वी में जो घटना हुई थी वह सब ब्रह्माजी से कह सुनाएं । ब्रह्मा जी ने कहा देवताओं दुखी मत हो 7 दिन के पश्चात देखते हैं । राजा परीक्षित की क्या गति होती है? और 7 दिन के पश्चात जब राजा परीक्षित को मोक्ष को देखा तो ब्रह्मा जी को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने सत्यलोक में एक तराजू बांधा उसमें एक तरफ संपूर्ण साधनों को रखा और दूसरी तरफ श्रीमद्भागवत को रखा भागवत जी की महिमा के सामने समस्त साधन हल्के पड़ गए|
= मेनिरे भगवद्रूपं शास्त्र भागवते कलौ |   
पठनाच्र्छवणात्सद्यो वैकुण्ठफलदायकम् ||
उस समय समस्त ऋषियों ने माना इस भागवत को पढ़ने से और श्रवण से वैकुंठ की प्राप्ति निश्चित होती है । यह श्रीमद् भागवत की कथा देवर्षि नारद ने ब्रह्मा जी से सुनी परंतु साप्ताहिक कथा उन्होंने सनकादि ऋषियों से सुनी । शौनक जी ने कहा, देवर्षि नारद तो एक ही स्थान पर अधिक देर ठहर नहीं सकते फिर उन्होंने किसी स्थान पर और किस कारण से इस कथा को सुना? 
श्री सूतजी कहते हैं एक बार विशालापुरी बद्रिका आश्रम में सत्संग के लिए सनकादि चारों ऋषि आए वहां उन्होंने नारद जी को आते हुए देखा तो पूछा-
= कथं ब्रह्मन्दीनमुखं कुतश्चिन्तातुरो भवान् |     
त्वरितं गम्यते कुत्र कुतश्चागमनं तव ||
देवर्षि इस प्रकार आप चिंतातुर क्यों हैं ? इतने शीघ्र तुम्हारे आगमन कहां से हो रहा है और अब तुम कहां जा रहे हो? 
देवर्षि नारद ने कहा-
=अहं तु प्रथवीं यातो ज्ञात्वा सर्वोत्तमामिति |
मुनिस्वरों में पृथ्वी लोक को उत्तम मान वहां पुष्कर प्रयाग काशी गोदावरी हरिद्वार कुरुक्षेत्र श्रीरंग और सेतुबंध रामेश्वर आदि तीर्थों में भ्रमण करता रहा परंतु मन को संतोष प्रदान करने वाली शांति मुझे कहीं नहीं मिली । अधर्म के मित्र कलयुग में समस्त पृथ्वी को पीड़ित कर रखा है। सत्य तपस्या पवित्रता दया दान कहीं भी दिखाई नहीं देता है। सभी प्राणी अपने पेट भरने में लगे हुए हैं |
= पाखण्ड निरताः सन्तो विरक्ताः सपरिग्रहाः ||
संत पाखंडी हो गए विरक्त संग्रही हो गये हैं। 
तपसि धनवंत दरिद्र गृही | कलि कौतुक तात न जात कही ||
घर में स्त्रियों की प्रभुता चलती है । साले और ससुराल वाले सलाहकार बन गए हैं । पति-पत्नी में झगड़ा मचा रहता है। इस प्रकार से कलयुग के दोषों को देखता हुआ यमुना के तट श्री धाम वृंदावन में पहुंचा। जहां भगवान श्री कृष्ण की लीला स्थली है। वहां मैंने एक आश्चर्य देखा वह एक युवती स्त्री खिन्न मन से बैठी हुई थी । उसके समीप में दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्था में पड़े जोर जोर से सांस ले रहे थे। वह युवती उन्हें जगाने का प्रयास करती । जब वह नहीं जागते तो वह रोने लगती । सैकड़ों स्त्रियों उसे पंखा कर रही थी और बारंबार समझा रही थी । यह आश्चर्य दूर से देख मैं पास में चला गया । मुझे देखते ही वह युवती स्त्री खड़ी हो गई और कहने लगी |
= भो भो साधो क्षणं तिष्ठ मच्चिन्तामपि नाशय ||
श्लोक- मा• 1.42
हे महात्मन कुछ देर ठहर जाइए और मेरी चिंता को नाश कीजिए। मैंने कहा देवी आप कौन हैं ? यह दोनों पुरुष और यह स्त्रियां कौन हैं? तथा अपने दुख का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। उस युवती ने कहा -
अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ |
ज्ञान वैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ ||
देवर्षि में भक्ति हूं और यह दोनों ज्ञान वैराग्य मेरे पुत्र हैं । काल के प्रभाव से यह वृद्ध हो गए हैं । और यह सब गंगा आदि नदियां मेरी सेवा के लिए यहां आई है |
 उत्पन्ने द्रविणेसाहं वृध्दिं कर्णाटके गता |
क्वचित्क्वचिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता ||
मैं दक्षिण में उत्पन्न हुई तथा कर्नाटक में वृद्धि को प्राप्त हुई। कहीं-कहीं महाराष्ट्र में सम्मानित हुई और गुजरात में जाकर जीर्णता को प्राप्त हो गई ।वहां घोर कलिकाल के कारण पाखंडियों ने मुझे अंग भंग कर दिया। 
वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेन सुरूपिणी ||
 वृंदावन को प्राप्त करके पुनः मैं युवती हो गई परंतु मेरे पुत्र अभी भी वैसे ही थके-मांदे पड़े हुए हैं। इसलिए अब मैं इस स्थान को छोड़कर अन्यत्र जाना चाहती हूं । 
देवर्षि नारद ने कहा , देवी यह दारुण कलयुग है। जिसके कारण सदाचार योग मार्ग और तपस्या लुप्त हो गए हैं। इस समय संत सत्पुरुष दुखी है और दुष्ट प्रशन्न है। इस समय जिसका धैर्य बना रहे वही ज्ञानी है। 
वृन्दावनस्य संयोगात्पुनस्त्वं तरुणीनवा |
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिर्नृत्यति यत्र च ||
श्लोक- मा• 1.61
इस वृंदावन को प्राप्त करके आज पुनः आप युवती हो गई । यह वृंदावन धन्य है जहां भक्ति महारानी नृत्य करती हैं । भक्ति देवी कहती हैं देवर्षि यदि यह कलयुग ही अपवित्र है ,तो राजा परीक्षित ने इसे क्यों स्थापित किया और करुणा परायण भगवान श्रीहरि भी इस अधर्म को होते हुए कैसे देख रहे हैं ? 
देवर्षि नारद ने कहा , देवी जिस दिन भगवान श्री कृष्ण इस लोक को छोड़कर अपने धाम में गए उसी समय साधनों में बाधा पहुंचाने वाला कलयुग आ गया। दिग्विजय के समय राजा परीक्षित की दृष्टि जब इस पर पड़ी तो कलजुग दीन के समान उनकी शरण में आ गया। भ्रमर के समान सार ग्राही राजा परीक्षित ने देखा |
यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना |
तत्फलं लभते सम्यक्कलौ केशवकीर्तनात् ||
श्लोक- मा• 1.68
जो फल अन्य युगों में तपस्या योग समाधि के द्वारा नहीं प्राप्त होता था। वह फल कलयुग में मात्र भगवान श्रीहरि के कीर्तन से प्राप्त हो जाता है। इस एक गुण के कारण राजा परीक्षित ने कलयुग को स्थापित किया । देवी इस कलिकाल के कारण पृथ्वी के संपूर्ण पदार्थ बीज हीन भूसी के समान व्यर्थ हो गए हैं । धन के लोग के कारण कथा का सार चला गया। आज कुकर्म करने वाले चारों ओर हो गए हैं , ब्राम्हणो ने थोड़े लोभ के लिए घर-घर में भागवत बांचना शुरू कर दिया है |
अयं तु युगधर्मो हि वर्तते कस्य दूषणम् ? 
यह युगधर्म ही है इसमें किसी का कोई दोष नहीं। देवर्षि नारद की इन वचनों को सुनकर भक्ति महारानी को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा , देवर्षि आप धन्य हैं तथा मेरे भाग्य से ही आपका यहां आना हुआ ।साधुओं का दर्शन इस लोक में समस्त सिद्धियों को प्रदान करने वाला है |
जयति जगति मायां यस्य काया धवस्ते
वचन रचनमेकं केवलं चाकलय्य |
ध्रुवपद मपि यातो यत्कृपातो ध्रुवोयं
सकल कुशल पात्रं ब्रह्मपुत्रं नतास्मि ||
जिन आपके एकमात्र उपदेश को धारण करके कयाधु नंदन प्रहलाद ने माया पर विजय प्राप्त कर ली और जिन आपकी कृपा से ध्रुव ने ध्रुव पद को प्राप्त कर लिया । 
भक्ति बोली , हे देव ऋषि आपको धन्य है । आप मेरे भाग्य से आए हैं । ऐसे ब्रह्मा जी के पुत्र देवर्षि नारद को मैं प्रणाम व नमस्कार करती हूँ |
        इति श्रीमद भागवत पुराण माहात्म्य प्रथम अध्याय। 


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