(भागवत प्रसंग 22,)
आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी
॥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥
हरी अनंत हरी कथा अनंता।
कहहि सुनहि बहु बिधि सब संता॥
सत्येन हीनाः पितृमातृदूषका-स्तृष्णाकुलाश्चाश्रमधर्मवर्जिताः। ये दाम्भिकाः मत्सरिणोऽपि हिंसकाः सप्ताहयज्ञेन कलौ पुनन्ति ते॥
जो असत्य भाषण करने वाला हो,माता-पिता का आदर न करता हो,कुल के अनुसार आचरण करने वाला न हो,धर्म से विमुख हो,दंभी हो,मास-मदिरा का सेवन करने वाला ही क्यों न हो ‘भागवत सप्ताह यज्ञ’ से कुल सहित उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
कस्तूरी तिलकं ललाट पटले,वक्षस्थले कौस्तुभम।
नासाग्रे वरमौक्तिकं कर तले,वेणु करे कंकणम॥
सर्वांग हरिचंदनम सुललितम कंठे च मुक्तावलीम।
गोपस्त्री परिवेश्तिथौ विजयते गोपाल चूड़ामणि॥१॥
सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे।
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः॥२॥
यदुनंदनन्दन देवकी वासुदेव नंदन वंदनम।
मृदु चपल नयनम चंचलम मनमोहन अभिनंदनम॥३॥
हे दीनबंधु दिनेश सर्वेश्वर नमोस्तुते।
गोपेश गोपी का कांत राधाकांत नमोस्तुते॥४॥
धन्य वृंदावन धाम है धन्य वृंदावन नाम।
धन्य वंदावन रसीक जो सुमरे श्यामा श्याम॥५॥
प्रेम मयी श्री राधिका,प्रेम सिंधु गोपाल।
प्रेम भूमि वृंदाविपिन,प्रेम रुफ बब्रज बाल॥६॥
सहज रसीली नागरी सहज रसीलो लाल।
सहज प्रेमी की बेलि मनो लपटी प्रेम तमाल॥७॥
माता मेरी श्री राधिका पिता मेरे घनश्याम।
इन दोनों के चरणों में प्रणवौ बारंबार॥८॥
राधा राधा रटत ही भव व्याधा मिट जाए।
कोटी जन्म की आपदा राधा नाम लियो सो जाए॥९॥
राधा मेरी स्वामिनी मैं राधे को दास।
जन्म-जन्म मोहे दीजियो वृंदावन के बास॥१०॥
श्री राधे बृषभानुजा भक्तनि प्राणाधार।
वृंदावन विपिन विहारिणी प्रणवौ बारंबारम॥११॥
जय जय श्री राधा रमण जय जय नवल किशोर।
जय जय गोपी चितचोर प्रभु जय जय माखन चोर॥१२॥
श्री राधे हाथ मेंहन्दी लगी,नथमे उलझे केश।
नंदनंदन सुलझावते,धरी ललिता का वेश॥१३॥
जसोदा जी को लाडलो संतन को प्रतिपाल।
गहे शरण प्रभु राखियो,सब अपराध बिसार॥१४।।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम्।
पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः॥
इस पुराण में कहा गया है कि भागवत वेदरूपी कल्पवृक्ष का परिपक्व फल है।शुकदेव रूपी शुक के मुख का संयोग होने से अमृत रस से परिपूर्ण है।यह रस ही रस है।इसमें न छिलका है,न गुठली।यह इसी लोक में सुलभ है।
[श्रीमद्भागवत महापुराण:६:८०]
शृण्वतां स्वकथां कृष्णः पुण्यश्रवणकीर्तनः।
हृद्यन्तःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम्॥
मानव जन्म पाकर मनुष्य अमृत पी ले और उसके व्यवहार में कोई बदलाव न हो तो उस अमृत पीने का कोई लाभ नहीं।राहु ने भी अमृत पिया और अमर हो गए,लेकिन उसके व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं होने के कारण उसे कोई लाभ नहीं मिला।वहीं धुंधकारी जैसे पापी भी कथामृत श्रवण करने मात्र से मोक्ष को प्राप्त किए।भागवत कथा अमृत सामान है तभी मोक्ष प्राप्ति के लिए राजा परीक्षित अपने जीवन के अंतिम सात दिन कथामृत श्रवण कर बिताया और पुण्य के भागी बने और उन्हें भी मोक्ष मिला।
श्रीमद्भागवत महापुराण भक्ति तथा मुक्ति दोनों प्रदान करने वाली है।जिस परिवार के नाम से श्रीमद्भागवत महापुराण का पाठ होता है उस परिवार में भक्ति का प्रादुर्भाव स्वतः ही हो जाता है।माता लक्ष्मी की कृपा हमेशा बनी रहती है।शत्रु स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं।व्यक्ति को मान-सम्मान की प्राप्ति होती है।उस परिवार में दरिद्रता कभी नहीं आती।
सच्चिदानन्द रूपाय विश्व उत्पत्यादिहेतवे।
तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः॥
जन्माद्यस्य यतोsन्वयादितरत: चार्थेषुभिज्ञे स्वराट्,
तेने ब्रह्म हृदाय आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरय।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमय यत्र त्रिसर्गो मृषा,
धाम्ना स्वेदन सदा निरस्तकुहकं सत्यम परम धीमहि॥
मंगल आचरण को मंगलाचारण कहतें हैं यह भागवत जी का प्रथम श्लोक मंगलाचरण है।जिस ब्रह्म को जाननें में बड़े ज्ञानी ध्यानी व्यामोहित हो जाते हैं।तेजी वारी यानी सूर्य की किरणें जब वसुंधरा पर पडते हैं।तो जल की भ्रांति होती है ठीक उसी तरह ‘संसार मेरा है।’-यह हमारी भ्रांति है।
यह श्लोक यही कहता है।मित्रों!सत्कर्मों में अनेक विघ्न आते हैं।उन सभी के निवारण के लिए मङ्गलाचरण की आवश्यकता है अतः कथा में बैठने से पहले भी मङ्गलाचरण करना चाहिए।
शास्त्र कहते हैं कि देवगण भी सत्कर्म में विक्षेप करते हैं।देवताओं को ईर्ष्या होती है कि नारायण का ध्यान यह करेगा तो यह भी अपने समान ही हो जाएगा।अतः देवताओं से भी प्रार्थना करनी आवश्यक है।-हे देवो! हमारे सत्कार्य में विक्षेप न करना।सूर्यदेव हमारा कल्याण करें,वरुणदेव हम पर कृपा करें।
यदा यदेहि धर्मस्य क्षयो वृद्धिश्श्रच पारमनः।
तदा तु भगवानीश आत्मनं सृजते हरिः॥
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे,
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नम:॥
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतः चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्।
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत् सूरयः।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा।
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि॥
जिससे इस जगत् की सृष्टि,स्थिति और प्रलय होते हैं-क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थों में अनुगत हैं और असत् पदार्थों से पृथक् है;जड़ नहीं,चेतन है;परतन्त्र नही,स्वयंप्रकाश है,जो ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं प्रत्युत उन्हें अपने संकल्प से ही जिसने उस वेदज्ञान का दान किया है,जिसके सम्बन्ध में बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं।जैसे तेजोमय सूर्यरश्मियों में जल का,जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है,वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयीजाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होनेपर भी अधिष्ठान-सत्ता से सत्यवत् प्रतीत हो रही है,उस अपनी स्वयंप्रकाश ज्योति से सर्वदा और सर्वथा माया और मायाकार्य से पूर्णतः मुक्त रहनेवाले परम सत्यरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं॥
त्वमेव माता च पिता त्वमेव,त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविड़म त्वमेव,त्वमेव सर्वम् मम् देव देव॥
वृन्दावनेश्वरी राधा कृष्णो वृन्दावनेश्वरः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम॥
सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा।
यस्या: श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत्॥
श्रीमद्भागवतजी का सदा-सर्वदा सेवन,आस्वादन करना चाहिए।इसके श्रवणमात्र से श्रीहरि हृदय में आ विराजते हैं॥
ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने॥
प्रणत: क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:॥
जयति पराशरस्सु: सत्यवती हृदयनन्दनो व्यास:। यस्यऽऽस्यकमलगलितं वाङ्गमयममृंत जगत्पिवति॥
सत्यवती के हृदय नंदन पराशर के पुत्र श्री व्यास जी की जय हो,जिनके मुख कमल से निकले अमृत का पान सारा संसार करता है।
नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र।
येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्ज्वालितो ज्ञानमयप्रदीपः॥
जिन्होंने महाभारत रूपी ज्ञान के दीप को प्रज्वलित किया ऐसे विशाल बुद्धि वाले महर्षि वेदव्यास को मेरा नमस्कार है।
व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे।
नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नम:॥
व्यास विष्णु के रूप है तथा विष्णु ही व्यास है ।
ऐसे वसिष्ठ-मुनि के वंशज का मैं नमन करता हूँ।
॥जय राधे,जय कृष्ण,जय वृंदावन।
जय राधे,जय कृष्ण,जय वृंदावन।
श्री गोविंदा,गोपीनाथ,मदन-मोहन॥
श्याम-कुंड,राधा-कुंड,गिरि-गोवर्धन।
कालिंदी जमुना जय,जय महावन ॥
जय राधे,जय कृष्ण,जय वृंदावन॥
केशी-घाट,बंसीवट,द्वादश-कानन।
जहां सब लीला कोइलो श्री-नंद-नंदनी॥
जय राधे,जय कृष्ण,जय वृंदावन॥
श्री-नंद-यशोदा जय,जय गोप-गण।
श्रीदामादि जय,जय धेनु-वत्स-गण॥
जय राधे,जय कृष्ण,जय वृंदावन॥
जय वृषभानु,जय कीर्तिदा सुंदरी।
जय पूरणमासी,जय अभिरा नगरी॥
जय राधे,जय कृष्ण,जय वृंदावन॥
जय जय गोपिश्वर वृंदावन-माझ।
जय जय कृष्ण-सखा बटु द्विज-राज॥
जय राधे,जय कृष्ण,जय वृंदावन॥
जय राम-घाट,जया रोहिणी-नंदन।
जय जय वृंदावन,बासी-जत-जन॥
जय राधे,जय कृष्ण,जय वृंदावन॥
जय द्विज-पत्नी जय,नाग-कन्या-गण।
भक्ति जहर पाईलो,गोविंद चरण॥
जय राधे,जय कृष्ण,जय वृंदावन॥
श्री-रास-मंगल जय,जय राधा-श्याम।
जय जय रास-लीला,सर्व-मनोरम॥
जय राधे,जय कृष्ण,जय वृंदावन॥
जय जय उज्ज्वल-रस,सर्व-रस-सार।
पारकिया-भावे जाह,ब्रजते प्रचार॥
जय राधे,जय कृष्ण,जय वृंदावन॥
श्री जाह्नवा पाद पद्म कोरिया स्मरण।
दीन कृष्ण दास कोहे नाम संकीर्तन॥
जय राधे,जय कृष्ण,जय वृंदावन॥
जय राधे,जय कृष्ण,जय वृंदावन।
श्री गोविंदा,गोपीनाथ,मदन-मोहन॥
नमस्ते परमेशानि रासमण्डलवासिनी।
रासेश्वरि नमस्तेऽस्तु कृष्ण प्राणाधिकप्रिये॥
रासमण्डल में निवास करने वाली हे परमेश्वरि ! आपको नमस्कार है। श्रीकृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हे रासेश्वरि ! आपको नमस्कार है॥
पद्मपुराणानुसार श्रीकृष्ण के तत्व दर्शन को रुक्मिणी को देह और राधा को आत्मा माना गया है।श्रीकृष्ण का रुक्मिणी से ‘दैहिक’ और राधा से ‘आत्मिक’ संबंध माना गया है।
तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः॥
आदरणीय मित्रों ! यह श्रीमद्भागवत का पहला श्लोक है जिसका अर्थ इस प्रकार है:-
जो सत्य,चित्त और आनंद के स्वरूप हैं, जो संपूर्ण विश्व की उत्पत्ति और प्रलय के कारण हैं।जो तीनों प्रकार के तापों (दैहिक,दैविक और भौतिक) का विनाश करने वाले हैं,उन परम पिता भगवान श्री कृष्ण जी महाराज को हम सब प्रणाम करते हैं। मित्रों इस प्रथम श्लोक का संदेश यही कहा जा सकता है कि हमें अपने सर्वस्व भौतिक सुखों और दुखों को सत्य,चित्त और आनँद के स्वरूप भगवान श्री कृष्ण के पावन एवं पुनीत चरणों में समर्पित करके अपने हृदय में उन्हें स्थान देनाचाहिए।जिससे हमारा कल्याण होगा।
सत:-नित्य एवं शास्वत होता है।
प्रश्न:- सत एवं असत में क्या अंतर है?
उत्तर:- सत वो है जिसमे परिवर्तन नहीं होता है। वेदांत दर्शन में सत्य की व्याख्या यही है की जो तत्त्व परिवर्तनशील है वोह नाशवंत है अपितु सत्य नहीं,परन्तु जो प्राकृतिक बंधनों से पर है एवं परिवर्तनशील नहीं है,वो ही सत्य हो सकता है।श्रीमद्भगवद्गीता में भी भगवान श्री कृष्ण कहते है की ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’, जो असत है उसका अस्तित्व नहीं है एवं जो सत है उसका नाश नहीं होता,क्यूंकि वो नित्य है।
चित:-शुद्ध चैतन्य होता है।
आनंद:-परम विलास पूर्ण होता है।
प्रश्न:-सुख एवं आनंद में भेद है?
उत्तर:- जी है,सुख इस संसार जगत के साथ द्वंद बंधनों से पर नहीं है,क्यूंकि सुख,दुःख के साथ बंधा हुआ है, जेसे हर्ष और शोक,ठंड और गर्मी,ऐसा ही इस संसार माया में द्वंद है परन्तु जो वेदिक शास्त्र जब आनंद की व्याख्या देते हे वोह इस संसार की अनुभूतियो के पर है जिसमे द्वन्द कदापि नहीं है।
रूपाय:-जिसका स्वरूप होता है।
विश्व:-इस सकल संसार जिसमे सभी जल,पृथ्वी,वायु,तेज,अग्नि से बनाया गया है और सर्व सांख्य दर्शन के तत्त्वों जिसका उल्लेख श्रीमद भागवत महापुराण में विस्तारपूर्वक रचना हुई है। महाऋषि कपिल और माता देवहुति के संवाद में।
उत्पति:– प्रारम्भा,निर्माणाधीन होता है।
प्रश्न:-कृष्ण के पहले और कुछ था?
उत्तर:- नहीं,शश्रीमद्भागवतमें भगवान कहते है की ‘अहमेवा समेवाग्रे नान्यद यत सदसत परम’-‘मेरे सिवा और कुछ नहीं था,नहीं इस सृष्टि के तत्त्व थे नहीं इस सृष्टि’,यह प्रमाण हे के भगवान कृष्ण के अलावा कुछ नहीं था।वो ही इस इस सकल संसार के रचेता है।
आदि:-वगेरे,का पोषण एवं संहार,इस शब्द जब हम श्लोक के स्थूल रूप में लिया तो शब्दार्थ होता है ‘वगेरे’, परन्तु जब हम उसके भावार्थ को समजे तो लिखा हुआ है ‘पोषण एवं संहार’।क्यूंकि उत्पति की पहले व्याख्याकी है तो सरल है की पोषण एवं संहार ही होना चाहिए।
प्रश्न:- पोषण एवं संहार कौन करता है?
उत्तर:- मूल तत्त्व केवल भगवान कृष्ण है परन्तु इस सकल संसार के लिया अन्य देवी देवता भगवान की आज्ञा से सृष्टि सेवा में व्यस्त है।
हेतवे:-जिसका हेतु,निर्माता,बिज, करता,
ताप त्राय:- तीनों दुःख का विभाजन: अध्यात्मिक,अधिदैविक एवं अधिभौतिक।
विनाशाय:-संपूर्ण नष्ट करता है।
श्री:-श्री राधा रानी के लिए प्रयुक्त हुआ है
प्रश्न:- यह राधा का नाम क्युं?
उत्तर:- वेदिक धर्मं अनुसार,जब हम प्रभु के नाम लहते है,उसके पहले हम उसके देविशक्ति का आवाहन एवं स्मरण करते है।श्री राधा,श्रीकृष्ण की अविछिन ह्लादिनी शक्ति है।श्री राधाजिकी कृपा से ही जीव श्री कृष्ण प्रेम को अनुभव कर सकते है।
कृष्णाय:- उस कृष्णको जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान है।
वयम:-हम सब जीव।
नुमः :-नमन करते है।
हम जब इस श्लोक की विभाजन करते है तो श्री कृष्ण के तीन लक्षणों के दर्शन होते है,वो है स्वरूप,कार्य और स्वभाव।सत,चित और आनंद,श्री कृष्णकी स्वरूप दर्शन है।श्री कृष्ण का कार्य दर्शन है इस सकल संसारकी उत्पत्ति,पालन एवं अंत में संहार,एवं तीसरा दर्शन है भगवान का स्वभाव,जो संतो,भक्तो एवं साधको के तीनों दुःख को मूल से विनाश कर देते है।
सांकेत्यं पारिहास्यं वा स्तोत्रं हेलनमेव वा।
वैकुण्ठनामग्रहणमशेषधहरं विटुः॥
पतितः स्खलितो भग्नः संदष्टस्तप्त आहतः।
हरिरित्यवशेनाह पुमान्नार्हति यातनाम्॥
श्रीमदभागवत में वर्णित उपरोक्त श्लोकों का भावार्थ यह है कि “भगवान का नाम चाहे जैसे लिया जाय-किसी बात का संकेत करने के लिए,हँसी करने के लिए अथवा तिरस्कार पूर्वक ही क्यों न हो,वह संपूर्ण पापों का नाश करनेवाला होता है।पतन होने पर,गिरने पर,कुछ टूट जाने पर,डँसे जाने पर,बाह्य या आन्तर ताप होने पर और घायल होने पर जो पुरुष विवशता से भी ‘हरि’ ये नाम का उच्चारण करता है,वह यम-यातना के योग्य नहीं।”-श्रीमदभागवत महापुराण:६:२:१४-१५)
वृंदा वन की महिमा:-
ज़रा हटके ज़माने से देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे॥
ज़रा चलके वृंदावन देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे
ज़रा हटके ज़माने से देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
ज़रा चलके वृंदावन देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
ज़रा हटके ज़माने से देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
ज़रा चलके वृंदावन देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
ज़रा हटके ज़माने से देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
झूल रही होंगी राधा प्यारी,श्याम झूला झुलते मिलेंगे।
झूला झूल रही होंगी राधा प्यारी,श्याम झूला झुलते मिलेंगे।
ज़रा चलके वृंदावन देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
ज़रा हटके ज़माने से देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
साथमें उनके ग्वाल-बाल होंगे,श्याम माखन चुराते मिलेंगे।
साथ मई उनके ग्वाल-बाल होंगे,श्याम माखन चुराते मिलेंगे।
ज़रा चलके वृंदावन देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
ज़रा हटके ज़माने से देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
करमें उनके लकुतिया होंगी,श्याम गौवे चरते मिलेंगी।
कर मई उनके लकुतिया होंगी,श्याम गौवे चरते मिलेंगी।
ज़रा चलके वृंदावन देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
ज़रा हटके ज़माने से देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
कही यमुना के तीर,गोपीणयों के संग श्याम रास-रचते मिलेंगे।
कही यमुना के तीर,गोपीणयों के सँग श्याम रास-रचते मिलेंगे।
ज़रा चलके वृंदावन देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
ज़रा हटके ज़माने से देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
कही रूठ गई होंगी राधा रानी,श्याम उनको मानते मिलेंगे।
कही रूठ गई होंगी राधा रानी,श्याम उनको मानते मिलेंगे।
ज़रा चलके वृंदावन देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
ज़रा हटके ज़माने से देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
ज़रा चलके वृंदावन देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
ज़रा हटके ज़माने से देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
ज़रा चलके वृंदावन देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे।
ज़रा हटके ज़माने से देखो,श्याम बंसी बजाते मिलेंगे
स्वर्गे सत्ये च कैलासे वैकुण्ठे नास्त्ययं रसः।
अतः पिबन्तु सद्भाग्या मा मा मुंचत कर्हिचित्॥
शुकदेव जी कहते हैं- अरे! यह भागवत रस तो स्वर्गादिलोको में भी प्राप्त नहीं होता। ‘निगमकल्पतरोर्गलितं’ वेदरूपी कल्पवृक्ष का यह एकदम पका हुआ फल है।शुकमुखादमृतद्रव संयुतं’ यह अमृत है।तोते का चखा हुआ फल एकदम रसीला होता है।‘शुक’ का अर्थ तोता भी होता है।और शुकदेव जी भी।
ये तो वैरागी परमहंस हैं फिर भी इन्होंने इसका रसास्वादन किया है। और प्रायः फल को तो,खाया जाता है लेकिन यह कहाँ इस फल को पी लो। यह रसरूपी फल है। इसमें कुछ भी त्याज्य है ही नहीं,रस ही रस है।श्रीमद्भागवत समस्त उपनिषदों का सार है।जो इस रस-सुधा का पान करके छक चुका है,वह किसी और पुराण-शास्त्र में रम नहीं सकता।जैसे नदियों में गंगा, देवताओं में विष्णु और वैष्णवों में श्रीशंकर जी सर्वश्रेष्ठ हैं,वैस ही पुराणों में श्रीमद्भागवत है। श्रीकृष्ण के प्रति समस्त कर्मों को समर्पित कर देना ही संसार के तीनों तापों की एकमात्र औषधि है।सांसारिक,सामाजिक,भौतिक और मानसिक चिन्ताएँ मिटानी हों तो एक महौषधि है-“शरणागति।”
॥स्वागतम कृष्णा,सुस्वागतं कृष्णा॥
स्वागतम् कृष्ण शरणागतम् कृष्ण।
सु स्वागतम्,सु स्वागतम्,शरणागतम् कृष्णा।
कृष्णा,कृष्णा,कृष्णा,कृष्णा॥
अभी आता ही होगा सलोना मेरा,
हम राह उसी की तका करते हैं।
कविता सविता नहीं जानते है,
मन में जो आया सो बका करते हैं।
पड़ते उनके पद पंकज में,
चलते चलते जो थका करते हैं।
उनका रस रूप पिया करते हैं,
उनकी छवि छाप छका करते हैं।
अपने प्रभु को हम ढूँढ लियो,
जैसे लाल अमोलक लाखन में।
प्रभु के अंग में जितनी नरमी,
उतनी नरमी नहीं माखन में।।
स्वागतम् कृष्णा,शरणागतम् कृष्णा॥
॥द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्रा धर्मश्चतुर्विधः॥
कलयुग का वास चार जगहों में होता है। पहला जहाँ मद्यपान होता है,दूसरा जहां पर स्त्री गमन या वेश्यावृत्ति हो,तीसरा जहाँ जुआ खेला जाता है,चौथा जहाँ हिंसा होती हो॥
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