डा. राधे श्याम द्विवेदी
हिन्दू धर्म में गाय सबसे पवित्र पशु माना जाता है।प्रारंभिक युग में गाय की केवल एक ही नस्ल थी । आज से लगभग 9500 वर्ष पूर्व गुरु वशिष्ठ ने ही गाय के कुल को बढ़ाया था । गाय के विस्तार के बाद उनकी 8 नस्ल हो गई थी । जिनके नाम कामधेनु , नंदनी , देवनी , भौमा और कपिला इत्यादि थे। कामधेनु गाय के लिए गुरु वशिष्ठ से महर्षि विश्वामित्र और कई अन्य राजाओं के कई बार युद्ध भी हुए , लेकिन गुरु वशिष्ठ ने कामधेनु गाय की नस्लों को किसी को भी नहीं दिया । कामधेनु गाय के लिए युद्ध में गुरु वशिष्ठ के 100 पुत्र भी मारे गए थे । आज हम कामधेनु गाय की बछिया ( बछड़ी ) जिसका नाम नंदनी था के बारे में चर्चा करेंगे कि किस तरह राजा कौशिक ( जो बाद में महर्षि विश्वामित्र के नाम से जाने गए ) और ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ के बीच कामधेनु गाय की बछिया ( बछड़ी ) के लिए भयंकर युद्ध हुआ ? पौराणिक कथाओं के अनुसार महर्षि वशिष्ठ के पास नंदनी नाम की एक कामधेनु गाय की बछिया थी ।
प्राचीन काल में एक महान राजा गाधि हुए थे, उनके पुत्र थे राजा कौशिक। वह अपने पिता के समान ही प्रतापी थे, उनके यश की कीर्ति चारो दिशा में फैली हुई थी। यही आगे चलकर विश्वामित्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। एक बार राजा कौशिक अपनी एक अक्षौहिणी सेना लेकर वन विहार को निकले थे । वन में अधिक वक्त हो जाने की वजह से उनकी सेना का भूख - प्यास से बुरा हाल हो रहा था । अपनी सेना की यह हालत देखकर राजा कौशिक वन में ही किसी ऋषि का आश्रम ढूॅंढने लगे । कुछ देर अपनी सेना के साथ आगे बढ़ने पर उनकी दृष्टि एक आश्रम पर पड़ी । वह ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ का आश्रम था । मार्ग में महर्षि वशिष्ठ का आश्रम देख उनका आशीर्वाद लेने के लिए उनके आश्रम पहुँचे। राजा कौशिक अपनी सेना सहित महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में प्रवेश किया और उन्होंने गुरु वशिष्ठ को प्रणाम किया ।
राजा को अपने आश्रम में आया देख महर्षि वशिष्ठ बड़े प्रसन्नता से स्वागत किया था।
राजा कौशिक और उनकी सेना की हालत देखकर महर्षि वशिष्ठ ने राजा कौशिक से कहा - राजन ! आप और आपकी सेना भूख और प्यास से बेहाल प्रतीत हो रहे हैं । वशिष्ठ ने उनसे कहा कि वे कुछ दिन अपनी सेना के साथ उनका आथित्य ग्रहण करें।
ये सुनकर विश्वामित्र ने कहा- ‘हे महर्षि! मैं तो यहाँ केवल आपके दर्शनों के लिए आया था। मैं आपको कष्ट नहीं देना चाहता। आप किस प्रकार मेरी एक अक्षौहिणी खान पान की व्यवस्था करेंगे?'
तब महर्षि वशिष्ठ ने कहा- ‘राजन! आप चिंता ना करें। मेरे पास गौमाता कामधेनु की पुत्री नंदिनी है जो सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाली है। मैं आपके और आपकी सेना के लिए भोजन और जल का प्रबंध करता हूॅं ।
इसके बाद गुरु वशिष्ठ नंदनी गाय के पास गए और माता नंदनी से हाथ जोड़कर राजा कौशिक और उनकी सेना के लिए स्वादिष्ट भोजन और दूध की व्यवस्था करने को कहा । माता नंदनी एक मां की भांति अपने बच्चों की हर इच्छा का पालन करती थी । उन्होंने गुरु वशिष्ठ की भी इच्छा का पालन किया । कुछ ही क्षण में तरह- तरह के स्वादिष्ट पकवान और दूध के साथ- साथ दूध से बनी मिठाइयां प्रकट हो गई । गुरु वशिष्ठ ने राजा कौशिक और उनकी सेना को भरपेट भोजन कराया ।
राजा कौशिक ने गुरू वशिष्ठ से इतने स्वादिष्ट भोजन का प्रबंध उन्होंने इतनी जल्दी कैसे कर लिया इसका रहस्य पूछा । गुरु वशिष्ठ ने राजा कौशिक को नंदनी गाय के बारे में बताया और कहा कि यह गाय मुझे देवराज इन्द्र से प्राप्त हुआ था और इसी नंदनी गाय से मै अपने आश्रम के सभी ऋषि मुनियों और अपने आश्रम में आए सभी अतिथियों का स्वागत सत्कार करता हूॅं ।
तब कौशिक जी ने सोचा कि ऐसी गाय की अधिक आवश्यकता तो उन्हें है। यही सोच कर विश्वामित्र ने महर्षि वशिष्ठ से नंदिनी गाय देने का आग्रह किया। नंदिनी महर्षि वसिष्ठ जी के आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देने में असमर्थता व्यक्त कर महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें नंदनी को देने से इंकार कर दिया।
राजा कौशिक ने महर्षि वशिष्ठ से पुनः याचना की कि इस नंदनी गाय के बदले में मैं आपको 100 गाय दूंगा । आप इस गाय को मुझे सौंप दे । लेकिन गुरु वशिष्ठ ने कहा कि यदि आप मुझे इस गाय के बदले में अपना संपूर्ण राजपाट भी देने को तैयार हो तब भी मैं इस गाय को आपको नहीं सौंप सकता ।
ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ के इंकार से राजा कौशिक क्रोधित हो गए और जबरदस्ती नंदनी गाय को पकड़ने के लिए आगे बढ़े । राजा कौशिक और उनके पुत्रों के नंदनी गाय के निकट पहुंचने से पहले ही ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ ने राजा कौशिक के एक पुत्र को छोड़कर शेष सभी पुत्रों को अपने तप के तेज से जलाकर भस्म कर दिया । यह देखकर राजा कौशिक की सेना नंदनी गाय को पकड़ने के लिए बढ़ी । उसी क्षण नंदनी गाय के शरीर से असंख्य सैनिक निकल कर राजा कौशिक की सेना का संहार करने लगे । इस तरह राजा कौशिक और गुरु वशिष्ठ की सेना के मध्य भयंकर युद्ध हुआ । राजा कौशिक अपने पुत्रों को खोकर बहुत दुखी हो गए। उनकी विशाल सेना का भी नाश हो गया था ।
वसिष्ठ विश्वामित्रके बीच के संघर्ष की कथाएं सुविदित हैं। महर्षि वशिष्ठ ने राजा कौशिक की एक अक्षौहिणी सेना को परास्त कर दिया।
एक ब्राह्मण से हारकर विश्वामित्र घोर शोक में घिर गए और तब उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से प्रतिशोध लेने की ठानी। उन्होंने अपने एक पुत्र को राज-पाठ सौंपा और तपस्या करने हिमालय की ओर प्रस्थान कर गए। द्वेष-भावना से प्रेरित होकर विश्वामित्र ने भगवान शंकर की तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठ पर पुन: आक्रमण कर दिया।
दिव्यास्त्र प्राप्त कर वे प्रतिशोध लेने महर्षि वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे और महर्षि वशिष्ठ को युद्ध के लिए ललकारा। उन्होंने एक एक कर महर्षि वशिष्ठ पर व्यवयास्त्र, आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, पर्वतास्त्र, पर्जन्यास्त्र, गंधर्वास्त्र, मोहनास्त्र इत्यादि सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया। किन्तु महर्षि वशिष्ठ ने उन सभी दिव्यास्त्रों को बीच में ही रोक दिया।
अंत में कोई और उपाय ना देखकर विश्वामित्र ने महर्षि वशिष्ठ पर ‘ब्रह्मास्त्र‘ का प्रयोग किया। जवाब में वशिष्ठ ने महाविनाशकारी ‘ब्रह्माण्ड अस्त्र’ (ब्रह्माण्ड अस्त्र ब्रह्मास्त्र से 5 गुणा अधिक शक्तिशाली माना जाता है) को प्रकट किया जो विश्वामित्र के ब्रह्मास्त्र को काट दिया।
'घिक बलम क्षत्रिय बलम ब्रह्म तेजो बलम बलम।'
विश्वामित्र को बार बार पराजित करने पर भी महर्षि वशिष्ठ ने उनका वध नहीं किया। इससे और भी अपमानित होकर विश्वामित्र वहां से चले गए।
विश्वामित्र के मन में ये विचार आया कि मैं छिपकर वशिष्ठ पर ब्रह्मास्त्र का प्रहार करूँगा जिससे उनकी मृत्यु हो जाएगी। जब वो नहीं रहेंगे तो सारा जगत मुझे ही ‘ब्रह्मर्षि’ मानेगा। ये कुत्सित विचार लेकर विश्वामित्र वशिष्ठ के आश्रम पहुंचे।
वशिष्ठ की पत्नी देवी अरुंधति कह रही थी- ‘हे स्वामी! आज की चाँदनी रात कितनी सुहानी है। इस जगत में इसके अतिरिक्त ऐसा प्रकाश और कहाँ प्राप्त हो सकता है?’ तब महर्षि वशिष्ठ ने कहा- ‘प्रिये! निश्चय ही ये शीतलता और प्रकाश अद्भुत है किन्तु इससे भी अधिक शीतलता और प्रकाश राजर्षि विश्वामित्र के तप में है।’
वसिष्ठ कह रहे थे, ‘अहा, ऐसा पूर्णिमा के चन्द्रमा समान निर्मल तप तो कठोर तपस्वी विश्वामित्र के अतिरिक्त भला किस का हो सकता है? उनके जैसा इस समय दूसरा कोई तपस्वी नहीं।’
एकांत में शत्रु की प्रशंसा करने वाले महापुरुष के प्रति द्वेष रखने के कारण विश्वामित्र को पश्चाताप हुआ। शस्त्र हाथ से फेंक कर वे वसिष्ठ के चरणों में गिर पड़े। वसिष्ठ ने विश्वामित्र को हृदय से लगा कर ‘महर्षि’ कहकर उनका स्वागत किया। अपने प्रति महर्षि वशिष्ठ का ये कोमल भाव देख कर विश्वामित्र इस ग्लानि को लेकर एक बार फिर घोर तपस्या में लीन हो गए। अंततः अपने पिता ब्रह्मा की आज्ञा से स्वयं वशिष्ठ वहाँ आये और उन्होंने विश्वामित्र को ‘ब्रह्मर्षि’ कहकर सम्बोधित किया।
इस प्रकार दोनों के बीच शत्रुता का अंत हुआ महर्षि वशिष्ठ के पास कामधेनु गाय और नंदिनी नाम की बेटी थी. ये दोनों ही मायावी थी। कामधेनु और नंदिनी उन्हें सब कुछ दे सकती थी।ऋषि वशिष्ठ शांति प्रिय, महान और परमज्ञानी थे। विश्वामित्र ने इनके 100 पुत्रों को मार दिया था, फिर भी इन्होंने विश्वामित्र को माफ कर दिया।
महर्षि वशिष्ठ, योगवशिष्ठ रामायण, वशिष्ठ धर्मसूत्र, वशिष्ठ संहिता और वशिष्ठ पुराण आदि के जनक हैं। बौद्ध धर्म में भी जिन 10 महान ऋषियों का वर्णन है, उनमे से एक महर्षि वशिष्ठ हैं। स्वयं श्री आदिशंकराचार्य ने महर्षि वशिष्ठ को वेदांत के आदि ऋषियों में प्रथम स्थान प्रदान किया है। मान्यता अनुसार- वशिष्ठ त्रेतायुग के अंत मे ब्रम्हा लोक चले गए थे।आकाश में चमकते सात तारों के समूह में पंक्ति के एक स्थान पर वशिष्ठ और अरुंधती को स्थित माना जाता है।
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