पितरों की आराधना को तर्पण, पिंडदान और पंचबलि कहते हैं।इसे श्राद्ध भी कहा जाता है। इसके लिए देश में है 7 पवित्र पितृ तीर्थ हैं। ब्रह्म पुराण और महर्षि पराशर का कहना है कि पितरों के उद्देश्य से जो ब्राह्मणों को दिया जाए वही श्राद्ध है । ग्रंथों में 7 ऐसी जगहों का जिक्र किया गया है, जहां श्राद्ध करने से पितृ पूरी तरह संतुष्ट हो जाते हैं। लेकिन परिस्थितियां अनुकूल नहीं हो, शारीरिक या आर्थिक परेशानी हो तो ऐसी दशा में मन पर बोझ ना रखते हुए भी ये काम श्राद्धानुसार किया जा सकता है। देश, काल, परिस्थिति को ध्यान में रखकर कहीं भी श्राद्ध हो सकता है। इस बारे में ब्रह्म पुराण के साथ ही महर्षि पराशर कहते हैं कि पितरों के उद्देश्य से जो ब्राह्मणों को दिया जाए वही श्राद्ध है। श्राद्ध को तीन भागों में बांटा गया है, नित्य, नैमित्तिक और काम्य , लेकिन भविष्यपुराण में 12 तरह के श्राद्ध बताए गए हैं।
वेद और पुराणों में श्राद्ध
श्रद्धा शब्द से श्राद्ध शब्द बना है। ग्रंथों में कहा गया है कि श्रद्धार्थमिदं श्राद्धम् यानि पितृगणों के लिए विधि-विधान से श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म विशेष ही श्राद्ध है। इस बारे में अथर्ववेद, वायु, पद्म और कूर्म पुराण सहित कई ग्रंथों में उल्लेख मिलता है।
देश के 7 पवित्र पितृ तीर्थ:-
1. गया (बिहार) यह फल्गु नदी के तट पर बसा है। गया
में पितरों का श्राद्ध और तर्पण किए जाने का उल्लेख पुराण
भी मिलता है। पुराणों के अनुसार, गयासुर नाम के एक असुर ने घोर तपस्या करके भगवान से आशीर्वाद प्राप्त कर लिया। भगवान से मिले आशीर्वाद का दुरुपयोग करके गयासुर ने देवताओं को ही परेशान करना शुरू कर दिया। गयासुर के अत्याचार से दु:खी देवताओं ने भगवान विष्णु की शरण ली और उनसे प्रार्थना की कि वह गयासुर से देवताओं की रक्षा करें। इस पर विष्णु ने अपनी गदा से गयासुर का वध कर दिया। बाद में भगवान विष्णु ने गयासुर के सिर पर एक पत्थर रख कर उसे मोक्ष प्रदान किया।
2. ब्रह्मकपाल (उत्तराखंड) यह स्थान बद्रीनाथ के निकट ही है। ब्रह्मकपाल में श्राद्ध कर्म सेे पूर्वजों की आत्माएं तृप्त होती हैं व उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
3. सिद्धनाथ (मध्य प्रदेश) उज्जैन में शिप्रा नदी के किनारे स्थित है सिद्धनाथ तीर्थ।
4. प्रयाग (उत्तर प्रदेश) जिस किसी भी व्यक्ति का तर्पण एवं अन्य श्राद्ध कर्म यहां विधि-विधान से संपन्न हो वे जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है।
5. मेघंकर (महाराष्ट्र) मान्यताओं के अनुसार मेघंकर तीर्थ को साक्षात भगवान जर्नादन का स्वरूप माना गया है।
6. लक्ष्मण बाण (कर्नाटक) माना जाता है कि यहां श्रीराम ने अपने पिता का श्राद्ध किया था।
7. लोहार्गल (राजस्थान) लोहार्गल वह स्थान है जिसकी रक्षा स्वयं ब्रह्मा जी करते हैं।
गया में तर्पण:-
बिहार के गया में भगवान विष्णु के पदचिह्नों पर मंदिर बना है। जिसे विष्णुपद मंदिर कहा जाता है। पितृपक्ष के अवसर पर यहां श्रद्धालुओं की काफी भीड़ जुटती है। इसे धर्मशिला के नाम से भी जाना जाता है। ऐसी भी मान्यता है कि पितरों के तर्पण के पश्चात इस मंदिर में भगवान विष्णु के चरणों के दर्शन करने से समस्त दुखों का नाश होता है एवं पूर्वज पुण्यलोक को प्राप्त करते हैं। इन पदचिह्नों का श्रृंगार रक्त चंदन से किया जाता है। इस पर गदा, चक्र, शंख आदि अंकित किए जाते हैं। यह परंपरा भी काफी पुरानी बताई जाती है जो कि मंदिर में अनेक वर्षों से की जा रही है। फल्गु नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित यह मंदिर श्रद्धालुओं के अलावा पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है।
गया का विष्णु पद मंदिर:-
विष्णुपद मंदिर में भगवान विष्णु का चरण चिह्न ऋषि मरीची की पत्नी माता धर्मवत्ता की शिला पर है। राक्षस गयासुर को स्थिर करने के लिए धर्मपुरी से माता धर्मवत्ता शिला को लाया गया था, जिसे गयासुर पर रख भगवान विष्णु ने अपने पैरों से दबाया। इसके बाद शिला पर भगवान के चरण चिह्न है। माना जाता है कि विश्व में विष्णुपद ही एक ऐसा स्थान है, जहां भगवान विष्णु के चरण का साक्षात दर्शन कर सकते हैं।
विष्णुपद मंदिर सोने को कसने वाला पत्थर कसौटी से बना है, जिसे जिले के अतरी प्रखंड के पत्थरकट्टी से लाया गया था। इस मंदिर की ऊंचाई करीब सौ फीट है। सभा मंडप में 44 पीलर हैं। 54 वेदियों में से 19 वेदी विष्णपुद में ही हैं ।विष्णुपद मंदिर के शीर्ष पर 50 किलो सोने का कलश और 50 किलो सोने की ध्वजा लगी है। गर्भगृह में 50 किलो चांदी का छत्र और 50 किलो चांदी का अष्टपहल है, जिसके अंदर भगवान विष्णु की चरण पादुका विराजमान है। इसके अलावे गर्भगृह का पूर्वी द्वार चांदी से बना है। वहीं भगवान विष्णु के चरण की लंबाई करीब 40 सेंटीमीटर है। बता दें कि 18 वीं शताब्दी में महारानी अहिल्याबाई ने मंदिर का जीर्णोद्वार कराया था, लेकिन यहां भगवान विष्णु का चरण सतयुग काल से ही है। यहां पर पितरों के मुक्ति के लिए पिंडदान होता है। यहां सालों भर पिंडदान होता है। यहां भगवान विष्णु के चरण चिन्ह के स्पर्श से ही मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं।
श्राद्ध पक्ष में पूर्वजों के तर्पण संस्कार के लिए भगवान विष्णु के पदचिह्नों पर बने मंदिर में लोग पूजा संस्कारों के लिए आते हैं। बिहार के गया में स्थित इस मंदिर को विष्णुपद मंदिर के नाम से जाना जाता है। पितृपक्ष के अवसर पर यहां श्रद्धालु अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए श्राद्ध संस्कार करना अत्यंत आवश्यक मानते हैं। इस मंदिर को धर्मशिला के नाम से भी जाना जाता है। ऐसी भी मान्यता है कि पितरों के तर्पण के पश्चात इस मंदिर में भगवान विष्णु के चरणों के दर्शन करने से समस्त दुखों का नाश होता है एवं पूर्वज पुण्य लोक को प्राप्त करते हैं। पवित्र फल्गु नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित विष्णु मंदिर की कई विशेषताएं हैं। मंदिर के शीर्ष पर सोने का कलश, स्वर्ण ध्वजा,गर्भगृह में चांदी का छत्र चांदी का अष्ट पहलू है। सभी 50-50 किलो के हैं। अंदर विष्णु जी की चरण पादुका है। गर्भगृह का पूर्वी द्वार भी चांदी से बना है। भगवान विष्णु के चरण की लंबाई करीब 40 सेंटीमीटर है। जानकारों का कहना है कि 18 वीं शताब्दी में महारानी अहिल्याबाई ने इसका जीर्णोद्धार कराया था, लेकिन यहां विष्णु जी का चरण सतयुग काल से ही है।
मंदिर कसौटी पत्थर की संरचना :-
विष्णुपद मंदिर का निर्माण सोने को कसने वाली कसौटी पत्थर पर किया गया है। इस मंदिर की ऊंचाई करीब 100 फीट है। सभा मंडप में 44 पिलर हैं। 54 वेदियों में से 19 वेदियां विष्णुपद में ही हैं, जहां पर पितरों की मुक्ति के लिए पिंडदान होता है। यहां साल भर पिंडदान होता है। मान्यता है कि यहां भगवान विष्णु का चरण चिह्न ऋषि मरीची की पत्नी माता धर्मवत्ता की शिला पर है। कहते हैं कि दैत्य गयासुर को स्थिर करने के लिए धर्मपुरी से माता धर्मवत्ता शिला को लाया गया था, जिसे गयासुर पर रख भगवान विष्णु ने उसे अपने पैरों से दबाया था। इसके बाद शिला पर भगवान के चरण चिह्न बने। विश्व में विष्णुपद ही एक ऐसा स्थान है, जहां भगवान विष्णु के चरण के साक्षात दर्शन किए जा सकते हैं।
इन विष्णु पदचिह्नों का शृंगार रक्त चंदन से किया जाता है। इस पर गदा, चक्र, शंख आदि अंकित किए जाते हैं। यह परंपरा भी काफी पुरानी बताई जाती है, जो कि मंदिर में अनेक वर्षों से की जारी है। मंदिर परिसर में करीब 160 वर्ष पुरानी धूप घड़ी है। इसे विक्रम संवत 1911 में स्थापित किया गया था। जैसे-जैसे सूर्य पूर्व से पश्चिम की तरफ जाता है तो किसी वस्तु की छाया पश्चिम से पूर्व की तरफ चलती है, सूर्य लाइनों वाली सतह पर छाया डालती है, जिससे दिन में समय के घंटों का पता चलता है। 3 फिट की ऊंचाई पर गोलाकार आकार में एक पाया स्थापित कर ऊपरी हिस्से पर मेटल पर नबंर अंकित हैं इस घड़ी में।
तर्पण की विधि विधान :-
तर्पण में दूध, तिल, कुशा, पुष्प, गंध मिश्रित जल से पितरों को तृप्त किया जाता है। श्राद्ध का फल, दक्षिणा देने पर ही मिलता है। मान्यता है कि चंद्रलोक पर और सूर्यलोक के पास पितृलोक होने से, वहां पानी की कमी है। अत: पूर्वजों का तर्पण, हर पूर्णिमा और अमावस्या पर करें।
श्राद्ध में कुछ जरूरी बातें:-
स्वच्छ वस्त्र पहनकर पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध व दान का संकल्प लें। श्राद्ध में पूजा-पाठ की सामग्री के अलावा तर्पण के लिए खासतौर से साफ बर्तन, जौ, तिल, चावल, कुशा घास, दूध और पानी की जरूरत होती है। पिंडदान के लिए तर्पण चावल और उड़द का आटा जरूरी है। ब्राह्मण भोजन के लिए सात्विक भोजन बने। वस्त्रदान से पितरों तक वस्त्र पहुंचाए जाता है। श्राद्ध होने तक कुछ न खाएं।
सीताकुंड है दर्शनीय:-
मंदिर से थोड़ी दूर फल्गु नदी के पूर्वी तट पर स्थित सीताकुंड है। मान्यता है कि श्रीराम, माता सीता के साथ महाराज दशरथ का पिंडदान करने यहां आए थे, जहां सीता जी ने महाराज दशरथ को बालू फल्गु जल से पिंड अर्पित किया था और यहां बालू से बने पिंड दान का महत्व बढ़ा।
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