ब्रज की माँटी को
ब्रज रज कहा जाता है। यूं तो माँटी को मिट्टी, बालू,
इत्यादि कहा जाता है परन्तु
ब्रज की माँटी को विशेषकर धार्मिक परंपरा के अनुसार ब्रज रज कहते हैं। ब्रज (ब्रज
क्षेत्र की माँटी) से लोग तिलक भी लगाते हैं तथा हवन आदि भी ब्रज रज से किए जाते
हैं। इसे भगवान कृष्ण की भूमि की माँटी कहते हैं। इसे बहुत ही पवित्र बालू माना
गया है। कोशकारों ने ब्रज के तीन अर्थ बतलाये हैं - (गायों का खिरक), मार्ग और वृंद (झुंड) - सामान्यतः व्रज का अर्थ गोष्ठ किया है। गोष्ठ के
दो प्रकार हैं - खिरक वह स्थान जहाँ गायें, बैल, बछड़े आदि को बाँधा जाता है। गोचर भूमि- जहाँ गायें चरती हैं। इन सब से भी
गायों के स्थान का ही बोध होता है। पौराणिक साहित्य में ब्रज (व्रज) शब्द गोशाला,
गो-स्थान, गोचर- भूमि के अर्थों में प्रयुक्त
हुआ, अथवा गायों के खिरक (बाड़ा) के अर्थ में आया है।
यं
त्वां जनासो भूमि अथसंचरन्ति गाव उष्णमिव व्रजं यविष्ठ। (10
- 4 - 2)
अर्थात- शीत से पीड़ित गायें उष्णता
प्राप्ति के लिए इन गोष्ठों में प्रवेश करती हैं।
व्यू
व्रजस्य तमसो द्वारोच्छन्तीरव्रञ्छुचय पावका। (4 - 51 - 2)
अर्थात - प्रज्वलित अग्नि व्रज के द्वारों
को खोलती है।
यजुर्वेद में
गायों के चरने के स्थान को व्रज और गोशाला को गोष्ठ कहा गया है - व्रजं गच्छ
गोष्ठा,
शुक्ल यजुर्वेद में सुन्दर सींगो वाली गायों के विचरण-स्थान से व्रज
का संकेत मिलता है। अथर्ववे\\\द में एक स्थान पर व्रज
स्पष्टतः गोष्ठ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अयं घासों अयं व्रज इह वत्सा
निवध्नीय, अर्थात यह घास है और यह व्रज है, जहाँ हम बछड़ी को बाँधते हैं। उसी वेद में एक संपूर्ण सूक्त ही गौशालाओं से
संबंधित है।
श्रीमद्भागवत और
हरिवंश पुराण में व्रज शब्द का प्रयोग गोप-बस्ती के अर्थ में ही हुआ है,
- ृव्रजे वसन् किमकसेन् मधुपर्या च केशवः, तद
व्रजस्थानमधिकम् शुभे काननावृतम् । स्कंद पुराण में महर्षि शांडिल्य ने व्रज शब्द
का अर्थ व्याप्ति करते हुए उसे व्यापक ब्रह्म का रूप कहा है, किंतु यह, अर्थ व्रज की आध्यात्मिकता से संबंधित है।
जो ब्रहम या भगवत नाम सर्वत्र व्याप्त है कण कण में व्याप्त है इस कारण इस भूमण्डल
को ब्रज मण्डल कहा गया है। यमुना को विरजा भी कहते हैं। विरजा का क्षेत्र होने से
मथुरा मंडल विरजा या व्रज कहा जाने लगा। मथुरा के युद्धोपरांत जब द्वारका नष्ट हो
गई, तब श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्र (वज्रनाभ) मथुरा के राजा
हुए थे। उनके नाम पर मथुरा मंडल भी वज्र प्रदेश या व्रज प्रदेश कहा जाने लगा।
वेदों से लेकर
पुराणों तक ब्रज का संबंध गायों से रहा है। चाहे वह गायों के बाँधने का बाड़ा हो,
चाहे गोशाला हो, चाहे गोचर- भूमि हो और चाहे
गोप- बस्ती हो। भागवत कार की दृष्टि में गोष्ठ, गोकुल और
ब्रज समानार्थक शब्द हैं। भागवत के आधार पर सूरदास आदि कवियों की रचनाओं में भी
ब्रज इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मथुरा और उसका निकटवर्ती भू-भाग प्रागैतिहासिक
काल से ही अपने सघन वनों, विस्तृत चरागाहों, सुंदर गोष्ठों ओर दुधारू गायों के लिए प्रसिद्ध रहा है। भगवान श्रीकृष्ण
का जन्म यद्यपि मथुरा में हुआ था, तथापि राजनीतिक कारणों से
उन्हें गुप्त रीति से यमुना पार की गोप बस्ती (गोकुल) में भेज दिया गया था। उनका
शैशव एवं बाल्यकाल गोपराज नंद और उनकी पत्नी यशोदा के लालन-पालन में बीता था। उनका
सान्निध्य गोपों, गोपियों एवं गो-धन के साथ रहा था। वस्तुतः
वेदों से लेकर पुराणों तक ब्रज का संबंध अधिकतर गायों से रहा है। चाहे वह गायों के
चरने की गोचर भूमि हो चाहे उन्हें बाँधने का खिरक (बाड़ा) हो, चाहे गोशाला हो, और चाहे गोप-बस्ती हो। भागवत्कार की
दृष्टि में व्रज, गोष्ठ ओर गोकुल समानार्थक शब्द हैं।
ब्रज के वन-उपवन,
कुन्ज-निकुन्ज, श्री यमुना व गिरिराज अत्यन्त
मोहक हैं। पक्षियों का मधुर स्वर एकांकी स्थली को मादक एवं मनोहर बनाता है। मोरों
की बहुतायत तथा उनकी आवाज से वातावरण गुन्जायमान रहता है। बाल्यकाल से ही भगवान
कृष्ण की सुन्दर मोर के प्रति विशेष कृपा तथा उसके पंखों को शीष मुकुट के रूप में
धारण करने से स्कन्द वाहन स्वरूप मोर को भक्ति साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान
मिला है। सरकार ने मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर इसे संरक्षण दिया है। ब्रज की
महत्ता प्रेरणात्मक, भावनात्मक व रचनात्मक है तथा साहित्य और
कलाओं के विकास के लिए यह उपयुक्त स्थली है। संगीत, नृत्य
एवं अभिनय ब्रज संस्कृति के प्राण बने हैं। ब्रजभूमि अनेकानेक मठों, मूर्तियों, मन्दिरों, महंतों,
महात्माओं और महामनीषियों की महिमा से वन्दनीय है। यहाँ सभी
सम्प्रदायों की आराधना स्थली है। ब्रज की रज का माहात्मय भक्तों के लिए सर्वोपरि
है।
सन्त गोस्वामी
नरायणभट्ट कहते हैं - ‘‘जैसे शास्त्रों में
श्रेष्ठ श्रीमद्भागवत श्रीकृष्ण का विग्रह है वैसे ही पृथ्वी लोक में बनों सहित
व्रजमण्डल भी श्रीकृष्ण का स्वरुप है।‘‘ श्रीराधामाधव एवं
उनके सखा एवं गोपियों की नित्य लीलाओं को जहां आधार प्राप्त हुआ है उस धाम को
रसिकों भक्तों ने ब्रजधाम कहा है। ब्रज की महिमा के बारे में कुछ पंक्तियां
प्रस्तुत है-
ब्रज
रज की महिमा अमर, ब्रज रस की है खान,
ब्रज
रज माथे पर चढ़े, ब्रज है स्वर्ग समान।
भोली-भाली
राधिका,
भोले कृष्ण कुमार,
कुंज
गलिन खेलत फिरें, ब्रज रज चरण पखार।
ब्रज
की रज चंदन बनी, माटी बनी अबीर,
कृष्ण
प्रेम रंग घोल के, लिपटे सब ब्रज वीर।
ब्रज
की रज भक्ति बनी, ब्रज है कान्हा रूप,
कण-कण
में माधव बसे, कृष्ण समान स्वरूप।
राधा
ऐसी बावरी, कृष्ण चरण की आस,
छलिया
मन ही ले गयो, अब किस पर विश्वास।
ब्रज
की रज मखमल बनी, कृष्ण भक्ति का राग,
गिरिराज
की परिक्रमा, कृष्ण चरण अनुराग।
वंशीवट
यमुना बहे, राधा संग ब्रजधाम,
कृष्ण
नाम की लहरियां, निकले आठों याम।
गोकुल
की गलियां भलीं, कृष्ण चरणों की थाप,
अपने
माथे पर लगा, धन्य भाग भईं आप।
ब्रज
की रज माथे लगा, रटे कन्हाई नाम,
जब
शरीर प्राणन तजे मिले, कृष्ण का धाम।
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