महाराष्ट्र में सत्ता सुख के आगे सारे आदर्श बेकार
सार्वजनिक जीवन में दुनिया की निगाहें नेताओं की तरफ होती हैं। जिन
लोगों के कीमती वोटों के सहारे नेता सत्ता के शिखर तक पहुंचते हैं उनकी निगाहें
नेताओं की ओर उम्मीद एवं आशा से देख रही होती हैं। यह अत्यंत ही खेद का विषय है कि
जिस कुर्सी पर बैठकर हमारे नेताओं को उससे उत्पन्न होने वाली जिम्मेदारी एवं
कर्तव्य का बोध होना चाहिए आज वह कुर्सी की ताकत और उसके नशे में चूर हो जाते हैं।
हमारे राजनेता अपनी गलतियों को ना मानकर पश्चाताप एवं सुधार करने के बजाय कुतर्कों
द्वारा उन्हें सही ठहराने में लग जाते हैं। वे चुनाव विकास एवं भ्रष्टाचार के नाम
पर लड़ते हैं और समय आने पर जाति या क्षेत्र को ढाल बनाकर पिछड़ेपन की राजनीति का
सहारा लेते हैं। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी से देश के हित
में उनके द्वारा उठाए गए उनके साहसिक फैसले चाहे परमाणु परीक्षण हो या फिर कारगिल
युद्ध में पाक को पीछे हटने के लिए मजबूर करना हो, हर प्रकार के
अन्तराष्ट्रीय दबाव को दरकिनार करते हुए भारत के गौरव की रक्षा किया हो उनसे
देश को सीखने लायक कुछ नहीं मिला । उनका
त्याग और बलिदान एक तरह से बेकार सा गया।
राम के आदर्शों को तिलांजलि देकर अपने सहभागी से बदला लेना चाहती है
शिवसेना
अभी हाल में राम जन्मभूति विवाद का फैसला माननीय सर्वोच्च न्यायालय
द्वारा आया है। लगने लगा कि राम के आदर्शो की पुनस्र्थापना होगी। राम की तरह या
भरत की तरह त्याग को महत्व मिलेगा। पर महाराष्ट में उल्टा हो रहा है। 30
सालों से कांग्रेस के धुर विरोधी शिवसेना आज उन्हीं की शरण में पहुच गयी है। 288
सदस्यों वाली विधानसभा में बीजेपी ने 105 सीटें जीती हैं, जबकि शिवसेना ने
56 सीटें जीती हैं। पिछले कुछ दिनों में दोनों दलों ने कई निर्दलीय
विधायकों और छोटी पार्टियों का समर्थन लेने की कोशिश की है लेकिन फिर भी दोनों ही
बहुमत के जुदाई आंकड़े 145 से बहुत दूर हैं। शिवसेना जानती है कि बीजेपी
उसकी मदद के बिना सरकार नहीं बना सकती, इसलिए भी वह अपनी माँग मनवाने के लिए पूरा जोर
लगा रही है। उसके केंन्दीय मंत्री ने स्थीपा देकर अपने चिर परिचित प्रतिद्वन्दी
कांग्रेस -एनसीपी की शरण ले रखी है।
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि शिवसेना पिछले पाँच साल तक
महाराष्ट्र में सरकार में रहने के दौरान अपनी उपेक्षा का बदला लेना चाहती है।
सरकार में रहने के दौरान भी शिवसेना लगातार बीजेपी पर हमलावर रही थी और हालात इस
कदर खराब हो गए थे कि यह माना जा रहा था कि लोकसभा चुनाव में गठबंधन नहीं होगा।
लेकिन तब अमित शाह खुद मातोश्री आये थे और उद्धव ठाकरे को मनाया था। मुख्यमंत्री
की कुर्सी की लड़ाई में शिवसेना किसी भी कीमत पर चूकना नहीं चाहती क्योंकि उसे पता
है कि उसके लिये यही सुनहरा ‘मौका’ है, जब वह बीजेपी को झुकने के लिये मजबूर कर सकती
है। आगे की डगर स्पष्ट नहीं है। यह सरकार स्थाई नहीं हो सकती फिर भी जनता को
गुमराह करते हुए सत्ता सुख के लिए ये जोड़ तोड़ की राजनीति की जा रही है।
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