तेजी से बढ़ती
हुई जनसंख्या व आर्थिक विकास के कारण भारत सहित विश्व में कई पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न
हो रही हैं और इसके पीछे शहरीकरण व औद्योगीकरण में अनियंत्रित वृद्धि, बड़े पैमाने पर
कृषि का विस्तार तथा तीव्रीकरण, हिमों का अंधाधुन्घ पिघलना तथा जंगलों का नष्ट होना
प्रमुख है। प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दों में
वन और कृषि-भूमिक्षरण, संसाधन रिक्तीकरण -पानी, खनिज, वन, रेत, पत्थर आदि, पर्यावरण
क्षरण, सार्वजनिक स्वास्थ्य, जैव विविधता में कमी, पारिस्थितिकी प्रणालियों में लचीलेपन
की कमी, गरीबों के लिए आजीविका सुरक्षा शामिल हैं। अनुमान है कि भारत की जनसंख्या वर्ष
2018 तक 1.26 अरब तक बढ़ जाएगी। अनुमानित जनसंख्या का संकेत है कि 2050 तक भारत दुनिया
में सबसे अधिक आबादी वाला देश होगा और चीन का स्थान दूसरा होगा। दुनिया के कुल क्षेत्रफल का 2.4 प्रतिशत परन्तु
विश्व की जनसंख्या का 18 प्रतिशत धारण कर भारत का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव
काफी बढ़ गया है। कई क्षेत्रों पर पानी की कमी, मिट्टी का कटाव और कमी, वनों की कटाई,
वायु और जल प्रदूषण के कारण बुरा असर पड़ता है।
भारत की प्रमुख समस्याएं
:-
1. जनसंख्या का तीव्र विकास
:- भारत की जल आपूर्ति और स्वच्छता सम्बंधित
मुद्दे पर्यावरण से संबंधित कई समस्याओं से जुड़े हैं किसी देश में पर्यावरण के क्षरण
का प्राथमिक कारण जनसंख्या का तीव्र विकास है, जो प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण को
प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है। तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या और पर्यावरण में गिरावट
सतत विकास की चुनौती प्रस्तुत कर देती है। अनुकूल प्राकृतिक संसाधनों का अस्तित्व या
अभाव, सामाजिक आर्थिक विकास की प्रक्रिया को तेज अथवा धीमा कर सकते हैं। तीन मूलभूत
जनसांख्यिकीय कारक, जन्म (जन्मदर), मृत्यु (मृत्युदर) तथा लोगों का प्रवासन (प्रवासन)
व अप्रवासन , जनसंख्या की वृद्धि, संयोजन तथा वितरण को प्रभावित करते हैं तथा इसके
कारण तथा प्रभाव से सम्बंधित महत्वपूर्ण प्रश्न प्रस्तुत करते हैं। जनसंख्या में वृद्धि
और आर्थिक विकास भारत में कई गंभीर पर्यावरणीय आपदाओं में योगदान दे रहे हैं। इनसे
भूमि पर भारी दबाव, भूमि क्षरण, वन, निवास का विनाश और जैव विविधता के नुकसान पैदा
होते हैं। उपभोग के बदलते स्वरुप ने ऊर्जा की बढ़ती मांग को प्रेरित किया है। इसका अंतिम
परिणाम वायु प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन, पानी की कमी और जल प्रदूषण
के रूप में होता है।
2. प्राकृतिक खतरे
:- भारत की पर्यावरणीय समस्याओं में विभिन्न
प्राकृतिक खतरे, विशेष रूप से चक्रवात और वार्षिक मानसून बाढ़, जनसंख्या वृद्धि, बढ़ती
हुई व्यक्तिगत खपत, औद्योगीकरण, ढांचागत विकास, घटिया कृषि पद्धतियां और संसाधनों का
असमान वितरण हैं और इनके कारण भारत के प्राकृतिक वातावरण में अत्यधिक मानवीय परिवर्तन
हो रहा है। एक अनुमान के अनुसार खेती योग्य भूमि का 60 प्रतिशत भूमि कटाव, जलभराव और
लवणता से ग्रस्त है। यह भी अनुमान है कि मिट्टी की ऊपरी परत में से प्रतिवर्ष 4.7 से
12 अरब टन मिट्टी कटाव के कारण खो रही है। 1947 से 2002 के बीच, पानी की औसत वार्षिक
उपलब्धता प्रति व्यक्ति 70 प्रतिशत कम होकर 1822 घन मीटर रह गयी है तथा भूगर्भ जल का
अत्यधिक दोहन हरियाणा, पंजाब व उत्तर प्रदेश में एक समस्या का रूप ले चुका है। भारत
में वन क्षेत्र इसके भौगोलिक क्षेत्र का 18.34 प्रतिशत (637,000 वर्ग किमी) है। देश
भर के वनों के लगभग आधे मध्य प्रदेश (20.7 प्रतिशत) और पूर्वोत्तर के सात प्रदेशों
(25.7 प्रतिशत) में पाए जाते हैं इनमें से पूर्वोत्तर राज्यों के वन तेजी से नष्ट हो
रहे हैं। वनों की कटाई ईंधन के लिए लकड़ी और कृषि भूमि के विस्तार के लिए हो रही है।
यह प्रचलन औद्योगिक और मोटर वाहन प्रदूषण के साथ मिल कर वातावरण का तापमान बढ़ा देता
है जिसकी वजह से वर्षण का स्वरुप बदल जाता है और अकाल की आवृत्ति बढ़ जाती है।
3. वायु प्रदूषण
:-भारतीय शहर वाहनों और उद्योगों के उत्सर्जन से प्रदूषित हैं। सड़क पर वाहनों के कारण
उड़ने वाली धूल भी वायु प्रदूषण में 33ः तक का योगदान करती है।,बंगलुरुजैसे शहर में
लगभग 50 प्रतिशत बच्चे अस्थमा से पीड़ित हैं। भारत में 2005 के बाद से वाहनों के लिए
भारत स्टेज दो के उत्सर्जन मानक लागू हैं।, भारत में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण
परिवहन की व्यवस्था है।, लाखों पुराने डीजल इंजन वह डीजल जला रहे हैं जिसमें यूरोपीय
डीजल से 150 से 190 गुणा ,अधिक गंधक उपस्थित है। बेशक सबसे बड़ी समस्या बड़े शहरों में
है जहां इन वाहनों का घनत्व बहुत अधिक है। सकारात्मक पक्ष पर, सरकार इस बड़ी समस्या
और लोगों से संबद्ध स्वास्थ्य जोखिमों पर प्रतिक्रिया करते हुए धीरे-धीरे लेकिन निश्चित
रूप से कदम उठा रही है। यह भी प्रकट हुआ है कि अत्यधिक प्रदूषण से ताजमहल पर प्रतिकूल
प्रभाव पड़ रहा था। अदालत द्वारा इस क्षेत्र में सभी प्रकार के वाहनों पर रोक लगाये
जाने के पश्चात इस इलाके की सभी औद्योगिक इकाइयों को भी बंद कर दिया गया। बड़े शहरों
में वायु प्रदूषण इस कदर बढ़ रहा है कि अब यह विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा
दिए गए मानक से लगभग 2.3 गुना तक हो चुका है दुनिया के अजूबों में से एक ताजमहल पर प्रदूषण के प्रभाव को लेकर
अक्सर चिंता व्यक्त की जाती है।
4. ध्वनि प्रदूषण
:- भारत के सर्वोच्च न्यायलय द्वारा ध्वनि
प्रदूषण पर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया गया।, वाहनों के हॉर्न की आवाज शहरों में शोर
के डेसिबिल स्तर को अनावश्यक रूप से बढ़ा देती है। राजनैतिक कारणों से तथा मंदिरों व
मस्जिदों में लाउडस्पीकर का प्रयोग रिहायशी इलाकों में ध्वनि प्रदूषण के स्तर को बढाता
है। हाल ही में भारत सरकार ने शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में ध्वनि स्तर के मानदंडों
को स्वीकृत किया है।, इनकी निगरानी व क्रियान्वन कैसे होगा यह अभी भी सुनिश्चित नहीं
है।
5. भयंकर बाढ़ भूस्खलन का खतरा :- भारत की नदियों का देश के आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास में प्राचीनकाल
से ही महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। सिन्धु तथा गंगा नदियों की घाटियों में ही विश्व
की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यताओं - सिन्धु घाटी तथा आर्य सभ्यता का आर्विभाव हुआ। आज भी
देश की सर्वाधिक जनसंख्या एवं कृषि का जमाव नदी घाटी क्षेत्रों में पाया जाता है। प्राचीन
काल में व्यापारिक एवं यातायात की सुविधा के कारण देश के अधिकांश नगर नदियों के किनारे
ही विकसित हुए थे तथा आज भी देश के लगभग सभी धार्मिक स्थल किसी न किसी नदी से सम्बद्ध
है। हिमाचल से निकलने वाली नदी की मुख्य प्रणाली सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना
नदी की प्रणाली की तरह है। नदी भूतल पर प्रवाहित एक जलधारा
है जिसका स्रोत प्रायः कोई झील, हिमनद, झरना
या बारिश का पानी होता है तथा किसी सागर अथवा झील में गिरती है। नदी शब्द संस्कृत के नद्यः से आया है। संस्कृत में ही इसे सरिता भी कहते हैं। नदी दो प्रकार
की होती है- सदानीरा या बरसाती। सदानीरा नदियों का स्रोत झील,झरना अथवा हिमनद होता है और वर्ष भर
जलपूर्ण रहती हैं, जबकि बरसाती नदियां बरसात के पानी पर निर्भर करती हैं। गंगा,यमुना,कावेरी ब्रह्मपुत्र, अमेज़न,नील आदि सदानीरा नदियां हैं।
नदी के साथ मनुष्य का गहरा सम्बंध है। नदियों से केवल फसल ही नहीं उपजाई जाती है
बल्कि वे सभ्यता को जन्म देती हैं अपितु उसका लालन-पालन भी करती हैं। प्रकृति के असंतुलन से बादल फटना, अतिवृष्टि तथा भयंकर बाढ़ से देश को दो-चार होना
पड़ता है।देश के संसाधनों की बरबादी के साथ अपार धन-जन की हानि भी उठानी पड़ती है। जब
एक योजना के तहत देश का विकास किया जाएगा, तभी इस समस्या से निजात मिल सकेगा।
6. जल प्रदूषण एवं नदियों के शुद्धिकरण पर जोर :- . भारत के 3,119 शहरों व कस्बों में से 209 में
आंशिक रूप से तथा केवल 8 में मलजल को पूर्ण रूप से उपचारित करने की सुविधा (डब्ल्यू.एच.ओ.
1992) है, 114 शहरों में अनुपचारित नाली का पानी तथा दाह संस्कार के बाद अधजले शरीर
सीधे ही गंगा नदी में बहा दिए जाते हैं। अनुप्रवाह में नीचे की ओर, अनुपचारित पानी
को पीने, नहाने और कपड़े धोने के लिए प्रयोग किया जाता है। यह स्थिति भारत और साथ ही
भारत में खुले में शौच काफी आम है, यहां तक कि शहरी क्षेत्रों में भी लगभग एसा ही है।
नदियों के शुद्धिकरण के लिए परियोजनाओं पर
जोर है, पर इस दिशा में कितना कुछ काम हो पाता है, यह सही योजना, अटल इरादे और प्रशासनिक नेकनीयती से
ही पता चल पाएगा। पहले ऐसे अभियानों को नारे बनकर खत्म होते हमने देखा है। इसलिए प्रशासनिक
सतर्कता और सामाजिक जागरूकता, दोनों महत्त्वपूर्ण हैं। लोगों को भी इस तरह के अभियानों
में दिलचस्पी दिखानी चाहिए और अपनी भागीदारी देनी चाहिए। दूसरी बात यह है कि इस तरह
के अभियानों में वैज्ञानिक दृष्टि और आस्था, दोनों का समावेश हो। अक्सर, इन दोनों को
अलग-अलग कर और एक-दूसरे के विपरीत रखकर देखा जाता है, जिससे किसी का भी भला नहीं होने
वाला। नदियों के प्रति जो हमारी आस्थाएँ हैं, उनके मूल में कहीं-न-कहीं इनको पोषक मानने
का भाव है, उनको स्वच्छ, निर्मल और अविरल रखने की सोच है। बेशक आस्था में वे आडम्बर
न हों, जिनसे नदियाँ मैली होती हैं। लेकिन नदियों के किनारे जाकर उन्हें पूजने का महत्त्व
हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है। इसलिए हम अपनी ‘गंगा-जमुनी संस्कृति’ में आए ह्रास की
भरपाई तभी कर सकते हैं, जब हम नदियों से आस्था और वैज्ञानिक समझ के साथ जुड़ेंगे। इसमें
सबकी भागीदारी को जोड़ना होगा। अगर हालात ना बदले तो अगला विश्व युद्ध पानी के लिए होगा।
इसलिए हमारे सियासतदानों को पानी बचाने और नदियों को पुनर्जीवित करने की राजनीति करनी
चाहिए।
7. नदियों को जोड़ने का इंटरलिंकिंग परियोजना :- हमारी नदियों का काफी पानी समुद्र में चला जाता है और उसे यदि रोक
लिया गया तो पानी की प्रचुरता वाली नदियों से पानी की कमी वाले क्षेत्रों में पानी
पहुंचाया जा सकेगा, जिससे देश के हरेक भाग में हर किसी को समुचित जलापूर्ति हो पाएगी।
लेकिन हाल के आंकड़े बताते हैं कि नहरों, तालाबों, कुओं और नलकूपों से एकत्र पानी का
महज पांच प्रतिशत हिस्सा ही घरेलू उपयोग में लाया जाता है। नदियों को जोड़ने की अवधारणा
यानी इंटरलिंकिंग आमजन एवं नीति-निर्माताओं के एक अच्छे-खासे हिस्से को अपील करती रही
है। तीन दशक से ज्यादा हुए, जब के.एल. राव ने गंगा एवं कावेरी को जोड़ने का सुझाव दिया
था। इस सुझाव का हामी दस्तूर प्लान का गार्डेन कैनाल बना, जिसमें देश की सभी प्रमुख
नदियों को जोड़ने की बात कही गई थी। दोनों ही सुझावों ने लोगों का ध्यान आकृष्ट किया
है । राष्ट्रीय
जल विकास एजेंसी सोसाइटी की 31वीं वार्षिक बैठक को संबोधित करते हुए गडकरी ने देश के
13 सूखा प्रभावित और 7 बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के लोगों की हालत पर चिंता जताई. इसके
साथ गडगरी ने उपलब्ध जल को संरक्षित करने और उसे साझा करने के लिए कारगर उपाय विकसित
करने की जरूरत पर जोर दिया. उन्होंने कहा कि समुद्र में गिरने वाले 60 से 70 प्रतिशत
जल को बचाने के तरीके विकसित करने की जरूरत है.नितिन गडकरी ने इस साथ ही नदियों की
गाद निकालने के लिए एक नया व्यापक कानून की मांग की है. उन्होंने अपने मंत्रालय से
जुड़े संसदीय सलाहकार समिति की बैठक को बाढ़ प्रबंधन के मुद्दे पर संबोधित करते हुए
कहा कि यह नया कानून राज्यों के परामर्श से तैयार किया जाएगा. देश के बाढ़ प्रभावित
क्षेत्रों के लोगों की दुर्दशा पर चिंता व्यक्त करते हुए गडकरी ने कहा कि देश में बाढ़
की चुनौतियों को प्रभावी ढंग से निपटना जरूरी है.जल संसाधन मंत्री ने साथ ही कहा कि
नदियों को जोड़ने और बांधों के निर्माण जैसे कार्यों को भी बाढ़ को कम करने के लिए
प्राथमिकता दी जानी चाहिए. गडकरी ने कहा कि हमें अपने देश में बाढ़ के पूर्वानुमान
करने वाले नेटवर्क को भी मजबूत करना और सुधारना होगा. पूर्व प्रधान मंत्री
माननीय अटल जी की नदी जोड़ो योजना को पुनः चालू करना होगा। अगर हम एसी स्थिति बना सकने
में सफल हुए तो हम भारत को एक अच्छी दिशा में ले जाने के लिए प्रतिवद्ध हो सकेंगे।
विश्र्वास किया जाना चाहिए कि सरकार ऐसा साहस दिखाएगी।
8. रेगिस्तान
की तरफ बढ़ता देश-प्रदेश:- राजस्थान
और मध्य प्रदेश की भांति उत्तर प्रदेश में भी जल संकट बढ़ता जा रहा है। जिस व्रज मण्डल
में ‘कालिन्दी कदम्ब के ऊपर वारो’ कहा गया है वहां ना तो आज कालिन्दी में वह दिव्य
रौनकता रह गयी है और ना ही वह दिव्य हरियाली। आज यह प्रदेश घीरे धीरे रेगिस्तान बनता
जा रहा है। यहां उत्तराखण्ड तथा हिमंचल की भांति कड़ाके की सर्दी पड़ती है और राजस्थान
की भंति प्रचण्ड गर्मी भी। अब उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार को वर्षा जल संरक्षण पर
काम करना होगा। नदियों का पानी रोकने को छोटे-छोटे चैक डैम व बाढ़ का पानी रोकने के
लिए रबर डैम बनाने होंगे। उत्तर प्रदेश में तीन दशकों से भूगर्भ जल के स्तर में तेजी
से गिरावट आ रही है। विशेषज्ञ इस स्थिति से भलीभांति परिचित हैं सरकारों ने कदम उठाए
हैं मीडिया में भी मामला उछलता रहता है। जिन स्थानों के बारे में कहा जाता था कि थोड़ा
सा खोद लो तो पानी मिल जाता है। चाहो कुआं बना लो चाहो एक पाइप लगा कर हैंडपंप फिट
कर लो। दुर्भाग्य से वहां अब स्थिति बदल चुकी है। पानी का दोहन इतना बेतरतीब हुआ कि
नदियों के आसपास और नहरों के एरिया में भी पहले जैसी स्थिति नहीं रही। हैंडपंप की बात
क्या करें जेट पंप एवं सबमर्सिबल तक काम नहीं कर रहे हैं। कई जिलों में तो धरती फटने
या धंसने की घटनाएं हुई हैं। पानी का स्तर
बराबर बने रहने अथवा ऊपर उठने की तो नौबत आ ही नहीं रही है। साल-दर-साल यह गिरता ही
जा रहा है। शहरों में भूगर्भ भंडार का पानी बेचा जा रहा है कभी टैंकरों से तो कोई बोतलबंद।
किसानों को फसल की जरूरत के मुताबिक नहरों से पानी नहीं मिलता। ऐसे में बड़े किसान ट्यूबवेल
से और छोटे किसान पंपिंग सेट से पानी दुह रहे हैं। इसे रोकने के लिए राज्य सरकार को
सबसे पहले वर्षा जल संरक्षण पर काम करना होगा। नदियों का पानी रोकने को छोटे-छोटे चैक
डैम व बाढ़ का पानी रोकने के लिए रबर डैम बनाने होंगे। साथ ही बड़े जलाशयों की संभावना
पर भी विचार करना होगा।
प्रकृति असंतुलन का समाधान
1.
वर्षा जल संचयन:- नए भवनों के लिए रेन
वाटर हार्वेस्टिंग अनिवार्य करनी होगी और सख्ती के साथ सभी ट्यूबवेलों को बंद कराना
होगा फिर वे चाहे निजी हों या सरकारी। वर्षा
जल को किसी खास माध्यम से संचय करने या इकट्ठा करने की प्रक्रिया को रेन वाटर हार्वेस्टिंग
कहा जाता है। विश्व भर में पेयजल की कमी एक संकट बनती जा रही है। इसका कारण पृथ्वी
के जलस्तर का लगातार नीचे जाना भी है। इसके लिये अधिशेष मानसून अपवाह जो बहकर सागर
में मिल जाता है, उसका संचयन और पुनर्भरण किया जाना आवश्यक है, ताकि भूजल संसाधनों
का संवर्धन हो पाये। अकेले भारत में ही व्यवहार्य भूजल भण्डारण का आकलन 214 बिलियन
घन मी. (बीसीएम) के रूप में किया गया है जिसमें से 160 बीसीएम की पुन: प्राप्ति हो
सकती है। इस समस्या का एक समाधान जल संचयन है। पशुओं के पीने के पानी की उपलब्धता,
फसलों की सिंचाई के विकल्प के रूप में जल संचयन प्रणाली को विश्वव्यापी तौर पर अपनाया
जा रहा है। जल संचयन प्रणाली उन स्थानों के लिए उचित है, जहां प्रतिवर्ष न्यूनतम
200 मिमी वर्षा होती हो। इस प्रणाली का खर्च 400 वर्ग इकाई में नया घर बनाते समय लगभग
बारह से पंद्रह सौ रुपए मात्र तक आता है । जितने भी प्राकृतिक संसाधन हैं उन्हें पुनः
जीवित करना होगा। बाधों को तोढना होगा और पानी को उतना ही संचय करना होगा जितने से
किसी की जीवनभूत आवश्यकता प्रभावित ना हों बरसात में तो कत्तई अतिरिक्त पानी एकाएक
नहीं छोड़ना होगा। जब निरन्तर जल का प्रवाह होगा तो वहां की स्थिति भयावह नहीं हो सकेगी
और सब कुछ सामान्य सा चलता रहेगा।
2.
पर्यावरण में युद्ध स्तरीय सुधार की जरुरत :- वर्तमान समय में वायु, जल, मिट्टी, तापीय, विकरणीय, औद्योगिक
, समुद्रीय , रेडियोधर्मी, नगरीय प्रदूषण, प्रदूषित नदियाँ और जलवायु बदलाव तथा ग्लोबल
वार्मिंग के खतरे लगातार बढ़ते जा रहे हैं। पिछले कुछ सालों में आम जनता में पर्यावरणीय
चेतना कुछ हद तक बढ़ी है। इसके विभिन्न विकल्पों पर गम्भीर चिन्तन हुआ है। अब यहां तक कहा जाने लगा है कि पर्यावरण को बिना
हानि पहुँचाए या न्यूनतम हानि पहुँचाए टिकाऊ विकास सम्भव हो सकता है। लगभग 5000 साल
तक खेती करने, युद्ध सामग्री निर्माण, धातु शोधन, नगर बसाने तथा जंगलों को काट कर बेवर
खेती करने के बावजूद विकास और प्राकृतिक संसाधनों के बीच तालमेल बिठाकर उपयोग करने
के कारण प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास नहीं हुआ है
3.
सभी प्राणियों में सन्तुलन हो :-पर्यावरण
प्रदूषण पृथ्वी के सभी प्राणी एक-दूसरे पर निर्भर है तथा विश्व का प्रत्येक पदार्थ
एक-दूसरे से प्रभावित होता है। इसलिए और भी आवश्यक हो जाता है कि प्रकृति की इन सभी
वस्तुओं के बीच आवश्यक संतुलन को बनाये रखा जाये। इस 21वींसदी में जिस प्रकार से हम
औद्योगिक विकास और भौतिक समृद्धि की और बढे चले जा रहे है, वह पर्यावरण संतुलन को समाप्त
करता जा रहा है। अनेकानेक उद्योग-धंधों, वाहनों तथा अन्यान्य मशीनी उपकरणों द्वारा
हम हर घडी जल और वायु को प्रदूषित करते रहते है। वायुमंडल में बड़े पैमाने पर लगातार
विभिन्न घटक औद्योगिक गैसों के छोड़े जाने से पर्यावरण संतुलन पर अत्यंत विपरीत प्रभाव
पड़ता रहता है। मुख्यतः पर्यावरण के प्रदूषित होने के मुख्य करण है - निरंतर बढती आबादी,
औद्योगीकरण, वाहनों द्वारा छोड़ा जाने वाला धुंआ, नदियों, तालाबों में गिरता हुआ कूड़ा-कचरा,
वनों का कटान, खेतों में रसायनों का असंतुलित प्रयोग, पहाड़ों में चट्टानों का खिसकाना,
मिट्टी का कटान आदि।
4. पर्यावरण के प्रति जागरूकता :- पर्यावरण की अवहेलना
के गंभीर दुष्परिणाम समूचे विश्व में परिलक्षित हो रहे हैं। अब सरकार जितने भी नियम-कानून
लागू करें उसके साथ साथ जनता की जागरूकता से ही पर्यावरण की रक्षा संभव हो सकेगी। इसके
लिए कुछ अत्यंत सामान्य बातों को जीवन में दृढ़ता-पूर्वक अपनाना आवश्यक है। जैसे -प्रत्येक
व्यक्ति प्रति वर्ष यादगार अवसरों (जन्मदिन, विवाह की वर्षगांठ) पर अपने घर, मंदिर
या ऐसे स्थल पर फलदार अथवा औषधीय पौधा-रोपण करे, जहाँ उसकी देखभाल हो सके। उपहार में
भी सबको पौधो दें। शिक्षा संस्थानों व कार्यालयों में विद्यार्थी, शिक्षक, अधिकारी
और कर्मचारीगण राष्ट्रीय पर्व तथा महत्त्वपूर्ण तिथियों पर पौधों रोपे। विद्यार्थी
एक संस्था में जितने वर्ष अध्ययन करते हैं, उतने पौधो वहाँ लगायें और जीवित भी रखें।प्रत्येक
गांव शहर में हर मुहल्ले व कॉलोनी में पर्यावरण संरक्षण समिति बनायी जाये। निजी वाहनों
का उपयोग कम से कम किया जाए। रेडियो-टेलीविजन की आवाज धीमी रखें। सदैव धीमे स्वर में
बात करें। घर में पार्टी हो तब भी शोर न होने दें। जल व्यर्थ न बहायें। गाड़ी धोने या
पौधों को पानी देने में इस्तेमाल किया पानी का प्रयोग करें। अनावश्यक बिजली की बत्ती
जलती न छोडें। पॉलीथिन का उपयोग न करें। कचरा कूड़ेदार में ही डाले। अपना मकान बनवा
रहे हों तो उसमें वर्षा के जल-संरक्षण और उद्यान के लिए जगह अवश्य रखें। ऐसी अनेक छोटी-छोटी
बातों पर ध्यान देकर भी पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है। ये आपके कई अनावश्यक खर्चों
में तो कमी लायेंगे ही, पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने की आत्मसंतुष्टि
भी देंगे। तो प्रयास कीजिये - सिर्फ सालाना आयोजन के उपलक्ष्य में ही नहीं बल्कि एक
आदत के रूप में भी पर्यावरण चेतना को अपनाने का। पर्यावरण की महत्ता को देखते हुए इसे
स्कूलों में बच्चो की पठन सामग्री में शामिल कर लिया गया है। हमारे चारों ओर प्रकृति
तथा मानव निर्मित जो भी जीवित-निर्जीव वस्तुएं है, वे सब मिलकर पर्यावरण बनाती है।
इस प्रकार मिटटी, पानी, हवा, पेड़-पौधे, जीव-जंतु सभी कुछ पर्यावरण से अंग है, और इन
सभी के आपसी तालमेल (उचित मात्रा में होना) को पर्यावरण संतुलन कहा जाता है। प्रकृति
से छेड़छाड़ और प्रदूषण के लगातार बढ़ते ग्राफ से पर्यावरण बिगड़ चुका है।
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