नवान्नेष्टि यज्ञ :- होली का उत्सव रहस्यपूर्ण है। इसमें होली, दांडा (ढुंढा) और प्रहलाद तो है हीं, इसके अलावा इस दिन ‘नवान्नेष्टि’ यज्ञ भी सम्पन्न होता है। माघ की पूर्णिमा पर होली का डांडा रोप दिया जाता है। इसके लिए नगर से बाहर वन में जाकर शाखासहित वृक्ष लाते हैं और उसको गन्धादि से पूजकर पश्चिम दिशा में खड़ा कर देते हैं। इसी को ‘होली’, ‘होलीदंड’, ‘होली का दांडा’ या ‘डांडा’ एवं ‘प्रहलाद’ कहते हैं। इस अवसर पर लकड़ियां तथा कंडों आदि का ढेर लगाकर होलिकापूजन किया जाता है, फिर उसमें आग लगायी जाती है। इस पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञपर्व भी कहा जाता है। खेत से नवीन अन्न को यज्ञ में हवन करके प्रसाद लेने की परम्परा है। उस अन्न को ‘होला’ कहते हैं। अत: फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को उपले आदि एकत्रकर उसमें यज्ञ की तरह अग्नि का स्थापन व पूजन करके हवन के चरू के रूप में जौ, गेहूँ, चने की बालियों की आहुति देते हैं और सिकीं हुई बालियों को घर लाकर प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। इस तरह होली के रूप में ‘नवान्नेष्टि यज्ञ’ सम्पन्न होता है। फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा तक आठ दिन होलाष्टक मनाया जाता है।
मनाने के कारण :- होली का त्यौहार मनाने के सम्बन्ध में कई मत हैं–एक मान्यता के अनुसार
भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था, तभी से इस त्यौहार का
प्रचलन हुआ। एक अन्य मान्यता के अनुसार हिरण्यकशिपु की बहन होलिका वरदान के प्रभाव
से नित्यप्रति अग्नि-स्नान करती और जलती नहीं थी। हिरण्यकशिपु ने अपनी बहिन से प्रह्लाद
को गोद में लेकर अग्नि-स्नान करने को कहा। उसने सोचा ऐसा करने से प्रह्लाद जल जायेगा
और होलिका बच जायेगी। किन्तु ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद जीवित बच गये और होलिका जल
गयी। तभी से इस त्यौहार को मनाने की प्रथा चल पड़ी। भविष्यपुराण में एक कथा है कि एक
बार नारदजी ने महाराज युधिष्ठिर से कहा–राजन् ! फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन सब लोगों
को अभयदान देना चाहिए, जिसे सम्पूर्ण प्रजा उल्लासपूर्वक हँसे। बच्चे गाँव के बाहर
से लकड़ी-कंडे लाकर ढेर लगायें। फिर होलिका का विधिविधान से पूजन करे और होलिका-दहन
करें। ऐसा करने से सारे अनिष्ट दूर हो जाते हैं।
महत्वपूर्ण हिंदू पर्व :- होली
वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्योहार है।
यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का
त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता
से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता हैं । यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक
हिन्दू लोग रहते हैं वहां भी धूम धाम के साथ मनाया जाता हैं। पहले दिन को होलिका जलायी
जाती है, जिसे होलिका दहन कहते है। दूसरे दिन को धुरड्डी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन
कहा जाता है। लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं। ढोल बजा कर होली
के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है
कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते
हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर
के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं,
गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।
लोकप्रिय वसंत पर्व :-
राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। रागअर्थात संगीतऔर रंग तो इसके
प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे
यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी
भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार
गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में
सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी
और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती
हैं। किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच
और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते
हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को
मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है।
पौराणिक समय:-
पौराणिक समय में श्री कृ्ष्ण और राधा की बरसाने की होली के साथ ही होली के उत्सव की
शुरुआत हुई.भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भले ही विविध प्रकार से होली का उत्सव मनाया
जाता है परंतु सबका उद्देश्य एवं भावना एक ही है- भक्ति, सच्चाई के प्रति आस्था और
मनोरंजन। इसके अतिरिक्त अनेक देश ऐसे हैं, जहाँ या तो होली से मिलता जुलता कोई पर्व
मनाया जाता है या किसी अन्य अवसर पर रंग या सादे पानी से खेलने की परंपरा है।
मुगलकाल में होली :-
प्राचीन काल से अविरल होली मनाने की परंपरा को मुगलों के शासन में भी अवरुद्ध नहीं
किया गया बल्कि कुछ मुगल बादशाहों ने तो धूमधाम से होली मनाने में अग्रणी भूमिका का
निर्वाह किया। अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ और बहादुरशाह ज़फर होली के आगमन से
बहुत पहले ही रंगोत्सव की तैयारियाँ प्रारंभ करवा देते थे। अकबर काल में होली के दिन
अकबर के महल में सोने चाँदी के बड़े-बड़े बर्तनों में केवड़े और केसर से युक्त टेसू
का रंग घोला जाता था और राजा अपनी बेगम और हरम की सुंदरियों के साथ होली खेलते थे।
शाम को महल में उम्दा ठंडाई, मिठाई और पान इलायची से मेहमानों का स्वागत किया जाता
था और मुशायरे, कव्वालियों और नृत्य-गानों की महफ़िलें जमती थीं।रंग के साथ स्वादिष्ट
व्यंजनों का भी प्रबन्ध होता था. राग-रंग का माहौल होता है. तानसेन अपनी आवाज से सभी
को मोहित कर देते है. कुछ इसी प्रकार का माहौल जहांगीर और बहादुरशाह जफर के समय में
होली के दिन होता था. ऎसे अवसरों पर आम जनता को भी बादशाह के करीब जाने, उनसे मिलने
के अवसर प्राप्त होते थे।
महफ़िल-ए-होली :-
जहाँगीर के समय में महफ़िल-ए-होली का भव्य कार्यक्रम आयोजित होता था। इस अवसर पर राज्य
के साधारण नागरिक बादशाह पर रंग डालने के अधिकारी होते थे। शाहजहाँ होली को 'ईद गुलाबी'
के रूप में धूमधाम से मनाता था। बहादुरशाह ज़फर होली खेलने के बहुत शौकीन थे और होली
को लेकर उनकी सरस काव्य रचनाएँ आज तक सराही जाती हैं। मुगल काल में होली के अवसर पर
लाल किले के पिछवाड़े यमुना नदी के किनारे आम के बाग में होली के मेले लगते थे। मुगल
शैली के एक चित्र में औरंगजेब के सेनापति शायस्ता खाँ को होली खेलते हुए दिखाया गया
है। दाहिनी ओर दिए गए इस चित्र की पृष्ठभूमि में आम के पेड़ हैं महिलाओं के हाथ में
पिचकारियाँ हैं और रंग के घड़े हैं।
मुस्लिम कवियों का वर्णन
:-सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव
का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख
किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास
की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं।
अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है।
अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहाँ
के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ
के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था।अंतिम
मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें
रंग लगाने जाया करते थे। मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में
भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है।
कलाकृतियों में होली:- इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों
और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं।विजयनगर की राजधानी हंपी के
16वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में
राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को
होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। 16वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति
का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला
झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त
हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों
और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए इसमें 17वी शताब्दी
की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है।
शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य
रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के
सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही हैं। आज होली के
रंग,इसकी धूम केवल भारत तथा उसके प्रदेशों तक ही सीमित नहीं है, अपितु होली का उडता
हुआ रंग आज दूसरों देशों तक भी जा पहुंचा है। ऎसा लगता है कि हमारी परम्पराओं ने अपनी
सीमाओं का विस्तार कर लिया है. यह पर्व स्नेह और प्रेम का है। इस पर्व पर रंग की तरंग
में छाने वाली मस्ती पर संयम रखते हुए, अपनी मर्यादाओं की सीमा में रहकर, इस पर्व का
आनन्द लेना चाहिए।
भारतीय मुस्लिम भी खेलते थे होली :- 18वीं शताब्दी के बाद भारतीय
मुस्लिमों पर भी होली का रंग चढ़ने लगा। डॉ. आनंद के अनुसार तात्कालिक लेखक मिर्जा मोहम्मद
हसन खत्री का नाम मुस्लिम बनने से पहले दीवान सिंह खत्री था। उन्होंने अपनी एक पुस्तक
हफ्त तमाशा में लिखा है कि भारत में अफगानी और कुछ कट्टर मुस्लिमों को छोड़ कर सभी भारतीय
मुस्लिम होली खेलने लगे थे। लेकिन जैसे-जैसे सत्ता बदलती गई, वैसे-वैसे उन्होंने होली
खेलना भी बंद कर दिया। आज होली के रंग,इसकी धूम केवल भारत तथा
उसके प्रदेशों तक ही सीमित नहीं है, अपितु होली का उडता हुआ रंग आज दूसरों देशों तक
भी जा पहुंचा है। ऎसा लगता है कि हमारी परम्पराओं ने अपनी सीमाओं का विस्तार कर लिया
है. यह पर्व स्नेह और प्रेम का है। इस पर्व पर रंग की तरंग में छाने वाली मस्ती पर
संयम रखते हुए, अपनी मर्यादाओं की सीमा में रहकर, इस पर्व का आनन्द लेना चाहिए। आज
होली के रंग,इसकी धूम केवल भारत तथा उसके प्रदेशों तक ही सीमित नहीं है, अपितु होली
का उडता हुआ रंग आज दूसरों देशों तक भी जा पहुंचा है। ऎसा लगता है कि हमारी परम्पराओं
ने अपनी सीमाओं का विस्तार कर लिया है. यह पर्व स्नेह और प्रेम का है। इस पर्व पर रंग
की तरंग में छाने वाली मस्ती पर संयम रखते हुए, अपनी मर्यादाओं की सीमा में रहकर, इस
पर्व का आनन्द लेना चाहिए।
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