तीन स्वतंत्र शाखाएं- लोकतांत्रिक भारत सरकार
की तीन स्वतंत्र शाखाएं हैं - कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। भारतीय
न्यायिक प्रणाली अंग्रेजों ने औपनिवेशिक शासन के दौरान बनाई थी। इसको आम कानून
व्यवस्था के रुप में जाना जाता है। इसमें न्यायाधीश अपने फैसलों, आदेशों और निर्णयों
से कानून का विकास करते हैं। देश में कई स्तर और तरह की अदालतें न्यायपालिका बनाती
हैं। भारत की शीर्ष अदालत नई दिल्ली स्थित सुप्रीम कोर्ट है और उसके नीचे विभिन्न
राज्यों में हाई कोर्ट हैं। हाई कोर्ट के नीचे जिला अदालतें और उसकी अधीनस्थ
अदालतें ह,ैं जिन्हें निचली अदालत कहा जाता है। कानून को बनाए रखने और चलाने में
न्यायपालिका की बहुत अहम भूमिका है। यह सिर्फ न्याय नहीं करती बल्कि नागरिकों के
हितों की रक्षा भी करती है। न्यायपालिका कानूनों और अधिनियमों की व्याख्या कर
संविधान के रक्षक के तौर पर भी काम करती रहती है। भारतीय न्यायिक प्रणाली दुनिया
की सबसे पुरानी न्यायिक प्रणालियों में से एक है। देश का सर्वोच्च कानून यानि
भारतीय संविधान आज के दौर के कानूनी और न्यायिक प्रणाली की रुपरेखा देता है। हमारी
न्याय प्रणाली की एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि यह विरोधात्मक प्रणाली पर आधारित
है, यानि इसमें कहानी के दो पहलुओं को एक तटस्थ जज के सामने पेश किया जाता है जो
तर्क और मामले के सबूतों के आधार पर फैसला सुनाता है।
न्यायिक प्रणाली की चुनौतियां - हमारी
न्यायिक प्रणाली में कुछ निहित समस्याएं हैं जो इस प्रणाली के दोष और कमजोरियां
दिखाती हैं। यद्यपि यह शनैः शनैः अपना असर दिखाना प्रारम्भ करती है परन्तु अन्ततः
यह पूरे सिस्टम को अपने प्रभाव में ले लेती है। इसमें तुरंत सुधारों और जवाबदेही
की आवश्यकता है। विना हानिलाभ के मामले का निपटारा सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
जजों में किसी भी प्रकार का पूर्वाग्रह भी नहीं होना चाहिए।
1. न्यायपालिका में भ्रष्टाचार- सरकार की
किसी भी अन्य संस्था की तरह भारतीय न्यायिक प्रणाली भी भ्रष्टमुक्त नहीं है। हाल
ही में हुए विभिन्न घोटालों जैसे सीडब्ल्यूजी घोटाला, टूजी घोटाला, आदर्श सोसायटी
घोटाला और बलात्कार सहित समाज में हो रहे अन्य अत्याचारों ने नेताओं और गणमान्य
व्यक्तियों और आम जनता सभी के आचरण पर जोर डाला है और भारतीय न्यायपालिका के काम
के तरीकों में भी कमियां दिखाई हैं। यहां जवाबदेही की कोई व्यवस्था नहीं है।
मीडिया भी अवमानना के डर से साफ तस्वीर पेश नहीं करता है। रिश्वत लेने वाले किसी
जज के खिलाफ बिना मुख्य न्यायाधीश की इजाजत के एफआईआर दर्ज करने का कोई प्रावधान
नहीं है। फलतः एक विसम परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है।
2. लंबित मामलों का बैकलाग- भारतीय
कानून प्रणाली में दुनिया में सबसे ज्यादा लंबित मामलों का बैकलाॅग है जो कि लगभग
30 मिलीयन मामलों का है। इनमें से 4 मिलीयन मामले हाई कोर्ट में, 65000 मामले
सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं। यह आंकड़े लगातार बढ़ते जा रहे हैं और इसी से
कानून प्रणाली की अयोग्यता का पता चलता है। जजों की संख्या बढ़ाने, और ज्यादा कोर्ट
बनाने की बात हमेशा की जाती है पर इसे लागू करने में हमेशा देर या कमी होती है।
इसके पीडित सिर्फ गरीब और आम लोग ही होते हैं। उन्हें इतनी मंहगी फीस जुटाने में
अनेक दिक्कतें आती हैं और न्याय से महरुम
हो जाते है। अमीर लोग महंगे वकीलों का खर्च वहन कर कानून अपने पक्ष में कर
सकते हैं। इस बैकलाग के कारण ही भारतीय जेलों में बंद कैदी भी पेशी के इंतजार में
रह जाते हैं।
3. पारदर्शिता की कमी - भारतीय न्यायिक प्रणाली
की एक और समस्या उसमें पारदर्शिता की कमी है। यह देखा गया है कि सूचना के अधिकार
को पूरी तरह से कानून प्रणाली से बाहर रखा गया है। इसलिए न्यायपालिका के कामकाज
में महत्वपूर्ण मुद्दों, जैसे न्याय और गुणवत्ता को ठीक से नहीं जाना जाता है।
विचाराधीन कैदियों की मुश्किलें भारतीय जेलों में बंद कैदियों में से ज्यादातर
विचाराधीन हैं जो कि उनके मामलों के फैसले आने तक जेल में ही बंद रहते हैं। कुछ
मामलों में तो ये कैदी अपने ऊपर दायर मामलों की सजा से ज्यादा का समय सिर्फ सुनवाई
के इंतजार में ही जेल में निकाल देते हैं। अमीर लोग पुलिस को अपनी ओर कर लेते हैं
जिससे पुलिस अदालत में लंबित मामले के दौरान गरीब व्यक्ति को परेशान या चुप कर
देती है।
4. समाज से परस्पर संवाद नहीं- किसी भी
देश की न्यायपालिका समाज का अभिन्न अंग होता है। उसका समाज से नियमित और प्रासंगिक
परस्पर संवाद होता है। कुछ देशों में न्यायिक निर्णयों में आम नागरिकों की भी
भूमिका होती है। भारत में न्यायिक प्रणाली का समाज से कोई संबंध नहीं है जो कि इसे
ब्रिटिश न्यायिक सेट-अप से विरासत में मिला है। लेकिन 70 सालों में कुछ बात बदल
जानी चाहिए। आज भी कानून अधिकारी लोगों से मिलने के लिए करीब नहीं आते हैं।
वर्तमान न्याय प्रणाली लोकतांत्रिक प्रक्रिया, मानदंड और समय के अनुकूल नहीं है और
सिर्फ समाज के एक वर्ग को खुश करने और उनके निहित स्वार्थ के लिए काम करती है।
इसलिए इसके तुरंत पुनर्गठन की आवश्यकता है।
5. न्यायिक सुधार - दशकों से भारतीय
न्यायतंत्र में सुधारों की आवश्यकता महसूस की जा रही है क्योंकि सस्ता एवं शीघ्र
न्याय कुल मिलाकर भ्रामक रहा है। अदालतों में लंबित मामलों को जल्दी निपटाने के
उपायों के बावजूद 2 करोड़ 50 लाख मामले लंबित हैं। विशेषज्ञों ने आशंका प्रकट की है
कि न्यायतंत्र में जनता का भरोसा कम हो रहा है और विवादों को निपटाने के लिए
अराजकता एवं हिंसक अपराध की शरण में जाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। पिछले 7 दशकों
से भारतीय विधि आयोग, संसदीय स्थायी समितियों और अन्य सरकार द्वारा नियुक्त
समितियों, उच्चतम न्यायालय की अनेक पीठ, प्रतिष्ठित वकील और न्यायाधीश, विभिन्न
कानूनी संघ संगठन और गैर सरकारी संगठनों जैसे विभिन्न कानूनी स्थापित सरकारी
प्राधिकरणों ने न्याय तंत्र में समस्याओं की पहचान की है और उनको जल्दी दूर करने
का समय आ गया है। यदि न्यायाधीश संवेदनशील नहीं रहेगा, तो इस देश के गरीबों को या
दुर्बल घटकों को कभी न्याय नहीं दिला पायेगा। इसके बावजूद लोगों का विश्वास सिर्फ
न्यायपालिका पर है, परंतु न्यायपालिका सुचारू रूप से न्याय कर सके, न तो ऐसी
व्यवस्था है, न योजना और न ही वैसी मानसिकता।
6. न्याय में देरी- समय से न्याय ना मिलना
एक तरह का अन्याय ही कहा जा सकता है। न्याय में देरी को मानते हुए उच्चतम न्यायालय
की संवैधानिक पीठ ने पी. रामचंद्र राव बनाम कर्नाटक (2002) मामले में हुसैनआरा
मामले की इस बात को दोहराया कि, शीघ्र न्याय प्रदान करना, आपराधिक मामलों में तो
और भी अधिक शीघ्र, राज्य का संवैधानिक दायित्व है तथा संविधान की प्रस्तावना और
अनुच्छेद 21, 19, एवं 14 तथा राज्य के निर्देशक सिध्दांतों से भी निर्गमित न्याय
के अधिकार से इंकार करने के लिए धन या संसाधनों का अभाव कोई सफाई नहीं है। यह समय
की मांग है कि भारतीय संघ और विभिन्न राज्य अपने संवैधानिक दायित्वों को समझें और
न्याय प्रदान करने के तंत्र को मजबूत बनाने की दिशा में कुछ ठोस कार्य करें।
120वें विधि आयोग की रिपोर्ट में इस बात की ओर संकेत किया गया है कि भारत, दुनिया
में आबादी एवं न्यायाधीशों के बीच सबसे कम अनुपात वाले देशों में से एक है।
7. दुनिया की सबसे पुरानी न्यायिक प्रणाली- भारतीय
न्यायिक प्रणाली दुनिया की सबसे पुरानी न्यायिक प्रणालियों में से एक है। देश का
सर्वोच्च कानून यानि भारतीय संविधान आज के दौर के कानूनी और न्यायिक प्रणाली की
रुपरेखा देता है। भारतीय न्यायिक प्रणाली ‘आम कानून प्रणाली’ के साथ नियामक कानून
और वैधानिक कानून का पालन करती है। हमारी न्याय प्रणाली की एक महत्वपूर्ण विशेषता
है कि यह विरोधात्मक प्रणाली पर आधारित है, यानि इसमें कहानी के दो पहलुओं को एक
तटस्थ जज के सामने पेश किया जाता है जो तर्क और मामले के सबूतों के आधार पर फैसला
सुनाता है।
चार
वरिष्ठ न्यायाधीशों की संदेहास्पद मुहिम- भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश
न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा जी द्वारा 1984 सिख विरोधी दंगों की फाइल खुलवाते ही
सुप्रीम कोर्ट के अन्य चार वरिष्ठ न्यायाधीशों को दीपक मिश्रा जी की वजह से
लोकतंत्र खतरे में नजर आने लगा। जिन चार देशभक्त न्यायाधीशों ने ये खुलासा एक
संवाददाता सम्मेलन बुलाकर मीडिया के सामने किया था उनके नाम हैं- न्यायाधीश जोसफ
कुरियन, न्यायाधीश जे चेलमेश्वर , न्यायाधीश रंजन गोगोई और न्यायाधीश मदन लोकुर ।
जैसे ही 4 न्यायाधीशों ने प्रेस कांफ्रेंस किया उसके तुरंत बाद कांग्रेस के सभी
नेता, जिग्नेश मेवानी, शेहला रशीद, प्रशांत भूषण जैसे लोग इन जजों के समर्थन में आ
गए, सुप्रीम कोर्ट के 4 न्यायाधीश मीडिया
के सामने आये थे। अफजल गैंग के कुख्यात वामपंथी पत्रकार शेखर गुप्ता के साथ ये न्यायाधीश
कहने लगे की देश का लोकतंत्र खतरे में है, चीफ न्यायाधीश हमारी बात नहीं मानता,
देश को बचाइए, देश खतरे में है। आइये, इन न्यायाधीशों के बारे में जानें, ये लोग
कौन है, इनकी पृष्टभूमि क्या है’, पहले इन्होने क्या किया है ताकि देश को अंदाजा
लग जाये की असल स्थिति क्या है? ये सभी न्यायाधीश
कांग्रेस के राज में न्यायाधीश बने थे।
1. न्यायाधीश जोसफ कुरियन - इनमे से
एक न्यायाधीश जोसफ कुरियन हैं। ये न्यायाधीश
मानसिकता से एक कट्टरपंथी ईसाई है। प्रधानमंत्री मोदी ने रविवार को एक
कार्यक्रम रखा था तो इसने ऐतराज जताया की इसे तो रविवार को चर्च जाना है, मोदी को
ईसाई विरोधी साबित करने की कोशिश की गयी। मसलन जज साहेब के लिए सरकारी काम नहीं
बल्कि ईसाइयत यानि मजहब पहले स्थान पर है।
2. न्यायाधीश चमलेश्वर - जस्टिस चमलेश्वर वह
न्यायाधीश है जो कांग्रेस के काफी करीबी माने जाते हैं। ये अफजल प्रेमी गैंग के
वामपंथी नेता डी राजा के मित्र हैं। इन्होने आधार पहचानपत्र का भी विरोध किया था।
कांग्रेस भी आधार का विरोध करती है। आधार से भ्रष्टाचारियों की नींद उडी हुई है।
चूँकि उससे सबकुछ कनेक्ट किया जा रहा है, कई तरह के फर्जीवाड़े आधार से बंद हो चुके
है।
3.न्यायाधीश गोगोई - ये असम के हंै और असम
के पूर्व मुख्यमंत्री केशब चंद्र गोगोई के सुपुत्र है। केशब चंद्र गोगोई कांग्रेस
के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। और ये न्यायाधीश साहेब कोंग्रेसी मुख्यमंत्री के
पुत्र हैं। इन्हें वर्तमान सिस्टम में दोष दिखने लगा है।
4. न्यायाधीश मदन लोकुर -ये न्यायाधीश भी
कांग्रेस समर्थक हैं। सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि सुप्रीम
कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों को प्रेस कॉन्फ्रेंस करके ये बताना पड़ा कि सुप्रीम
कोर्ट में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
कुछ
तथाकथित लोगों का साठगांठ- इन लोगों के साथ शेखर गुप्ता जैसा अफजल
प्रेमी, अवार्ड वापसी गैंग का कुख्यात पत्रकार आदि भी इस मुहिम को हवा दिये हैं।
ये लोग कह रहे है की देश का लोकतंत्र खतरे में है। 2019 में आम चुनाव है, अब ऐसे
में सभी तथाकथित लोग सामने आते रहेंगे। 2019 में कांग्रेस को सत्ता चाहिए इसलिए अब
लोकतंत्र इत्यादि सब खतरे में आ गया। कुछ दिन पहले दिल्ली में माओवादी अर्बन
नक्सली जिग्नेश मेवानी ने जे एन यू के वामपंथियों और ईसाई मिशनरियों के लोगों के
साथ रैली की थी, जिसमे उन सभी का कहना था की लोकतंत्र खतरे में है। अब जज
चेलमेश्वर का कहना है कि लोकतंत्र खतरे में है। इसे अब यूं समझिये कि ’लोकतंत्र
नहीं बल्कि कांग्रेस और उसके समर्थक दल
खतरे में हैं। अवार्ड वापसी गेंग नए अवतार में वापस आ गये हैं। न्यायालयों में
उनकी पैठ बन चुकी है।
जस्टिस के बीच की प्रतिद्वंदता -जस्टिस
चमलेश्वर और दीपक मिश्रा के बीच की प्रतिद्वंदता है। आज जो परिस्थिति बाहर आई उसका
आधार वो 46 मेडिकल कॉलेज थे जिनको फर्जी तरीके से मान्यता दी गयी और इस माममें में
सुप्रीम कोर्ट के कुछ जस्टिस की दखलंदाजी भी मानी जाती है। बाकायदा उड़ीसा के एक
पूर्व जज को भी गिरफ्तार कर दिया गया था।
दीपक मिश्रा जी के कुछ महत्वपूर्ण फैसले- आइये
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा जी के कुछ फैसलों पर नजर डालते हैं। इससे अंदाज लग
सकता हैं कि कौन से और क्या खतरा इन मानननीय न्यायाधीशों को रहा है। मुख्य
न्यायाधीश दीपक मिश्रा जी ने निर्भया गैंगरेप के दोषियों की फांसी की सजा बरकरार
रखा था । इससे तथाकथित वरिष्ठ न्यायाधीश असहज सा हो गये और देश में कुछ नई परम्परा
का श्री गणेश जो हुआ था। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा जी ने चाइल्ड पोर्नोग्राफी
वाली वेबसाइटों को बैन भी किया था। इससे तथाकथित वरिष्ठ न्यायाधीश असहज सा हो गये
थे। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा जी ने सबरीमाला मंदिर(केरल) के द्वार महिलाओं के
लिए खुलवाया था। इसे हमारे वरिष्ठ न्यायाधीश असहज हो उठे। संभवतः उनके अनुकूल यह
निर्णय ना रहा हो। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा जी ने सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान
अनिवार्य किया था। इससे लोकतंत्र का सेकुलर लाबी आहत हुआ प्रतीत होता है। इसलिए
माननीयों के माध्यम से विरोध का स्वर मुखरित होता है। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा
जी ने एफआईआर की कॉपी 24 घंटों में वेबसाइट पर डालने के आदेश दिया था। गलत कार्य
करने वाले संकट में घिरने लगे और उनके पोषकों को लोकतंत्र से खतरा दिखने लगा था।
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा जी ने याकूब मेनन की फांसी बरकरार रखा था। इससे
सेकुलर राजनीति हाशिये पर आने लग गई थी तो इसका विरोध होने लगा। मुख्य न्यायाधीश
दीपक मिश्रा जी ने प्रमोशन में आरक्षण पर रोक लगाई थी। राजनीति के सौदागरों का वोट
बैंक छिटकने के भय ने विरोध का स्वर बनाना मजबूरी बन गया था।
अयोध्या का मसला- इसके अलावा जो 5 जजों की बेंच अयोध्या का मसला
देख रही है उसके अध्यक्ष स्वयं चीफ जज दीपक मिश्रा है। अब क्या क्या खतरे में आ
चुका है और क्या खतरे में आने वाला है उसके अनुमान से ही चारों जजों की चिंता और
विरोध भी गलत नहीं है। मंदिर निर्माण के अनुकुल परिथितियां अयोध्या स्थित राम जन्म
भूमि बाबरी मस्जिद विवादित ढांचा गिराए जाने के मामले पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई
हुई है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस अब्दुल नजीर की तीन
सदस्यीय विशेष पीठ चार दीवानी मुकदमों में इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2010 के फैसले के
खिलाफ दायर 13 अपीलों पर सुनवाई की है। जल्दी ही राम मंदिर बनने वाला है। पूजा
अर्चना शुरू हो चुकी है बहुत जल्दी प्रभु श्री राम के दर पर हम जाने वाले हैं योगी
जी शुरुआत कर चुके हैं। करोड़ो रुपए अयोध्या के लिए देकर और अब कोर्ट के फैसले का
इंतजार है जिस पर कोर्ट ने मोहर लगा दी है कि अब सुनवाई नहीं रुकेगी। राम मंदिर का
केस भी जस्टिस मिश्र के अधीन होगा, जिस पर इन लोगों का पूरा जोर है कि ये इस
जस्टिस के रहते पूरा ना हो बल्कि इनके किसी चहेते के अधीन आये, ताकि ये उसे पहले
तो अपने पक्ष, नहीं तो कम से कम अगले लोकसभा के बाद खींच पाएं। इस मामले में भी
धवन और सिब्बल जस्टिस मिश्र को कोर्ट में ही धमकी दे आये थे और बेंच के जज की
संख्या भी ज्यादा चाहते थे, जिसे जस्टिस मिश्रा ने मना कर दिया था।
मेडिकल फर्जीवाड़ा केस- जिस मेडिकल फर्जीवाड़े का
केस जस्टिस मिश्रा ने पलटा, दरअसल उसके पीछे कई षड्यंत्र है। इस केस को प्रशांत
भूषण देख रहे थे। इस प्रशांत भूषण ने चुपचाप जस्टिस चमलेश्वर के पास जाकर इस केस
को अपने पसंदीदा जजों की बेंच में भिजवा दिया। अब चूंकि ये मेंशनिंग का अधिकार
सिर्फ चीफ जस्टिस का होता है तो मिश्रा ने इसे पलट दिया। इस पर भूषण जी चिल्लाते
हुए दीपक मिश्र के कोर्ट में जब पहुंचे तो वहां पहले से ही बार कौंसिल मौजूद थी।
भूषण की बदतमीजी पर बार काँसिल के सचिव ने भूषण का लाइसेंस रद्द करने की मांग कर
दी। इस पर जस्टिस मिश्र को कहना पड़ा कि यहां पहले तुम जैसे वकील ही केस के जज तय
करते थे ? इसलिए अब भी करना चाह रहे हो ?
याकूब मेनन केस पर फैसला- जस्टिस
मिश्र ने याकूब मेनन पर अंतिम फैसला दे उसे फांसी लगवाई थी। तब ये भूषण, ग्रोवर,
सिब्बल आदि कई एनजीओ के साथ उसकी माफी मांग रहे थे। यहां तक कि कई जज भी।
हिन्दू अल्पसंख्यक केस- इसके अलावा जिन राज्यों
में हिन्दू अल्पसंख्यक है, वो केस भी मिश्रा की अदालत में चल रहा है जिस पर पूरी
उम्मीद है कि वहां हिन्दू को अल्पसंख्यक का दर्जा मिलेगा।इसके अलावा चिंदम्बरम का
मैक्सिस केस भी जस्टिस के पास है जिसपर नियमित सुनवाई चलेगी। ट्रिपल तलाक पर मुह
की खाये ये कांग्रेस पोषित गिरोह जानते है कि उपरोक्त केस में इनका क्या होगा और
फिर आगे इनकी राजनीति का क्या होगा।
असली कारण- जस्टिस चमेलश्वर की हैसियत सुप्रीम कोर्ट में
जस्टिस मिश्रा के बादजस्टिस मिश्रा के बाद नम्बर दो है। । यदि कॉलेजियम के अनुसार
चीफ जस्टिस के नियंत्रण में कुल 5 जस्टिस अगला चीफ जस्टिस नियुक्त करते हैं, तो
जस्टिस चमलेश्वर को अपना पत्ता कटता नजर आ रहा है। इसीलिए वह मीडिया में आकर
लोकतंत्र की दुहाई दिये और जस्टिस मिश्रा पर मनमानी का आरोप लगा रहे हैं। इन सबके
बावजूद भारत में लोकतंत्र व न्यायपालिका की जड़े बहुत गहरी हैं। इन छोटी मोटी
बाधाओं से देश की मूल धारा प्रभावित नहीं हो सकती है और मुझे तो भारत का भविष्य
सुन्दर दिख रहा है।
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