‘सरस्वती’
का शाब्दिक अर्थ आत्म ज्ञान का सार होता
है। जो एक देवी
व एक नदी दोनों
के रूपों में पूजी और जानी जाती
है। यह ज्ञान, कला,
संगीत, राग, वाकपटुता तथा आत्मशुद्धि की देवी होती
हंै। लक्ष्मी पार्वती के साथ इनका
नाम त्रिदेवियों में लिया जाता है। ऋग्वेद में एक देवी के
रूप में इनका उल्लेख मिलता है। वैदिक परम्पराओं से यह एक
महत्वपूर्ण देवी जानी जाती हैं। इनके सम्मान में माघ माह के शुक्ल पक्ष
के पंचमी तिथि को इनका जन्म
दिन मनाया जाता है। इस दिन से
बच्चों के शिक्षा की
प्रारम्भ कराई जाती है। हिन्दू के अलावा वौद्ध
एवं और जैन धर्मो
में भी सरस्वती देवी
की मूर्तियां मिलती हैं। इन धर्मो में
पूरे विधि विधान तथा अनुष्ठान के साथ इनका
पूजन होता है। भारत के अलावा दक्षिण
पूर्व एशिया ,नेपाल ,जापान के द्वीपों ,बाली
(इण्डोनेशिया) , मयमार के मन्दिरों में
भी इनकी पूजा आराधना तथा लीलायें की जाती हैं।
ऋग्वेद
के 2.41.16 मे लिखा गया
है – ‘अम्बितमें नदीतमे देवितमे सरस्वति।‘
ऋग्वेद
के 10.17 मे आगे इसे
चिकित्सा तथा सफाई की शक्तियों के
देवता के रूप में
लिखा गया है-
“अपो
अस्मान मातरः शुन्धयन्तु घर्तेन नो घर्तप्वः पुनन्तु।
विश्वं
हि रिप्रं परवहन्ति देविरूदिदाभ्यः शुचिरापूत एमि।।“
सरस्वती
को ब्रहमाणी (विज्ञान की देवी), ब्राहमी
(व्रह्म देव से पैदा होने
वाली), भैरवी (इतिहास की देवी) वाणी
या वाची (गीत, मधुरभाषण, वाक्पटु बोलने वाली), वर्णेश्वरी (पत्र की देवी) कविजिह्वाग्रावासिनी(
कवियों के जीभ के
अग्र भाग पर निवास करने
वाली ) आदि नाम से भी जानी
जाती है।
प्रतीकांकन:-लगभग 1000 ई. पू. से
1500 ई. तक के हर
प्रमुख प्राचीन तथा मध्यकालीन हिन्दू परम्पराओं तथा वैदिक साहित्य में एक प्रमुख देवी
के रूप में सरस्वती देवी का सदैव उल्लेख
तथा पूजन किया जाना मिलता है। महाभारत के शांतिपर्व में
इन्हें बेदों की जननी कहा
गया है। जब ब्रह्माण्ड बनाया
गया तब तब आकाशीय
स्वर संगीत या नाद के
रूप में इन्हें दिखाया गया। तैतरीय ब्राहमण में वह एक वाक्पटु
भाषण और मधुर संगीत
की मां कहा गया है। वह ब्रह्मा की
सक्रिय ऊर्जा और शक्ति होती
हैं। इसी प्रकार 8वीं सदी की पुस्तक ’’शारदा
तिलक’ में
उल्लेख है कि वह
भाषण की देवी के
रूपमें वाग्मिता प्रदान करने वाली , मस्तक पर धारण की
जाने वाली , श्वेत कमल पर विराजने वाली,
हाथ में वीणा तथा वेद धारण करने वाली होती है। इस धारणा से
हटकर बौद्ध साहित्य साधनमाला में उन्हें मंजुश्री की पत्नी कहा
गया है। सामान्यतः वह श्वेत वस्त्र
धारण करती है। श्वेतकमल पर आसन ग्रहण
करती है। वह प्रकाश, ज्ञान,
अनुभव तथा सच्चाई का प्रतीक हंै।
कभी-कभी इन्हें चारभुजी तो कभी- कभी
दोभुजी चित्रित किया गया है। वह दर्पण, मानस,
बुद्धि, चित्त तथा अहंकार का प्रतीकों का
प्रतिनिधितव भी करती हैं।
चार भुजाओं में पुस्तक, माला, पानी का पात्र, वीणा
धारण कर करती हैं
पुस्तक से वेदों का
बोध होता है। वह सार्वभोैमिक , दिव्य,
अनन्त और सच्चा ज्ञान
व अध्यात्म की प्रतिनिधित्व भी
करती हैं। वह विज्ञान और
अनुराग तथा प्रेम व संगीत की
लय होती हैं। उनका वाहन हंस अध्यात्मिक पूर्णता , अतिक्रमण ओर मोक्ष का
प्रतीक है। कभी-कभी मोर पर विराजते दिखाने
पर वह रंगीन वैभव
, नृत्य के उत्सव तथा
सांप का भक्षक के
प्रतीक के रूपमें जानी
जाती हैं। वह नदी के
रूप में इस धरा पर
अपने भौतिक अस्तित्व का वोध भी
कराती रही है।
क्षेत्रीय
अभिव्यक्तियां:-देवी महात्म्य में त्रिदेवियों में उन्हें महा सरस्वती के रूप में
दिखया गया है। उन्हें आठ शस्त्र - बेद,
त्रिशूल, फल, शंख, मूसल, थाल, धनुष व तीर धारण
करते भी चित्रित किया
गया हंै। नौ देवियों में
भी इनको स्थान दिया गया है। तिब्बत तथा भारत के कुछ हिस्सों
में वह तंत्र महादेवी
तारा के रूप में
रचनात्मक ऊर्जा का संचार करती
हैं। इन्हे नील सरस्वती भी कहा गया
है।
प्रमुख मन्दिर:-
संसार में अनेक सरस्वती मंदिर हैं। इनमंे कुछ प्रमुख - बसर नदी के तट पर
गनाना गोदावरी
तट पर वारांगल तथा
मेडक , तेलंगाना में क्षेत्रम, कर्नाटक में श्रृंगेरी शारदाम्बा, केरल में एर्नाकुलम , दक्षिण मूकम्बिका तथा
तमिलनाडु में कूटनूर आदि हैं। केरल तथा तमिलनाडु में नवरात्रि के समय सरस्वती
मां के विशेष पूजन
होता है।
विदेशों में सरस्वती की पूजा:- जापान में
चीन के माध्यम से
8वी सदी में सरस्वती की पूजा का
प्रचलन शुरू हुआ था। बीवा एक परम्परागत जापानी
वीणा यंत्र है जो कामाकुरा
के रूप में जापान भर में प्रचलित
है। कम्बोडिया में सातवीं से ग्यारहवीं सदी
में इनका मंदिर व अभिलेख मिलता
है। यहां के खमेर साहित्य
में वागेश्वरी सरस्वती के बारे में
काफी कुछ मिलता है। थाईलैण्ड में श्रुतवदी भाषण और सीखने के
लिए इन्हे ब्रह्मा की पत्नी के
रूपमें जाना जाता हैं बाद में यहां बौद्ध अवधारणों में इनका विलय हो गया। इण्डोनेशिया
के बाली में यह हिन्दू धर्म
की एक प्रमुख देवी
के रूप में जानी जाती हैं। इनकी पूजा बहुतायत से होती है।
इस दिन लोग फूल तथा पवित्र ग्रंथों को प्रसाद के
रूपमें वितरित करते हंै। यहां यह स्वच्छता का
दिन भी माना जाता
है। समुद्र झरने तथा नदी की पानी से
कुल्ला करके जल को सरस्वती
देवी मानकर उनकी पूजा करते हंै। यहां के थियेटरों में
नृत्य आदि के रंगारंग कार्यक्रम
आयोजित होते है।
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