मैंने अपने पिछले ब्लाग में यतो धर्मस्ततो जयः का जिक्र किया था। आज हम उससे
भी ज्यादा सार्थक घ्येय वाक्य "सत्यमेव जयते"की चर्चा करेंगे। जो एक महत्वपूर्ण विषय
है। इससे पूर्व हम सत्य पर जरा विचार कर लें। सत्य वह नहीं जो दिखाई पड़ता है, अपितु उसके पीछे छिपा अदृश्य भी सत्य हो सकता है। साधारण जीव तो हर दृश्यमान बस्तु को सत्य समझने का भ्रम कर सकता है। वह सांसारिक वृत्तियों व चालाकियों को समझने की शायद ही कोशिस करे। चतुर व्यक्ति अपने ज्ञान और विवेक का प्रयोग करके सत्य को भ्रमित कर सकता है। संसार तो उस चतुर व्यक्ति के कृत्य को सही समझने का भ्रम कर सकता है। इस सत्य को तो केवल परम पिता परमेश्वर ही देखता है और समझता है। मेरा आग्रह बस इतना ही है कि प्रथम दृष्टया किसी निष्कर्ष पर पहुचने के पूर्व उसकी वास्तविकता में भी जाना चाहिए। एक निर्दोष का वह दण्ड नहीं दिया जाना चाहिए, जिसे उसने किया ही नहीं है। उसे अपनी सत्यता प्रमाणित करने का अवसर दिया जाना अनुचित नहीं है। यदि आप समझते हैं कि आप यहाँ से कुछ लेकर जा रहे हैं, तो आप कुछ भी नहीं लेकर जा रहें हैं, और यदि आपको लगता है कि आप खाली हाथ जा रहें हैं, तो आप बहुत कुछ लेकर जा रहें हैं। सत्य, यह एक ऐसा तथ्य जिसमें बड़े-बड़े ज्ञानी भी भ्रमित हो जाते हैं, जीवन का आरम्भ क्यों होता है और उसका अंत क्यों होता है? अर्थात मृत्यु क्यों होती है? इसी तथ्य को जानना सांसारिक सत्य है, संसार के सभी धर्म इसी सत्य को जानने का प्रयास कर रहें हैं - भौतिक स्तर पर हमें जीवन-मृत्यु और जीवन चक्र ही सत्य प्रतीत होता है परन्तु आध्यात्मिक स्तर पर सत्य जीवन - मृत्यु से परे की वस्तु है जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में केवल हम पदार्थ (भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में) और ऊर्जा को ही प्रत्यक्ष रूप से और परोक्ष रूप से भी अनुभव करते हैं, परन्तु इस पदार्थ और ऊर्जा का नियंता, कारण कौन है, वही कारण ही सत्य है।
ॐ असतो मा सद्गमय | तमसो मा ज्योतिर्गमय ||
मृत्योर्मामृतं गमय || ॐ शांति: ! शांति: !! शांति: !!!
‘यतो धर्मस्ततो जयः’- भारत का सुप्रीम कोर्ट कहता है ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ अर्थात् जहाँ धर्म है विजय वहीँ है। भारत का संविधान कहता है कि भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है। धर्म निरपेक्ष का अर्थ सभी धर्मों को मानना नहीं होता, इसका अर्थ है किसी भी धर्म को न मानना । क्या समझा जाये इससे ? क्या भारत का सर्वोच्च न्यायलय संविधान विरोधी है या फिर भारतीय संविधान कानून का विरोधी है ? हम जानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है। यह राष्ट्र की सोच और राष्ट्र के नेताओं की सोच का केवल अंतर है,जो इन दोनों जगह परिलक्षित हो रहा है। यह कहा गया है कि ‘धर्मेण हन्यते व्याधिः हन्यन्ते वै तथा ग्रहाः। धर्मेण हन्यते शत्रुः यतो धर्मस्ततो जयः।‘ धर्म से व्याधि दूर होता है, ग्रहों का हरण होता है, शत्रु का नाश होता है । जहाँ धर्म है, वहीं जय है । हम जानते हैं कि ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ यह माननीय उच्चतम न्यायालय का ध्येय वाक्य है। इसके साथ अशोक का चक्र भी माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपना रखा है। अशोक चक्र के साथ ‘सत्यमेव जयते’ वाक्य को ना लेकर ‘यतो धमः ततो जयः’ को लिया गया है। इसका अर्थ है कि जहाँ धर्म है, वहीं विजय है। विश्व के सबसे बड़े लोकप्रिय ग्रन्थ महाभारत में पचासों स्थानों पर एक वाक्य आया है। श्रीमद् भगवद्गीता में भी यह वाक्य बार बार आया है।
सत्यमेव जयते :- भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है। इसका अर्थ है : सत्य ही जीतता
है , सत्य की ही जीत होती है। यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक अशोक के नीचे देवनागरी लिपि
में अंकित है। यह प्रतीक उत्तर भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश में वाराणसी के निकट सारनाथ
में 250 ई.पू. में सम्राट अशोक द्वारा बनवाये गए सिंह स्तम्भ के शिखर से लिया गया है,
लेकिन उसमें यह आदर्श वाक्य नहीं है। 'सत्यमेव जयते' मूलतः मुण्डक-उपनिषद का सर्वज्ञात
मंत्र 3.1.6 पूर्ण मंत्र इस प्रकार है:
सत्यमेव
जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयानः।
येनाक्रमंत्यृषयो
ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम्॥
(अर्थात
अंततः सत्य की ही जय होती है न कि असत्य की। यही वह मार्ग है जिससे होकर आप्तकाम (जिनकी
कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) मानव जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।)
प्राचीन
भारतीय साहित्य के 'मुण्डकोपनिषद' से लिया गया यह आदर्श सूत्र वाक्य आज भी मानव जगत
की सीमा निर्धारित करता है। 'सत्य की सदैव विजय हो' का विपरीत होगा- 'असत्य की पराजय
हो'। सत्य-असत्य, सभ्यता के आरम्भ से ही धर्म एवं दर्शन के केंद्र बिंदु बने हुये हैं।
'रामायण' में भगवान श्रीराम की लंका के राजा रावण पर विजय को असत्य पर सत्य की विजय
बताया गया और प्रतीक स्वरूप आज भी इसे 'दशहरा' पर्व के रूप में सारे भारत में मनाया
जाता है तथा रावण का पुतला जलाकर सत्य की विजय का शंखनाद किया जाता है। विश्व प्रसिद्ध
महाकाव्य 'महाभारत' में भी एक श्रीकृष्ण के नेतृत्व और पाँच पाण्डवों की सौ कौरवों
और अट्ठारह अक्षौहिणी सेना पर विजय को सत्य की असत्य पर विजय बताया गया। कालांतर में
वेद और पुराण के विरोधियों ने भी सत्य को 'पंचशील' व 'पंचमहाव्रत' का प्रमुख अंग माना।
'सत्य'
एक बेहद सात्विक किंतु जटिल शब्द है। ढाई अक्षरों से निर्मित यह शब्द उतना ही सरल है,
जितना कि 'प्यार' शब्द, लेकिन इस मार्ग पर चलना उतना ही कठिन है, जितना कि सच्चे प्यार
के मार्ग पर चलना। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, जिन्हें सत्य का सबसे बड़ा व्यवहारवादी
उपासक माना जाता है, उन्होंने सत्य को ईश्वर का पर्यायवाची कहा। गाँधीजी ने कहा था
कि- "सत्य ही ईश्वर है एवं ईश्वर ही सत्य है।" यह वाक्य ज्ञान, कर्म एवं
भक्ति के योग की त्रिवेणी है। सत्य की अनुभूति अगर ज्ञान योग है तो इसे वास्तविक जीवन
में उतारना कर्मयोग एवं अंततः सत्य रूपी सागर में डूबकर इसका रसास्वादन लेना ही भक्ति
योग है। शायद यही कारण है कि लगभग सभी धर्म सत्य को केन्द्र बिन्दु बनाकर ही अपने नैतिक
और सामाजिक नियमों को पेश करते हैं।
सत्य
का विपरीत असत्य है। सत्य अगर धर्म है तो असत्य अधर्म का प्रतीक है। हिन्दू धर्म के
पवित्र ग्रंथ 'गीता' में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि- जब-जब इस धरा पर अधर्म का अभ्युदय
होता है, तब-तब मैं इस धरा पर जन्म लेता हूँ। भारत सरकार के राजकीय चिह्न 'अशोक चक्र'
के नीचे लिखा 'सत्यमेव जयते' शासन एवं प्रशासन की शुचिता का प्रतीक है। यह हर भारतीय
को अहसास दिलाता है कि सत्य हमारे लिये एक तथ्य नहीं वरन् हमारी संस्कृति का सार है।
साहित्य, फ़िल्म एवं लोक विधाओं में भी अंततः सत्य की विजय का ही उद्घोष होता है।
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