Saturday, December 23, 2017

जोधबाई ‘जगत गुसांई‘ की छतरी अकेला हिन्दू मकबरा डा. राधेश्याम द्विवेदी

                                                         

जोधाबाई को अकबर की पत्नी कहा जाता है जबकि जोधबाई मुगल शहंशाह जहांगीर की राजपूत रानी  तथा शाहजहां की मां थी। अपनी मां की स्मृति में शाहजहां ने यह स्मारक जोधबाई की छतरी के रुप में ख्वाजा सराय मोहल्ले में मलपुरा एवं सीकरी मार्ग के बीचोबीच चांदमारी स्थल के समीप बनवाया था। वर्तमान समय में इस क्षेत्र को सुहागपुरा वेस्ट अर्जुन नगर कहा जाता है। जोधबाई का मूल नाम बालमती/ मानवती तथा उपनाम जगत गुसांई था। वह जोधपुर के राजा उदयसिंह की पुत्री थीं और सन् 1586 में मुगल शहजादे जहांगीर के साथ फतेहपुर सीकरी में उनकी शादी हुई थी। वह जहांगीर की तीसरी रानी थीं। मुगल शहंशाह शाहजहां जोधबाई का ही पुत्र था।
सन् 1618-19 में उनकी मौत के बाद शहंशाह शाहजहां ने अपनी मां का जो यह स्मारक बनवाया वह चारो ओर उद्यान से घिरा था। इसके प्रत्येक दिशा के मध्य में एक-एक दरवाजे थे। इस उद्यान के प्रत्येक कोण पर एक-एक बुर्जी बनी हुई थी। जोधबाई की छतरी में मुगल और राजपूताना निर्माण शैली की झलक मिलती है। इसके चारों तरफ खूबसूरत उद्यान बनाया गया है। उद्यान में हर ओर से बीच में रास्ता दिया गया है। उद्यान के ऐन बीचोंबीच वर्गाकार चबूतरे पर चार खंभों के सहारे लाल पत्थरों की छतरी बनी हुई है। ब्रिटिश शासन काल में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सौनिकों ने 1832 में गेट, दीवालें, बुर्जियां तथा अन्य इमारतों को ढ़हा दिया था तथा भवन की सामग्री से सेना की बैरकें बनवा लिया था । इससे स्मारक लगभग बर्बाद हो गया था। इसे बाद में संवारा गया। इस समय यह स्मारक पूर्णरुपेण आबादी के बीच घिर गई है। चारों तरफ हुए निर्माणों के चलते सैलानी यहां आसानी से नहीं पहुंच पाते।
जोधबाई की छतरी भी शहर के ज्यादातर स्मारकों की तरह आबादी के बीच घिर गई है। नियमानुसार संरक्षित स्मारक के 100 मीटर के दायरे में किसी भी तरह का निर्माण प्रतिबंधित है। परंतु इस स्मारक की बाउंड्री से सटकर ही निर्माण हो गए है। यदि कोई सैलानी इसके भ्रमण के लिए पहुंचे तो बाहर सड़क से यह नजर नहीं आती, इसकी जानकारी देने के लिए कोई साईनेज आदि भी नहीं लगे हैं।
एएसआई रिर्पोट 4 पृ. 121-22 पर कार्लाइल ने इस स्मारक का विवरण प्रस्तुत किया है। यह मकबरा 78 गुणे 78 फिट के बर्गाकार बुनियाद पर बना हुआ था। इसके नीचे एक विशाल मेहराबदार कक्ष है। जिसमें नीचे उतरने पर एक मोड़ झुकाव पर 4 भूभाग बनते हैं। प्रत्येक के बीच एक तथा बाहर की तरफ चार भुजाएं एक पिरामिड का आकार बनाती हैं। इनमें से तीन भूक्षेत्र कंकड़ व रोड़े में तबदील हो गयी हैं। चैथे भूक्षेत्र पर चारो ओर से रेगकर पहुचा जा सकता है। यह कहा जाता है कि जोधबाई का संगमरमर का मकबरा इसी के नीचे बना था। यह एक अकेला जोधबाई का कब्र है जो हिन्दू होते हुए भी मुस्लिम शासक द्वारा बनवाया गया था। यहां उसका शव जला दिया गया था। इस भूतल कक्ष में 1870 ई. में कार्लाइल के समय सियार भेड़िये तथा लकड़बग्घे अपना आवास बना लिये थे। यहां तब कोई आबादी नहीं थी।
यह मकबरा दो वर्गाकार संकेन्द्रित उच्च चबूतरे पर एक दूसरे के ऊंचाई पर बना है। पहला चबूतरा मकबरे से 38 फिट बाहर की तरफ बना है। और दूसरा चबूतरा पहले चबूतरे से 44 से 49 फिट बाहर की ओर बना है। इस मकबरे से 670 फिट पूरब एक विशाल प्रवेशद्वार गेट बना हुआ था। मकबरे के पश्चिम 657 फिट पर एक 55 गुणे 91 फिट के आकार की मस्जिद बनी थी। जिसका अन्तःकक्ष 7 फिट गहरा तथा11फिट लम्बा था। आधी दूरी पर मकबरा और गेट तथा आधी दूरी पर मकबरा और मस्जिद दूसरी तरफ बना हुआ था। यहां प्रत्येक दिशा में 42 फिट लम्बा चैड़ा वर्गाकार चबूतरा बना हुआ था।
यह मकबरा इतना सख्त और मजबूत था कि इसमें एक नट तक नहीं टूट सकता था। यह एसा समाप्त हुआ कि यह बिना किसी आकार का ईंट रोड़ो का ढ़ेर मात्र बचा। इसे नातो आदमी हथौड़ा से तोड़ सकता था और ना समय। यह एसा नष्ट हुआ कि उसका कहना ही क्या ?
बाद में वर्दवान पश्चिम बंगाल के राजा श्री विजय चन्द्र मेहता ने 1918 ई. में एक चबूतरे के चारो कोनों पर स्तम्भ बनाकर बीच में एक छतरी का निर्माण कराया था। लाल पत्थरों से बनी यह छतरी अतिक्रमणों के कारण अब सड़क से दिखलाई नहीं पड़ती है। 1990 के आस पास मैंने स्वयं यहां रोड से इसे देखा था। 


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