रेगिस्तान की तरफ बढ़ता प्रदेश:- राजस्थान और मध्य प्रदेश की भांति उत्तर प्रदेश में
भी जल संकट बढ़ता जा रहा है। जिस व्रज मण्डल में ‘कालिन्दी कदम्ब के ऊपर वारो’ कहा गया
है वहां ना तो आज कालिन्दी में वह दिव्य रौनकता रह गयी है और ना ही वह दिव्य हरियाली।
आज यह प्रदेश घीरे धीरे रेगिस्तान बनता जा रहा है। यहां उत्तराखण्ड तथा हिमंचल की भांति
कड़ाके की सर्दी पड़ती है और राजस्थान की भंति प्रचण्ड गर्मी भी। अब उत्तर प्रदेश की
राज्य सरकार को वर्षा जल संरक्षण पर काम करना होगा। नदियों का पानी रोकने को छोटे-छोटे
चैक डैम व बाढ़ का पानी रोकने के लिए रबर डैम बनाने होंगे। उत्तर प्रदेश में तीन दशकों
से भूगर्भ जल के स्तर में तेजी से गिरावट आ रही है। विशेषज्ञ इस स्थिति से भलीभांति
परिचित हैं सरकारों ने कदम उठाए हैं मीडिया में भी मामला उछलता रहता है। जिन स्थानों
के बारे में कहा जाता था कि थोड़ा सा खोद लो तो पानी मिल जाता है। चाहो कुआं बना लो
चाहो एक पाइप लगा कर हैंडपंप फिट कर लो। दुर्भाग्य से वहां अब स्थिति बदल चुकी है।
पानी का दोहन इतना बेतरतीब हुआ कि नदियों के आसपास और नहरों के एरिया में भी पहले जैसी
स्थिति नहीं रही। हैंडपंप की बात क्या करें जेट पंप एवं सबमर्सिबल तक काम नहीं कर रहे
हैं। कई जिलों में तो धरती फटने या धंसने की घटनाएं हुई हैं।
डेढ़ सौ से अधिक ब्लाक डार्क जोन:-उत्तर प्रदेश पांच भौगोलिक क्षेत्रों में बंटा हुआ है।
भाभर, तराई, मध्य गंगा का मैदान, कछारी मैदान और दक्षिणी विंध्य प्रायद्वीपीय क्षेत्र।
प्रत्येक क्षेत्र के जल दोहन मानक अलग-अलग हैं। जहां उस क्षेत्र के मानक से स्तर नीचे
चला गया है उसे डार्क क्षेत्र कहा गया है। प्रदेश में डेढ़ सौ से अधिक ब्लाक डार्क जोन
घोषित किए जा चुके हैं। यहां ट्यूबवेल बोर करने और इन्हें बिजली कनेक्शन दिए जाने पर
भी रोक है।अफसोस कि सरकार की ओर से किए गए सुधारात्मक प्रयास सफल नहीं हो सके हैं।
पानी का स्तर बराबर बने रहने अथवा ऊपर उठने की तो नौबत आ ही नहीं रही है। साल-दर-साल
यह गिरता ही जा रहा है। शहरों में भूगर्भ भंडार का पानी बेचा जा रहा है कभी टैंकरों
से तो कोई बोतलबंद। किसानों को फसल की जरूरत के मुताबिक नहरों से पानी नहीं मिलता।
ऐसे में बड़े किसान ट्यूबवेल से और छोटे किसान पंपिंग सेट से पानी दुह रहे हैं। इसे
रोकने के लिए राज्य सरकार को सबसे पहले वर्षा जल संरक्षण पर काम करना होगा। नदियों
का पानी रोकने को छोटे-छोटे चैक डैम व बाढ़ का पानी रोकने के लिए रबर डैम बनाने होंगे।
साथ ही बड़े जलाशयों की संभावना पर भी विचार करना होगा।
वर्षा जल
संचयन:- नए भवनों के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग अनिवार्य
करनी होगी और सख्ती के साथ सभी ट्यूबवेलों को बंद कराना होगा फिर वे चाहे निजी हों
या सरकारी। वर्षा जल को किसी खास माध्यम से संचय करने या इकट्ठा करने की
प्रक्रिया को रेन वाटर हार्वेस्टिंग
कहा जाता है। विश्व भर में पेयजल की कमी एक संकट बनती
जा रही है। इसका कारण पृथ्वी के जलस्तर का लगातार नीचे जाना भी है। इसके लिये अधिशेष मानसून
अपवाह जो बहकर सागर में मिल जाता है, उसका संचयन और पुनर्भरण किया जाना आवश्यक है,
ताकि भूजल संसाधनों का संवर्धन हो पाये। अकेले भारत में ही व्यवहार्य भूजल भण्डारण
का आकलन 214 बिलियन घन मी. (बीसीएम) के रूप में किया गया है जिसमें से 160 बीसीएम की
पुन: प्राप्ति हो सकती है। इस
समस्या का एक समाधान जल संचयन है। पशुओं के पीने के पानी की उपलब्धता, फसलों की सिंचाई के विकल्प के रूप में जल संचयन प्रणाली को विश्वव्यापी तौर पर अपनाया जा रहा
है। जल संचयन प्रणाली उन स्थानों के लिए उचित है, जहां प्रतिवर्ष न्यूनतम 200 मिमी
वर्षा होती हो। इस प्रणाली का खर्च 400 वर्ग इकाई में नया घर बनाते समय लगभग बारह से
पंद्रह सौ रुपए मात्र तक आता है । जितने भी प्राकृतिक संसाधन हैं उन्हें पुनः
जीवित करना होगा। बाधों को तोढना होगा और पानी को उतना ही संचय करना होगा जितने से
किसी की जीवनभूत आवश्यकता प्रभावित ना हों बरसात में तो कत्तई अतिरिक्त पानी एका एक
नहीं छोड़ना होगा। जब निरन्तरता स जल का प्रवाह होगा तो वहां की स्थिति भयावह नहीं हो
सकेगी और सब कुछ सामान्य सा चलता रहेगा।
पूर्व प्रधान मंत्री माननीय अटल जी की नदी जोड़ो योजना को पुनः चालू करना होगा।
अगर हम एसी स्थिति बना सकने में सफल हुए तो हम भारत को एक अच्छी दिशा में ले जाने के
लिए प्रतिवद्ध हो सकेंगे। विश्र्वास किया जाना चाहिए कि सरकार ऐसा साहस दिखाएगी।
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