जीवन के शाश्वत संकेतव प्रतीक
आचार्य राधेश्याम द्विवेदी
ढलती दोपहर में यौवन और प्रौढ़ता:- यौवन ज्वलंत धमनियों का अविरत स्पंदन होता है,
और प्रौढ़ावस्था उन स्पंदनों का नियमन कर शक्ति केंद्रित करने का प्रमुख संवाहक । यौवन
यदि प्रकृति द्वारा मनुष्य को प्रदत्त श्रेष्ठ उपहार है तो प्रौढ़ता उसे सहेजकर, आत्म
केन्द्रितकर सर्वश्रेष्ठ बनाने का संसाधन। यौवन यदि ऊर्जा का सर्वाधिक स्फूर्तिकाल
है तो प्रौढ़ता अतिरिक्त ऊर्जा के क्षय को धैर्य से रोके रखने का आलस्य काल । इस ढलती
दोपहर में यदि चिरकाल से बंद पड़े प्रेम झरोखों को स्नेहिल स्पर्शों से प्यार-अनुराग
की शीतल बयार खोलकर जन जन को पुलकित करना चाहते हो तो उठकर विश्वास के साथ उन झरोखों
को खोलने में सबको शामिल हो जाना चाहिए। एक समय एसा भी आता है, जब दायित्वों पर पूर्ण
विराम तो लग जाता है, परंतु जीवन की जिजीविषा पर अल्प विराम ही दिखता है। तारुण्य सरक-सरक
कर प्रौढ़ता की फिसलपट्टी पर आकर टिक जाता है। अब या तो यह फिसलकर वृद्धावस्था का आलिंगन
कर लें या फिर ईश्वर द्वारा प्रदत्त उसी शुष्क प्रेमातुर बीज को अपनी अंतरात्मा में
पनपने का अवसर प्रदान करने दें।
मध्यान्ह का सूरज:-
मध्यान्ह के सूरज को ही ले लीजिए। उसने अपने जीवन की सारी ऊंचाइयां पार कर ली है। प्रकृति
या धरती मां के अंचल से निकल कर उषाकाल में स्पन्दन करते हुए वह निरन्तर आगे को बढ़ता
जाता रहा है । उसने तरुणावस्था के अनेक उतार चढ़ाव तथा अथाह सागर के हिलारे भी खाये
हैं। वह संभलते संभलते हुए मध्यान्ह को बढ़ता गया और जीवन की बुलन्दियों तक पहुच भी
गया। परन्तु, क्या वह उस शीर्ष पर टिका रहा सकता है ? नहीं, कभी नहीं। जीवन तो ठहर
सकता ही नहीं। वह तो चलने का नाम है। आगे चले या पीछे, ऊपर चले या नीचे, उसे तो निरन्तर
चलते रहना है। यदि मध्यान्ह आ गया और पूर्णता की बुलन्दियां स्पर्श कर गया तो अब अपरान्ह
आयेगा। उष्मा में कमी आयेगी, प्रकाश मन्द पड़ेगा, तेज कम होगा और जीवन भी दिन की भांति
ढ़लने की तरफ उन्मुक्त होगा। अब तक पाथिक ने इतनी उष्मा व प्रकाश दिया या लिया है या
यूं कहिए इसमें संलिप्त रहा है कि वह अपनी यात्रा को आगे बढ़ाता रहा और उससे अनुप्राणित
तथा मार्ग प्रदर्शन लेकर अनेक यौवनों ने भी अपनी यात्रा उसी प्रौढ़ता के आगे पीछे संचालित
करता रहा हैं। अब अस्ताचल की ओर जाने वाला सूरज अपनी यात्रा से संतुष्ट है । उसे किसी
बात का मलाल नहीं है कि उसने कुछ अधूरा छोड़ रखा है। अधूरा तो कोई चीज होता नहीं है।
और ना ही पूर्णता ही होती है। ये बस समय चक्र के साथ खिसकते जाते हैं और आदमी की जीवन
यात्रा उसी के पहिये पर चिपटती हुई आगे बढ़ती जाती है।
प्रस्फुटित फूल:-
पूरी तरह से खिले हुए फूल को प्रस्फुटित फूल कहा जाता है। देखने में बहुत प्यारा तथा
मन को आनन्दित करता हैं परन्तु उसका दर्द दूसरा कोई नहीं समझता है। किसी को उसकी वेदना
का आभास भी शायद ना होता हो। माली पुजारी नारी या युवा ? यहां तक कि उसे माध्यम बनाकर
पे्रम का इजहार करने वाले अपने लक्ष्य को साध लेते हैं पर वे प्रस्फुटित फूल कीवेदना
को शायद ही समझ पाते हों या समझना चाहते हों। यौवन तथा मध्यान्ह की भांति प्रस्फुटित फूल का भी निरन्तर समाप्त होना सत्य है।
यह प्रकृति या ईश्वर का नियम है। उसे इतना ही आत्म सुतुष्टि हो सकता है कि वह किसी
के काम में आया। चाहे प्रेमी ने प्रेमिका को दिया हो या मन्दिर में इष्ट देव के विग्रह
की शोभा बढ़ाने या प्रसन्न करने में या किसी मरियत या शव यात्रा में शास्वत सत्य का
साथ देने के उपक्रम के रुप में प्रयुक्त किया गया हो। पूर्णता पाते ही उसे यह आभास
हो जाता है कि उसकी जिन्दगी लम्बी नहीं हैं। पेड़ से अलग होते ही वह अब समाप्ति की ओर
ही बढ़ रहा हैं। उसे यह भी भय सता सकता है कि कोई मदमस्त हाथी या जीव जन्तु उसे अपने
सूड़ या आगोश में लेकर सदा सदा के लिए समाप्त भी कर सकता है। यह भी वह सोच सकता है कि
कोई मतवाला भौंरा इसके आकर्षण में आकर अपने को कैद कर लें और दिन ढ़ल जाने पर दो के
दोनों किसी के ग्रास का शिकार भी बन सकता है।
दोपहर ,मध्यान्ह का सूरज तथा
प्रस्फुटित फूल इस असार संसार के प्रतीक व बिम्ब हैं। हम इससे ना तो अलग हो सकते हैं
और ना तो मुक्त। बस इसे सही भांति समझकर परिस्थिति के अनुकूल ढालकर ही हम अपना जीवन
सार्थक व परिपूर्ण कर सकते हैं। प्रकृति या ईश्वर की यह महान कृपा है कि हम यह समझ
भी सकते हैं और संभल भी सकते हैं, तो उस परम शक्ति के संकेत को क्यों ना समझे।
No comments:
Post a Comment