Wednesday, November 26, 2025

द्विवेदी /दूबे ब्राह्मण के विविध गोत्र(द्विवेदी ब्राह्मण का इतिहास कड़ी 14)✍️आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

दूबे /द्विवेदी के 30 गोत्र
पं o अशोक चतुर्वेदी ने जिझौतिया ब्राह्मणों के उपनाम और उनके अंतर्गत आने वाले गोत्रों की सूची दूबे/ द्विवेदी उपनाम के सर्वाधिक 30 गोत्र बतलाए हैं। द्विवेदी ब्राह्मण का इतिहास कड़ी 13 में हमने 10 गोत्रों पूर्वोक्त सूची के अनुसार  संक्षिप्त परिचय दिया है इसके आगे उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर शेष गोत्रों का परिचय इस प्रकार है - 
11. वशिष्ट 
12. शाण्डिल्य  
13. सांकृत  
14 हरिकर्ण 
15. हिरण्य  
16. जातूकर्ण 
17.कौशिल 
18. कौशल  
19. घृतकौशिक 
20 पाराशर  
21 मुद्गल 
22. भार्गव  
23. वीतहव्य  
24. लौंगाक्षि   
25. पराशर  
26. अंगिरस   
27. अंगिरा  
28. जैमिनी 
29. वार्हस्पत्य  
30. सांख्यायन 
वशिष्ठ गोत्र 
ऋषि वशिष्ठ हिंदू परंपरा के सबसे पूजनीय ऋषियों में से एक हैं, जो अपनी बुद्धि, धार्मिकता और दिव्य ज्ञान के लिए जाने जाते हैं । वे सप्तऋषियों (सात महान ऋषियों) में से एक हैं और इक्ष्वाकु वंश के राजगुरु (राजा) माने जाते हैं , जिसमें भगवान राम जैसे महान राजा शामिल थे । वशिष्ठ ने हिंदू दर्शन, वैदिक परंपराओं और धर्म की आध्यात्मिक शिक्षाओं को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । उनकी विरासत वशिष्ठ गोत्र के माध्यम से आगे बढ़ती है , जिसकी उत्पत्ति उन्हीं से मानी जाती है।
        वशिष्ठ गोत्र हिंदू समाज के सबसे प्रतिष्ठित गोत्रों में से एक है। इस वंश के लोग ऋषि वशिष्ठ के वंशज माने जाते हैं और अक्सर ज्ञान, आध्यात्मिक अनुशासन और वैदिक अनुष्ठानों से जुड़े होते हैं।हिंदुओं में वशिष्ठ गोत्र का बहुत सम्मान किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस वंश के लोग वशिष्ठ की आध्यात्मिक विरासत को आगे बढ़ाते हैं और उनसे सत्य, ज्ञान और अनुशासन के मूल्यों को बनाए रखने की अपेक्षा की जाती है ।
शाण्डिल्य गोत्र
शांडिल्य एक सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण गोत्र है, ये वेदों में श्रेष्ठ, तथा ऊँचकुलिन घराने के ब्राह्मण हैं। यह गोत्र ब्राह्मणों के तीन मुख्य ऊँचे गोत्रो में से एक है। महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है। इस गोत्र से संबंधित लोगों को चंद्र जाति का माना जाता है। इस गोत्र के तीन प्रवर हैं , वे शांडिल्य, असित और देवल हैं । इस गोत्र का वेद सामवेद है। सांडिल्य गोत्र नेपाल और बिहार के मैथिल ब्राह्मणों में सबसे बड़ा गोत्र है । इस गोत्र के लोग नेपाल और कई भारतीय राज्यों जैसे पश्चिम बंगाल, बिहार, कश्मीर, उत्तर प्रदेश और ओडिशा से आते हैं। पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में रहने वाले कई सारस्वत ब्राह्मण परिवार शांडिल्य को अपना पैतृक पूर्वज मानते हैं। मैथिल ब्राह्मणों में शांडिल्य गोत्र के 44 मूल हैं। ब्राह्मणों के अलावा, राजपूतों के कुछ वंश , जैसे बनौत , वाल्दिया और परमार , शांडिल्य गोत्र रखते हैं और शांडिल्य उनके पितृवंशीय पूर्वजों में से एक है। शांडिल्य गोत्र वाले कुछ ही नेपाली हैं जैसे काफले , पौदार और प्रसाई लेकिन नेपाल में अन्य गोत्रों वाले लोगों की तुलना में उनकी आबादी अपेक्षाकृत अधिक है। 
सांकृत गोत्र
ऋषि सांकृत्य जी महान वैदिक ऋषियों में से एक थे, जो ज्ञान, स्मृति, और परंपराओं के संवाहक माने जाते हैं। उनका नाम 'सांकृत्य' इस बात को दर्शाता है कि वे "संकृति" या परंपरा की रक्षा करने वाले थे। यह गोत्र ऋषि सांकृत्य के वंशजों द्वारा धारण किया जाता है। "सांकृत्य" = सं + कृति = अर्थात श्रेष्ठ कर्मों से उत्पन्न हुआ या संस्कृति से संबद्ध। यह एक स्मार्त परंपरा का प्रतिनिधि गोत्र माना गया है। सांकृत्य गोत्र वैदिक काल की उन महान परंपराओं से जुड़ा है जहाँ ज्ञान को श्रुति और स्मृति परंपरा के माध्यम से संजोया और आगे बढ़ाया गया। इस गोत्र के लोग मुख्यतः यजुर्वेद और सामवेद की शाखाओं से जुड़े पाए जाते हैं।उन्होंने वैदिक मन्त्रों, यज्ञ-विधियों और सामाजिक धर्मों की परंपरा को अपनी स्मृति के माध्यम से संरक्षित किया। यदि किसी जातक का गोत्र "सांकृत्य" है, तो वे स्वयं को एक महान स्मृति और संस्कृति की धारा का वाहक मान सकते हैं। इनका जीवनधर्म – ज्ञान, अनुशासन और परंपरा से जुड़ा होता है।
हरिकर्ण गोत्र 
हरित हिंदू साहित्य में एक राजा हैं । उन्हें यौवनश्र्व का पुत्र और सूर्यवंश के राजा अम्बरीष का पोता बताया गया है । माना जाता है कि हरित ने अपने पापों के प्रतीकात्मक प्रायश्चित के रूप में अपना राज्य त्याग दिया था।श्रीपेरंबदूर के स्थल पुराण के अनुसार, तपस्या पूरी करने के बाद , उनके वंशजों और उन्हें नारायण द्वारा ब्राह्मण का दर्जा दिया गया था । हरित और हरितास गोत्र एक ही हैं। इस गोत्र के दो प्रवर हैं। हरित गोत्र के ब्राह्मणों द्वारा समारोहों और अन्य शुभ कार्यों में उपयोग किए जाने वाले प्रवर दो प्रकार के होते हैं-
हरिता, अम्बरीष , यौवनाश्व। 
अंगिरस , अम्बरीष , यौवनाश्व
       हरित सूर्य वंश से संबंधित है जिसकी जड़ें उत्तर के इक्ष्वाकु पौराणिक राजवंश से हैं, और जो भारत के दक्षिण भाग में रहा है। हरित गोत्र की उत्पत्ति क्षत्रिय के रूप में हुई और यह ब्राह्मणों में फैल गया।
  
हिरण्य गोत्र  इस गोत्र के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है ।

जातूकर्ण गोत्र
ऋषि जतुकर्ण हिंदू परंपरा में एकसम्मानित व्यक्ति हैं , जो अपनी बुद्धिमत्ता, वैदिक ज्ञान और आध्यात्मिक शिक्षाओं में योगदान के लिए जाने जाते हैं। उनका नाम प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों और परंपराओं से जुड़ा है , जो पूजनीय ऋषियों की वंशावली में उनके महत्व को दर्शाता है । उनकी शिक्षाओं और वंशावली ने हिंदू रीति-रिवाजों, धर्म और दार्शनिक विचारों को प्रभावित किया है ।  यद्यपि जातुकर्ण गोत्र के विशिष्ट संदर्भ सीमित हैं, लेकिन उनके नाम से पता चलता है कि वे एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक और विद्वान वंश से संबंधित थे ।यद्यपि किसी विशिष्ट जातुकर्ण गोत्र का आमतौर पर उल्लेख नहीं किया जाता है, फिर भी उनके आध्यात्मिक वंश का अनुसरण करने वाले लोग वैदिक अनुशासन और धार्मिक जीवन की परंपराओं को कायम रखते हैं । हिंदू रीति-रिवाज वंश-आधारित परंपराओं की पवित्रता को बनाए रखते हुए एक ही गोत्र में विवाह करने पर रोक लगाते हैं।

कौशिल गोत्र 
इस गोत्र के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है ।

कौशल गोत्र
कुछ खत्री एवं कुछ ब्राह्मणों की उप जातियों के गोत्र ऋषि 'कौशल' हैं. वे पंजाब के सारस्वत ब्राह्मणों के भी गोत्र ऋषि हैं एवं कई खत्रियों की उपजातियों के भी गोत्र ऋषि हैं। ये भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्र हिरण्याभ कौशल ऋषि के वंशज हैं. ऋषि कौशल के शिष्य याज्ञवल्क्य ऋषि थे।
कौशल गोत्र की दो शाखाएँ हैं:
कुश कौशल
लव कौशल
कुश कौशल: कौशल खत्री: मलहोत्रा, मेहरोत्रा, मेहरा, मेहता, मरवाहा, मग्गो, माकन (माकिन), ओबराय, वोहरा, वासन, कुरीछ, कुंद्रा, देव, धुस्सा, केसर, कवात्रा, खोसला, सरीन, कपूर, खन्ना, चोपड़ा, सहगल, कात्याल, त्रेहन, बहल, भल्ला, जसवाल, कक्कड़, बेदी, रेखी आदि केे अलावा और भी उपजातियां हैं जो कौशल गोत्र के अंतर्गत आती हैं।
कौशल ब्राह्मण: लखनपाल, लबशा, संगर, झांजी, संदल, हँस, मल्हनहंस आदि सारस्वत ब्राह्मणों की बहुत सी उपजातियां हैं जो कौशल गोत्र के अंतर्गत आती हैं। और भी बहुत उपजातियाँ हैं जिनका गोत्र कौशल हैं। ये उनकी प्राचीन गद्दी हैं।
हिरण्यभा कौशल ऋषि हैं जिनसे कौशल गोत्र आरंभ हुआ, जो की यज्ञवल्क्य ऋषि के शिक्षक थे।कौशल गोत्र के कुल देवता बीरा जी हैं। कौशल गोत्र की कुलदेवी शिवाय माता है।
घृत कौशिक गोत्र
इस गोत्र के लोग राजर्षि कौशिक को अपना मूल मानते हैं। कौशिक, विश्वामित्र के पुत्र थे। मराठों के 96 राजवंश कौशिक गोत्र के हैं, जिनमें शिवाजी और राष्ट्रकूटों का गौरवशाली परिवार भी शामिल है। दो और वंश विश्वामित्र गोत्र के हैं।

पाराशर गोत्र 
पाराशर" ब्राह्मणों का एक गोत्र है। इस गोत्र के लोगों का पुराने समय में प्रमुख कार्य ज्‍योतिषीय गणनाएं करना था। ये ज्‍योतिष कार्य न भी करें तो भविष्‍य देखने के प्रति और परा भौतिक दुनिया के प्रति अधिक झुकाव रखने वाले लोग होते हैं। इनके मूल पुरुष महान ऋषि पराशर माने जाते हैं, जो कि ज्‍योतिष विद्या के प्रकांड पंडित थे।
उनके द्वारा रचित ग्रं‍थ वृहत्‍पराशर होरा- शास्‍त्र, लघुपराशरी, वृहत्‍पराशरीय धर्म संहिता, पराशर धर्म संहिता, पराशरोदितम, वास्‍तुशास्‍त्रम, पराशर संहिता (आयुर्वेद), पराशर महापुराण, पराशर नीतिशास्‍त्र, आदि ग्रं‍थ मानव मात्र के लिए कल्‍याणार्थ रचित ग्रं‍थ जगप्रसिद्ध हैं जिनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।
       भारद्वाज और कश्‍यप गोत्र की तुलना में ये लोग समस्‍याओं के समाधान एक साथ और स्‍थाई ढूंढने की कोशिश करते हैं और अधिकतर सांसारिक समस्‍याओं से पलायन करते हैं। ऐसे में पराजगत से इन लोगों का अधिक संपर्क होता है।इस समाज के लोग अधिकांशतः "पाराशर" या "पराशर" उपनाम (सरनेम) ही लगाते देखे गए हैं।
मुद्गल गोत्र
ऋषि मुद्गल, जिन्हें राजर्षि मुद्गल या मुद्गल लिखा जाता है, के नाम से भी जाना जाता है।हिंदू धर्म के राजर्षियों में से एक हैं। वे मूलतः एक क्षत्रिय (योद्धा) राजा के रूप में जन्मे थे और एक शाही, विलासितापूर्ण जीवन शैली जीते थे। बाद में कठोर साधना, तपस्या और योग के कारण उन्हें ब्रह्मत्व ( निर्वाण ) की प्राप्ति हुई, जिसके कारण उनके वंशज आगे चलकर ब्राह्मण कहलाए। मुद्गल उपनाम को कुछ क्षेत्रों में मुदगिल, मोदगिल, मौदगिल भी लिखा जाता है। उत्तर भारत में मुदगल गोत्र गौड़/गौड़ ब्राह्मण, सारस्वत ब्राह्मण और त्यागी ब्राह्मणों द्वारा साझा किया जाता है। बंगाल में, मौदगिल या मौदगिल्य गोत्र वैद्य/बैद्यों में मौजूद है। दासगुप्ता उपनाम वाले बंगाली मौदगिल हैं। 
     ऋषि मुद्गल पांचाल राज्य, जो वर्तमान में भारत का पंजाब राज्य है, के चंद्रवंशी / नागवंशी क्षत्रिय राजा भम्यरसवा के पुत्र थे। उन्हें हिंदू धर्म में विश्वामित्र के बाद राजर्षि में से एक माना जाता है । ऋषि मुद्गल ने अपने राज्य पर शासन किया और साथ ही गुरुकुल में कुलगुरु के रूप में पढ़ाया ।भगवद्गीता के अनुसार , ऋषि मुद्गल के 50 पुत्र थे। ऋषि मुद्गल ब्राह्मण ही रहे और अन्य ऋषि मुद्गल के वंश के ब्राह्मण राजा के रूप में जाने गए। ऋषि मुद्गल का विवाह निषाद के राजा नल और रानी दमयंती की पुत्री नलयनी इंद्रसेना से हुआ था । मुद्गल और इंद्रसेना ने वध्र्याश्व, दिवोदास और अहिल्या को जन्म दिया । जब मुद्गल कुष्ठ रोग से पीड़ित थे तब भी नलयनी ने पूरे मन से मुद्गल की सेवा की। उनकी सेवा से प्रसन्न होकर मुद्गल ने नलयनी को वरदान दिया। नलयनी उनके बंधन को ठीक से निभाना चाहती थी और मुद्गल ने पांच रूपों में उसकी इच्छा पूरी की। जब ऋषि मुद्गल को मोक्ष प्राप्त हुआ तो उन्होंने नश्वर जीवन छोड़ दिया लेकिन नलयनी को अपने अगले जन्म में, जब उन्हें कोई उपयुक्त वर नहीं मिला तो उन्होंने भगवान शिव की तपस्या की । जब भगवान शिव उन्हें वरदान देने के लिए प्रकट हुए तो उन्होंने उत्सुकता में पांच बार पति मांगा और शिव ने उन्हें कुछ अपवादों के साथ पांच पतियों का वरदान दिया। महाभारत में द्रौपदी के जन्म और पांडवों से विवाह का यही रहस्य है, जो यम , वायु , इंद्र और अश्विनी देवताओं के अवतार थे, जो पृथ्वी पर धर्म की पुनर्स्थापना के लिए आए थे ।
मुदगल वंश के लोगों के मुख्यतः ये गोत्र हैं- मुदगला, मौद्गल्या ,मौदगिल और मोदगिल आदि।

भार्गव गोत्र
भार्गव कुल प्रवर्तक महर्षि भृगु ऋग्वेद काल के ऋषि हैं। ब्रह्मा ने सृष्टि के सृजन एवं विकास की आकांक्षा से नो मानस पुत्रों को अपने शरीर से उत्पन्न किया जिनमें से एक भृगु भी थे। महर्षि भृगु को ब्रह्मा द्वारा किये गये यज्ञ की अग्नि से उत्पन्न माना जाता है। वरूण ने इन्हें दत्तक पुत्र बनाया। अतएव इनका नाम भृगुवारणी भी पड़ा। महषि भृगु की सन्तानें भार्गव कहलाई। 
        भृगु वंश ब्राह्मण वर्ण में प्राचीनतम है। उसके पश्‍चात निवास के प्रांतों के अनुसार भी ब्राह्मणों का नामकरण हुआ। सरस्वती नदी के आसपास के ब्राह्मण सारस्वत कहलाये, गुड प्रदेश(आधुनिक हरियाणा के आसपास) में रहने वाले गौड़, कान्य-कुब्ज या कन्नौज के आस-पास के कान्य-कुब्ज, मिथला अथवा बिहार के मैथिल, उत्कल अथवा उड़ीसा के उत्कल कहलाये। इसी प्रकार विन्ध्य के दक्षिण में रहने वाली पाँच ब्राह्मण जातियाँ गुर्जर, (गुजरात), महाराष्ट्र(महाराष्ट्र), तैलंग (आन्ध्रप्रदेश), कर्णाट(कर्नाटक) और द्रविड़(तमिलनाडु तथा केरल) हैं। कालांतर में ये सभी ब्राह्मण जातियाँ अनेक शाखाओं और प्रशाखाओं में विभक्त हो गई। इसी क्रम में गौड़ ब्राह्मणों का एक समूह अपने में एक पृथक जाति के रूप में अपना अस्तित्व रखने लगे और च्यवनवंशीं ढूसर भार्गव कहलाने लगे।
वीतहव्य गोत्र 
मनु के पुत्र हुए शर्याति और उन्ही शर्याति के वंश में कालान्तर में "राजा वत्स" हुए । राजा वत्स के 2 पुत्र हुए। एक हैहय (वीतहव्य)और दूसरा तालजंघ नामक। हैहय का ही दूसरा नाम वीतहव्य भी था। वीतहव्य की 10 पत्नियाँ थीं जिससे वीतहव्य को 100 पुत्र हुए थे। उन दिनों कशी में हर्यश्व नामक राजा राज करते थे जो राजा दिवोदाश के पितामह थे। उस दिवोदाश के सम्पूर्ण कुल को युद्ध में वीतहव्य के 100 पुत्रों ने नष्ट कर दिया, जिससे कुपित होके राजा दिवोदाश भर्तवाज मुनि के शरण में गये और उनके आशिर्वाद सर दिवोदाश को वीतहव्य के 100 पुत्रों को मारने वाला "प्रतर्दन" नामक डिवोदाश का पुत्र हुआ जिसने वीतहव्य के 100 पुत्रों को मार डाला। तब जब प्रतर्दन ने अपने संकल्प के अनुसार जब वीतहव्य को मारने गया तो वीतहव्य भृगु ऋषि की शरण में था और वरदान के कारण ब्राह्मण हो के ब्रह्मक्षत्रि हो चुका था। जिससे की वीतहव्य को उसके पिता वत्स के नाम पे वत्स गोत्र हुआ और वत्स कुल ब्रह्मक्षत्रि कुल हुआ।
लौंगाक्षि गोत्र
लौगाक्षी हिंदू पौराणिक कथाओं और वैदिक परंपरा में अपेक्षाकृत कम ज्ञात व्यक्ति हैं , फिर भी वैदिक ऋषियों की आध्यात्मिक और बौद्धिक विरासत में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है । लौगाक्षी को एक ऐसे ऋषि के रूप में जाना जाता है जिनका योगदान वैदिक ताने-बाने में रचा-बसा है, हालाँकि अन्य प्रमुख ऋषियों की तुलना में उनके जीवन और कार्यों के बारे में उतना व्यापक ज्ञान नहीं है। उन्हें उन ऋषियों की वंशावली का हिस्सा माना जाता है जिन्होंने वैदिक काल में आध्यात्मिक अनुष्ठानों और ब्रह्मांडीय नियमों के विकास में योगदान दिया ।
लौगाक्षी को ऋषि अत्रि और अनसूया का पुत्र कहा जाता है , जो हिंदू पौराणिक कथाओं में सबसे सम्मानित और पूजनीय दंपत्तियों में से एक हैं। अत्रि अपने गहन ज्ञान और वेदों में उनके योगदान के लिए जाने जाते हैं, और अनसूया की प्रशंसा उनकी गहरी धर्मपरायणता और भक्ति के लिए की जाती है। ऐसे पूजनीय माता-पिता के पुत्र होने के नाते, लौगाक्षी को महत्वपूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान विरासत में मिला। लौगाक्षी मुख्यतः अपनी आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि के लिए जाने जाते हैं , जो प्रायः वैदिक ऋचाओं और शिक्षाओं में प्रतिबिम्बित होती है। कई अन्य ऋषियों की तरह, ब्रह्मांडीय व्यवस्था में उनकी भूमिका और ईश्वर के प्रति उनका समर्पण वैदिक अनुष्ठानों और यज्ञ प्रथाओं के प्रचार-प्रसार के लिए मौलिक थे ।

पराशर गोत्र 
पराशर की उत्पत्ति वैदिक भारत (2000-1000 ईसा पूर्व) में हुई है और आज उच्च जाति के हिंदू ब्राह्मणों द्वारा इसका उपयोग किया जाता है, जो प्रसिद्ध प्राचीन हिंदू वैदिक विद्वान ऋषि पराशर के वंशज होने का दावा करते हैं। पाराशर" ब्राह्मणों का एक गोत्र है। इस गोत्र के लोगों का पुराने समय में प्रमुख कार्य ज्‍योतिषीय गणनाएं करना था। ये ज्‍योतिष कार्य न भी करें तो भविष्‍य देखने के प्रति और परा भौतिक दुनिया के प्रति अधिक झुकाव रखने वाले लोग होते हैं। इनके मूल पुरुष महान ऋषि पराशर माने जाते हैं, जो कि ज्‍योतिष विद्या के प्रकांड पंडित थे। उनके द्वारा रचित ग्रं‍थ वृहत्‍पराशर होराशास्‍त्र, लघुपराशरी, वृहत्‍पराशरीय धर्म संहिता, पराशर धर्म संहिता, पराशरोदितम, वास्‍तुशास्‍त्रम, पराशर संहिता (आयुर्वेद), पराशर महापुराण, पराशर नीतिशास्‍त्र, आदि ग्रं‍थ मानव मात्र के लिए कल्‍याणार्थ रचित ग्रं‍थ जगप्रसिद्ध हैं जिनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।

अंगिरस गोत्र 
अंगिरस गोत्र हिंदू परंपरा में पूजनीय ऋषि अंगिरस से उत्पन्न एक वंश है। गोत्र हिंदू पहचान का एक महत्वपूर्ण पहलू है, जो अक्सर विवाह और सामाजिक रीति-रिवाजों को प्रभावित करता है। यह एक साझा वंश का प्रतीक है और सांस्कृतिक महत्व रखता है। अंगिरस गोत्र की उत्पत्ति प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों में वर्णित सप्तऋषियों (सात महान ऋषियों) में से एक, ऋषि अंगिरस से हुई है। इन ऋषियों ने आध्यात्मिक शिक्षाओं को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय समाज में पूर्वजों की वंशावली की पहचान के लिए गोत्र आवश्यक हैं। ब्राह्मण समुदाय में, ये विवाह संबंधों के लिए महत्वपूर्ण हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि व्यक्ति संभावित आनुवंशिक समस्याओं से बचने के लिए एक ही गोत्र में विवाह न करें। यह परंपरा आज भी कई भारतीयों द्वारा निभाई जाती है, जो अपनी सांस्कृतिक जड़ों को संजोने वालों के लिए गोत्रों के स्थायी महत्व को दर्शाती है। अपने गोत्र को समझने से अतीत से गहरा जुड़ाव होता है और सांस्कृतिक निरंतरता को बढ़ावा मिलता है।
        अंगिरस गोत्र का गहरा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व है, जो हिंदू रीति-रिवाजों और वैदिक ज्ञान एवं परंपराओं के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ज्ञान, आध्यात्मिक ज्ञान और धर्म जैसे मूल्य इसके सार के केंद्र में हैं। ऋषि अंगिरस की कहानियाँ नैतिक और आचार-विचार की शिक्षाएँ प्रदान करती हैं, पारिवारिक गतिशीलता को प्रभावित करती हैं और पीढ़ियों तक मूल्यों का संचार करती हैं। ये विरासत से जुड़ाव और अपनेपन की भावना का पोषण करती हैं।

अंगिरा  गोत्र
एक ऋषि जो ब्रह्मा के दस मानस पुत्रों में से एक माने जाते हैं, सप्तर्षियों में से एक ऋषि; अंगिरा थे। ये गुणों में ब्रह्मा जी के ही समान हैं। इन्हें प्रजापति भी कहा गया है और सप्तर्षियों में वसिष्ठ, विश्वामित्र तथा मरीचि आदि के साथ इनका भी परिगणन हुआ है। इनके दिव्य अध्यात्मज्ञान, योगबल, तप-साधना एवं मन्त्रशक्ति की विशेष प्रतिष्ठा है। अंगिरा के 3 प्रमुख पुत्र थे। उतथ्य, संवर्त और बृहस्पति। ऋग्वेद में उनका वंशधरों का उल्लेख मिलता है। इनके और भी पुत्रों का उल्लेख मिलता है- हविष्यत्‌, उतथ्य, बृहत्कीर्ति, बृहज्ज्योति, बृहद्ब्रह्मन्‌ बृहत्मंत्र; बृहद्भास और मार्कंडेय।
28. जैमिनी गोत्र
जैमिनी ऋषि एक प्राचीन भारतीय ऋषि थे जो अपनी गहन बुद्धि और शिक्षाओं के लिए विख्यात थे। वैदिक साहित्य के प्रमुख पात्र, ऋषि व्यास के शिष्य, जैमिनी, कर्मकांडों और कर्तव्यों पर समृद्ध दार्शनिक प्रवचनों के काल में रहे। ऐसा माना जाता है कि वे चौथी और दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच रहे, जो प्राचीन भारत में बौद्धिक उथल-पुथल का काल था। उनका जीवन और कार्य मीमांसा विचारधारा से जुड़े हुए हैं, जिसके संस्थापक का श्रेय उन्हें दिया जाता है। जैमिनी ऋषि व्यास के शिष्य थे, जो वेदों के संकलन और महाभारत के रचयिता के लिए विख्यात थे। यह वंश जैमिनी को वैदिक विद्वत्ता और आध्यात्मिक ज्ञान की समृद्ध परंपरा से जोड़ता है।

29. वार्हस्पत्य गोत्र
वेदोत्तर साहित्य में बृहस्पति को देवताओं का पुरोहित माना गया है। ये अंगिरा ऋषि की सुरूपा नाम की पत्नी से पैदा हुए थे। तारा और शुभा इनकी दो पत्नियाँ थीं। एक बार सोम (चंद्रमा) तारा के साथ गोपनीय रुप से सम्भोग हुवा और तारा गर्भवती हुइ। इस पर बृहस्पति और सोम में युद्ध ठन गया। अंत में ब्रह्माजी ने हस्तक्षेप किया। तारा ने बुध को जन्म दिया जो चंद्रवंशी राजाओं के पूर्वज कहलाये। पद्मपुराण के अनुसार देवों और दानवों के युद्ध में जब देव पराजित हो गए और दानव देवों को कष्ट देने लगे तो बृहस्पति ने शुक्राचार्य का रूप धारण कर दानवों का मर्दन किया और नास्तिक मत का प्रचार कर उन्हें धर्म भ्रष्ट किया।
           बृहस्पति को देवताओं के गुरु की पदवी प्रदान की गई है। ये स्वर्ण मुकुट तथा गले में सुंदर माला धारण किये रहते हैं। ये पीले वस्त्र पहने हुए कमल आसन पर आसीन रहते हैं तथा चार हाथों वाले हैं। इनके चार हाथों में स्वर्ण निर्मित दण्ड, रुद्राक्ष माला, पात्र और वरदमुद्रा शोभा पाती है। प्राचीन ऋग्वेद में बताया गया है कि बृहस्पति बहुत सुंदर हैं।
       बार्हस्पत्य गोत्र सीधे तौर पर भारद्वाज गोत्र से संबंधित है, जिसके तीन प्रवर (पूर्वजों के वंशज) हैं: आंगिरस, बार्हस्पत्य और भारद्वाज। इसका अर्थ है कि बार्हस्पत्य गोत्र का संबंध बृहस्पति से है, जो महर्षि अंगिरा के पुत्र थे। बार्हस्पत्य गोत्र का नाम देवताओं के गुरु बृहस्पति के नाम पर पड़ा है, जो महर्षि अंगिरा के पुत्र थे। बार्हस्पत्य गोत्र में, यह बार्हस्पत्य प्रवर का प्रतिनिधित्व करता है, जो भारद्वाज गोत्र के तीन पूर्वजों में से एक हैं। 
30. सांख्यायन गोत्र
सांख्यायन गोत्र का संबंध कौशिक गोत्र से है, जो शांखायन ऋषि के वंश से जुड़ा है। ये ऋषि कौशिक के पौत्र या वंशज थे और ऋग्वेद से संबंधित हैं, खासकर वाष्कल शाखा से, जिसकी रचना कौषीतकि ब्राह्मण नामक ग्रंथ में हुई है। इस गोत्र के तीन प्रवर हैं: कौशिक, अत्रि और जमदग्नि (या विश्वामित्रा, अघमर्षण, कौशिक), और इसके कई ब्राह्मण समुदाय हैं, जैसे कुसौझिया और टेकार के पांडे। सांख्यायन गोत्र का मूल कौशिक गोत्र है। यह ऋषि शांखायन (या कौशिक ऋषि के वंशज) से संबंधित है।इसके तीन प्रवर हैं: कौशिक, अत्रि और जमदग्नि (या विश्वामित्रा, अघमर्षण, कौशिक)।यह ऋग्वेद की वाष्कल शाखा से संबंधित है। कौशिक ब्राह्मण को शांखायन ब्राह्मण के नाम से भी जाना जाता है।


Monday, November 24, 2025

द्विवेदी दूबे ब्राह्मण के विविध गोत्र(द्विवेदी ब्राह्मण का इतिहास कड़ी 13)✍️आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

यजुर्वेद की ऋचाओं से हवन करने वाले जिझौतिया
      उत्तर और मध्य भारत में रहने वाले ब्राह्मणों का एक समूह है, जो अपने मूल स्थान को 'जिझौति' कहते थे और मुख्य रूप से यज्ञ और अन्य धार्मिक कार्यों के लिए जाने जाते थे। यह समूह यजुर्वेद और सामवेद का ज्ञान रखता है और इनका संबंध बुन्देलखण्ड क्षेत्र से है। जुहोति अर्थात् यज्ञ। यजुर्हुतिः या जुहोतिः जिस धराधाम पर यजुर्वेद की ऋचाओं से हवन किया जाय उसे यजुर्हुतिः या जुहोतिः कहते हैं। जुहोतयः अर्थात् यज्ञकर्ता और रक्षक। ये जुहोतयः यानि जुहोति (यज्ञ) के करने-कराने वाले श्रेष्ठ याज्ञिक ब्राह्मण जो जुहोति देश में निवास करते थे जुहोतिया (जुझौतिया / जिझौतिया) ब्राह्मण के नाम से स्वयं प्रसिद्ध हुए। जुहोतिया ब्राह्मण आदि ब्राह्मण हैं क्योंकि इनमें और अन्य ब्राह्मणों में प्रवर समता नहीं है।जिझौतिया ब्राह्मण (जुहोतिया या जुझौतिया ब्राह्मण ) वृहद रूप में जुहोति (यज्ञ) कार्य को सम्पन्न कराने के लिए निमंत्रित किए जाने वाले कुशल याज्ञिक ब्राह्मण के रूप में विख्यात हुए।

दूबे /द्विवेदी के 30 गोत्र
पं o अशोक चतुर्वेदी ने जिझौतिया ब्राह्मणों के उपनाम और उनके अंतर्गत आने वाले गोत्रों की सूची दूबे/ द्विवेदी उपनाम के सर्वाधिक 30 गोत्र बतलाए हैं।
1. कश्यप  
2. भरद्वाज  
3. भारद्वाज      
(मूल ऋषि भरद्वाज थे।भारद्वाज उनके पुत्र शिष्य के लिए प्रयुक्त हो सकता है।)      
4. वत्स  
5. वशिष्ट 
6. शाण्डिल्य  
7. सांकृत  
8. हरिकर्ण 
9. हिरण्य  
10. गौतम 
11. जातूकर्ण 
12. कौशिल  
13. कौशल  
14. कौशिक  
15. घृतकौशिक 
16. पाराशर  
17. मुद्गल 
18. भार्गव  
19. वीतहव्य  
20. अत्रि - कृष्णात्रि  और मौनस 
21. कण्व  
22. गर्ग  
23. लौंगाक्षि   
24. पराशर  
25. काश्यप   
26. अंगिरस   
27. अंगिरा  
28. जैमिनी 
29. वार्हस्पत्य  
30. सांख्यायन 
31. उपमन्यु

1.गार्गेय गोत्र
 गार्गेय गोत्र ऋषि गर्ग से संबंधित है, और यह भारद्वाज गोत्र का एक हिस्सा है। इसका अर्थ है "गर्ग गोत्र का पुरुष" और यह गर्ग नामक ऋषि के वंशजों का गोत्र है। इन्हें कृष्ण गौड़ ब्राह्मण और शुक्ल जैसे उपनामों से भी जाना जाता है। कुछ क्षेत्रों में, इन्हें जोशी उपनाम से भी पहचाना जाता है क्योंकि ये ज्योतिष शास्त्र में विशेषज्ञता रखते थे, और कुछ को गुरु के नाम से भी जाना जाता है। इनका जन्म भारद्वाज और सुशीला से हुआ था। ये ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तकों में से एक माने जाते हैं, और कहा जाता है कि उन्होंने भगवान श्री कृष्ण का नामकरण संस्कार किया था। कृष्ण का नामकरण करने के कारण, गर्ग ब्राह्मणों को "कृष्ण द्विज गौड़" के रूप में जाना जाता है, जो राजस्थान, मध्य प्रदेश और हरियाणा जैसे क्षेत्रों में प्रचलित है। 
        शास्त्रों के अनुसार गर्ग ऋषि का एक अन्य नाम शुक्ल भी था, इसलिए उनके वंशजों को शुक्ल उपनाम मिला। गर्ग ऋषि की ज्योतिष विद्या में गहरी विशेषज्ञता के कारण, राजवंश अपने ज्योतिषियों को "गर्गाचार्य" की उपाधि देते थे, और आज भी गर्ग ब्राह्मण समुदाय का मुख्य कार्य ज्योतिष विद्या से जुड़ा है। यह गोत्र यजुर्वेद से जुड़ा है और यह अग्रवाल समुदाय में सबसे आम गोत्रों में से एक है। गार्गेय गोत्र का संबंध महर्षि गर्ग और विदुषी गार्गी से है, जो अपने समय की एक महान ब्रह्मज्ञानी थीं। 

2.गौतम गोत्र
गौतम गोत्र महर्षि गौतम से संबंधित है, और यह ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों समुदायों में पाया जाता है। ब्राह्मणों के लिए, यह गोत्र 'गौतम धर्मसूत्र' के रचयिता से जुड़ा है। क्षत्रियों के लिए, यह एक सूर्यवंशी राजपूत वंश है और इसके सदस्यों को गौतम क्षत्रिय कहा जाता है। यह गोत्र भारत के विभिन्न हिस्सों में पाया जाता है, विशेष रूप से उत्तरी और पूर्वी भारत में। कुछ लोग अपना अंतिम नाम 'गौतम' लिखते हैं, लेकिन अन्य ब्राह्मण उपनाम भी प्रचलित हैं जैसे कि शर्मा, मिश्रा या भट्ट।

3.भारद्वाज गोत्र
प्रयाग शहर में आनंद भवन के समीप विश्वगुरु महर्षि भरद्वाज मुनि का आश्रम है। वे अंगिरा कुल के देव वृहस्पति के पुत्र थे। ब्रह्मा इंद्र वृहस्पति के बाद वे चौथेव्याकरण वेत्ता थे। अंगिरा की चार पत्नियों में सुरूपा से वृहस्पति का जन्म हुआ था। बृहस्पति के तीन पत्नियां थी जिसमें ममता के गर्भ से भारद्वाज का जन्म हुआ था। उन्होंने व्याकरण का ज्ञान इंद्र से प्राप्त किया था और धर्म का ज्ञान भृगु से प्राप्त किया था।बाल्मीकि भरद्वाज के गुरु थे और रामायण का प्रचार भी भरद्वाज जी ने किया था।
      प्रयाग स्थित भरद्वाज आश्रम जहां त्रेता युग में 10 हजार विद्यार्थी अध्ययन करते थे। प्रभु श्रीराम वनवास जाते और लौटते समय महर्षि भरद्वाज का आशीर्वाद लेने उनके इसी आश्रम आए थे। महर्षि भरद्वाज को विश्व का प्रथम कुलाधिपति और कुलपति कहा गया है। प्रयाग को बसाने का श्रेय भी उन्हीं को है।ऋषि भरद्वाज प्राचीन विमान शास्त्र के रचयिता हैं और उन्होंने ही भगवान श्री राम को चित्रकूट का मार्ग बताया था। भरद्वाज की दस संतानें थीं - 
ऋजिष्वा, गर्ग, नर, पायु, वसु, शास, शिराम्बिठ, शुनहोत्र, सप्रथ और सुहोत्र। रात्रि और कपीसा उसकी पुत्रियां थी।
 यवकीर्ति भी थोड़ा अलग स्वभाव का उनका पुत्र था जिसे रैभ्य ऋषि ने अपने क्रोधाग्नि में भस्म कर दिया था। दुखी मन से ऋषि ने पुत्र का अंतिम संस्कार किया और उसी चिता में खुद भी जल गए। उसी समय भारद्वाज के शाप से रैभ्य ऋषि भी अपनी संतान परावसु के हाथ मृत्यु को प्राप्त हुए थे। रैभ्य का पुत्र परावसु अपने पिता जो काले कम्बल ओढ रखे थे,को मृग समझ कर बाण चला कर हत्या कर दिया था।बाद में खुद भी आत्म हत्या कर लिया था।
उनके 10 संतानें थीं।
'भरद्वाज नाम सदैव संज्ञा होता है, जबकि भारद्वाज विशेषण- शब्द है, जिसका अर्थ 'भरद्वाज-कुल/गोत्र में उत्पन्न है, जबकि 'भरद्वाज संज्ञा का शब्द है, जिसका अर्थ 'एक गोत्र-प्रवर्तक मंत्रकार ऋषि है। बाद में वर्तनी पर ध्यान न देने के कारण 'भरद्वाज' को भारद्वाज लिखा जाने लगा। भारद्वाज गोत्र की उत्पत्ति वैदिक ऋषि भरद्वाज से मानी जाती है, जो सप्तऋषियों में से एक थे। यह गोत्र कई जातियों में पाया जाता है, जिनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, राजपूत, मराठा, और राजभर शामिल हैं। 
'भरद्वाज'/भारद्वाज गोत्र के तीन प्रवर हैं: 
आंगिरस, बार्हस्पत्य, और भारद्वाज। भरद्वाज, गर्ग, रौक्षायण और और्व-ये चारों भारद्वाज कहे जाते हैं। इनका परस्पर विवाह सम्बन्ध नहीं होता है। इस गोत्र के लोग ज्ञान, बुद्धिमत्ता और वैदिक परंपराओं से जुड़े होने के लिए जाने जाते हैं। कुछ उपनाम, जैसे "पाठक", भी भारद्वाज ऋषि के गुरुकुल में शिक्षण परंपरा को आगे बढ़ाने वाले उनके वंशजों से जुड़े हैं। भारद्वाज गोत्र की कुलदेवी बिन्दुक्षणी मां हैं, जिनका मंदिर गुजरात के पाटण शहर में है। 
4. कश्यप गोत्र 
कश्यप गोत्र ऋषि कश्यप से उत्पन्न हुआ है, जो सप्तर्षियों में से एक थे। उन्हें देवताओं, दैत्यों, नागों और अन्य जीवों का पिता माना जाता है। कश्यप गोत्र की उत्पत्ति ब्राह्मणों की आठ प्रमुख गोत्रों में से एक के रूप में हुई, लेकिन बाद में कई अन्य समुदायों द्वारा भी इसे अपनाया गया। यह गोत्र ब्राह्मणों के अलावा अन्य वर्णों में भी पाया जाता है, जिनमें क्षत्रिय, निषादवंशी (जैसे धीमर, कहार, मल्लाह) शामिल हैं। भारत में कई जातियों के लोग इस गोत्र से संबंधित हैं। प्रारंभ में यह गोत्र उत्तर-पश्चिमी भारत में पाया जाता था, लेकिन बाद में मध्य और पूर्वी भारत के कई हिस्सों में फैल गया, जिनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और ओडिशा शामिल हैं। कश्यप गोत्र की कुलदेवी मां अदिति हैं, जो ऋषि कश्यप की पत्नी थीं।

5. वत्स गोत्र
वत्स गोत्र एक प्राचीन ऋषि-कुल है, जो ऋषि वत्स के नाम पर आधारित है, जो महर्षि दधीचि के पुत्र थे। यह गोत्र ब्राह्मण समुदाय से संबंधित है और कई अन्य समुदायों में भी पाया जाता है, जैसे कि भूमिहार और जाट। इस गोत्र की उत्पत्ति वत्स ऋषि से हुई, जिनके कई वंशज हुए। 
:इस गोत्र के लोग विभिन्न उपाधियों का प्रयोग करते हैं, जैसे कि वात्स्यायन। यह गोत्र जम्मू, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, असम, नेपाल, और महाराष्ट्र सहित कई क्षेत्रों में फैला हुआ है। यह गोत्र ब्राह्मणों के साथ-साथ भूमिहार और जाट समुदायों से भी जुड़ा हुआ है। वत्स गोत्र का उल्लेख प्राचीन बौद्ध ग्रंथों और महाकवि बाणभट्ट की रचनाओं में भी मिलता है। 

6.अत्रि (कृष्णात्रि) गोत्र
कृष्णात्रि एक गोत्र है, जो अत्रि ऋषि गोत्र से संबंधित है और कुछ समुदायों में इसके अलग प्रवर भी हैं। यह उत्कल ब्राह्मणों में एक गोत्र है। कृष्णत्रेय और कृष्णात्रि एक ही गोत्र के दो रूप हैं।
अत्रि गोत्र: यह ऋषि अत्रि और उनकी पत्नी देवी अनसूया से उत्पन्न हुआ है, और उन्हें ऋग्वेद के पाँचवें मंडल का द्रष्टा माना जाता है। अत्रि गोत्र के तीन प्रवर हैं: आत्रेय, अर्चननस और शावाश्व। इस गोत्र से जुड़े कुछ सामान्य उपनाम तिवारी और पांडे हैं। 
कृष्णात्रि: यह ऋषि दुर्वासा से संबंधित है, जो अत्रि के पुत्र थे और भगवान शिव के अवतार माने जाते हैं। कृष्णात्रि को अत्रि गोत्र का उपगोत्र माना जाता है। कुछ कृष्णात्रि ब्राह्मण यजुर्वेद की माध्यंदिन शाखा से संबंधित हैं। यह गोत्र कई समुदायों में पाया जाता है, जिसमें 'रथ' उपनाम वाले उत्कल ब्राह्मण, जिझौतिया ब्राह्मण, और देशस्थ ब्राह्मण शामिल हैं। आत्रेय और कृष्णात्र (अत्रि) गोत्र की कुलदेवी विकरा माता हैं, हालांकि आज उनका स्थान अज्ञात है। 
7. कौशिक गोत्र 
कौशिक गोत्र ऋषि विश्वामित्र से जुड़ा है, जो पहले क्षत्रिय राजा थे और बाद में ब्रह्मर्षि बने। यह गोत्र ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों समुदायों में पाया जाता है। इस गोत्र के प्रवर में भार्गव, शुक्राचार्य, ऋचीक, जमदग्नि और परशुराम जैसे ऋषि शामिल हैं, और विश्वामित्र, कश्यप और अत्रि को भी इसके पूर्वज माना जाता है। ऋषि विश्वामित्र: कौशिक गोत्र का सबसे प्रमुख संबंध ब्रह्मर्षि विश्वामित्र से है, जो एक राजा थे और बाद में ब्रह्मर्षि बने। विभिन्न समुदाय: यह गोत्र केवल ब्राह्मणों तक सीमित नहीं है, बल्कि क्षत्रिय और अन्य जातीय समूहों में भी पाया जाता है।
8.कण्व गोत्र
कण्व गोत्र एक ब्राह्मण गोत्र है जो प्राचीन ऋषि कण्व के नाम पर है। इस गोत्र से जुड़े लोगों में ऐतिहासिक रूप से कण्व वंश के शासक शामिल थे, जिन्होंने 73 ईसा पूर्व से 28 ईसा पूर्व तक मगध पर शासन किया था। इसके अतिरिक्त, यह गोत्र कुछ गंगवार क्षत्रिय जातियों से भी जुड़ा हुआ है। यह गोत्र अन्य ब्राह्मण परिवारों में भी पाया जाता है, जो ऋषि कण्व के वंशज होने का दावा करते हैं। 
9.मौनस गोत्र
मौनस एक ब्राह्मण गोत्र है जो आत्रेय गोत्र के उपगोत्रों में से एक है। यह एक प्राचीन गोत्र है जिसके बारे में कई पारंपरिक कथाएँ प्रचलित हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, मौनस को एक ऋषिय तुल्य व्यक्ति के रूप में माना जाता है। 
प्रवर: इस गोत्र के तीन प्रवर हैं: मौनस, भार्गव और वीतहव्य। 
10. उपमन्यु गोत्र
उपमन्यु एक हिंदू ब्राह्मण गोत्र है, जिसकी उत्पत्ति ऋषि उपमन्यु से मानी जाती है, जो शिव के महान भक्त थे। इस गोत्र के लोग नेपाल के सुदूर पश्चिमी भाग और जम्मू-कश्मीर के पूर्वी भागों में पाए जाते हैं। कुछ स्रोतों में यह भी उल्लेख है कि उपमन्यु गोत्र मूल रूप से कश्यप गोत्र था और द्वापर काल में ऋषि उपमन्यु के नाम पर पड़ा। यह गोत्र ऋषि उपमन्यु से जुड़ा है, जिन्हें भगवान शिव के भक्त के रूप में जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, उन्होंने अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए गायों की देखभाल की और भूख से तड़पते हुए शिव कीआराधना की, जिसके बाद शिव ने उनकी रक्षा की। 
 इस गोत्र के लोग मुख्य रूप से नेपाल के सुदूर पश्चिमी भाग और जम्मू-कश्मीर के पूर्वी भागों में रहते हैं। उपमन्यु गोत्र कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में पाया जाता है। अवस्थी उपनाम वाले जिझौतिया ब्राह्मणों में भी उपमन्यु गोत्र शामिल है। बिहार में, कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में इस गोत्र के लोग पाठक, ओझा, उपाध्याय, तिवारी और दुबे जैसे उपनामों का उपयोग करते हैं। 
विशेषता: उपमन्यु गोत्र के लोगों को सोम यज्ञ (सोम यज्ञ एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है जो समृद्धि और कल्याण के लिए किया जाता है) करने वाले 'सोमयाजी' के रूप में भी जाना जाता है। 
                                 क्रमशः 

रास्ता दर रास्ता जो बदलता रहा ✍️आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

बस्ती के गांव में जन्मा पला व बढ़ा , 
अधिवक्ता बनकर के अभ्यास किया ।
‘जयमानव‘ ‘पीएनआई‘ संवाद से जुड़ा,
‘अगौनासंदेश' 'नवसृजन' संपादित किया।

नौ साल कचहरी के कचपच में रहा,
अनुभव खट्टे मीठे से जूझता रहा।
मन रमा नहीं इन कु वृत्तियों में, 
रास्ता दर रास्ता जो बदलता रहा।।

एलएलबी बीएड बीलीब एमलीब कर,
दो दो पीएचडी का कोई लाभ ना लिया।
इस दर से उस दर भटक जाब ढूढा ,
मंडी परिषद में कुछ दिन काम किया।

ड्यूटी अयोध्या से हटा जब जामो भेजा,
इनकार किया तो जाब से निकाला गया।
बलरामपुर से बीएड बनारस में बीलिब कर 
वापस कचहरी आके ज्वाइन किया।।

यूपी को छोड़ा कहीं काम ना मिला।
रेलवे की अनेक दुश्वारियों को सहा।
बंबई एस एस सी में इन्टरव्यू दिया।
बड़ौदा में जा पुरातत्व ज्वाइन किया।।

संयोग से बड़ौदा से ट्रांसफर मिला,
आगरा बीच आकर के जो गिरा ।
ताजनगरी की चकाचैध खूब भायी, 
ब्रजरज को माथे पर लगा ही लिया।

अनेक उतार चढ़ाव जो यहां आए,
शिक्षा दीक्षा बच्चों का यहां से हुआ।
एक नई कार्य संस्कृति को अपनाया
तीस साल की सेवा यहां पूरी किया।।

अब सेवा निबृत्ति पारी खत्म हो गई,
जन्म भूमि बस्ती पारी शुरू जो किया।
तीस साल का लेखन कम्प्यूटर से उड़ा
 स्क्रिप्ट भी बच्चों से सहेजा ना गया।।

समाज को देने की ललक खत्म हो गई 
अब खाली हो गया इन मोह इच्छाओं से
डूबने को बचाने के लिए जो था चला 
खुद ही इस सागर में डूबता गया।।

चाहो इसे अब उबारो मर्जी तुम्हारी 
चाहो इसे डुबोवो खुद गरजी हमारी 
आप सबके आशीष व स्नेहन से,
भवसागर को तौर के जाना है।।


लेखक परिचय

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं. वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम-सामयिक विषयों, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर +91 8630778321, वर्डसैप्प नम्बर+ 91 9412300183)


द्विवेदी त्रिवेदी और चतुर्वेदी के बारे में नई अवधारणा (द्विवेदी ब्राह्मण का इतिहास कड़ी 13)✍️आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

मोटे रूप में दो वेद को जानने वाले को द्विवेदी तीन वेद को जानने वाले को त्रिवेदी और चार वेद को जानने वाले को चतुर्वेदी ब्राह्मण कहा जाता है पर इसे इतर एक और भी मत है जो उक्त मत से थोड़ा हटकर है, जहां द्वि का मतलब ईश्वरीय/ आध्यात्मिक, त्रि का मतलब तीनों युग या काल भूत वर्तमान और भविष्य होता है। चतुर का मतलब चारों दिशाओं उत्तर दक्षिण पूरब और पश्चिम से होता है। इसे इस रूप में अलग-अलग भी समझ सकते हैं।
ईश्वर के बारे में जानने वाला होता है
द्विवेदी
परंपरागत रूप में द्विवेदी का शाब्दिक अर्थ दो वेदों का जानने वाला होता है।पर इसका एक अलग विश्लेषण भी है जिससे बहुत कम लोग ही विज्ञ हैं। द्विवेदी द्वि और वेदी दो शव्दों से बना है। द्वि का मतलब अघ्यात्मिक , ईश्वर से सम्बन्धित तथा वेदी का तात्पर्य जानने वाला होता है। इस प्रकार द्विवेदी का मतलब ईश्वर के बारे में जानने वाला होता विज्ञ या विद्वान् होता है।
तीनों काल को जानने वाला त्रिवेदी
इसी प्रकार त्रिवेदी का मतलब आम जन तीन वेदों के ज्ञाता ही जनता है। हिन्दू धर्म के अनुसार ब्राहमण को दो या तीन वेदों को ही नहीं अपितु चारो वेद का अध्ययन करना चाहिए। नए विश्लेषण से त्रिवेदी में त्रि का ताप्पर्य तीन (भूत,वर्तमान व भविष्य समय काल) तथा वेदी का तात्पर्य जानने वाला होता है। इस प्रकार भूत वर्तमान तथा भविष्य तीनों कालों के जानने वाले को त्रिवेदी कहा जाता है। इस प्रकार का ज्ञान ज्योतिष के विद्वान में होता था। प्राचीन और मध्य काल में ज्येतिषी को त्रिवेदी कहा जाता था।
ब्रम्हाण्ड का ज्ञाता चतुर्वेदी
इसी प्रकार चतुर्वेदी को चारों वेदों के ज्ञाता को प्रायः माना जाता है। नए विश्लेषण से 
 चतुर का तात्पर्य चारो दिशाओं- उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम से होता है तथा वेदी का तात्पर्य जानने वाला होता है। इस प्रकार चतुर्वेदी का तात्पर्य पूरे ब्रम्हाण्ड का ज्ञाता ब्रह्मऋषि समझना चाहिए।


Monday, November 17, 2025

फर्स्टक्राय इंटेलिटॉट्स प्रीस्कूल द्वारा "एवरग्रीन चैंप्स स्पोर्ट्स डे" का हुआ आयोजन✍️आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी


बच्चों की मुस्कान और मासूमियत भरा प्रोग्राम 
फर्स्टक्राय इंटेलिटॉट्स प्रीस्कूल द्वारा "एवरग्रीन चैंप्स स्पोर्ट्स डे 2025-26" का भव्य आयोजन 16 नवंबर 2025 को दिन में सेठ एम. आर.जयपुरिया स्कूल कैंपस में किया गया। शहर की भागम- भाग माहौल से दूर बेली गांव के शांतिमय और निर्जन वातावरण में स्थापित जयपुरिया स्कूल के आंगन में यह बच्चे अपनी-अपनी प्रतिभा का हुनर दिखा रहे थे। इसमें नन्हे- मुन्ने बच्चों ने उत्साह और आत्मविश्वास के साथ विभिन्न खेल प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया। खेल बच्चों में आत्मविश्वास, टीमवर्क, अनुशासन और धैर्य जैसे जीवन-मूल्यों को विकसित करते हैं, जो आगे उनके व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पूरे कार्यक्रम का माहौल बच्चों की मुस्कान, ऊर्जा और मासूमियत से भरा हुआ था। जहां विद्यालय के आंगन में नन्हें मुन्ने अपनी प्रस्तुति देते तो मंच पर भी नन्हे मुन्नों का समूह इनका हौसला अफजाई भी करते थे। संगीत की मधुर ध्वनियां इनमें चार चाँद लगा रही थीं।
सम्यक निगरानी से सम्पन्न हुआ ये कार्यक्रम
यह कार्यक्रम देखने में जितना आसान था इसे निभाने में उतना ही कठिनाई उठाना पड़ रहा था। नन्हे मुन्ने बच्चों को लाइन में लगवाना, उनसे कार्यक्रम करवाना बहुत टेढ़ी खीर थी। एक को संभालो तो दूसरा बिगड़ जाता था। टीचर और आयोजक स्टाफ इन्हें निरंतर अपनी निगरानी में रखते थे और एक-एक कार्यक्रम संपन्न कराते थे। हार जीत से ज्यादा यह जरूरी था की हर बच्चा इस कार्यक्रम में अपनी क्षमता और रुचि के अनुसार भाग ले सके। कुछ बच्चे अभ्यास कर करके सध गए थे और बहुत अच्छी प्रस्तुति दिए तो कुछ बच्चे बिल्कुल नए-नए पहली बार स्टेज पर आने वाले, बहुत सोच समझकर कदम रखते थे । कोई बच्चा चला किसी उद्देश्य से था और बाद में कुछ और ही करने लगता था। टीचर इन्हें पकड़-पकड़ कर सिस्टमैटिक रूप से स्पोर्ट्स में भाग दिलवाते रहे। 
विविध प्रकार के आयोजन
प्रतियोगिता में दौड़, बाधा दौड़, बैलेंसिंग, गेंद-फेंक, योग, और कई अन्य प्रकार की गतिविधियों हुईं। एक कार्यक्रम में मुंह में चम्मच रखकर उसमें नींबू रखकर कम से कम समय में दूसरे छोर तक पहुंचना था ।एक कार्यक्रम में बच्चे तितलियां जैसा पंख लगाए फूलों की सुगंध लेने के लिए दौड़ते थे और फूल तोड़कर अपने गंतव्य स्थान पर वापस आ जाते थे । एक खेल में पीठ पर थालीनुमा पत्तल रखकर पैर के बल बिना थाली गिराए अपने लक्ष्य तक जाते थे एक कार्यक्रम में कुछ कागज का टुकड़ा किसी अवरोध के नीचे छिपा कर बच्चों द्वारा कलेक्ट कराया जाता था। ऐसे छोटे छोटे अनेक कार्यक्रम बनाए गए थे। बीच बीच में माता पिता को पहेली तथा छोटे छोटे कार्यक्रम रस्साकशी आदि में भी भाग दिलवाया गया।
उत्साह वर्धन आशीर्वाद और आभार
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रूप में 
सीआरओ कीर्ति प्रकाश भारती ने नन्हे प्रतिभागियों का उत्साह बढ़ाया। उपस्थित प्रतिष्ठित अतिथियों ने नन्हे प्रतिभागियों को आशीर्वाद दिया और उनके आत्म- विश्वास एवं प्रदर्शन की सराहना की।स्कूल की निदेशक रश्मि अग्रवाल ने सभी अभिभावकों का स्वागत करते हुए कहा कि "यह आयोजन केवल खेलों का नहीं, बल्कि बचपन, प्रयासों और सीख की छोटी-छोटी खुशियों का उत्सव है। हर बच्चा अपनी रफ्तार से बढ़ता है, और हमारे लिए हर बच्चा विजेता है।" संरक्षक नंदलाल अग्रवाल ने कहा कि “बच्चों को प्रीस्कूल से लेकर उच्च कक्षाओं तक उच्च-गुणवत्ता वाली एक सतत शैक्षणिक यात्रा का लाभ मिलता है।”अभिभावकों ने सभी ने बच्चों के आत्मविश्वास, प्रस्तुति की सराहना की। 
बाद में हर परिभागी को प्रमाणपत्र उपहार तथा ग्रुप फोटोग्राफी में चित्रित किया गया।
जयपुरिया स्कूल का विशेष सहयोग 
इस कार्यक्रम को सफल बनाने में सेठ एम.आर. जयपुरिया स्कूल, का विशेष सहयोग प्राप्त हुआ। स्कूल परिवार ने अपना सुन्दर खेल मैदान उपलब्ध कराकर प्री- स्कूल के इस आयोजन को और अधिक प्रभावशाली बनाया। इस मौके पर हिमांशु सेन, आशा अग्रवाल, विशाल सिंह, प्रधानाचार्य जयपुरिया सुभाष जोशी, मनीष अग्रवाल आदि उपस्थित रहे। फर्स्टक्राय इंटेलिटॉट्स प्रीस्कूल का सेठ एम.आर. जयपुरिया स्कूल के साथ आधिकारिक K-12 टाई-अप भी है, जिसके माध्यम से बच्चों को प्री- स्कूल से लेकर उच्च कक्षाओं तक उच्च-गुणवत्ता वाली एक सतत शैक्षणिक यात्रा का लाभ मिलता है।
काश! उदघोषणाएं मातृभाषा में होती 
कार्यक्रम की उदघोषणाएं अंग्रेजी माध्यम से संचालित की गई। जिसे बच्चे तो क्या समझ सके होंगे ?बहुत कम हीअभिभावक समझ सके होगे। इतने छोटे बच्चों का कार्यक्रम यदि मातृभाषा में या द्विभाषा में संचालित होती तो आयोजन और जीवन्त बन सकता था।



Sunday, November 16, 2025

सरयू नदी का द्वीप फैला सकती है विरासत की ज्योति ✍️आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी

अनियमित बदलती धाराएं

सरयू नदी की दुर्दशा से आस्थावान व्यथित हो जाता हैं।सदियों से अयोध्या की पहचान रही सरयू अपनी धारा कई बार बदल चुकी है। घाटों को छोड़कर नदी कई किमी. तक हट कर संकीर्ण धारा के रूप में प्रवाहित हो जाती है। वाराणसी की तर्ज पर बने अयोध्या के घाटों पर कभी सरयू की लहरें कलकल करती रहती थीं। नदी का जल करीब दर्जन भर घाटों को तृप्त करता था। सुबह स्नान और सूर्य नमस्कार के लिए तो शाम को सरयू आरती के लिए श्रद्धालुओं का हुजूम उमड़ता था। यह विहंगम दृश्य वाराणसी की गंगा आरती की याद दिलाता था। सरयू आरती भी रस्म अदायगी तक रह जाती है। इसका असर यह है कि कभी कभी घाटों पर भी वीरानी छा जाती है। नदी के बीच में टीले बन चुके बालू को हटाने के ठोस प्रयास नहीं हो पाते हैं। सरयू की पेटी उथली हो चुकी है। घाटी के बीच के हिस्से में गाद के ऊंचे टीले बनते जा रहे हैं। ये टीले इतने विशाल हैं कि बरसात के समय भी दिखाई देते हैं , जब सारा इलाका जल से मग्न हो जाता है। इसका प्रमुख कारण नदी की सफाई न होना है ही, अनियोजित ढंग से हुए अवैध बालू खनन के चलते नदी की धारा में बदलाव हो जाता है।

निलयम पंचवटी द्वीप

सरयू नदी में मुख्य रूप से एक बड़ा द्वीप बन चुका है, जिसे निलयम पंचवटी द्वीप के रूप में विकसित किया जा रहा है।   नदियाँ न केवल जीवन का आधार हैं, बल्कि ये सभ्यता और संस्कृति को भी विकसित करती हैं। नदी के बीच पूजा-अर्चना से सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है क्योंकि यह प्रकृति के करीब होने और जल संरक्षण के महत्व को समझने का एक सशक्त माध्यम है। यह मान्यता है कि नदियाँ जीवनदायिनी हैं और इनकी पूजा करने से वातावरण में सकारात्मकता आती है। इसी परिकल्पना को साकार करने के लिए रामनगरी में भगवान राम के वन-गमन पर आधारित पंचवटी द्वीप का निर्माण सरयू तट पर हो रहा है। नदी के किनारे गुप्तार घाट से 600 मीटर दूरी पर लगभग 75 एकड़ में 100 करोड रुपए की लागत से यह द्वीप बनाया जा रहा है। इसका निर्माण श्रीनिलयम संस्था लखनऊ करीब दो वर्षों से करा रही है। 

इसे अभी पूर्ण रूप से जमीन पर नहीं उतारा जा सका है। सड़क का निर्माण कराकर उसके किनारे सजावटी पौधे लगा दिये गये हैं। लाइटिंग की भी व्यवस्था कर दी गई है। द्वीप के लिए जिला प्रशासन ने माझा जमथरा में श्रीनिलयम संस्था को कई हेक्टेयर भूमि नि:शुल्क उपलब्ध करायी है। माँ सरयू की गोद में बसा श्री निलयम पंचवटी द्वीप मनमोहक सौंदर्य से परिपूर्ण है। दो चरणों में बन रही इस परियोजना के पहले चरण में 40 एकड़ क्षेत्र में कार्य चल रहा है। इसमें श्रद्धालुओं और पर्यटकों को ‘राम की जीवन यात्रा’ से जुड़ा अनुभव देने की तैयारी है।

परियोजना अयोध्या के पर्यटन और धार्मिक महत्व को नई पहचान देने की दिशा में अहम कदम है। इनका लक्ष्य इसे एक प्रमुख पर्यटन स्थल में बदलना है, जो तन, मन और आत्मा के लिए समग्र अनुभव प्रदान करे।  यह परियोजना पर्यटकों को रामायण से जुड़े प्रसंगों की जानकारी और त्रेतायुगीन अनुभव प्रदान करने के उद्देश्य से लॉन्च की गई है। रिसॉर्ट में प्राकृतिक सुंदरता और आधुनिक सुविधाओं का मिश्रण है। 

अयोध्या में प्रभु रामलला के दर्शन के लिए देश-विदेश से पहुंचने वाले श्रद्धालुओं को राम लला के दर्शन के बाद प्रभु राम के जीवन दर्शन को आत्मसात करने का यहां मौका मिलेगा। प्रकृति और आधुनिक वास्तुकला के अपने सामंजस्य- पूर्ण मिश्रण के साथ, श्री निलयम का लक्ष्य पर्यटकों की लोकप्रियता में श्री राम मंदिर जैसा अन्य विकल्प भी प्रस्तुत करना है।

हरे-भरे प्राकृतिक दृश्यों और वनस्पति उद्यानों से लेकर सांस्कृतिक प्रदर्शनियों और साहसिक गतिविधियों तक, हर कोना हर उम्र के मेहमानों के लिए आकर्षण और स्फूर्ति के साथ प्रस्तुत करने की योजना है।

नमामि गंगा परियोजना से प्रेरित

श्री निलयम पंचवटी द्वीप प्रॉजेक्‍ट के प्रभारी राज मेहता ने बताया कि 2019 में राष्‍ट्रीय गंगा परिषद की बैठक में पी एम मोदी ने नमामि गंगा परियोजना को अर्थ गंगा जैसे सतत विकास मॉडल में बदलने का संदेश दिया था। जिससे सदियों से नदियों पर आश्रित लोगों को जोड़ा जा सके। उन्‍हें रोजगार के नए अवसर मिले, जिससे उनका जीवन स्‍तर उठ सके। इसी संदेश से प्रेरित होकर श्रीनिलयम पंचवटी द्वीप की संरचना की गई है। 

 श्रीनिलयम पंचवटी में श्रद्धालुओं को राममय बनाने के सारे साधन एक ही परिसर में उपलब्‍ध करवाने की व्‍यवस्‍था की गई है। जहां वे प्रवास के दौरान वह आध्यात्मि‍क सुख का अनुभव कर सकेगें।

पीपे का पुल बनाया जा रहा 

अयोध्या के माझा जमथरा में निर्माणाधीन पंचवटी द्वीप पहुंचने के लिए सरयू नदी पर पीपे का पुल बनाया जाएगा। पीपे के इस पुल से चार पहिया वाहन भी द्वीप तक आसानी से पहुंच सकेंगे। पैदल व बाइक से तो उस पर जाया ही जा सकेगा। करीब दो सौ मीटर लंबा यह पुल पांच मीटर चौड़ा होगा। यह पुल लोक निर्माण विभाग के प्रांतीय खंड के अधीन होगा। सरयू नदी पर एक नया पीपा पुल बनाने के लिए शासन ने ₹1,46,78,000 की धनराशि स्वीकृत की है, जिसमें से ₹73,39,000 इस वित्तीय वर्ष में जारी कर दिए गए हैं।अवरअभियंता पी पी सिंह ने बताया कि पीपे का पुल बनाने के लिए टेंडर का प्रकाशन हो चुका है। 15 अक्टूबर से 15 जून तक इस पर आवागमन हो सकेगा। 15 जून से बरसात शुरू होने पर इसे प्रांतीय खंड हटा लेगा। उस समय नदी में पानी बढ़ जाएगा। बहाव भी बहुत तेज होगा। 15 अक्टूबर से इस पर आवागमन शुरू होगा।

मुक्त गगन के नीचे विरासत की खास गतिविधियां 

इस द्वीप पर कई सुविधाएं विकसित की जा रही हैं, जैसे - अयोध्या के बेहतरीन रिट्रीट, श्री निलयम पंचवटी रिज़ॉर्ट में दिव्य शांति और शानदार आराम की व्यवस्था। हरियाली के बीच बसा लक्ज़री टेंट स्टे, विरासत, आध्यात्मिकता और आधुनिक सुविधाओं का एक अनूठा मिश्रण प्रदान करता है, जो एक शांतिपूर्ण और आनंददायक प्रवास सुनिश्चित करता है।

रामकथा अनुभव केंद्र 

अयोध्या के श्री निलयम पंचवटी रिज़ॉर्ट में राम अनुभव केंद्र के आध्यात्मिक सार का वातावरण प्रदान करता है। यह एक ऐसा स्थान है जहाँ भक्ति और दिव्य अनुभव का मिलन होता है। भगवान श्रीराम के जीवन और शिक्षाओं में आगंतुकों को डुबोने के लिए डिज़ाइन किया गया यह अनूठा स्थान इतिहास, आस्था और सांस्कृतिक विरासत को दर्शा रही है।

राम के जीवन चरित्र से जुड़े प्रसंग 

प्रभु राम के वनगमन के साक्षी बनाने के लिए राम वनगमन पथ का क्रिएशन किया जा रहा है। द्वीप में भगवान राम की जीवन गाथा को मूर्तियों, भित्तिचित्रों और ऑडियो विजुअल तरीके से मानस के विभिन्न खंडों का प्रस्तुतीकरण किए जाने की योजना है।

पंचवटी द्वीप में मूर्तियों के माध्यम से चाहे वह ऋषि मुनि हो या फिर शबरी अहिल्या हो , श्रद्धालुओं को रामायण कालीन प्रसंग को बताने की कोशिश की जा रही है।

ऋषियों के नाम पर कॉटेज

पर्यटन के लिहाज से श्रद्धालुओ के लिए टेंट सिटी हब और बच्चों के एंजॉय के लिए भी सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है। पर्यटकों और श्रद्धालुओं के लिए अयोध्‍या को आकर्षण के केंद्र के रूप में स्‍थापित करने के लिए लगातार प्रयास हो रहे हैं।

निलयम पंचवटी द्वीप में आने वाले पर्यटकों को प्रभु राम के जीवन चरित्र से जुड़े प्रसंगों की जानकारी के साथ त्रेता युगीन व्‍यवस्‍था का भी अनुभव और आभास हो सके ऐसा प्रयास किया जा रहा है। कल्‍पवास और वैदिक गांव की अनुभूति कराती ऋषियों-मुनियों के नामों से बनी 108 पर्ण कुटी बन रही है।

अन्य रोमांचक गतिविधियां

कचरा व अपशिष्‍ट जल का ट्रीटमेंट व रिसाइकल प्‍लांट चालू किया जाएगा।ओडीओपी के तहत अयोध्‍या के गुड़ व चटाई उद्योग को बढ़ावा दिया जाएगा। मिट्टी से बने बर्तनों- खिलौनों को बढ़ावा दिया जाएगा। घाट की हाट में इनकी बिक्री को प्रोत्‍साहन दिया जाएगा। 


सांस्‍कृतिक कार्यक्रम 

सांस्‍कृतिक कार्यक्रम में भजन संध्‍या आयोजित होंगी। सन राइज और सनसेट पाइंट विकसित किए जाएंगे। मैजिक-शो, घुड़सवारी, ऊंट की सवारी, तीरंदाजी के साथ ही हस्‍तरेखा और ज्‍योतिष शास्‍त्र विशेषज्ञों के परामर्श की व्‍यवस्‍था यहां उपलब्ध कराई जाएगी। नौकायन, पावर बोट, स्‍पोर्ट्स का इंतजाम भी किया जाएगा। 

गंतव्य विवाह 

श्री निलयम पंचवटी रिज़ॉर्ट के शांत और आध्यात्मिक वातावरण में स्थित मान सरोवर बैंक्वेट में अपने जीवन के सबसे खास दिन का जश्न मनाया जा सकेगा। विलासिता, परंपरा और दिव्य आशीर्वाद का एक आदर्श मिश्रण,” हमारा बैंक्वेट आपकी शादी” को एक रोचक और अविस्मरणीय अनुभव में बदलने के लिए डिज़ाइन किया गया है।

योग एवं सत्संग स्थल 

श्री निलयम पंचवटी रिज़ॉर्ट के योग एवं सत्संग स्थल पर आध्यात्मिक सद्भाव में डूबने का अवसर मिलेगा । मन, शरीर और आत्मा के पोषण के लिए डिज़ाइन किया गया यह पवित्र स्थान ध्यान, योग और आध्यात्मिक प्रवचनों के लिए एक शांत वातावरण प्रदान करता है, जिससे अयोध्या के दिव्य स्पंदनों के बीच अपनी अंतरात्मा से जोड़ा जा सकता है। योग से निरोग की अवधारणा को भी साकार किया जा रहा है।

साहसिक एडवेंचर जोन 

 श्री निलयम पंचवटी रिज़ॉर्ट के एडवेंचर ज़ोन में श्रद्धालु अपनी साहसिक भावना को उजागर कर सकता है। रोमांच की तलाश में हों या परिवार और दोस्तों के साथ मौज-मस्ती की गतिविधिया एडवेंचर ज़ोन प्रकृति के बीच एक रोमांचक क्षण प्रदान करता है।

समग्र स्वास्थ्य के लिए जिम ज़ोन 

श्री निलयम पंचवटी रिज़ॉर्ट में समग्र स्वास्थ्य के लिए जिम ज़ोन बनाया जा रहा है। जहां प्रवास के दौरान सक्रिय और ऊर्जावान बनाए रखने के लिए अनुकूल डिज़ाइन किया गया है। फ़िटनेस के शौकीन हों या बस अपनी दिनचर्या को बनाए रखने के लिए अत्याधुनिक जिम संसाधन मुहैया कराया जा रहा है। जिससे फिट रहने के लिए एक आदर्श वातावरण मिलेगा।

बच्चों का क्रीडस्थल और मनोरंजन 

श्री निलयम पंचवटी रिज़ॉर्ट में पूरे परिवार के लिए सुखद यादें बनाने के लिए बच्चों का क्रीडस्थल और मनोरंजन की भरपूर व्यवस्था की गई है। यहां का  किड्स ज़ोन एक जीवंत और सुरक्षित जगह है जहाँ बच्चे खेल सकते हैं, सीख सकते हैं और नई-नई चीज़ें खोज सकते हैं, जबकि माता-पिता आराम से अपने प्रवास का आनंद ले सकते हैं।

जैविक- औषधीय खेती

श्री निलयम पंचवटी रिज़ॉर्ट में, गोबर पर आधारित जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। हमें जैविक खेती के माध्यम से एक स्थायी और स्वस्थ जीवन शैली को अपनाने के तौर तरीके देखने को मिलेगा। यहां के हरे-भरे खेत मेहमानों को पारंपरिक खेती, ताज़ी उपज और पर्यावरण अनुकूल जीवन शैली की खूबसूरती का अनुभव करने का अवसर प्रदान करते हैं। स्‍थानीय औषधीय आयुर्वेदिक पौधों से जीविका के साधन सृजित करने की योजना है।

शुद्ध स्‍वादिष्‍ट सात्विक रेस्टोरेंट

शुद्ध स्‍वादिष्‍ट शाकाहारी भोजन प्रसाद और शुद्ध गाय के घी से बने व्‍यंजन की व्‍यवस्‍था की जा रही है। यहाँ हर भोजन एक पवित्र अनुभव है।  श्री निलयम पंचवटी रिज़ॉर्ट में स्थित रेस्टोरेंट भारतीय संस्कृति और आयुर्वेद की समृद्ध परंपराओं से प्रेरित एक प्रामाणिक सात्विक भोजन अनुभव प्रदान करता है।

नए प्याइंटों पर काम करने की संभावनाएं

नए प्याइंटों पर कुछ और किए जाने के संभावनाएं हैं। (जो संलग्न चित्र में लाल रंग में 1,2,3 और 4 नम्बर के माध्यम से दिखाने का प्रयास किया गया है।) इसके लिए नदी के जलस्तर को स्थिर करने और बाढ़ नियंत्रण के उपाय करने होंगे। पंचवटी द्वीप के विकास और श्री राम अनुभव केंद्र के निर्माण के तर्ज पर अयोध्या विकास प्राधिकरण और वैज्ञानिक विशेषज्ञ इस दिशा में प्रयास कर सकते हैं। विकास के तहत व्यापार और रोजगार के अवसरों को बढ़ावा मिल सकता है, खासकर जलमार्ग से। नदी में कटान और अनियमित जल स्तर की समस्या के कारण इन योजनाओं को सावधानी पूर्वक और इंजीनियरिंग की सहायता लेना आवश्यक होगा। 

1.एक और द्वीप

गूगल मैप पर R4GQ+798 फतेहपुर सरैया मांझा, अयोध्या पर दर्शनीय है। यह श्री संकट मोचन श्री हनुमान मंदिर के पास गूगल मैप पर R42Q+X2X अयोध्या कैंट, 224001 के पास स्थित है।


2.एक और द्वीप 

गूगल मैप पर R55F+7XF मांझा कलां  पर यहां एक द्वीप विकसित हो सकती है, जो पंचवटी प्राचीन हनुमान मंदिर बाटी बाबा के आश्रम केनिकट है।

3.एक और द्वीप 

 गूगल मैप R53R+V6F मांझा कलां पर दिखने वाली एक और द्वीप भी विकसित हो सकती है। यह राजघाट के पार्क के पास स्थित है।


4.एक और द्वीप 

 गोआश्रय स्थल,अयोध्या गोण्डा राज मार्ग से करीब में ही है। गूगल मैप पर R59H+34R मांझा कलां अयोध्या पर दर्शनीय है। यहां भी नदी तलीय विकास की प्रचुर संभावनाएं हैं।

        आचार्य डा. राधेश्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। पत्राचार का पता: मकान नम्बर 8/ 2785, निकट लिटिल फ्लावर स्कूल, आनन्द नगर कटरा बस्ती 272001)

Thursday, November 13, 2025

गयाजी के तीर्थ (5) फल्गु नदी और उनकी वेदियां ✍️आचार्य डॉ.राधेश्याम द्विवेदी

फल्गू नदी भारत के बिहार राज्य में बहने वाली एक नदी है। यह तीर्थयात्रियों द्वारा दर्शन किया जाने वाला पहला पवित्र स्थल है और यहाँ उन्हें अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पहला तर्पण करना चाहिए । गया महात्म्य, जो वायु पुराण का एक भाग है, के अनुसार, फल्गु नदी स्वयं भगवान विष्णु का अवतार है। एक परंपरा के अनुसार, पहले यहाँ दूध बहता था। फल्गु नदी गया के पवित्र नगर से गुज़रती है और इस नदी का हिन्दू व बौद्ध धर्मों में महत्व है।बिहार में फल्गु नदी की लंबाई लगभग 135 किलोमीटर है। बिहार की पौराणिक पर्व यानी सूर्य- उपासना अर्थात छठ पूजा में इस नदी में बिहार की महिलाएं दुग्ध-अर्पण, अन्न- अर्पण, के साथ-साथ व्रत एवं छठी मैया की आराधना करते हैं। 
      गया के पास, फल्गु नदी लीलाजन और मोहाना नदियों के संगम से बनती है.आगे जाकर यह पुनपुन नदी में मिल जाती है, जो गंगा नदी की एक सहायक नदी है। कहा गया है की फल्गु नदी भगवान विष्णु के दाहिने अंगूठे के स्पर्श से होकर गुजरती हैं, इस वजह से फल्गु नदी के पानी के केवल स्पर्श से पूर्वजों की मुक्ति की राह खुल जाती हैं। इसका पिण्ड तर्पण विधान देवघाट से पितामहेश्वर तक विस्तारित पवित्र वेदी है। फल्गु नदी के तट पर स्थित यह स्थान पितरों के मोक्ष के लिए सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।
     फल्गु नदी के तट पर रामजी लक्ष्मणजी और सीताजी श्राद्ध तर्पण करने आए थे। राम और लक्ष्मण सामग्री लेने चले गए थे और तर्पण समय बीतता देख राजा दशरथ की आत्मा ने सीता जी से पिंडदान मांगा तो उन्होंने रेत से ही पिंडदान कर दिया। इस घटना को इस लिंक के जरिए और स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है - 

https://www.facebook.com/share/v/1BMpe43exZ/

       जिस फल्गु नदी को मोक्षदायिनी गंगा से भी पवित्र माना गया, वह गया धाम में अपने अस्तित्व के लिए ही जूझती मिली । सीता के श्राप ने फल्गु को अंतः सलीला (सतह के नीचे से बहने वाली) बना दिया, लेकिन फिर उसी फल्गु को गंगा से भी पवित्र माना गया। यही फल्गु नदी बोधगया में निरंजना के नाम से जानी गयी है। हालांकि नदी का प्रवाह भूमिगत रहता है, पर भारी वर्षा और विशेष जल-प्रबंधन कार्यों के बाद इसमें सतह पर पानी दिखाई दे सकता है।
वर्तमान समय में इस नदी के डाउन स्ट्रीम पर रबर डैम बांध बन जाने से नदी भरी हुई मिलती है । रबर डैम एक नदी या नहर में लगाया गया, हवा या पानी से भरा जाने वाला लचीला रबर का अवरोध है,जिसका उपयोग पानी को रोकने, जल प्रवाह को नियंत्रित करने, या बाढ़ से बचाने के लिए किया जाता है। इसे फुलाया या पिचकाया जा सकता है, जिससे जल प्रबंधन में लचीलापन आता है, और उपयोग में न होने पर पानी का मुक्त प्रवाह सुनिश्चित होता है। यह उच्च शक्ति वाली रबर सामग्री की कई परतों से बना होता है, जो पानी या हवा से भरते ही फूल जाती है। 
अब फल्गु नदी में पूजन अर्चन नदी के वेदी पर ना होकर राज्य सरकार द्वारा निर्मित कराए पक्के प्लेटफॉर्म पर सम्पन्न हो रहा है। यहां पर आई भीड़ का उत्साह देखते ही बनता है। सुरक्षा की व्यवस्था बहुत ही उत्तम है जिसमें स्थानीय पुलिस और आर्मी के जवान व्यवस्था बनाए देखे जा सकते हैं।
भगवान बुद्ध को इसी फल्गु नदी के तट पर ज्ञान प्राप्त हुआ था, जिससे यह नदी बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए भी पवित्र हो गई है।

     फल्गु नदी के आसपास की वेदियां

सीता कुंड:- 
यह वह स्थान है जहाँ सीता माता ने अक्षय वट और गाय के अलावा फल्गु नदी के रेत से पिंडदान किया था। सीता कुंड राम गया नामक पवित्र वेदियां भी इसी नदी के तट पर स्थित है। इस वेदी पर अर्पित दान द
गया के शापित ब्राह्मण को नहीं मिलता है अपितु अयोध्या के ब्राह्मण इसके उत्तराधिकारी हैं।

विष्णुपद मंदिर:- 
भगवान विष्णु का विष्णुपद मन्दिर इसके किनारे खड़ा है। फल्गु नदी के तट पर ही स्थित, विष्णुपद मंदिर एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है जहाँ पितरों के लिए पूजा की जाती है। श्राद्ध पक्ष में लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं और फल्गु नदी के तट पर पूजा करते हैं। विष्णुपद मंदिर एक तीर्थस्थल है, जहाँ श्रद्धा, पुरातत्व, और आध्यात्मिक शांति का अद्भुत मेल है।

अक्षय वट:- 
यह वट वृक्ष एक प्राचीन और पवित्र स्थान है जहाँ पिंडदान किया जाता है. यह भी फल्गु नदी के तट पर स्थापित है।

पितामहेश्वर घाट
फाल्गु नदी के तट से लगा यह एम मोहल्ला भी है। वर्तमान में यह एक नाले के रूप में ही लोग बदल गया है ,जब कि किसी समय यह तर्पण स्थल के रूप में प्रयुक्त होता था है। जिला प्रशासन और प्रदेश सरकार को इस स्थल तक श्रद्धालुओं की पहुंच और व्यापक प्रचार प्रसार करना चाहिए।पिता महेश्वर नाला जिला स्कूल के पास से निकलता है, जो श्याम भर्थआर गली, उत्तर मानस अड्डा होते हुए पिता महेश्वर घाट के पास नदी में गिर जाता है। नाले की लंबाई करीब आधा किलोमीटर है। उक्त मोहल्लों की नालियों का पानी भी इसी नाले के जरिए नदी में आकर गिर रहा है।
रामगया वेदी 
पितामहेश्वर मोहल्ला में उत्तरमानस वेदी 
सीताकुंड फल्गु नदी के तट पर (पूर्व दिशा में) देवघाट के सामने स्थित है। फल्गु नदी के तट पर (पूर्व दिशा में) देवघाट के सामने रामगया वेदी स्थित है ।
उत्तरमानस वेदी 
यह पिंड वेदी प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर से 2 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में फल्गु नदी के तट पर स्थित है। इसमें चारों ओर पक्की सीढ़ियां है। इसके पश्चिम एक धर्मशाला और उत्तर एक मन्दिर है। जिसमें उत्तरार्क सूर्य और शीतला देवी की मूर्तियां हैं। सरोवर के पश्चिमोत्तर कोण पर मौनेश्वर और पितामांहेश्वर शिव मंदिर है। यहां पर श्राद्ध करके यात्री मौन होकर सूर्य कुंड तक जाते हैं।पितृपक्ष के तीसरे दिन उत्तर मानस पिंड वेदी पर पिंडदान करने का प्रावधान हैं। ऐसी मान्यता है कि उत्तर मानस पिंड वेदी पर पिंडदान करने से पितरों को सूर्य लोक की प्राप्ति होती है। उत्तर मानस पिंड वेदी को पिता महेश्वर पिंड वेदी के नाम से भी जाना जाता है।
उत्तर मानस वेदी 5 गुणों का सरोवर है। जिसके तट पर तर्पण और श्राद्ध कर्म कांड किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि यहां श्राद्ध कर्म कांड करने के उपरांत यहां के तालाब के उत्तर भाग में सूर्य भगवान के दर्शन करने से पितर सूर्य लोक को प्राप्त हो जाते हैं और उनको मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस धार्मिक मान्यता का अनुसरण करते हुए प्रति वर्ष लाखों श्रद्धालु उत्तर मानस पिंड वेदी पर अपने पितरों के उद्धार के लिए पिंडदान करते हैं।
रामगया /सीताकुंड वेदी
माता सीता द्वारा पिंडदान करने की बात सुनकर भगवान श्रीराम काफी क्रोधित हुए। उन्होंने जौ का आटा व अन्य सामग्री का पिंड बनाकर पिता राजा दशरथ कापिंडदान कर्मकांड के साथ किया। जो आज राम गया वेदी के नाम से जानी जाती है, जहां आज भी लोग जौ का आटा व अन्य सामग्री का पिंड बनाकर पिंडदान करते हैं। उक्त वेदी तक पहुंचने के लिए सीताकुंड मुख्य गेट से जाने के बाद पत्थर की सीढ़ी चढऩे के बाद पूर्व दिशा की ओर मुड़ जाएं। वहीं पर राम गया वेदी है, जहां श्रद्धालु पिंडदान करने के बाद पिंड को अर्पित करने पहुंचते हैं।

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, धर्म, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। लेखक स्वयं चारों धाम की यात्रा कर गया जी के तथ्यों से अवगत हुआ है।
वॉट्सप नं.+919412300183



Wednesday, November 12, 2025

आस्था-इतिहास-पर्यटन का संगम:लक्ष्मण पथ, पंचवटी द्वीप और पीपा पुल की परिकल्पना✍️आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

जबसे भगवान श्रीराम अयोध्या में अपने भव्य मंदिर में विराजे हैं, राम नगरी के इस शहर में श्रद्धालुओं का तांता लगा हुआ है। बढ़ती भीड़ और सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने कई परियोजनाओं की शुरुआत की है।अयोध्या आज देश और दुनिया का बड़ाआध्यात्मिक केंद्र बन चुकी है। राम मंदिर निर्माण के बाद यहां आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। इस स्थिति में प्रशासन ऐसे सभी प्रोजेक्टों पर काम कर रहा है जो शहर को सुव्यवस्थित, आकर्षक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बनाएं।आज हम अयोध्या में विकसित हो रहे लक्ष्मण पथ, पंचवटीद्वीप और पीपा पुल की परिकल्पना को साकार होते देख रहे हैं।

1.लक्ष्मण पथ का निर्माण

लक्ष्मण पथ अयोध्या में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बनाया जा रहा एक नया चार-लेन वाला वैकल्पिक मार्ग है। यह लगभग 12 किलोमीटर लंबा होगा और इसकी लागत लगभग ₹200 करोड़ है। इस मार्ग का उद्देश्य गुप्तारघाट से राजघाट तक कनेक्टिविटी में सुधार करना है, जिससे अयोध्या में यातायात प्रबंधन में मदद मिलेगी और अन्य प्रमुख मार्गों जैसे राम पथ, जन्मभूमि पथ, भक्ति पथ और धर्म पथ के साथ एक व्यापक नेटवर्क बनेगा। 

       यह राम पथ, जन्मभूमि पथ, भक्ति पथ, धर्म पथ जैसी अन्य परियोजनाओं और अयोध्या के लिए एक व्यापक सड़क नेटवर्क का हिस्सा हैं। इस पथ के निर्माण के साथ-साथ, भीड़ प्रबंधन को बेहतर बनाने के लिए गुप्तार घाट, उदया पब्लिक स्कूल के सामने और राजघाट पर पार्किंग स्थलों का भी निर्माण किया जाएगा।

       सरयू नदी के तटबंध की चौड़ाई पहले छह मीटर थी, लेकिन अब इसे बढ़ाकर सात मीटर कर दिया गया है। लक्ष्मण पथ की चौड़ाई 18 मीटर रखने का डिज़ाइन तैयार किया गया है। जन्मभूमि पथ, भक्ति पथ और धर्म पथ का निर्माण पूरा करने के बाद, योगी सरकार अब लक्ष्मण पथ के निर्माण की तैयारी कर रही है। इस नए वैकल्पिक मार्ग के लिए एक व्यापक कार्ययोजना तैयार की गई है, जिसका नाम भगवान श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण के नाम पर रखा जाएगा।

2.पंचवटी द्वीप की परिकल्पना

अयोध्या विकास प्राधिकरण (एडीए) श्री निलयम रिसॉर्ट के माध्यम से सरयू के बीच 75 एकड़ में पंचवटी द्वीप का विकास कर रहा है। यह परियोजना अपने आप में अनोखी है क्योंकि इसे भगवान राम के जीवन से जुड़े प्रसंगों पर आधारित थीम पर विकसित किया जा रहा है। इसमें ‘राम की जीवन यात्रा’ पर आधारित प्रस्तुतीकरण, ऋषि कॉटेज, योग- ध्यान केंद्र, सांस्कृतिक मंच, घुड़सवारी की व्यवस्था, एडवेंचर जोन और जैविक खेती के मॉडल स्थापित किए जा रहे हैं। 

       पंचवटी द्वीप को अयोध्या की विश्व-स्तरीय पर्यटन पहचान का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया जा रहा है। यहां धार्मिक कार्यक्रम, सांस्कृतिक आयोजन और योग-ध्यान से जुड़े अंतरराष्ट्रीय समारोह भी आयोजित किए जा सकते हैं। पीपा पुल इसमें प्राकृतिक सौंदर्य और पारंपरिक आकर्षण दोनों का मेल जोड़ देगा। नई परियोजना में सुरक्षा और स्थायित्व पर विशेष ध्यान दिया जाएगा।

3.नया पीपा पुल

एक नया पीपा पुल जमथरा घाट के पास बनाया जाएगा और लक्ष्मण पथ को सरयू नदी के मध्य विकसित किए जा रहे पंचवटी द्वीप से जोड़ेगा। इससे न केवल पर्यटन को नई उड़ान मिलेगी बल्कि श्रद्धालुओं के लिए पहुंच मार्ग भी अधिक सुगम और आकर्षक बनेगा। पीपा पुल पार करने का अनुभव अलग ही होता था। सरयू की धीमी-धीमी लहरों पर झूलता पुल यात्रियों के लिए रोमांच की अनुभूति कराता था। अब वही दृश्य एक आधुनिक और सुरक्षित रूप में फिर सामने आएगा। प्रशासन का मानना है कि यह नया पुल श्रद्धालुओं, पर्यटकों और स्थानीय लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र बनेगा।

       पीपा पुल की मजबूती बढ़ाने के लिए आधुनिक इंजीनियरिंग तकनीकों का प्रयोग होगा। पुल पर पर्याप्त चौड़ाई, रेलिंग और रात्रिकालीन रोशनी की भी व्यवस्था प्रस्तावित है ताकि श्रद्धालु सुरक्षित तरीके से आवागमन कर सकें। अधिकारियों का कहना है कि मानसून के दौरान पुल को सुरक्षित तरीके से हटाने और पुनः स्थापित करने की योजना भी तैयार की जा रही है।  इससे नदी की प्राकृतिक धारा और जलस्तर के अनुसार कार्यप्रणाली को नियंत्रित किया जा सकेगा।

सरयू की धारा पर फिर दिखेगा तैरता पुल

नई परियोजना में सुरक्षा और स्थायित्व पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। पीपा पुल की मजबूती बढ़ाने के लिए आधुनिक इंजीनियरिंग तकनीकों का प्रयोग होगा। पुल पर पर्याप्त चौड़ाई, रेलिंग और रात्रिकालीन रोशनी की भी व्यवस्था प्रस्तावित है ताकि श्रद्धालु सुरक्षित तरीके से आवागमन कर सकें। अधिकारियों का कहना है कि मानसून के दौरान पुल को सुरक्षित तरीके से हटाने और पुनः स्थापित करने की योजना भी तैयार की जा रही है। इससे नदी की प्राकृतिक धारा और जलस्तर के अनुसार कार्यप्रणाली को नियंत्रित किया जा सकेगा।

        पीपा पुल का निर्माण न केवल पुराने अयोध्या की याद दिलाएगा बल्कि नए आधुनिक शहर की सूरत भी संवारने में मदद करेगा। शासन का यह कदम आस्था, इतिहास और पर्यटन के त्रिवेणी संगम का प्रतीक माना जा रहा है।

        आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

वॉट्सप नं.+919412300183