यजुर्वेद की ऋचाओं से हवन करने वाले जिझौतिया
उत्तर और मध्य भारत में रहने वाले ब्राह्मणों का एक समूह है, जो अपने मूल स्थान को 'जिझौति' कहते थे और मुख्य रूप से यज्ञ और अन्य धार्मिक कार्यों के लिए जाने जाते थे। यह समूह यजुर्वेद और सामवेद का ज्ञान रखता है और इनका संबंध बुन्देलखण्ड क्षेत्र से है। जुहोति अर्थात् यज्ञ। यजुर्हुतिः या जुहोतिः जिस धराधाम पर यजुर्वेद की ऋचाओं से हवन किया जाय उसे यजुर्हुतिः या जुहोतिः कहते हैं। जुहोतयः अर्थात् यज्ञकर्ता और रक्षक। ये जुहोतयः यानि जुहोति (यज्ञ) के करने-कराने वाले श्रेष्ठ याज्ञिक ब्राह्मण जो जुहोति देश में निवास करते थे जुहोतिया (जुझौतिया / जिझौतिया) ब्राह्मण के नाम से स्वयं प्रसिद्ध हुए। जुहोतिया ब्राह्मण आदि ब्राह्मण हैं क्योंकि इनमें और अन्य ब्राह्मणों में प्रवर समता नहीं है।जिझौतिया ब्राह्मण (जुहोतिया या जुझौतिया ब्राह्मण ) वृहद रूप में जुहोति (यज्ञ) कार्य को सम्पन्न कराने के लिए निमंत्रित किए जाने वाले कुशल याज्ञिक ब्राह्मण के रूप में विख्यात हुए।
दूबे /द्विवेदी के 30 गोत्र
पं o अशोक चतुर्वेदी ने जिझौतिया ब्राह्मणों के उपनाम और उनके अंतर्गत आने वाले गोत्रों की सूची दूबे/ द्विवेदी उपनाम के सर्वाधिक 30 गोत्र बतलाए हैं।
1. कश्यप
2. भरद्वाज
3. भारद्वाज
(मूल ऋषि भरद्वाज थे।भारद्वाज उनके पुत्र शिष्य के लिए प्रयुक्त हो सकता है।)
4. वत्स
5. वशिष्ट
6. शाण्डिल्य
7. सांकृत
8. हरिकर्ण
9. हिरण्य
10. गौतम
11. जातूकर्ण
12. कौशिल
13. कौशल
14. कौशिक
15. घृतकौशिक
16. पाराशर
17. मुद्गल
18. भार्गव
19. वीतहव्य
20. अत्रि - कृष्णात्रि और मौनस
21. कण्व
22. गर्ग
23. लौंगाक्षि
24. पराशर
25. काश्यप
26. अंगिरस
27. अंगिरा
28. जैमिनी
29. वार्हस्पत्य
30. सांख्यायन
31. उपमन्यु
1.गार्गेय गोत्र
गार्गेय गोत्र ऋषि गर्ग से संबंधित है, और यह भारद्वाज गोत्र का एक हिस्सा है। इसका अर्थ है "गर्ग गोत्र का पुरुष" और यह गर्ग नामक ऋषि के वंशजों का गोत्र है। इन्हें कृष्ण गौड़ ब्राह्मण और शुक्ल जैसे उपनामों से भी जाना जाता है। कुछ क्षेत्रों में, इन्हें जोशी उपनाम से भी पहचाना जाता है क्योंकि ये ज्योतिष शास्त्र में विशेषज्ञता रखते थे, और कुछ को गुरु के नाम से भी जाना जाता है। इनका जन्म भारद्वाज और सुशीला से हुआ था। ये ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तकों में से एक माने जाते हैं, और कहा जाता है कि उन्होंने भगवान श्री कृष्ण का नामकरण संस्कार किया था। कृष्ण का नामकरण करने के कारण, गर्ग ब्राह्मणों को "कृष्ण द्विज गौड़" के रूप में जाना जाता है, जो राजस्थान, मध्य प्रदेश और हरियाणा जैसे क्षेत्रों में प्रचलित है।
शास्त्रों के अनुसार गर्ग ऋषि का एक अन्य नाम शुक्ल भी था, इसलिए उनके वंशजों को शुक्ल उपनाम मिला। गर्ग ऋषि की ज्योतिष विद्या में गहरी विशेषज्ञता के कारण, राजवंश अपने ज्योतिषियों को "गर्गाचार्य" की उपाधि देते थे, और आज भी गर्ग ब्राह्मण समुदाय का मुख्य कार्य ज्योतिष विद्या से जुड़ा है। यह गोत्र यजुर्वेद से जुड़ा है और यह अग्रवाल समुदाय में सबसे आम गोत्रों में से एक है। गार्गेय गोत्र का संबंध महर्षि गर्ग और विदुषी गार्गी से है, जो अपने समय की एक महान ब्रह्मज्ञानी थीं।
2.गौतम गोत्र
गौतम गोत्र महर्षि गौतम से संबंधित है, और यह ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों समुदायों में पाया जाता है। ब्राह्मणों के लिए, यह गोत्र 'गौतम धर्मसूत्र' के रचयिता से जुड़ा है। क्षत्रियों के लिए, यह एक सूर्यवंशी राजपूत वंश है और इसके सदस्यों को गौतम क्षत्रिय कहा जाता है। यह गोत्र भारत के विभिन्न हिस्सों में पाया जाता है, विशेष रूप से उत्तरी और पूर्वी भारत में। कुछ लोग अपना अंतिम नाम 'गौतम' लिखते हैं, लेकिन अन्य ब्राह्मण उपनाम भी प्रचलित हैं जैसे कि शर्मा, मिश्रा या भट्ट।
3.भारद्वाज गोत्र
प्रयाग शहर में आनंद भवन के समीप विश्वगुरु महर्षि भरद्वाज मुनि का आश्रम है। वे अंगिरा कुल के देव वृहस्पति के पुत्र थे। ब्रह्मा इंद्र वृहस्पति के बाद वे चौथेव्याकरण वेत्ता थे। अंगिरा की चार पत्नियों में सुरूपा से वृहस्पति का जन्म हुआ था। बृहस्पति के तीन पत्नियां थी जिसमें ममता के गर्भ से भारद्वाज का जन्म हुआ था। उन्होंने व्याकरण का ज्ञान इंद्र से प्राप्त किया था और धर्म का ज्ञान भृगु से प्राप्त किया था।बाल्मीकि भरद्वाज के गुरु थे और रामायण का प्रचार भी भरद्वाज जी ने किया था।
प्रयाग स्थित भरद्वाज आश्रम जहां त्रेता युग में 10 हजार विद्यार्थी अध्ययन करते थे। प्रभु श्रीराम वनवास जाते और लौटते समय महर्षि भरद्वाज का आशीर्वाद लेने उनके इसी आश्रम आए थे। महर्षि भरद्वाज को विश्व का प्रथम कुलाधिपति और कुलपति कहा गया है। प्रयाग को बसाने का श्रेय भी उन्हीं को है।ऋषि भरद्वाज प्राचीन विमान शास्त्र के रचयिता हैं और उन्होंने ही भगवान श्री राम को चित्रकूट का मार्ग बताया था। भरद्वाज की दस संतानें थीं -
ऋजिष्वा, गर्ग, नर, पायु, वसु, शास, शिराम्बिठ, शुनहोत्र, सप्रथ और सुहोत्र। रात्रि और कपीसा उसकी पुत्रियां थी।
यवकीर्ति भी थोड़ा अलग स्वभाव का उनका पुत्र था जिसे रैभ्य ऋषि ने अपने क्रोधाग्नि में भस्म कर दिया था। दुखी मन से ऋषि ने पुत्र का अंतिम संस्कार किया और उसी चिता में खुद भी जल गए। उसी समय भारद्वाज के शाप से रैभ्य ऋषि भी अपनी संतान परावसु के हाथ मृत्यु को प्राप्त हुए थे। रैभ्य का पुत्र परावसु अपने पिता जो काले कम्बल ओढ रखे थे,को मृग समझ कर बाण चला कर हत्या कर दिया था।बाद में खुद भी आत्म हत्या कर लिया था।
उनके 10 संतानें थीं।
'भरद्वाज नाम सदैव संज्ञा होता है, जबकि भारद्वाज विशेषण- शब्द है, जिसका अर्थ 'भरद्वाज-कुल/गोत्र में उत्पन्न है, जबकि 'भरद्वाज संज्ञा का शब्द है, जिसका अर्थ 'एक गोत्र-प्रवर्तक मंत्रकार ऋषि है। बाद में वर्तनी पर ध्यान न देने के कारण 'भरद्वाज' को भारद्वाज लिखा जाने लगा। भारद्वाज गोत्र की उत्पत्ति वैदिक ऋषि भरद्वाज से मानी जाती है, जो सप्तऋषियों में से एक थे। यह गोत्र कई जातियों में पाया जाता है, जिनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, राजपूत, मराठा, और राजभर शामिल हैं।
'भरद्वाज'/भारद्वाज गोत्र के तीन प्रवर हैं:
आंगिरस, बार्हस्पत्य, और भारद्वाज। भरद्वाज, गर्ग, रौक्षायण और और्व-ये चारों भारद्वाज कहे जाते हैं। इनका परस्पर विवाह सम्बन्ध नहीं होता है। इस गोत्र के लोग ज्ञान, बुद्धिमत्ता और वैदिक परंपराओं से जुड़े होने के लिए जाने जाते हैं। कुछ उपनाम, जैसे "पाठक", भी भारद्वाज ऋषि के गुरुकुल में शिक्षण परंपरा को आगे बढ़ाने वाले उनके वंशजों से जुड़े हैं। भारद्वाज गोत्र की कुलदेवी बिन्दुक्षणी मां हैं, जिनका मंदिर गुजरात के पाटण शहर में है।
4. कश्यप गोत्र
कश्यप गोत्र ऋषि कश्यप से उत्पन्न हुआ है, जो सप्तर्षियों में से एक थे। उन्हें देवताओं, दैत्यों, नागों और अन्य जीवों का पिता माना जाता है। कश्यप गोत्र की उत्पत्ति ब्राह्मणों की आठ प्रमुख गोत्रों में से एक के रूप में हुई, लेकिन बाद में कई अन्य समुदायों द्वारा भी इसे अपनाया गया। यह गोत्र ब्राह्मणों के अलावा अन्य वर्णों में भी पाया जाता है, जिनमें क्षत्रिय, निषादवंशी (जैसे धीमर, कहार, मल्लाह) शामिल हैं। भारत में कई जातियों के लोग इस गोत्र से संबंधित हैं। प्रारंभ में यह गोत्र उत्तर-पश्चिमी भारत में पाया जाता था, लेकिन बाद में मध्य और पूर्वी भारत के कई हिस्सों में फैल गया, जिनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और ओडिशा शामिल हैं। कश्यप गोत्र की कुलदेवी मां अदिति हैं, जो ऋषि कश्यप की पत्नी थीं।
5. वत्स गोत्र
वत्स गोत्र एक प्राचीन ऋषि-कुल है, जो ऋषि वत्स के नाम पर आधारित है, जो महर्षि दधीचि के पुत्र थे। यह गोत्र ब्राह्मण समुदाय से संबंधित है और कई अन्य समुदायों में भी पाया जाता है, जैसे कि भूमिहार और जाट। इस गोत्र की उत्पत्ति वत्स ऋषि से हुई, जिनके कई वंशज हुए।
:इस गोत्र के लोग विभिन्न उपाधियों का प्रयोग करते हैं, जैसे कि वात्स्यायन। यह गोत्र जम्मू, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, असम, नेपाल, और महाराष्ट्र सहित कई क्षेत्रों में फैला हुआ है। यह गोत्र ब्राह्मणों के साथ-साथ भूमिहार और जाट समुदायों से भी जुड़ा हुआ है। वत्स गोत्र का उल्लेख प्राचीन बौद्ध ग्रंथों और महाकवि बाणभट्ट की रचनाओं में भी मिलता है।
6.अत्रि (कृष्णात्रि) गोत्र
कृष्णात्रि एक गोत्र है, जो अत्रि ऋषि गोत्र से संबंधित है और कुछ समुदायों में इसके अलग प्रवर भी हैं। यह उत्कल ब्राह्मणों में एक गोत्र है। कृष्णत्रेय और कृष्णात्रि एक ही गोत्र के दो रूप हैं।
अत्रि गोत्र: यह ऋषि अत्रि और उनकी पत्नी देवी अनसूया से उत्पन्न हुआ है, और उन्हें ऋग्वेद के पाँचवें मंडल का द्रष्टा माना जाता है। अत्रि गोत्र के तीन प्रवर हैं: आत्रेय, अर्चननस और शावाश्व। इस गोत्र से जुड़े कुछ सामान्य उपनाम तिवारी और पांडे हैं।
कृष्णात्रि: यह ऋषि दुर्वासा से संबंधित है, जो अत्रि के पुत्र थे और भगवान शिव के अवतार माने जाते हैं। कृष्णात्रि को अत्रि गोत्र का उपगोत्र माना जाता है। कुछ कृष्णात्रि ब्राह्मण यजुर्वेद की माध्यंदिन शाखा से संबंधित हैं। यह गोत्र कई समुदायों में पाया जाता है, जिसमें 'रथ' उपनाम वाले उत्कल ब्राह्मण, जिझौतिया ब्राह्मण, और देशस्थ ब्राह्मण शामिल हैं। आत्रेय और कृष्णात्र (अत्रि) गोत्र की कुलदेवी विकरा माता हैं, हालांकि आज उनका स्थान अज्ञात है।
7. कौशिक गोत्र
कौशिक गोत्र ऋषि विश्वामित्र से जुड़ा है, जो पहले क्षत्रिय राजा थे और बाद में ब्रह्मर्षि बने। यह गोत्र ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों समुदायों में पाया जाता है। इस गोत्र के प्रवर में भार्गव, शुक्राचार्य, ऋचीक, जमदग्नि और परशुराम जैसे ऋषि शामिल हैं, और विश्वामित्र, कश्यप और अत्रि को भी इसके पूर्वज माना जाता है। ऋषि विश्वामित्र: कौशिक गोत्र का सबसे प्रमुख संबंध ब्रह्मर्षि विश्वामित्र से है, जो एक राजा थे और बाद में ब्रह्मर्षि बने। विभिन्न समुदाय: यह गोत्र केवल ब्राह्मणों तक सीमित नहीं है, बल्कि क्षत्रिय और अन्य जातीय समूहों में भी पाया जाता है।
8.कण्व गोत्र
कण्व गोत्र एक ब्राह्मण गोत्र है जो प्राचीन ऋषि कण्व के नाम पर है। इस गोत्र से जुड़े लोगों में ऐतिहासिक रूप से कण्व वंश के शासक शामिल थे, जिन्होंने 73 ईसा पूर्व से 28 ईसा पूर्व तक मगध पर शासन किया था। इसके अतिरिक्त, यह गोत्र कुछ गंगवार क्षत्रिय जातियों से भी जुड़ा हुआ है। यह गोत्र अन्य ब्राह्मण परिवारों में भी पाया जाता है, जो ऋषि कण्व के वंशज होने का दावा करते हैं।
9.मौनस गोत्र
मौनस एक ब्राह्मण गोत्र है जो आत्रेय गोत्र के उपगोत्रों में से एक है। यह एक प्राचीन गोत्र है जिसके बारे में कई पारंपरिक कथाएँ प्रचलित हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, मौनस को एक ऋषिय तुल्य व्यक्ति के रूप में माना जाता है।
प्रवर: इस गोत्र के तीन प्रवर हैं: मौनस, भार्गव और वीतहव्य।
10. उपमन्यु गोत्र
उपमन्यु एक हिंदू ब्राह्मण गोत्र है, जिसकी उत्पत्ति ऋषि उपमन्यु से मानी जाती है, जो शिव के महान भक्त थे। इस गोत्र के लोग नेपाल के सुदूर पश्चिमी भाग और जम्मू-कश्मीर के पूर्वी भागों में पाए जाते हैं। कुछ स्रोतों में यह भी उल्लेख है कि उपमन्यु गोत्र मूल रूप से कश्यप गोत्र था और द्वापर काल में ऋषि उपमन्यु के नाम पर पड़ा। यह गोत्र ऋषि उपमन्यु से जुड़ा है, जिन्हें भगवान शिव के भक्त के रूप में जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, उन्होंने अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए गायों की देखभाल की और भूख से तड़पते हुए शिव कीआराधना की, जिसके बाद शिव ने उनकी रक्षा की।
इस गोत्र के लोग मुख्य रूप से नेपाल के सुदूर पश्चिमी भाग और जम्मू-कश्मीर के पूर्वी भागों में रहते हैं। उपमन्यु गोत्र कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में पाया जाता है। अवस्थी उपनाम वाले जिझौतिया ब्राह्मणों में भी उपमन्यु गोत्र शामिल है। बिहार में, कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में इस गोत्र के लोग पाठक, ओझा, उपाध्याय, तिवारी और दुबे जैसे उपनामों का उपयोग करते हैं।
विशेषता: उपमन्यु गोत्र के लोगों को सोम यज्ञ (सोम यज्ञ एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है जो समृद्धि और कल्याण के लिए किया जाता है) करने वाले 'सोमयाजी' के रूप में भी जाना जाता है।
क्रमशः
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