भारतीय राजनीति में जातियों की भूमिका :- जाति प्रथा अथवा व्यवस्था हिन्दू समाज की एक प्रमुख बुराई है। यह कब और कैसे शुरू हुई, इस पर अत्यन्त मतभेद है। आधुनिक भारत में धर्म और जाति की सामाजिक श्रेणियां ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान प्रचलन में थीं। इसका विकास शुरुआत में मनुस्मृति और ऋगवेद जैसे धर्मग्रंथों को बिना समझे दोषारोपित किया जाता रहा है। 19वीं शताब्दी के अंत तक इन जाति श्रेणियों को जनगणना की मदद से मान्यता दी गई।
श्रम विभाजन पर आधारित होने के कारण इससे श्रमिक वर्ग अपने कार्य मे निपुण होता गया क्योकि श्रम विभाजन का यह कम पीढियो तक चलता रहा था। इससे भविष्य - चुनाव की समस्या औरबेरोजगारी की समस्या भी दूर हो गए। इसके बावजूद जाति प्रथा मुख्यत: एक बुराई ही है। इसके कारण संकीर्णता की भावना का प्रसार होता है और सामाजिक , राष्ट्रिय एकता मे बाधा आती है जो कि राष्ट्रिय और आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक है
भारतीय राजनीति में जाति अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह न केवल सामाजिक संरचना का हिस्सा है, बल्कि चुनावी राजनीति में भी एक प्रमुख कारक भी है। यह भारतीय समाज में सदियों से मौजूद है, जिसने राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए मतदाताओं को आकर्षित करने के एक उपकरण के रूप में काम किया है। जातीय दलों के बीच प्रतिस्पर्धा अक्सर संघर्ष और हिंसा का कारण बनती है।
मोटे तौर पर, भारतीय जातियां - अगड़ी जातियों , अन्य पिछड़ा वर्ग , अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में विभाजित हैं । भारतीय ईसाई औरभारतीय मुसलमान भी जातियों के रूप में कार्य करते हैं। अब तो दलित, अति दलित, पिछड़ी, अति पिछड़ी, पी डी ए आदि ना जाने कितनी जातियों की संरचना नेताओं ने उत्पन्न कर दी है। इसका पोषण भारतीय संविधान द्वारा होता है और इस को प्रोत्साहन हमारी कॉलेजियम वाली न्याय व्यवस्था करती रहती है। जातीय दलों की भूमिका भारत की राजनीति में जटिल और विवादास्पद बना दिया है।
जाति व्यवस्था के विविध प्रभाव:--
1.मतदाताओं को प्रभावित करना:
राजनीतिक दल अक्सर जातिगत भावनाओं को भड़काकर और अपने- अपने समुदायों के उम्मीदवारों को समर्थन देने के लिए मतदाताओं को प्रोत्साहित करके वोट हासिल करने का प्रयास करते हैं। नेता अक्सर जातिगत आधार पर मतदाताओं को लुभाने के लिए वादे करते हैं, जैसे कि मुफ्त बिजली मुफ्त आवास, मुफ्त पानी, हर परिवार को सरकारी नौकरियों, मुफ्त शिक्षा और अन्य लाभों का वादा किया जाता है। कभी कोई एकाध वादा पूरा कर दिया गया,जबकि अधिकांश वादे ही रह जाते हैं।
2.टिकट वितरण:-
राजनीतिक दल अक्सर उम्मीदवारों का चयन करते समय उनकी जातिगत संबद्धता पर विचार करते हैं, खासकर उन क्षेत्रों में जहां विशिष्ट जातियों का मजबूत प्रभाव है। वे ऐसा इस कारण करते हैं कि विभिन्न जातियों के लोगों को खुश किया जा सके, उनको ध्रुवीकरण किया जासके।
3.सरकारी नीतियां:
सरकारें भी अक्सर जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए नीतियां बनाती हैं, खासकर आरक्षण , आवास, गैसकनेक्शन ,राशन वितरण और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के मामले में वोट बैंक का पूरा ख्याल रखा जाता है।
4.राजनीतिक दल:-
कई राजनीतिक दल विशिष्ट जातियों के हितों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं, और इस तरह जातिगत राजनीति को बढ़ावा देते हैं। भारत में कई राजनीतिक दल हैं जो जातीय या सामुदायिक आधार पर बने हैं या उनका समर्थन करते हैं। ये पार्टियां अक्सर अपने समुदाय के हितों को बढ़ावा देने और राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का प्रयास करती हैं। कुछ प्रमुख जातीय दल इस प्रकार हैं- कही दलितों की हिमायती भीम आर्मी है तो कहीं भूमिहार दल कही राजभरों की पार्टी है तो कहीं पटेल दल, कहीं पट्टीदार पार्टी है । ऐसे ही दलित पिछड़ों और जनजातियों की बहुजन समाजवादी पार्टी, यादवों की समाजवादी पार्टी,तमिलनाडु में द्रविड़ समुदाय की डीएमके प्रतिनिधित्व करती है। पश्चिम बंगाल में मुस्लिम और बंगाली समुदाय का प्रतिनिधित्व टीएमसी करती है। बिहार में यादव समुदाय और अन्य पिछड़ी जातियों का राजेडी प्रतिनिधित्व करती है। बिहार में ही कुशवाहा और कुर्मी समुदायों का प्रतिनिधित्व जेडीयू करती है। बिहार में पासवान समुदाय का प्रतिनिधित्व लोक जनशक्ति पार्टी करती है। महाराष्ट्र में मराठा समुदाय का प्रतिनिधित्व शिव सेना और मनसा करती है। महबूबा मुफ्ती का संगठन जम्मू और कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पी॰डी॰पी॰) का गठनमुस्लिम हितों के लिए गठन किया। ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन के असदुद्दीन ओवैसी मुस्लिम जातियों के प्रमुख हैं। जम्मू और कश्मीर में कश्मीरी पंडितों और अन्य समुदायों का प्रतिनिधित्व नेशनल कांफ्रेंस करती है।
5.जातीय जनगणना के आधार उम्मीदवारी :- सभी राजनैतिक दल जातीय गणना के आधार पर उम्मीदवारों को तय करने लगे। वर्तमान समय में जातीय आधार पर राजनैतिक दलों के गठन का प्रमुखआधार है। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड आदि इसके प्रमुख उदाहरण हैं। दलीय संगठन में विचारधारा भी प्रमुख भूमिका निभाती है।नेताओं द्वारा की जा रही जातीय राजनीति, भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। राजनेता अक्सर मतदाताओं को आकर्षित करने और वोट बैंक बनाने के लिए जातीय भावनाओं का उपयोग करते हैं, जिससे समाज में विभाजन पैदा होता है। नेताओं द्वारा जातीय राजनीति का उपयोग एक ऐसी रणनीति है जिसमें राजनीतिक दल और नेता मतदाताओं को लुभाने के लिए जातिगत भावनाओं और पहचान का उपयोग करते हैं। यह भारत जैसे बहु- जातीय समाज में एक आम बात है, जहां जाति एक महत्वपूर्ण सामाजिक कारक है।
6.सामाजिक जातिगत विभाजन:-
जातिगत राजनीति सामाजिक विभाजन को बढ़ा सकती है और राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा पैदा कर सकती है। जातीय राजनीति कभी-कभी जातिगत विभाजन और दुश्मनी को बढ़ावा दे सकती है, जिससे समाज में तनाव बढ़ सकता है।
7.भ्रष्टाचार:-
जातिगत राजनीति में, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा मिल सकता है, क्योंकि राजनीतिक दल अपने जातिगत समर्थकों को लाभ पहुंचाने का प्रयास करते हैं। इसके लिए गलत सही सब तरीके अपनाए जाते हैं।
8.विकास पर प्रभाव:-
जातिगत राजनीति विकास की गति को धीमा कर सकती है, क्योंकि राजनीतिक दल अक्सर जातिगत हितों को राष्ट्रीय हितों से ऊपर रखते हैं। भारत में अनेक संगठन इस विचार में डूबकर अपना लोकतांत्रिक अस्तित्व खोते जा रहे हैं।
निष्कर्ष :-
संक्षेप में, जाति भारतीय राजनीति में एक जटिल और बहुआयामी भूमिका निभाती है। यह एक तरफ मतदाताओं कोप्रभावित करने और राजनीतिक दलों के लिए एक उपकरण के रूप में काम करती है, तो दूसरी तरफ सामाजिक विभाजन और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे सकती है।
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। (मोबाइल नंबर +91 8630778321; वॉर्ड्सऐप नम्बर+91 9412300183)
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