मैंने एक बार उप्र के तत्कालीन अलीगढ़ जिले ( संभवतः वह -अब हाथरस जिले के अंतर्गत होगा) में एक विशेष योजनगयाके अंतर्गत 32 ग्रामों का भ्रमण किया था। उनमें से एक गाँव परसरा (परशरा) था। ऐसे नामधारी अनेकों ग्राम मैं पहले भी सुन चुका था और मुझे विचार आया कि यह छोटी बस्ती शैवाचार्य पाराशरेश्वर के मतावलंबियों की होगी। मेरे साथ लाखनू-पुरा के एक सहयोगी भी थे जिन्होंने कुछ ग्रामीण साथ मे ले लिये थे। मैंने उन ग्रामीणों से पूँछा कि क्या यहाँ भगवान शिव के कुछ विशिष्ट उपासक जन भी रहते हैं तो उन्होने एक छोटी सी बस्ती की ओर इंगित करते हुये बताया कि यह बस्ती है जिन्हें हम बाबाजी कहते हैं, जोगी भी कहते हैं। इनकी छोटी छोटी मढ़ियाँ भी हैं। ये लोग काँवड़ लेकर चलते रहते हैं। सावन में विशेषकर इनके साथ और लोग भी जल लेने और जगह जगह थानों ( शिवालयों) में चढ़ाने जाते हैं । उस समय वहाँ उनके 18-20 घर थे किंतु अधिकांश लोग बाहर गये हुये थे। प्राचीन काल से योगी या जोगी ( योग साधना करने वाले), यति (जती ईश्वरोपासना के यत्न या जतन करने वाले), तपस्वी या तपसी ( तप या तपस्या करने वाले जिसमे व्रत, उपवास,आसन, शयन, एकांतवास, ठंढ या ताप सहने की अनेकानेक प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है।), मुनि ( मौन साधक) आदि ईश्वरोपासक संप्रदायों की परंपरा रही है। यह भारतवर्ष की विशेषता रही है कि सामान्य जन सदैव इनसे जुड़कर इनकी देखभाल एवं सुविधा का ध्यान रखता रहा है । सामान्य जन गृहस्थ धर्म का पालन करते हुये जोगी -जती आदि साधकों के साथ मिलकर उनके समारोहों को भी भव्य बनाता रहा है और इसी क्रम में वह इनके साथ यात्रा आदि पर भी निकलने लगा तथा अन्य तीर्थों का भ्रमण कर साधु-संतों के दर्शन तथा तीर्थयात्रा का प्रसाद लेने लगा।
यह सब किसी विशिष्ट ईश्वर ब्रह्म या देवी देवता की अवधारणा से नहीं अपितु लोक धर्म का हिस्सा था जो सभी को साथ देने की भारतीय मानसिकता की उपज से संभव होता था । यहाँ कोई विग्रह- मतांतर अथवा पृच्छा नहीं होती है केवल सहयोग ही सहयोग, कोई मतभेद, नहीं कोई विकार नहीं। यह सहिष्णुता एवं समरसता की जीवन शैली थी। काँवड़ परंपरा पूरे भारत में देखी है जिसमें अब कोई जाति, कुल, पूजा-पद्धति, धार्मिक विधि आदि निर्णायक या बाधक नहीं होते हैं।
यह सामान्य प्रचलन एवं मास विशिष्ट के सामुदायिक कार्यक्रम हैं। प्राचीन काल में भारत सामुदायिक जीवन के क्षेत्र में अग्रणी रहा है जबकि आधुनिक वातावरण आइसोलेसन एवं न्यूक्लियर परिवार का पक्षधर है इसलिए सामुदायिक समारोह आजकल हुल्लड़बाजी के पर्याय माने जाने लगे हैं। चूँकि प्राचीन सामुदायिक समारोहों के अनुशासन, नियमों एवं रीतियों से आधुनिक समाज के लोग परिचित नहीं हैं और नवीन उपकरणों का अनधिकृत प्रयोग एवं समावेश कांवड़ यात्रा ही क्या विवाह एवं अन्य संस्कारों के समारोहों को फूहड़ एवं असामाजिक बना दिया है। विवाहोत्सव इतना भद्दा एव असभ्यता से भरपूर हो गया है कि वहां दस मिनट भी खडे़ रहने की इच्छा नहीं होती है। भारत में शिव उपासना बहुत प्राचीन काल से चल रही है। सच कहें तो यह एक प्रकार से लोक धर्म भी था।
कालांतर में इसमें पाशुपत, कापालिक, मत्तमयूर , अघोरादि पाँच व्यवस्थित साधना वाले सम्प्रदाय विकसित हुये। पाशुपत सम्प्रदाय का उत्थान गुजरात के आचार्य लकुलीश की महत्ता से हुआ जो ओडिसा से लेकर सम्पूर्ण उत्तर भारत में फैल गया । इसी सम्प्रदाय में आचार्य पराशर नामक महान् शैवाचार्य हुये जिनके नाम से पाराशरेश्वर नामक अनेकानेक शिवमंदिर भी मिलते है एवं परसरा , परसौंजा आदि अपभ्रंश नामों वाले सेटलमेंट या गांव भी मिलते हैं जो इस संप्रदाय के अनुसरण करने वालों के जीवंत केंद्र थे। समय के साथ यद्यपि विशिष्ट साधना सम्प्रदाय ओझल हो गये किंतु लोकमत में उनकी मान्यता बनी रही और यह सब मनुष्य की जीवन शैली में रच बस गया इस प्रकार रुद्र या शिव के जलाभिषेक हेतु कांवड़ यात्रा लोकजीवन का अभिन्न अंग बन गयी।
समय के साथ आस्थाहीन लोग भी जन्मते हैं। बहुत से अर्थकामी जन इसे बकवास समझते हैं। कुछ लोग काँवड़ यात्रियों में IAS, PCS और राजनेता खोजते हैं और न मिलने पर कांवड़धारियों को पिछडा़ हुआ मानते हैं। कुछ कहते हैं कि इनमें तो पार्षद, विधायक या सांसद या पूँजीपतियों के के बेटे हैं ही नहीं यह तो देहाती -गंवारों का ही काम है। सच माने तो यही निर्भय देहाती गंवार लोग ही इस देश के रक्षक हैं यही धर्म रक्षक हैं। यही परंपराओं के वाहक हैं। भारत सरकार से सविनय निवेदन है कि सभी देहाती- गंवारों को पर्याप्त धन, अन्न, घृत, तैल,दाल, आदि खाद्य वस्तुओं की व्यवस्था सदा के लिये करवा दें, आर्थिक आधार की सीमा बढा़ दें ताकि वे निश्चिंत होकर राष्ट्रनिष्ठा से संयुक्त हों और लोकधर्म एवं संस्कृति का संरक्षण करते रहें। तथाकथित शिक्षित वर्ग सवाल लेकर पैदा होता है एवं समाधान विहीन ही चल बसता है क्योंकि वह सामुदायिक जीवन के रस से अनभिज्ञ होता है। हमारे देश में राजनीतिक परिदृश्य स्वार्थपरता के कारण परिवर्तित हो गया है । वर्ग संघर्ष को पोषित करने वाले व्यक्ति शीघ्र ही राजनीतिक उपलब्धि अर्जित कर लेते हैं। भारत की समरसता का आधार यहाँ का सामुदायिक जीवन रहा है जहाँ वर्ष भर ऋतु आधारित आहार विहार एवं जीवन चर्या प्रतिपादित हुई है एवं इन सभी पर्वों तथा धर्म साधना के आयोजनों में सहभोज की सिफारिश की गयी है। किंतु वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में इन सब आयोजनों पर टोकाटांकी और छिद्रान्वेषण से वातावरण प्रदूषित होता रहता है।
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, के विविध मंडलों : भुवनेश्वर, आगरा, भोपाल और चंडीगढ़ आदि में अपनी सेवा देते देते चंडीगढ़ से अधीक्षण पुरातत्वविद पद से सेवा मुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के गौतम बुद्ध नगर नोएडा में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। )
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