देवरहवा बाबा का आचार्य श्रीराम शर्मा के प्रति कैसा नजरिया था और कैसा उनका अनुभव था ? इन सबको दिखाता है ये दुर्लभ प्रसंग --
बात उस समय की है जब दोनों महानुभावों का इस भू धरा पर भौतिक अस्तित्व था। तब आचार्य श्री राम शर्मा जी तपोभूमि मथुरा में निवास कर रहे थे और देवरहवा बाबा वृन्दावन के तट पर अपना आसान जमाये हुए थे। एक दिन आचार्य जी अपने प्रमुख शिष्यों में से एक श्री रमेश चन्द्र शुक्ल से बोले," मैं किसी से मिलने वृन्दावन जा रहा हूं।मेरे लिए एक रिक्शा ले आओ। मैं कुछ घंटों में लौट आऊंगा।" वे रिक्शे से वृन्दावन को चल पड़े। रमेश चन्द्र गुरुदेव को भागवत स्वरूप ही मानते थे। उनके में में जिज्ञासा उठी की किसी को मिलना था तो उन्हें ही आना चाहिए था।ऐसा कौन है जिससे गुरुदेव खुद मिलने जा रहे हैं?
कौतूहल वश उन्होंने भी एक रिक्शा किया तथा आचार्य जी के पीछे चलते रहे। आचार्य श्री बाबा जी के डेरे पर जा पहुंचे। बाबा स्वम् प्रवेश द्वार पर प्रतीक्षा रत खड़े थे।शुक्ल जी ने दूर से देखा कि दोनों ने परस्पर अभिवादन किया तथा एकान्त में बैठकर थोड़ी देर तक बात करते रहे। उसके बाद आचार्य जी पुनः रिक्शे पर बैठे और वापस चल पड़े। शुक्ल जी चुपचाप दूर से देखते रहे। शुक्ल जी का शंका समाधान हुआ , ....तो देवरहा बाबा से मिलने चले आए थे आचार्य जी।इसी बहाने हम भी आये तो चले मिलते हुए प्रणाम करते चलें। " वे बाबा के पास पहुंचे और प्रणाम किया। बाबा ने उन्हें देखा और रोष भरे स्वर में बोल पड़े," शर्म नही आती? गुरु का भेद लेने की कोशिस करते हो ।" बाबा की बात सुनकर शुक्ला जी हतप्रभ रह गये। इन्हें हमारे छिपकर आने की बात सब विदित है।हाथ जोड़ कर बोले बाबा ! भेद लेने का में नही था। एक सहज जिज्ञासा जरूर मां में उठी थी कि देखें,की ये कि ये किनसे मिलने जा रहे हैं? कोई भूल हुई तो क्षमा करें।''
बाबा थोड़े शान्त हुए बोले,"तेरे ऊपर उनका विशेष स्नेह है,इसलिए माफ करता हूं। बेटा तू नहीं समझता,वे क्य हैं?'" फिर कहा, मेरा मन इनके दर्शन के लिए व्याकुल हो रहा था। यदि में इनसे मिलने आता, तो सारे शहर में हल्ला हो जाता, इनकी योजना में विघ्न पड़ता। इसलिए मैंने मन ही मन इनसे प्रार्थना की थीं कि मैं तो पहुंच ही नहीं सकता । आप ही कृपा करके दर्शन दे जांय। उनने मेरा मन रखा और दर्शन दे गए। वो तो मेरे हृदय में बसते हैं ।
देवरहा बाबा से कब भी कोई युग निर्माण कार्यकर्ता मिलता है तो वे बहुत प्रसन्न होते हैं। कार्यकर्ता मां में जो भी इच्छा लेकर जाते, उसे वे विना पूछे ही पूरी करते। एक कार्यकर्ता ने पूछा - कृपया आचार्य श्री के बारे में कुछ बताएं। वे हंसकर बोले-उनके पास से तुम आए हो। उनके बारे में तुम बटाओगे, में क्या बताऊंगा?वो तो मेरे हृदय में बसते हैं।"
सहस्रार सिद्ध योगी गुरुदेव देवरहवा बना के में आचार्य श्री सहस्रार ही सिद्ध योगी या युग अवतार थे । इस तरह के अवतार ज्ञात इतिहास में केवल दो बार और हुए हैं -एक भगवान बुद्ध और दूसरे आदि शंकराचार्य। यह भी एक अदभुत संयोग है कि बुद्ध और आदि शंकर के अवतरण में बारह सौ साल का अंतर है। बुद्ध ईसा पूर्व चौथी पांचवीं शताब्दी में हुए और शंकराचार्य का कार्यकाल आठवीं नौवी शताब्दी ठहरता है। गुरुदेव का आविर्भाव भी आदि शंकराचार्य के ठीक बारहवीं तेरहवीं शताब्दी बाद ही हुआ।गुरुदेव भी इन सहस्रार सिद्ध योगियों में से एक हैं।जिन्होंने अपने समय की धारा उलट दिया।सहस्रार सिद्ध अवतारी आत्माएं अपने आप को छिपा कर रखती हैं। अपनी विभूतियों को प्रकट नहीं करती हैं।जीवन व्यवहार में वह सामान्य व्यक्तियों जैसी दिखाई देती हैं। गुरुदेव से कृतार्थ होने वाले साधकों की संख्या हजारों लाखों में होगी, लेकिन उनके बारे में शायद ही कोई कह पाता हो कि वह किसी भी समय आसाधारण और विशिष्ट व्यक्ति जैसे दिखाई दिए हों, उनका संसर्ग पिता की तरह आश्वस्त और निश्चिन्त करने वाले सहृदय अभिभावक से अलग प्रतीत होता है। जब देवरहवा बाबा को1990 में गुरुदेव जी के शरीर छोड़ने का पता चला तो वह बोले थे अब इस शरीर की भी जरूरत नहीं रही है । हम भी श्री राम के साथ सूक्ष्म जगत में प्रभु का काम करेंगे। इसके कुछ दिन बाद 19 जून को योगिनी एकादशी के दिन बाबा जी महा समाधि में चले गए।
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