Monday, February 5, 2024

आगरा की सात एतिहासिक नगर संरचनायें डा.राधेश्याम द्विवेदी

        प्रथम: .यमुना तट पर प्राचीन आगरा की सभ्यता विकसित :-
प्राचीन सभ्यताओं का जन्म एवं उदगम नदियों के तटों से प्रारम्भ हुआ है। आदिम युग तथा पौराणिक काल में मानव तथा सभी जीव जन्तु प्रायः जंगलों एवं आरण्यकों में विचरण करते रहे हैं। सभी अपने-अपने आवास चुनते-बनाते, आखेट करते तथा उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों व कन्द-मूल फलादि से भोजन का प्रवंधन करते थे। विश्व की सभी प्राचीन सभ्यतायें नदियों के किनारे ही विकसित, पुष्पित और पल्लवित हुई है। नदियां जहां स्वच्छ जल का संवाहक होती हैं वहीं आखेट, कृषि, पशुपालन तथा यातायात का संवाहिका भी होती हैं। एशिया महाद्वीप का हिमालय पर्वत अनेक नदियों का उद्गम स्रोत रहा है। गंगा, यमुना, सिन्धु, झेलम, चिनाव, रावी, सतलज, गोमती, घाघरा, राप्ती, कोसी, हुबली तथा ब्रहमपुत्र आदि सभी नदियों का उद्गम स्रोत हिमालय ही है। ये सभी हिन्द महासागर में जाकर अपनी लीला समाप्त करती हैं। नदियों के किनारे और दोआब की पुण्यभूमि में ही भारतीय संस्कृति का जन्म हुआ और विकास भी। यमुना केवल नदी नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति की एक जीवन पद्धति भी है। यमुना के तटवर्ती स्थानों में दिल्ली व मथुरा के बाद सर्वाधिक बड़ा नगर आगरा ही है। यह एक प्रसिद्ध एतिहासिक, व्यापारिक एंव पर्यटन स्थल है, जो मुगल सम्राटों की राजधानी भी रह चुका है। यह यमुना तट से काफी ऊँचाई पर बसा हुआ है।
ब्रजक्षेत्र के पावन स्थल :- ब्रजक्षेत्र में यमुना के तट के दोनों ओर पुराण प्रसिद्ध वन और उपवन तथा कृष्णलीला से सम्बन्धित स्थान विद्यमान हैं। यमुना माँट से वृन्दावन तक बहती हुई वृन्दावन को तीन ओर से घेर लेती है। पुराणों से ज्ञात होता है, प्राचीन काल में वृन्दावन में यमुना की कई धाराएँ थीं, जिनके कारण वह लगभग प्रायद्वीप सा बन गया था। उसमें अनेक सुन्दर वनखंड और घास के मैदान थे, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अपने साथी गोपबालों के साथ गायें चराया करते थे। वर्तमान काल में यमुना की एक ही धारा है। इसी के तट पर वृन्दावन बसा हुआ है। यहाँ मध्यकाल में अनेक धर्माचार्यों और भक्त कवियों ने निवास कर कृष्णोपासना और कृष्णभक्ति का प्रचार प्रसार किया है। वृन्दावन में यमुना के किनारों पर बड़े सुन्दर घाट बने हुए हैं और उन पर अनेक मंदिर-देवालय, छतरियां और धर्मशालाएँ है। वृन्दावन से आगे दक्षिण की ओर बहती हुई यह नदी मथुरा नगर में प्रवेश करती है। मथुरा, बृन्दावन,गोकुल तथा बरसाना अदि ब्रजस्थल यमुना के तट पर बसे हुए हैं। यह एक एतिहासिक और धार्मिक स्थान है, जिसकी दीर्घकालीन गौरव गाथा है। यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार धारण किया था, जिससे इसके महत्व की वृद्धि हुई है। यहाँ भी यमुना के तट पर बड़े सुन्दर घाट बने हुए हैं। यमुना के तटवर्ती स्थानों में दिल्ली व मथुरा के बाद सर्वाधिक बड़ा नगर आगरा ही है। कीठम से रुनकता तक यमुना के किनारे एक संरक्षित वनखंड का निर्माण किया गया है, जो सूरदास वन कहलाता है। रुनकता के समीप ही यमुना तट पर सूरकुटी गऊघाट का वह प्राचीन धार्मिक स्थल है, जहाँ महात्मा सूरदास ने 12 वर्षों तक निवास किया था और जहाँ उन्होंने महाप्रभु बल्लभाचार्य से दीक्षा ली थी।
पौराणिक कैलाश:- शहर से करीब 8 किलोमीटर दूर सिकंदरा इलाके में यमुना किनारे से त्रेता युग की घटनाएं जुड़ी हैं। आगरा में भी एक पौराणिक कैलाश नामक पवित्रस्थल, घाट और मन्दिर भी यमुना तट पर स्थित है। जानकार बताते हैं कि‍ इस कैलाश मंदिर की स्थापना तो त्रेता युग में हुई, त्रेता युग में परशुराम और उनके पिता ऋषि जयदग्नि कैलाश पर्वत पर भगवान शिव की आराधना करने गए। यहां यमुना किनारे कैलाश महादेव मंदिर में जुड़वा शिवलिंग स्थापित है। माना जाता है कि त्रेता युग में भगवान परशुराम अपने पिता ऋषि जयदग्नि के साथ कैलाश पर्वत पर कड़ी साधना की थी। उनकी कड़ी तपस्या के चलते भगवान शिव खुश होकर वरदान मांगने को कहा, तो दोनों ने शिव से अपने साथ चलने को कहा। साथ ही मांगा कि शिव हमेशा उनके साथ रहें। इसके बाद शिव ने दोनों पिता-पुत्र को एक-एक शिव लिंग भेंट के रूप में दिया। जब दोनों पिता-पुत्र अग्रवन में बने अपने आश्रम रेणुका के लिए चले (रेणुकाधाम का अतीत श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित है) तो आश्रम से 4 किलोमीटर पहले ही रात में आराम के लिए रूके। अगले दिन सुबह की पहली बेला में हर रोज की तरह नित्य कर्म के लिए गए। इसके बाद ज्योर्ति‍लिंगों की पूजा करने के लिए पहुंचे तो वह जुड़वा ज्योर्ति‍लिंगों वहीं पृथ्वी की जड़ में समा गए। दोनों ने शिवलिंग को उठाने की काफी कोशिश की, लेकिन उसी समय आकाशवाणी हुई कि अब यह कैलाश धाम माना जाएगा। तभी से इस धार्मिक स्थल का नाम कैलाश पड़ गया। लेकिन इस मंदिर का जीर्णोद्धार कई बार कई राजाओं ने भी कराया। यमुना किनारे कभी परशुराम की मां रेणुका का आश्रम हुआ करता था। यह स्थान ऋषि जमदग्नि की पत्नी व भगवान परशुराम की मां रेणुका से भी सम्बन्धित है। कहा जाता है कि आगरा में यमुना किनारे शिवलिंग रखते ही यह धरती के जड़ में समा गया। इसके बाद यह नहीं उठा। तभी से इसे कैलाश महादेव माना जाता है। ऐसी मान्याता है कि शिवलिंग की स्थाेपना खुद भगवान परशुराम और उनके पिता ऋषि जयदग्नि के हाथों की गई थी। आगरा का सदरवन भी महाभारत कालीन स्थान नाम है। श्रृंगी ऋषि के नाम पर सींगना ग्राम तथा यमदग्निकी पत्नी एवं महर्षि परशुराम की माता रेणुका के नाम पर बसे रुनकता (पूर्व नाम रेणुकूट) आदि नाम अपने गर्भ में आगरा का प्राचीन इतिहास सिमटे हुए है।
अगरवन की नगर आयोजनायें – आगरा एक ऐतिहासिक नगर है, जिसका प्रमाण यह अपने चारों ओर समेटे हुए है। इतिहास में आगरा का प्रथम उल्लेख महाभारत के समय से माना जाता है, जब इसे अग्रबाण या अग्रवन के नाम से संबोधित किया जाता था। कहा जाता है कि पहले यह नगर आर्य गृह के नाम से भी जाना जाता था। तौलमीख, पहला ज्ञात व्यक्ति था, जिसने इसे आगरा नाम से संबोधित किया। अगर वन वर्तमान उत्तर प्रदेश का आगरा मंडल है, जो ब्रज क्षेत्र तथा पुरातन शूरसेन महा जनपद का भाग था। यह ब्रह्मर्षि प्रदेश या ब्रह्मावर्त भी कहा जाता था। ब्रजमण्डल के 12 बनों एवं 24 उपबनों में अगर वन को आधार बनाकर ही आगरा आज अपने इस स्वरुप तक पहुंच सका है। इन्हीं में से विल्व बन के प्रतीक के रूप में परम्परागत बल्केश्वर आज भी जीवन्त है। इसका राजनीतिक इतिहास बहुत ही धुंधला है। प्रागैतिहासिक कालीन चित्रित शिलाश्रयों में संस्कृतियां तो बसती थी। किन्तु उनके नगर आयोजन जैसे प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। यद्यपि तत्कालीन स्तरीय कलाकृतियां व मृदभाण्ड परम्परायें पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हुई हैं। महाभारत काल का वटेसर, शौरीपुर, गोकुलपुरा का कंस का किला, कंस का गेट व आसपास आदि के क्षेत्र इसी काल के थे। इन सभी को महत्व नहीं मिल पाया और मथुरा को प्रधानता मिलकर सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र के रुप में विकसित हो गया था। तत्कालीन उत्तरवैदिक व आद्यैतिहासिक काल में चित्रित सिलेटी पात्र परम्परायें काफी विकसित रही हैं। छठी शती ई. पू. का उत्तरी काले चमकीले पात्र परम्परायें यहां बहुतायत से मिल चुकी हैं। आगरा किले के पास रेलवे के विस्तार के समय यहां इस काल की अनेक जैन मूर्तियां मिली हैं, जो लखनऊ संग्रहालय में हैं, इस नगर की वैभव का एहसास कराती हैं।
        द्वितीय: सल्तनतकालीन आयोजनायें:-
1.जयपाल का आगरा किला :- अफगानी आक्रमणकारी मोहम्मद गजनवी के समय आगरा एक सशक्त हिन्दू राष्ट्र था। उसने अपने 17 आक्रमणों में आगरा और मथुरा को भरपूर लूटा था। 10वें अभियान में कन्नौज, कलिंजर व चन्दवार को लूटते समय जयपाल यहां का शासक रहा। इसे 1070 या 1080 ईं में गजनवी ने पराजित किया था। जब यहां वैभव था तो यहां की नगर सन्निवेश व आयोजन भी रहे होंगे, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है। 11वीं शती के ख्वाजा मसूद विन साद विन सलमान ने अपने दीवान में आगरा किला पर आक्रमण के बारे में लिखा है। 1194ई. में माहम्मद गोरी ने भी आक्रमण किया था पर जयचन्द के आंखों में तीर लगने के कारण बाजी पटल गई थी। इसकी पुष्टि हेनरी इलियट ने अपने विवरण 4/402 में किया है। उस समय आगरा किला एक पहाड़ी रेत पर बना हुआ था। मोहम्मद तुगलक के समय वियना समस गर्वनर ने बयाना को अपना केन्द्र बनाया। उस समय आगरा एक तहसील रही। 1475 ई. में बादल सिंह ने आगरा के किले की ज्रह पर बादलगढ़ का निर्माण कराया था। बाद में सिकन्दर लोदी ने आगरा को बयाना से हटवा दिया। लगभग एक साल तक आगरा धौलपुर तथा ग्वालियर के अधीन रहा। उसने आगरा किले का काया कल्प कराया था। इसे सिकन्दर लोदी का किला भी कहा जाता है। इसी समय उसने आगरा में न्यायालय की स्थापना कराई थी। हुमायूं के समय शेरशाह सूरी के पुत्र सलीमशाह सूर ने भी इस किले में काम करवाया था।
2.आगरा नगर की नींव :- दिल्ली के सुल्तान सिकंदरशाह लोदी ने 1504 ई. में डाली थी। उसने अपने शासन काल में होने वाले विद्रोहों को भली भांति दबाने के लिए वर्तमान आगरा के स्थान पर एक सैनिक छावनी बनाई थी, जिसके द्वारा उसे इटावा, बयाना, कोल, ग्वालियर और धौलपुर के विद्रोहियों को दबाने में सहायता मिली। श्मखजन-ए-अफगानश् के लेखक के अनुसार सुल्तान सिकंदरशाह ने कुछ चतुर आयुक्तों को दिल्ली, इटावा और चांदवर के आस-पास के इलाके में किसी उपयुक्त स्थान पर सैनिक छावनी बनाने का काम सौंपा था और उन्होंने काफी छानबीन के पश्चात् इस स्थान (आगरा) को चुना था। अब तक आगरा या अग्रवन केवल एक छोटा-सा गाँव था, जिसे ब्रजमंडल के चैरासी वनों में अग्रणी माना जाता था। शीघ्र ही इसके स्थान पर एक भव्य नगर खड़ा हो गया। कुछ दिन बाद सिंकदरशाह भी यहाँ आकर रहने लगा। तारीखदाऊदी के लेखक के अनुसार सिकंदरशाह प्रायः आगरा में ही रहा करता था।मध्य काल में आगरा गुजरात तट के बंदरगाहों और पश्चिमी गंगा के मैदानों के बीच के व्यापार मार्ग पर एक महत्त्वपूर्ण शहर हुआ करता था। मुगल साम्राज्य के पतन के साथ 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में यह शहर क्रमशः जाटों, मराठों, मुगलों और ग्वालियर के शासक के अधीन रहा और अंततः 1803 में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गया। 1833 से 1868 तक यह आगरा प्रांत (बाद में पश्चिमोत्तर प्रांत) की राजधानी रहा।
3.सिकन्दर लोदी का सिकंदरा व आसपास :- अकबर का मकबरा आगरा से 4 किलोमीटर की दूरी पर सिकंदरा में स्थित है। वर्तमान में जहाँ सिकंदरा है, वहाँ सिकन्दर की सेना का पड़ाव था। उसी के नाम पर इस जगह का नाम सिकंदरा पड़ा। सिकंदर लोदी के आक्रमण से पहले आगरा एक छोटा सा नगर था। 1495 में उसने यहां अपना आरामगाह बनवाया था जो बाद में मरियम के मकबरे के रूप में बदल गया था। सिकन्दर लोदी ने 1504 में आगरा किले की कायाकल्प कराया था। इसे लोदी खां का किला भी कहा जाता था। आगरा शहर की नींव लोदी वंश के बादशाह सिकंदर लोदी ने 1501 में रक्खी थी और अपनी सौन्य राजधानी बनवाई थी। आगराआर्कलाजिकल सोसायटी जनवरी जून 1875 एपिन्डिक्स दो पृ. 4-14 के आधार पर उस समय की अन्य बसावट सिकन्दरपुर , सिकन्दरा, पोया/भोया बाजार आदि का उल्लेख मिलता है। 5 जुलाई 1505 में आये भूकम्प ने आगरा की सूरत को बरबाद कर दिया था। सिकंदरा में मकबरे का निर्माण कार्य स्वयं अकबर ने शुरू करवाया था, लेकिन इसके पूरा होने से पहले ही अकबर की मृत्यु हो गई। बाद में उसके पुत्र जहाँगीर ने इसे पूरा करवाया था। जहाँगीर ने मूल योजना में कई परिवर्तन किए। इस इमारत को देखकर पता चलता है कि, मुगल कला कैसे विकसित हुई। मुगलकला निरंतर विकसित होती रही है। पहले दिल्ली में हुमायूँ का मकबरा, फिर आगरा में अकबर का मकबरा और अंततः ताजमहल का निर्माण हुआ। अकबर के मकबरे के चारों ओर खूबसूरत बगीचा है, जिसके बीच में बरादरी महल है, जिसका निर्माण सिकन्दर लोदी ने करवाया था।
4.आगरा में राजधानी की व्यवस्था :- मुगलों के शासन के प्रारम्भ से सुल्तानों के शासन के अंतिम समय तक दिल्ली ही भारत की राजधानी रही थी । सुल्तान सिंकदर लोदी के शासन के उत्तर काल में उसकी राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र दिल्ली के बजाय आगरा हो गया था । यहाँ उसकी सैनिक छावनी थी । मुगल राज्य के संस्थापक बाबर ने शुरू से ही आगरा को अपनी राजधानी बनाया । बाबर के बाद हुमायूँ और शेरशाह सूरी और उसके उत्तराधिकारियों ने भी आगरा को ही राजधानी बनाया । मुगल सम्राट अकबर ने पूर्व व्यवस्था को कायम रखते हुए आगरा को राजधानी का गौरव प्रदान किया । इस कारण आगरा की बड़ी उन्नति हुई और वह मुगल साम्राज्य का सबसे बड़ा नगर बन गया था । कुछ समय बाद अकबर ने फतेहपुर सीकरी को राजधानी बनाया ।
        तृतीय: प्रारम्भिक मुगल सम्राटों का आगरा :-
इब्राहिम लोदी को हराकर बाबर ने आगरा में अपनी राजधानी बनाया था। उसने यमुनापार, ननुहाई तथा कछपुरा में अपना क्षेत्र विकसित किया था। यह एक प्रसिद्ध एतिहासिक, व्यापारिक एंव पर्यटन स्थल है, जो मुगल सम्राटों की राजधानी भी रह चुका है। यह यमुना तट से काफी ऊँचाई पर बसा हुआ है।
1.बाबर :- बाबर ने भारत में अपने अल्पकाली शासन में वास्तुकला में विशेष रुचि दिखाई। तत्कालीन भारत में हुए निर्माण कार्य हिन्दू शैली में निर्मित ग्वालियर के मानसिंह एवं विक्रमाजीत सिंह के महलों से सर्वाधिक प्रभावित हैं। ‘बाबरनामा’ नामक संस्मरण में कही गयी बाबर की बातों से लगता है कि, तत्कालीन स्थानीय वास्तुकला में संतुलन या सुडौलपन का अभाव था। अतः बाबर ने अपने निर्माण कार्य में इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि, उसका निर्माण सामंजस्यपूर्ण और पूर्णतः ज्यामितीय हो। बाबर स्वयं बागों का बहुत शौकीन था और उसने आगरा तथा लाहौर के नजदीक कई बाग भी लगवाए। जैसे काश्मीर का निशात बाग, लाहौर का शालीमार बाग तथा पंजाब की तराई में पिंजोर बाग, आज भी देखे जा सकते हैं। भारतीय युद्धों से फुरसत मिलने पर बाबर ने अपने आराम के लिए आगरा में ज्यामितीय आधार पर श्आराम बागश् का निर्माण करवाया। उसके ज्यामितीय कार्यों में अन्य हैं, ‘पानीपत के काबुली बाग में निर्मित एक स्मारक मस्जिद (1524 ई.), रुहेलखण्ड के सम्भल नामक स्थान पर निर्मित ‘जामी मस्जिद’ (1529 ई.), आगरा के पुराने लोदी के किले के भीतर की मस्जिद आदि। पानीपत के मस्जिद की विशेषता उसका ईटों द्वारा किया गया निर्माण कार्य था।
2.हुमायूँ :- राजनीतिक परिस्थितियों की प्रतिकूलता के कारण हुमायूँ वास्तुकला के क्षेत्र में कुछ खास नहीं कर सका। उसने 1533 ई. में ‘दीनपनाह’ (धर्म का शरणस्थल) नामक नगर की नींव डाली। इस नगर जिसे ‘पुराना क़िला’ के नाम से जाना जाता है, की दीवारें रोड़ी से निर्मित थीं। इसके अतिरिक्त हुमायूँ की दो मस्जिदें, जो फतेहाबाद में 1540 ई. में बनाई गई थीं, फारसी शैली में निर्मित हैं। आगरा की प्रथम सुरक्षा घेरा शेरशाह सूर के पुत्र सलीम शाह सूर के समय हुई थी। उस समय यहां 16 दरवाजों से शहर के सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाई जाती थी। शहर मध्य स्थित दिल्ली द्वार सलीमशाह सूरी के 16 दरवाजों में गिना जाता है। राजामण्डी रेलवे स्टेशन तथा क्वीन विक्टोरिया स्कूल इसके पास ही में है। यह आगरा की मुगलकालीन चाहरदीवारी का सबसे महत्वपूर्ण द्वार था। इससे मथुरा, दिल्ली और लाहौर की ओर कूच किया जाता था। ईंट तथा चूने के गारे से मूल रुप से निर्मित इस द्वार पर आज पत्थरों का आवरण भी है। दरवाजे के ऊंचाई से करीब 5 फिट छोटी एक सुरक्षा दीवार भी बनी हुई है। दरवाजे के ऊपर चार चार स्तम्भों वाली दो छतरियां भी बनी हुई हैं। इनके बीच में छोटी छोटी सुन्दर कलाकृति की लाल गुमटियां बनी हुई हैं।
चतुर्थः अकबर का अकबराबाद व फतेहपुरसीकरी : –
1572 में अकबर ने आगरा से 36 किलोमीटर दूर फतेहपुर सीकरी में किलेनुमा महल का निर्माण आरम्भ किया। यह आठ वर्षां में पूरा हुआ। पहाड़ी पर बसे इस महल में एक बड़ी कृत्रिम झील भी थी। इसके अलावा इसमें गुजरात तथा बंगाल शैली में बने कई भवन थे। इनमें गहरी गुफाएँ, झरोखे तथा छतरियाँ थी। हवाखोरी के लिए बनाए गए पंचमहल की सपाट छत को सहारा देने के लिए विभिन्न स्तम्भों, जो विभिन्न प्रकार के मन्दिरों के निर्माण में प्रयोग किए जाते थे, का इस्तेमाल किया गया था। राजपूती पत्नी या पत्नियों के लिए बने महल सबसे अधिक गुजरात शैली में हैं। इस तरह के भवनों का निर्माण आगरा के किले में भी हुआ था। यद्यपि इनमें से कुछ ही बचे हैं। अकबर आगरा और फतेहपुर सीकरी दोनों जगहों के काम में व्यक्तीगत रुचि लेता था। दीवारों तथा छतों की शोभा बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किए गए चमकीले नीले पत्थरों में ईरानी या मध्य एशिया का प्रभाव देखा जा सकता है। फतेहपुर सीकरी का सबसे प्रभावशाली वहाँ की मस्जिद तथा बुलन्द दरवाजा है, जो अकबर ने अपनी गुजरात विजय के स्मारक के रूप मे बनवाया था। दरवाजा आधे गुम्बद की शैली में बना हुआ है। गुम्बद का आधा हिस्सा दरवाजे के बाहर वाले हिस्से के ऊपर है तथा उसके पीछे छोटे-छोटे दरवाजे हैं। यह शैली ईरान से ली गई थी और बाद के मुगल भवनों में आम रूप से प्रयोग की जाने लगी।
               पंचम : जहाँगीर तथा शाहजहाँ :-
जहांगीरकालीन हाजी संलेमान की मस्जिद , अजमेरी गेट/ आगरा गेट तथा आगरा सिटीवाल होने के प्रमाण मिलते हैं। आगरा के डूमंड रोड (महात्मा गांधी मार्ग) पर सुभाष पार्क के सामने वाल्मीक वाटिका के पीछे पचकुइंया कब्रिस्तान की दीवार पर शिलालेख लगा था जो खुद इतिहास बताता था। इस पर ‘अकबराबाद’ उत्कीर्णित है। आगरा सिटी वाल व प्राचीन अजमेरी गेट 1866 तक बना हुआ था, जो यहां के पास उत्तर तरफ था। 1867 में शाहगंज का मार्ग चैड़ा करते समय अजमेरी गेट तोड़ा गया था। हाजी सुलेमान ने 1081 हिजरी 1622 ई. में फारसी भाषा में जहांगीर के काल में एक मस्जिद पर इसे लगवाया था। अब वहां अवैध दुकान खुल गई है। जिससे वह ढक गया है। जाहिर है कि अगर कोई इस शिलालेख का फोटो लेने जाएगा, तो दुकानदार अपनी अवैध दुकान बचाने के लिए विवाद की स्थिति पैदा करेगा। एएसआई को अवैध अतिक्रमण हटाकर इतिहास को जीवंत करने की कोशिश करनी चाहिए।
मुगल साम्राज्य के विस्तार के साथ मुगल वास्तुकला भी अपने शिखर पर पहुँच गई। जहाँगीर के शासनकाल के अन्त तक ऐसे भवनों का निर्माण आरम्भ हो गया था, जो पूरी तरह संगमरमर के बने थे और जिनकी दीवारों पर कीमती पत्थरों की नक्काशी की गई थी। यह शैली शाहजहाँ के समय और भी लोकप्रिय हो गयी। शाहजहाँ ने इसे ताजमहल, जो निर्माण कला का रत्न माना जाता है, में बड़े पैमाने पर प्रयोग किया। ताजमहल में मुगलों द्वारा विकसित वास्तुकला की सभी शैलियों का सुन्दर समन्वय है। अकबर के शासनकाल के प्रारम्भ में दिल्ली में निर्मित हुमायूँ का मकबरा, जिसमें संगमरमर का विशाल गुम्बद है, ताज का पूर्वगामी माना जा सकता है। इस भवन की एक दूसरी विशेषता दो गुम्बदों का प्रयोग है। इसमें एक बड़े गुम्बद के अन्दर एक छोटा गुम्बद भी बना हुआ है। ताज की प्रमुख विशेषता उसका विशाल गुम्बद तथा मुख्य भवन के चबूतरे के किनारों पर खड़ी चार मीनारें हैं। इसमें सजावट का काम बहुत कम है लेकिन संगमरमर के सुन्दर झरोखों, जड़े हुए कीमती पत्थरों तथा छतरियों से इसकी सुन्दरता बहुत बढ़ गयी है। इसके अलावा इसके चारों तरफ लगाए गए, सुसज्जित बाग से यह और प्रभावशाली दिखता है। शाहजहाँ के शासनकाल में मस्जिद निर्माण कला भी अपने शिखर पर थी। दो सबसे सुन्दर मस्जिदें हैं, आगरा के किले की मोती मस्जिद, जो ताज की तरह पूरी संगमरमर की बनी है तथा दिल्ली की जामा मस्जिद, जो लाल पत्थर की है। जामा मस्जिद की विशेषताएँ उसका विशाल द्वार, ऊँची मीनारें तथा गुम्बद हैं।
आगरा में कुछ और गाँव, तहसील, कस्बे है जिनके नाम पर ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपने अन्दर प्राचीन और मुगल इतिहास सिमटे हुए है जैसे मिढ़ाकुर, पथौली, कंस गेट, छिंगा मोदी पोल, मस्जिद मुखन्निस खाँ, बाग मुजफ्फर खां , दरबार शाहजी, मानपाड़ा, कसेरट बाजार, सेव का बाजार, फुलट्टी, सिकन्दरा, रामबाग, शाहदरा (शाहदरा दिल्ली व अन्य जिलों में भी पाये जाते है), खाँनवा का मैदान, बहिस्ताबाद, गुलाबखाना, कालामहल, एत्मादपुर, बुढिया का ताल, बजीरपुरा, शमसाबाद, फतेहाबाद, फतेहपुर सीकरी आदि नाम एतिहासिक हैं।
           षष्ठम् : शाहजहाँ ने राजधानी दिल्ली बनाकर आगरा की उपेक्षा नहीं की :–
शाहजहाँ ने सन् 1648 में आगरा की बजाय दिल्ली को राजधानी बनाया किंतु उसने आगरा की कभी उपेक्षा नहीं की । उसके प्रसिद्ध निर्माण कार्य आगरा में भी थे। शाहजहाँ का दरबार सरदार सामंतों, प्रतिष्ठित व्यक्तियों तथा देश−विदेश के राजदूतों से भरा रहता था। उसमें सब के बैठने के स्थान निश्चित थे । जिन व्यक्तियों को दरबार में बैठने का सौभाग्य प्राप्त था, वे अपने को धन्य मानते थे और लोगों की दृष्टि में उन्हें गौरवान्वित समझा जाता था । जिन विदेशी सज्जनों को दरबार में जाने का सुयोग प्राप्त हुआ था, वे वहाँ के रंग−ढंग, शान−शौकत और ठाट−बाट को देख कर आश्चर्य किया करते थे। तखत-ए-ताऊस शाहजहाँ के बैठने का राज सिंहासन था ।
   सप्तम : उत्तरमुगल व व्रिटिशकालीन आयोजनायें:-
उत्तर मुगलकाल में मुहम्मदशाह रंगीले के समय में आगरा का सूबेदार आमेर के राजा जयसिंह थे। उन्होंने अपने कार्यकाल 1719- 48 ई. के मध्य शहर की चहारदीवारी पुनः बनवाई। इससे आगरा का क्षेत्रफल 11 वर्ग मील हो गया था। बाद में पुलिस की सिपारिश से व्रिटिश काल में 1813 ई. में शहर की चहारदीवारी पुनः बनवाई गयी। स्वतंत्रता आन्दोलन से घबड़ाये ब्रिटिश अधिकारियों ने उक्त चहारदीवारी 1881 ई. में तोड़वा दिया था।। कंस दरवाजे से लगी दीवार को सन 1858 में तत्कालीन अंग्रेज जिलाधिकारी द्वारा तोपों से ध्वस्त कर दिया गया था। इसकी वजह यहां सोमेश्वर नाथ मंदिर में सन 1857 के प्रसिद्ध स्वतत्रंता सेनानी तात्या टोपे ने जो शरण ली थी। इसकी सूचना ब्रिटिश भारत के अधिकारियों को लगने पर अंग्रेज फौज उनको जिंदा या मुर्दा गिरफ्तार करने पहुंची। अंग्रेज फौज के यहां पहुंचने से पहले ही स्थानीय नागरिकों के सहयोग से तात्या टोपे फरार हो गए थे। तत्कालीन शासन की क्रोधाग्नि से इस ऐतिहासिक बाउंड्री एवं द्वार को झुलसा दिया। भारतीय पुरातत्व विभाग ने इस द्वार की बड़े पैमाने पर मरम्मत कराई है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के लिए सर्वेक्षण करने वाले पुराविद श्री ए. सी. एल. कारलाइल ने 1871-72 में सर्वे किया था। उनकी यह सर्वे रिपोर्ट प्रथम संस्करण के रूप में 1874 में सामने आई। श्री कारलाइल ने लिखा है कि “मैंने आगरा की चाहरदीवारी चाहे वह मौजूद है या बर्बाद हो चुकी है, का पूरा सर्वेक्षण और नापतौल की है। इसके मूल के बहुत कम अवशेष बचे हैं। सबसे ज्यादा विचारणीय अवशेष आगरा पश्चिम के गोकुलपाड़ा जो लोहामंडी क्षेत्र का हिस्सा में हैं। गोकुलपुरा के पीछे ही कंस गेट और गणगौर गेट के अवशेष मिले हैं। यह लोहामण्डी का एक भाग था। जबकि इसके दोनो ओर इसके व नदी के बीच का घेरा नष्ट हो चुका है। किले के उत्तरी पूर्वी किनारे से जाफर खां के मकबरे तक जाते हैं, फिर पश्चिम की ओर मुड़कर दक्षिण को पुनः किले के तरफ आते हैं। इस प्रकार शहर का घेरा नदी से खटिक बाग तक 9200 फिट ऊपर तक आता है। यहां से जफर खां का मकबरा थोड़ी ही दूर रह जाता है। यहां 566 फिट की दीवाल 1872 के सर्वेक्षण के दौरान पायी गयी थी। जाफर खां के के मकबरे से बाहर जाने पर जालमा कुष्ट आश्रम के पीछे तक आने पर एक पेड़ की शाखाओं में हनुमानजी की मूर्ति है। वहां से आगे सुल्तानगंज तक जाते है। उसे छोड़ते हुए बाहर वजीरपुरा तक आते हैं। वजीरपुरा को बाहर छोड़ते हुए सेन्ट्रल जेल (संजय प्लेस) तक आते हैं। वहां से दिल्ली गेट जाते है। मथुरा मार्ग को क्रास करते हुए आलमगंज बाजार के गेट, वहां से फतेह मोहम्मद गेट को एक तरफ छोड़ते हुए, वहां से वापस लोहामण्डी आते हैं। फिर भरतपुर मार्ग को क्रास करते हुए छंगा मोदी गेट पहुंचते हैं। वहां पीछे हिजड़ों की मस्जिद छूट जाती है। वहां से फूटा फाटक और फिर वहां से गोकुलपुरा के पीछे आते हैं। वहां से गणगौर गेट और फिर आगे कंस गेट, वहां से छोटा ग्वालियर गेट पहुंचते हैं। वहां से अजमेर गेट पहुचते हैं। अब शाहगंज मार्ग को नाघते हैं। फिर ईदगाह मस्जिद पडती है। वहां से नामनेर होते हुए आगे बालूगंज आते हैं। वहां से लक्ष्छीपुरा को पीछे एक तरफ छोड़ते हुए आगे गरीपुरा और फिर वहां से हाजीपुरा ( जो ताजमहल से 2 मील की दूरी पर है) तक पहुंचते हैं। इसके आगे अन्य कोई अवशेष दीवाल का नहीं प्राप्त हुआ।“
कारलाइल के समय में आगरा शहर का क्षेत्रफल : – आगरा की चाहरदीवारी की नापजोख आगरा किला के नजदीक खटीक बाग से शुरू होती है। यह बाग यमुना किनारे के जफर खान के मकबरे के पास है। आगरा के चारों तरफ घूमती हुई दिल्ली गेट और अजमेर गेट जो ताजमहल के पास हैं, जाकर खत्म होती है। 1872 के सर्वेक्षण में यह हिस्सा, औसतन कुल 6,548 फुट 9 इंच लंबा मिला है। यदि कुल बिलुप्त चाहरदीवारी की गणना करें तो करीब 32,689 फुट से कम नहीं बैठेगी। कारलाइल ने आगरा की पश्चिम से पूर्व तक की चैड़ाई की भी गणना की है। यह छिंगा मोदी गेट, भरतपुर रोड से पॉंटून ब्रिज (वर्तमान में हाथीघाट के नजदीक वाला पुल) तक मापी गई है। आगरा की लंबाई आगरा के उत्तर से दक्षिण की मापी गई है। यह खटीक बाग (नजदीक जफर खां का रोजा) यमुना का उत्तरी आखिरी किनारा से हाजीपुरा, (ताजमहल से दो मील दक्षिण में है) तक मापा है। सन 1871-72 के तथ्य के आधार पर कुछ प्रमुख माप इस प्रकार हैं। आगरा की लंबाई उत्तर से दक्षिण खटीक बाग से हाजीपुरा 18,700 फुट है। आगरा की चैड़ाई पूरब से पश्चिम छिंगा मोदी गेट से पॉटून ब्रिज तक 11,500 फुट है। आगरा जनपद की परिधि 9.5 मील है तथा आगरा जनपद का क्षेत्रफल 5,500 वर्ग मील है।
                          साभार 
(Pravakta.Com. दिनांक March 2, 2017 और
Rachanakar.org दिनांक March 5,2017 को भी प्रकाशित हो चुका है)
                          
                            लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) 

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