हर कुल और गोत्र के भी संरक्षक देवता या कुलदेवी होती हें । इनका ज्ञान कुल के वयोवृद्ध अग्रजों (माता-पिता आदि ) के द्वारा अगली पीड़ी को दिया जाता है । एक कुलीन ब्राह्मण को अपने तीनों प्रकार के देवताओं का बोध तो अवश्य ही होना चाहिए -
(1) इष्ट देवता अथवा इष्ट देवी ।
(2) कुल देवता अथवा कुल देवी ।
(2) ग्राम देवता अथवा ग्राम देवी ।
ब्रह्मा जी के बनाए हुए सप्त ऋषियों में पहले 7 फिर
24 प्रमुख और बाद में 56 गोत्रों में यज्ञ पूजा की जाती रही।ये ऋषि अपने अपने वंशजों की मंगल कामना करते थे। दैत्य आकर इस कार्य में विघ्न उपस्थित करने लगे थे। ब्राह्मणों के प्रार्थना पर इस विघ्नों को दूर करने के लिए त्रिदेवों ने हर गोत्र वा वंश में एक एक योगनियाँ यज्ञ की रक्षा के लिए उत्पन्न किया।आगे चल कर यही योगनियां कुल देवी के रूप में पूजी जाने लगीं।
कुलदेवी या देवता कुल या वंश के रक्षक देवी-देवता होते हैं। ये घर-परिवार या वंश-परंपरा के प्रथम पूज्य तथा मूल अधिकारी देव होते हैं। इनकी गणना हमारे घर के बुजुर्ग सदस्यों जैसी होती है। अत: प्रत्येक कार्य में इन्हें याद करना जरूरी होता है। इनका प्रभाव इतना महत्वपूर्ण होता है कि यदि ये रुष्ट हो जाएं तो हनुमानजी के अलावा अन्य कोई देवी या देवता इनके दुष्प्रभाव या हानि को कम नहीं कर सकता या रोक नहीं लगा सकता। इसे यूं समझें कि यदि घर का मुखिया पिताजी या माताजी आपसे नाराज हों, तो पड़ोस के या बाहर का कोई भी आपके भले के लिए आपके घर में प्रवेश नहीं कर सकता, क्योंकि वे 'बाहरी' होते हैं।
ऐसा भी देखने में आया है कि कुल देवी-देवता की पूजा छोड़ने के बाद कुछ वर्षों तक तो कोई खास परिवर्तन नहीं होता, लेकिन जब देवताओं का सुरक्षा चक्र हटता है तो परिवार में घटनाओं और दुर्घटनाओं का दौर शुरू हो जाता है, उन्नति रुकने लगती है, गृहकलह, उपद्रव व अशांति आदि शुरू हो जाती हैं। आगे वंश नहीं चल पाता है। पिताद्रोही होकर व्यक्ति अपने वंश को नष्ट कर लेता है!
भारद्वाज गोत्र की कुलदेवी :–
स्कन्द पुराण के अनुसार बिन्दुक्षणी/श्रीमाता के नाम से जानी जाती है।वह गुजरात के पाटण शहर में है। यह मां दुर्गा /मां शारदा का स्वरूप होती हैं। कुछ अन्य संबद्ध वंशों में महादेवी ,कालिका देवी ,योगेश्वरी और दुर्गेश्वरी देवी को भी कुल देवी के रूप में मान्यता मिली है। कुछ लोग महामाया /वाराही देवी को कुल देवी के रूप में पूजते हैं। श्री माताजी राज राजेश्वरी त्रिपुर सुन्दरी के रूप में भी जानी जाती हैं
माँ बिन्दुक्षणी सभी की कुलदेवी हैं इससे संबंधित लोग भारद्वाज गोत्र (पंक्ति) श्रीमाली ब्राह्मणों की आयु) मुख्य रूप से राजस्थान और गुजरात में पाए जाते हैं। प्रमुख माँ बिंदुक्षिणी का मंदिर सावीधार गांव में स्थित है, जो 12 किलोमीटर दूर है जालोर जिले (राजस्थान) में भीनमाल से आरएस दूर और अन्य मंदिर मुख्य रूप से हैं जोधपुर (राजस्थान), पाटन (गुजरात), सिरोही (राजस्थान) और भारत के अन्य स्थानमैं एक। माँ बिन्दुक्षिनी को माँ बन्धुक्षनी, माँ बन्धुक्षिनी, माँ बा भी कहा जाता है विभिन्न क्षेत्रों में भाषा और बोली के अंतर के कारण एनधुरक्षिणी जहां उनके बेटे-बेटियां रहते हैं.माँ बिन्दुक्षिणी हैं देवी दुर्गा का एक अवतार । माँ बिन्दुक्षइनि का वाहन सिंह है जो शुभता, विजय, असीम ऊर्जा आदि का प्रतीक है ताकत। उनका पसंदीदा रंग लाल है और उन्हें लाल चुनरी पहनना पसंद है साड़ी के साथ लाल चूड़ियां और लाल बिंदी. उसके हाथ हमेशा रंगे रहते हैं। कुमकुम.माँ बिन्दुक्षिणी के स्मरण का बीज मंत्र है--
" ॐ ह्रीं श्रीं बिंदउष्णाय नमो नमः "
जिसका जाप नियमित रूप से प्रातः काल (ब्राह्म) में करना चाहिए।मा मुहूर्त) और शाम (सूर्य अस्त के बाद) प्रत्येक में कम से कम 51 बार।
भारद्वाज गोत्र की कुलदेवी बिंदुक्षणी माता के दो प्रमुख मंदिर मिलते हैं। एक पाटन गुजरात में है और दूसरा पाली राजस्थान में स्थित है। इन दोनों स्थानों के बीच की दूरी लगभग 300 किमी की है। मंदिर का नाम “बिंदुक्षणी” के पीछे भी एक रोचक कहानी भी है। कहा जाता है कि सतयुग में, माता सती के शरीर के अंग पृथ्वी पर विभिन्न स्थानों पर गिरे थे। इनमें से माता का एक अंग (बिंदु संभवतः मस्तक के मध्य लगाया जाने वाला सुहाग का चिन्ह बिंदी ) इसी स्थान पर गिरा था। इसी कारण, इस स्थान को “बिंदू” और यहां विराजमान देवी को “बिंदुक्षणी माता” के नाम से जाना जाता है।
भारद्वाज गोत्र की कुलदेवी बिन्दुक्षणी मां हैं और उनका मंदिर गुजरात के पाटण शहर में पंचमुखा हनुमान गली(या शेरी) में भी है।लोग इस मंदिर में आकर अपने कुल देवी को अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं।
राजस्थान पाली की श्रीबिंदुक्षणी माता मंदिर,
राजस्थान के पाली की श्री बिंदुक्षणी माता मंदिर, माता दुर्गा के एक शक्तिपीठ के रूप में विख्यात, यह मंदिर सदियों से श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है। पश्चिमी राजस्थान के आध्यात्मिक धामों की यात्रा का यह पहला पड़ाव है।
राजस्थान की धरती वीरता की गाथाओं और ऐतिहासिक स्थलों के लिए जितनी प्रसिद्ध है, उतनी ही सुंदर मंदिरों और आध्यात्मिक महत्व के स्थलों के लिए भी जानी जाती है। राजस्थान के पाली जिले में स्थित प्रसिद्ध भारद्वाज गोत्र की कुलदेवी श्री बिंदुक्षणी माता मंदिर है। यह मंदिर माता दुर्गा के एक शक्तिपीठ के रूप में विख्यात है और हजारों वर्षों से श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बना हुआ है।श्री बिंदुक्षणी माता मंदिर, राजस्थान के पश्चिमी भाग में स्थित पाली जिले का एक रत्न है। यह मंदिर पाली शहर से लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मंदिर तक पहुंचने के लिए पाली शहर से निकलने के बाद सुमेरपुर रोड की ओर जाना पड़ता है। कुछ ही दूर चलने पर रास्ता मंदिर की ओर मुड़ जाता है। मंदिर एक ऊंचे स्थान पर स्थित है, जो चारों ओर से मनमोहक पहाड़ियों से घिरा हुआ है। यह स्थान न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि प्राकृतिक सौंदर्य से भी भरपूर है। मंदिर तक पहुंचने के लिए पक्की सड़क है और व्यक्तिगत वाहन या टैक्सी आसानी से ली जा सकती है।
बिंदुक्षणी माता मंदिर का इतिहास
श्री बिंदुक्षणी माता मंदिर का इतिहास, रहस्य और श्रद्धा का संगम है। यद्यपि मंदिर के निर्माण का कोई ठोस लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है, फिर भी सदियों से चली आ रही किंवदंतियां और पुराणों में वर्णित कथाएं इसके इतिहास की झलक दिखाती हैं।
बिंदुक्षणी माता मंदिर का निर्माण
श्री बिंदुक्षणी माता मंदिर का इतिहास हजारों वर्ष पुराना माना जाता है, लेकिन इसके निर्माण का कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। स्थानीय किंवदंतियों के अनुसार, मंदिर एक हजार वर्ष से भी अधिक पुराना है। माना जाता है कि इसका निर्माण किसी स्थानीय राजा द्वारा करवाया गया था। राजा को सपने में माता दुर्गा के दर्शन हुए थे, और उन्हें इस स्थान पर मंदिर बनाने का निर्देश दिया गया था। राजा के आदेश पर मंदिर का निर्माण करवाया गया और तब से यह श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र बन गया है। सदियों से मंदिर का जीर्णोद्धार और विस्तार होता रहा है। भव्य नागर शैली में निर्मित यह मंदिर ऊंचे शिखरों और जटिल नक्काशी के लिए जाना जाता है।
मंदिर की वास्तुकला
श्री बिंदुक्षणी माता मंदिर अपनी धार्मिक महत्ता के साथ-साथ उत्तरा भारतीय मंदिर शैली, नागर शैली, का एक बेहतरीन उदाहरण है। यह शैली ऊंचे शिखरों, जटिल नक्काशियों और विशाल हॉलों के लिए जानी जाती है।
मुख्य गर्भगृह
मंदिर का मुख्य गर्भगृह पवित्र संगमरमर से बना हुआ है। गर्भगृह के केंद्र में भव्य मूर्ति विराजमान है, जिन्हें माता बिंदुक्षणी के नाम से जाना जाता है। माता की मूर्ति के चारों ओर मंदिर के पुजारियों द्वारा चढ़ाए गए श्रद्धालुओं के भेंट चमकते हुए देखे जा सकते हैं।
मंडप
गर्भगृह के बाहर एक विशाल मंडप है। इस मंडप को स्तंभों की कतारों ने सुसज्जित किया हुआ है। इन स्तंभों और मंडप की दीवारों पर देवी-देताओं की कहानियों को दर्शाती हुई जटिल नक्काशियां की गई हैं। ये नक्काशियां न केवल कलात्मक दृष्टि से मनमोहक हैं, बल्कि हिंदू धर्मग्रंथों की कहानियों को दर्शाकर श्रद्धालुओं की आस्था को भी बढ़ाती हैं। सदियों से मंदिर का जीर्णोद्धार और विस्तार होता रहा है। ऐसा माना जाता है कि मुगलकाल के दौरान मंदिर को क्षति पहुंचाई गई थी। बाद में, मराठा शासनकाल में इसका जीर्णोद्धार करवाया गया। वर्तमान समय में भी मंदिर का जीर्णोद्धार और रख-रखाव का कार्य निरंतर चलता रहता है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि यह आने वाली पीढ़ियों के लिए श्रद्धा का केंद्र बना रहे।
मुगल काल और मंदिर का जीर्णोद्धार:
मुगल शासन के दौरान, कई हिंदू मंदिरों को नुकसान पहुंचाया गया था। माना जाता है कि श्री बिंदुक्षणी माता मंदिर भी उसी समय क्षतिग्रस्त हुआ था। हालांकि, इस बात के लिए कोई ठोस सबूत मौजूद नहीं हैं।
मराठा शासन और पुनर्निर्माण:
१८ वीं शताब्दी में, मराठा साम्राज्य के शासनकाल के दौरान मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया। मराठों ने मंदिर की मरम्मत करवाई और इसके आसपास के क्षेत्र का भी विकास किया। इस दौरान, मंदिर की भव्यता और वैभव में वृद्धि हुई।
आधुनिक युग में मंदिर:
भारत के स्वतंत्र होने के बाद से, श्री बिंदुक्षणी माता मंदिर का महत्व लगातार बढ़ता गया है। मंदिर के जीर्णोद्धार और रख-रखाव का कार्य निरंतर चलता रहता है। वर्तमान समय में, यह मंदिर न केवल राजस्थान, बल्कि पूरे भारत में प्रसिद्ध है। हजारों श्रद्धालु हर साल मंदिर आकर माता बिंदुक्षणी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आते हैं।
प्रमुख दर्शनीय स्थल
हजारो वर्षों का इतिहास समेटे हुए श्री बिंदुक्षणी माता मंदिर अपने धार्मिक महत्व के साथ-साथ स्थापत्य कला का भी एक अद्भुत उदाहरण है। आइए, दर्शन के लिए जाते समय मंदिर के कुछ प्रमुख दर्शनीय स्थलों पर एक नज़र डालें:
गर्भगृह: मंदिर का मुख्य आकर्षण गर्भगृह है। यह पवित्र स्थल भव्य संगमरमर से बना हुआ है। गर्भगृह के केंद्र में भव्य मूर्ति विराजमान है, जिन्हें माता बिंदुक्षणी के नाम से जाना जाता है। श्रद्धालु पूजा-अर्चना करने और माता का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए गर्भगृह में जाते हैं।
मंडप: गर्भगृह के बाहर एक विशाल मंडप है। यह मंडप स्तंभों की कतारों से सुसज्जित है। इन स्तंभों और मंडप की दीवारों पर देवी-देताओं की कहानियों को दर्शाती हुई जटिल नक्काशियां की गई हैं। श्रद्धालु यहां बैठकर पूजा-पाठ कर सकते हैं और मंदिर के शांत वातावरण का आनंद ले सकते हैं।
शिखर: नागर शैली में निर्मित इस मंदिर की विशेषता इसका ऊंचा शिखर है। शिखर की सुंदर नक्काशी दूर से ही श्रद्धालुओं का ध्यान खींचती है। माना जाता है कि शिखर का निर्माण मंदिर के जीर्णोद्धार कार्यों के दौरान किया गया था।
प्राकृतिक सौंदर्य
प्राकृतिक सौंदर्य मंदिर पहाड़ियों से घिरे हुए ऊंचे स्थान पर स्थित है। मंदिर दर्शन के साथ-साथ श्रद्धालु आसपास के प्राकृतिक सौंदर्य का भी आनंद ले सकते हैं। शांत वातावरण और मनोरम दृश्य मन को प्रसन्नता प्रदान करते हैं।
निष्कर्ष
बिंदुक्षणी माता मंदिर राजस्थान की धरती पर स्थित एक ऐसा आध्यात्मिक केंद्र है, जो सदियों से श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बना हुआ है। भव्य वास्तुकला, समृद्ध इतिहास और माता की दिव्य शक्ति का अनुभव श्रद्धालुओं को मंत्रमुग्ध कर देता है। मंदिर दर्शन से न केवल आध्यात्मिक शांति मिलती है, बल्कि इतिहास और कला के धरोहर को भी करीब से देखा जा सकता है।
अन्य कुल देवियां
महादेवी :-
महादेवी को कई महलों से जाना जाता है। उसे आम तौर पर मूलप्रकृति ('वह जो तत्व है') और महामाया ('वह जो महान माया है') के रूप में जाना जाता है। देवी भागवत पुराण और ललिता सहस्रनाम में महादेवी के अनेक वर्णनों का वर्णन है। इनमें उनके दिव्य और विध्वंसक लक्षण शामिल हैं। देवी भागवत पुराण में उन्हें 'सभी की माता', 'सभी प्राणियों में जीवन शक्ति' और 'वह जो परम ज्ञान हैं' के रूप में वर्णित किया गया है। ललिता सहस्रनाम में भी उनका वर्णन विश्वधिका ('वह जो ब्रह्मांड से परे है'), सर्वगा ('वह जो सर्व सहभागी है'),('वह जो राक्षसों को मारती है'), भैरवी ('भयानक'), और सहरिणी ('वह जो नष्ट कर देती है')।महादेवी के विध्वंसकारी स्मारक का वर्णन आर्यस्तव नामक एक भजन में किया गया है, जिसमें उन्हें कालरात्रि ('मृत्यु की रात') और निष्ठा ('वह जो मृत्यु है') कहा गया है।
मां वाराही:-
माँ वाराही हिन्दू धर्म की सप्तमातृका में से एक है।यह देवी लक्ष्मी का स्वरूप है। जो भगवान विष्णु के वराहावतार की शक्ति रूपा है। इनका शीश जंगली शूकर का है। श्री दुर्गा शप्तशति चण्डी के अनुसार शुम्भ निशुम्भ दो महादैत्यो के साथ जव महाशक्ति भगवती माँ दुर्गा का प्रचण्ड युद्ध हो राहा था तब माँ भगवती परमेश्वरी कि सहायता करने के लिए सभी प्रमुख देवता (भगवान शिव, भगवान विष्णु , भगवान ब्रह्मा , देवराज इंद्र , कुमार कार्तिकेय) अपने कर्मो के आधार शक्ति स्वरूपा देवीऔ को अपने शरीर से प्रकट किया था । उसी समय भगवान विष्णु अपने अंशावतार वाराह के शक्ति माँ वाराही को प्रकट किया था। भगवान विष्णु की शक्ति देवी लक्ष्मी है उनके वराह अवतार की शक्ति देवी लक्ष्मी की अवतार वाराही है।
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर 8630778321)
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