लिल्यो ताहि मधुर फल जानू',
हनुमान चालीसा की ये लाइनें तो हर कोई बखूबी से जानता है। वैज्ञानिक तो इसको आधार बना कर सूर्य और पृथ्वी की दूरी तक माप ले जा रहे हैं। युग' का मतलब चार युगों कलयुग, द्वापर, त्रेता और सतयुग से है। कलयुग में 1200 साल, द्वापर में 2400 साल, त्रेता में 3600 और सतयुग में 4800 साल माने गए हैं, जिनका कुल योग 12000 साल है। 'सहस्त्र' का मतलब 1000 साल है। 'योजन' का मतलब 8 मील से होता है (1 मील में 1.6 किमी होते हैं)। अब अगर 1 योजन को युग और सहस्त्र से गुणा कर दिया जाए तो 8 x 1.6 x 12000 x 1000=15,36,00000 (15 करोड़ 36 लाख किमी), जोकि सूर्य से पृथ्वी के बीच की प्रमाणिक दूरी बनती है।
पृथ्वी से 28 लाख गुना भगवान सूर्य देव का आकार है। क्या पता श्याम मानव जैसे कोई तथाकथित नास्तिक वैज्ञानिक ,यूपी के स्वामी प्रसाद मौर्या जैसा दलित समाजवादी पार्टी का एमएलसी और बिहार के शिक्षा मंत्री सेकुलर चंद्रशेखर से लेकर ना जाने कोई नास्तिक ,वामी कामी ,या गैर राष्ट्रवादी नेता भगवान सूर्य और हनुमान जी के अस्तित्व और पराक्रम पर ही प्रश्न चिन्ह लगाकर अपने वोट बैंक के लालच या अज्ञानता में सनातन मान्यताओं श्रद्धा और विश्वास पर कब कुठाराघात करना शुरू कर दे।
ऋग्वेद में रुद्र का वर्णन:-
ऋग्वेद में रुद्र का वर्णन मिलता है। इनको हिरण्यगर्भ (अग्नि) के रूप में इस सृष्टि का रचयिता माना गया है। ऋग्वेद की ऋचाओं में इनसे आयु एवं स्वास्थ्य एवं अपनी जीवन की रक्षा की कामना की गई है। पुराणों में ब्रह्म के प्रकृति को मानव रुप दिया गया है ताकि सरल ढंग में भी सामान्य समाज समझ सके। मानव रूप में शक्ति के प्रयोग का शिव आधार हैं। इसीलिए काली के नीचे लेटे हैं ताकि संहार शक्ति का प्रयोग कल्याण के लिए हो। पुराणों की रचना इस बात की साक्षी है कि सनातनी व्यवस्था इस वर्ग के लिए भी सकारात्मक सोच के साथ जागरूक था।
सूर्यदेव रुद्र के अंश :-
भगवान रुद्र ही इस सृष्टि के सृजन, पालन और संहार कर्ता हैं। शंभु, शिव, ईश्वर और महेश्वर आदि नाम उन्हीं के पर्याय हैं। श्रुति का कथन है कि एक ही रूद्र हैं, जो सभी लोगों को अपनी शक्ति से संचालित करते हैं। वही सब के भीतर अंतर्यामी रूप से भी स्थित हैं। सदाशिव और सूर्य में कोई भेद नहीं है ।
आदित्यं च शिवं विद्याच्छिवमादित्य रूपिणम्।
उभयोरन्तरं नास्ति ह्यादित्यस्य शिवस्य च।।
(सूर्य एवं भगवान शिव को एक ही जानना चाहिए इन दोनों में कोई अंतर नहीं है।)
प्रमाण के लिए यजुर्वेद के दो मंत्र देखिए:
मंत्र क्रमांक 6 और 7 का शब्द अर्थ इस प्रकार है --
उदय के समय ताम्रवर्ण (अत्यन्त रक्त), अस्तकाल में अरुणवर्ण (रक्त), अन्य समय में वभ्रु (पिंगल) – वर्ण तथा शुभ मंगलों वाला जो यह सूर्यरूप है, वह रुद्र ही है. किरणरूप में ये जो हजारों रुद्र इन आदित्य के सभी ओर स्थित हैं, इनके क्रोध का हम अपनी भक्तिमय उपासना से निवारण करते हैं।।6।।
जिन्हें अज्ञानी गोप तथा जल भरने वाली दासियाँ भी प्रत्यक्ष देख सकती हैं, विष धारण करने से जिनका कण्ठ नीलवर्ण का हो गया है, तथापि विशेषत: रक्तवर्ण होकर जो सर्वदा उदय और अस्त को प्राप्त होकर गमन करते हैं, वे रविमण्डल स्थित रुद्र हमें सुखी कर दें।।7।।
रुद्र का उल्लेख हिन्दू पौराणिक ग्रंथ महाभारत के वन पर्व में हुआ है, जिसके अनुसार यह भगवान सूर्य का एक अन्य नाम है। सूर्यदेव का एक अन्य नाम सविता भी है, जिसका अर्थ है –
सृष्टि करने वाला “सविता सर्वस्य प्रसविता"
(निरुक्त 10।31)।
ऋग्वेद के अनुसार आदित्य-मण्डल के अन्त:स्थित सूर्य देवता सबके प्रेरक, अन्तर्यामी तथा परमात्मा स्वरुप हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार सूर्य ब्रह्मस्वरुप हैं, सूर्य से जगत उत्पन्न होता है और उन्हीं में स्थित है। सूर्य सर्वभूत स्वरुप सनातन परमात्मा हैं। यही भगवान भास्कर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र बनकर जगत का सृजन, पालन और संहार करते हैं। सूर्य नवग्रहों में प्रमुख देवता हैं। ( महाभारत वन पर्व अध्याय 3 श्लोक 1 से 28)
रुद्र अपने धन के लिए जाने जाते हैं। वह आदित्य (सूर्य) और अग्नि से भी जुड़ा हुआ है। उन्हें वज्र धारण करने वाले हजार नेत्रों वाले ( सहरक्षा ) के रूप में संबोधित किया जाता है। वह गड़गड़ाहट और बिजली की नाटकीय प्रचंडता से जुड़ा हुआ है जो पुरुषों और मवेशियों पर प्रहार करता है, लेकिन जो बारिश के माध्यम से शांति और प्रचुरता लाता है।
सूर्य एवम् हनुमान दोनो रुद्र के अंशावतार:-
महावीर हनुमान को महाकाल शिव का 11वां रुद्रावतार माना गया है। उन्होंने अपना जीवन केवल अपने भगवान राम और माता सीता की सेवा के लिए समर्पित किया है।
पुराणों के अनुसार समुद्रमंथन के बाद शिव जी ने भगवान विष्णु का मोहिनी रूप देखने की इच्छा प्रकट की। उन्होंने देवताओं और असुरों को अपना यह रूप दिखाया था। उनका वह आकर्षक रूप देखकर वह कामातुर हो गए, और उन्होंने अपना वीर्यपात कर दिया। वायुदेव ने शिव जी के बीज को वानर राजा केसरी की पत्नी अंजना के गर्भ में प्रविष्ट कर दिया और इस तरह अंजना के गर्भ से वानर रूप हनुमान का जन्म हुआ, इसलिए उन्हें शिव का 11 वां रूद्र अवतार माना जाता है। हनुमान अवतार को उनका सर्वोच्च अवतार माना जाता है। भगवान शिव ने यह अवतार भगवान राम के समय में लोगों के सामने भगवान और भक्त का एक अच्छा उदाहरण पेश करने के लिए लिया था।
भगवान शंकर ने भी अपना रूद्र अवतार लिया था और इसके पीछे वजह थी कि उनको भगवान विष्णु से दास्य का वरदान प्राप्त हुआ था. हनुमान उनके ग्यारहवें रुद्र अवतार हैं. इस रूप में भगवान शंकर ने राम की सेवा भी की और रावण वध में उनकी मदद भी की थी।जब श्री हनुमानजी महाराज तो साक्षात एकादश रुद्र के अवतार है ही जो संसार की समस्त रामायणें तथा पुराण भी एकमत होकर डिंडिम घोष करके कह रहे है:--
जेहि सरीर रति राम सो सोई आदरहि सुजान ।
रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान ।।
(दोहावली १४२)।
मेष लग्ने अंजनी गर्भात् स्वयं जातो हरः शिवः।
(वायुपुराण)
यो वै चैकादशो रुद्रो हनुमान् स महाकपिहिः।
(स्कंदपुराण माहेश्वर संहिता)
जब सूर्य भी रुद्र और हनुमानजी भी रुद्र तथा ये समूचा दृश्यमान जगत भी तो रुद्र का एक अंश मात्र ही है फिर एक रुद्र ने दूसरे रुद्र को अपने में समाहित कर भी लिया तो रुद्र ही शेष रहेंगे ।
आध्यात्म रामायण तथा स्कंदपुराण (अवंतीखंड) में जैसा वर्णित है उसी के अनुसार लिखने जा रहा हूं:
नन्हे से हनुमान जी महाराज पालने में झूल रहे है की तभी उन्हें भूख लग आई, आकाश में देखा तो नारंगी के फल के समान सूर्यदेव दैदीप्यमान हो रहे थे बस उन्हें ही फल समझकर खाने के लिए इन्होंने अंतरिक्ष में छलांग लगा दी।
वहां जब सूर्यदेव ने देखा की शिव के साक्षात स्वरूप हनुमान मेरे सूर्यमंडल में क्रीड़ा करने आ रहे है तो उन्होंने तुरंत अपनी किरणों को शीतल कर लिया और हनुमान जी ने बड़ी सरलता से सूर्यमंडल में प्रवेश कर लिया। वहां पहुंचकर वो चंद्रमौलेश्वर शंकर के स्वरूप हनुमानजी अपने रुद्र स्वरूप सूर्यदेव के रथ में विराजित हो गए और शिशु लीला करने लगे, वे सूर्यदेव के साथ खेलने लगे, बाल सुलभ क्रीड़ा करने लगे। संयोग से वो अमावस्या का दिन था और सूर्यदेव पर ग्रहण लगने का पर्व भी था, उसी समय सिंहिका का पुत्र राहु सूर्य को ग्रस्त करने वहां सूर्यमंडल में आया।
सूर्यदेव के रथ पर बालक हनुमान को देखकर भी राहु ने अभिमानवश अनदेखी की और सूर्य को ग्रस्त करने आगे बढ़ा ही था की इतने में हनुमान जी न राहु को अपने छोटे छोटे हाथो में दबोच लिया, वो बुरी तरह से छटपटाने लगा और सूर्य पर ग्रहण लगा ही नहीं पाया।जैसे तैसे स्वयं को बालक हनुमान के हाथ से छुड़ाकर वो इंद्र के पास गया और क्रोधित होकर कहा -
"हे इन्द्र! आपने ही तो मेरे तोषण के लिए पर्व आने पर सूर्य को ग्रहण करने की व्यवस्था की है, फिर आज मुझे एक नन्हे से वानर बालक ने कैसे सूर्य ग्रहण करने से रोक दिया?"
इंद्र के मन में विस्मय हुआ की भला सूर्यमंडल तक पहुंचने की शक्ति किसमे आ गई है? भला कौन महान आत्मा सूर्य की किरणों से दग्ध (जल जाने) हुए बिना सूर्य के रथ पर सवार हो गया है? वे राहु के साथ तुरंत सूर्यदेव के पास चले। इतने में राहु ने पुनः से गति पकड़ी और पूरी शक्ति से सूर्य को ग्रहण करने चला और हनुमानजी को राहु को आता देखकर पुनः से भूख की स्मृति हो आई तथा उसे एक फल समझकर उसी को खाने हनुमानजी लपके। राहु भयभीत होकर इंद्र के पास प्राण रक्षा करने की प्रार्थना लिए भागे, इधर हनुमानजी भी उसके पीछे पीछे ही थे।
उन्होंने ऐरावत हाथी और उसपर सवार इंद्र को देखा तो उसे भी कोई मधुर फल समझकर ऐरावत समेत इंद्र को खाने के लिए छलांग लगा दी और फिर इंद्र ने अपने वज्र का प्रहार कर दिया।
शिव स्वरूप हनुमान ने अपने भक्त दधीचि की अस्थियों से बने उस वज्र का सम्मान रखने के लिए अपने हनु (थोड़ी) पर एक घाव स्वीकार कर लिया और मूर्छित होने की लीला की। फिर पवन देव ने अपने पुत्र हनुमान के मूर्छित हो जाने पर सारे जगत की वायु रोक दी और प्रलय की स्थिति निर्मित हो गई जिसके पश्चात ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इंद्र, यम, कुबेर, अग्नि समेत समस्त देवों ने आशीर्वाद की वर्षा करके असंख्य वरदान देकर नन्हे से हनुमान जी को प्रसन्न किया और इसके अनन्तर वायु देव ने पुनः से वायु का संचार जगत में किया जिससे संसार का हाहाकार समाप्त हुआ।
यद्यपि परमेश्वर शिव स्वरूप हनुमान जी को इन किसी भी वरदान की आवश्यकता थी नही, क्योंकि इस मायामय जगत के निर्माता ही वे स्वयं है उनसे परे तो कुछ भी नही है, तथापि श्रीराम अवतार में मधुर मधुर लीला प्रसंग करने हेतु उन्होंने सब वरदान स्वीकार किए।
आध्यात्म रामायण तथा स्कंद पुराण में इस लीला का वर्णन इस प्रकार है--
"बाल समय रवि भक्ष लियो
तब तीनहु लोक भयो अंधियारो"
तुलसी बाबा बड़ी गूढ़ भाषा में कहते है ये, इसके पीछे राहु भक्षण की लीला का रहस्य छुपा हुआ है और तीनो लोक में वायु रुक जाने से जो अंधियारा जो हाहाकार व्याप्त हो गया था उसका वर्णन तुलसी बाबा कर रहे है यहां। श्रीराम ने अयोध्या में अपनी सभा में एक बार कहा था:-
" लंका युद्ध में कोई भी एक ऐसा वीर नही था जो श्री हनुमान जी के "चरणों के नाखून की भी बराबरी कर सके। अगर हनुमान संकल्प कर लेते तो निमिष मात्र में रावण समेत समूची शत्रु सेना का संहार हो जाता।" (वाल्मीकी रामायण उत्तरकांड)
आधुनिक वैज्ञानिकों का मत :-
एच2ओ यानी पानी जैसे सरलतम उदाहरण से अपनी बात को प्रमाण देने जा रहा हूं।
नदी में भी वही एच2ओ बह रहा है और समुद्र में भी वही एच2ओ बह रहा है, है ना?फिर नदियों का जल जब अंत में समुद्र पी जाता है तब क्या होता है?
वही एच2ओ यानी जल ही तो रहता है ।
ठीक वैसे ही रुद्र के एक स्वरूप हनुमान जी ने रुद्र के दूसरे स्वरूप सूर्य देव को अपने में विलीन कर भी लिया तो भी रुद्र ही शेष रहेंगे।
भले वो स्वरूप हनुमान है या स्वरूप सूर्य है, वो रुद्र ही रहेंगे ।
जब पदार्थ एक ही है तो निगल लेने का विलीन कर लेने के बाद भी कोई बदलाव तो होना नही है, ठीक वैसे ही जैसे नदी का जल और समुद्र का जल कोई अलग पदार्थ नही बनेगा, वो वही का वही जल ही रहने वाला है।
इस प्रकार अध्यात्म श्रद्धा विश्वास और वैज्ञानिक सभी
आधारों से ये घटना पूर्ण सत्य सिद्ध होती है।यह अपने आप में किसी चमत्कार से कम नहीं है।
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