राम में विष्णु का आधा अंश था। भरत में विष्णु का एक चौथाई अंश था। लक्ष्मण और शत्रुघ्न में विष्णु का एक आठवां -एक आठवां अंश रहा है। इसी अनुपात में इनमें दैवी गुणों का प्रस्फुटन हुआ है। जहां त्रेता युग के भगवान राम भगवान विष्णु के अंश थे। वहीं लक्ष्मण शेष नाग के अवतार थे। भरत गरुण और सुदर्शन चक्र के अवतार थे तथा शत्रुघ्न पांचजन्य शंख के अवतार थे।
लक्ष्मण राम के शाश्वत प्रधान योद्धा :-
दशरथ तथा सुमित्रा के पुत्र, उर्मिला के पति लक्ष्मण प्रधान योद्धाओं में शामिल थे।राम को वनवास मिलने के बाद उनकी रक्षा के लिए छोटे भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता भी जंगल चले गए, लेकिन वहां भाई और भाभी की रक्षा के लिए लक्ष्मण जी नींद पर विजय प्राप्त कर पूरे 14 साल तक जागते रहे.वे संसार के सबसे बड़े सुरक्षा सेवक रहे।
भक्ति और आदर्श भ्रातृप्रेम से सराबोर भरत :-
भरत हिंदू धर्म के पूजनीय देवता श्रीराम के भाई थे।
भरत का चरित्र समुद्र की भाँति अगाध है, बुद्धि की सीमा से परे है। लोक-आदर्श का ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण अन्यत्र मिलना कठिन है। भ्रातृ प्रेम की तो ये सजीव मूर्ति थे।
भरत ने गुरु वसिष्ठ की आज्ञा से पिता की अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की। सबके बार-बार आग्रह के बाद भी इन्होंने राज्य लेना अस्वीकार कर दिया और दल-बल के साथ श्री राम को मनाने के लिये चित्रकूट चल दिये। भरत के समान शीलवान भाई इस संसार में मिलना दुर्लभ है। अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या ब्रह्मा, विष्णु और महेश का भी पद प्राप्त करके श्री भरत को मद नहीं हो सकता। श्री रामभक्ति और आदर्श भ्रातृप्रेम के अनुपम उदाहरण श्री भरत धन्य हैं।
मौन सेवाव्रती शत्रुघ्न :-
शत्रुघ्न अयोध्या के राजा दशरथ के चौथे पुत्र और राम के छोटे भाई थे। सुमित्रा से लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न उत्पन्न हुए थे। शत्रुघ्न ने मधुपुरी (आधुनिक मथुरा) के शासक लवणासुर को मारकर उसे फिर से बसाया था। शत्रुघ्न कम से कम बारह वर्ष तक मधुपुरी नगरी एवं प्रदेश के शासक रहे। शत्रुघ्न का चरित्र अत्यन्त विलक्षण था। ये मौन सेवाव्रती थे। बचपन से भरत का अनुगमन तथा सेवा ही इनका मुख्य व्रत था। ये मितभाषी, सदाचारी, सत्यवादी, विषय-विरागी तथा भगवान श्री राम के दासानुदास थे। जिस प्रकार लक्ष्मण हाथ में धनुष लेकर राम की रक्षा करते हुए उनके पीछे चलते थे, उसी प्रकार शत्रुघ्न भी भरत के साथ रहते थे।
राम की सेना के प्रमुख बीर सहचर सखा:-
भक्तमाल के बीसवें छ्न्द में नाभादास ने राम के सहचर वर्ग को इस प्रकार गिनाया है--
दिनकर सुत हरिराज बालिबछ केसरि औरस।
दधिमुख द्विविद मयंद रिच्छपति सम को पौरस।।
उल्का सुभट सुषेन दरीमुख कुमुद नील नल।
सरभ रु गवै गवाच्छ पनस गन्धमादन अतिबल।।
पद्म अठारह यूथपति रामकाज भट भीर के।
सुभ दृष्टि वृष्टि मो पर करौ जे सहचर रघुबीर के।।
उक्त सूची के अलावा अन्यानेक सहचर और बीरों का नाम भी मिलता।कुछ की कुछ सूचनाएं भी मिलती है और कुछ का केवल नाम ही मिलता है। ये सब किसी ना किसी देव के अंश से उत्पन्न हुए थे। ब्रह्मा जी के आदेश से इन लोगों ने बानर और रीक्ष का शरीर रामकाज के लिए धारण किया था। इनमें अथाह बल था। भगवान इन सबको अपना सखा मानते थे। इनकी प्रशंसा करते हुए राम गुरुदेव वशिष्ठ से कहते हैं --
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे।
भए समर सागर कहँ बेरे।।
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे।
भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।
इन सहचरों का भी प्रभु पर इतना प्रेम था कि वे लोग जी जान से युद्ध करने पर भी इसे प्रभु की सेवा में तुच्छ कार्य भी नहीं गिनते। भगवान द्वारा प्रशंसा किए जाने पर वे कहते हैं --
सुनि प्रभु बचन लाज हम मरही।
मसक कहूं खग पति हित करहीं।।
सुग्रीव की आज्ञा के अनुसार लंका पर चढ़ाई करते समय बड़े-बड़े वानर वीर माल्यवान पर्वत लक्ष्मण आदि के साथ बैठे हुए भगवान श्रीराम के पास पहुँचने लगे। तुलसी दासजी कहते हैं कि उस सेना में 18 पद्म यूथपति थे। श्री सुग्रीव, हनुमान, अंगद, जामवंत, नल और नील से तो सभी परचित हैं वानर सेना में वानरों के अलग अलग झूंड थे। हर झूंड का एक सेनापति होता था जिसे यूथपति कहा जाता था। लंका पर चढ़ाई के लिए सुग्रीव ने ही वानर तथा ऋक्ष सेना का प्रबन्ध किया था। नल, नील, अंगद, क्राथ, मैन्द तथा द्विविद के द्वारा सुरक्षित हुई वह विशाल वानर सेना श्रीरामचन्द्र जी का कार्य सिद्ध करने के लिये आगे बढ़ती जा रही थी। जहाँ फल-मूल की बहुतायत होती, मधु और कन्द-मूल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते तथा जल की अधिक सुविधा होती, ऐसे कल्याणकारी और उत्तम विविध पर्वतीय शिखरों पर डेरा डालती हुई वह वानर सेना बिना किसी विघ्न-बाधा के खारे पानी के समुद्र के निकट जा पहुँची। असंख्य ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित वह विशाल वाहिनी दूसरे महासागर के समान जान पड़ती थी। सागर के तटवर्ती वन में पहुँचकर उसने अपना पड़ाव डाला।
रामजी के अनेक बीर सखा का पर्याप्त विवरण जो मिलता है। उसे नीचे दिया जा रहा है। कुछ के नाम ही मिलते हैं जिनका विवरण दे पाना संभव नही है -- पृथु, जम्भ, ज्योतिर्मुख,महोदर,सानुप्रस्थ,सभादन,सुन्द,वालीमुख, शतवलि, वेगदर्श और वेमदर्शी आदि कुछ बानर यूथ पतियों के बारे में केवल नामोल्लेख ही मिलता है। राम के वापसी के समय कैकेयी कुमार भरत ने सुग्रीव, जाम्बवान्, अंगद, मैंद, द्विविद, नील, ऋषभ, सुषेण (तारा के पिता), और पनस का पूर्णरूप से आलिङ्गन किया। वे इच्छानुसार रूप धारण करने वाले वानर मानव रूप धारण करके भरत जी से मिले और उन सब ने महान हर्ष से उल्लसित होकर उस समय भरत जी का कुशल समाचार पूछा। (रामायण युद्ध कांड अध्याय 127 )
रावण की मृत्यु के बाद उनके अनुचर सखा गण को राम आभार सहित अपने अपने धाम को जाने को कहा।पर कोई नहीं वापस गया। सभी राज्याभिषेक और सजी धजी अयोध्या देखने आए हुए थे। तुलसी दास कहते हैं --
कंचन कलस बिचित्र संवारे।
सबहिं धरे सजि निज निजद्वारे॥
बंदनवार पताका केतू।
सबन्हि बनाए मंगल हेतू।।
छः माह तक उन सबकी खूब आव भगत होती रही। उन्हें उपहार वस्त्र आभूषण देकर विदा किया गया।वे राम की छवि अपने हृदय में बसाकर लौट गए ,परंतु कई वीर सखा स्थाई रूप से अयोध्या वासी हो गए। जब रामजी बैकुंठ जा रहे थे तो अपने इन सखा वीरों को रामकोट और अयोध्या की रखवाली का दायित्व भी दे दिया था।
श्री रुद्रयामलोक्त अयोध्या महात्म्य के अध्याय 6 श्लोक 30 से 46 के मध्य रामकोट की सुरक्षा में लगे सभी वीरों और सखाओं के स्थान के बारे में विस्तार से जानकारी दिया गया है। इनमे अनेक स्थल तो राम जन्म भूमि न्यास के अधिग्रहण क्षेत्र की सीमा में आते हैं। कुछ को तो न्यास अपनी नई संरचना में स्थान प्रदान किया गया है।
हनुमान जी का हनुमान गढ़ी :-
सुग्रीव के मित्र और वानर यूथ पति। प्रधान योद्धाओं में से एक। ये रामदूत भी हैं। हनुमान एक दिव्य वानर साथी और भगवान राम के भक्त हैं। हनुमान महाकाव्य के केंद्रीय पात्रों में से एक हैं। वह एक ब्रह्मचारी (जीवन भर ब्रह्मचारी) और चिरंजीवी में से एक है। उन्हें शिव के अवतार के रूप में वर्णित किया गया है। अयोध्या के वर्तमान रामकोट राजप्रासाद के मुख्य फाटक पर अंजनी नन्दन पवन पुत्र श्रीहनुमानजी का निवास हनुमानगढ़ी स्थित है ।
सुग्रीव जी का टीला :-
यह बाली का छोटा भाई और राम सेना का प्रमुख प्रधान सेना अध्यक्ष था । यह सूर्य के पुत्र थे ।सूर्य के सारथी अरुण इनकी जैविक मां थे। सूर्य के आदेश से उनके परम प्रिय शिष्य हनुमान इनके मंत्री थे। वानरों के राजा सुग्रीव 10,00,000 से ज्यादा सेना के साथ युद्ध कर रहे थे।भगवान् राम को सेना के पीछे का भाग सुग्रीव के नेतृत्व में था। भगवान् राम ने किष्किन्धापति सुग्रीव को परकोटे का वायव्य भाग घेरने के लिए तैनात किया था। वे 36 करोड़ यूथपतियों के साथ वहॉं स्थित थे। अयोध्या के श्रीहनुमान गढ़ी जी के दक्षिण पाशर्व में श्रीसुग्रीव जी अपने किले में प्रतिष्ठित है।
विभीषण जी का कुण्ड और मंदिर :-
विभीषण रावण का छोटा भाई था। वह महान चरित्र वाला राम का प्रमुख सलाहकार राक्षस था।जब रावण ने सीता का अपहरण किया, तो उसने रावण को सलाह दी कि वह उसे अपने पति राम को एक क्रमबद्ध तरीके से लौटा दे। रंत रावण ने सख्ती से मना कर दिया। जब रावण ने उसकी सलाह नहीं मानी और उसे राज्य से बाहर निकाल दिया, तो विभीषण ने रावण को छोड़ दिया और राम की सेना में शामिल हो गया। बाद में, जब राम ने रावण को हराया, राम ने विभीषण को लंका के राजा के रूप में ताज पहनाया। अयोध्या के राम दुर्ग के उत्तर द्वार पर प्रधान रक्षक का भार विभीषण जी का कुंड और मंदिर है। उनके साथ उनकी स्त्री 'सरमादेवी' भी रहा करती हैं जो अयोध्या में हर्ष पूर्वक रहकर धर्मशील जनों की रक्षा और दुष्ट बुद्धि वालों का भक्षण करती है।
विघ्नेशवर देव का स्थान :-
अयोध्या के राम दुर्ग के उत्तर द्वार पर प्रधान रक्षक का भार विभीषण कुंड वा शरमा जी के पूर्व में विघ्नेशवर देव का स्थान है। जिनके स्मरण मात्र से विघ्नों का लेश भी नहीं आ सकता है।
पिण्डारक जी का स्थान:-
अयोध्या के राम दुर्ग के उत्तर द्वार पर प्रधान रक्षक का भार विभीषण जी वा शरमा जी के पूर्व में विघ्नेशवर जी हैं उनके पूर्व दिशा में बलवान श्री पिण्डारक जी का स्थान है। ये पापियों को दंड दिया करते हैं।
मतगजेंद्र (मात गैंडजी) का स्थान:-
अयोध्या के वर्तमान रामकोट में पोस्ट आफिस से अशर्फी भवन मार्ग पर पिण्डारक जी के पूर्व दिशा में बड़े ही बीर और मंगल करने वाले विभीषण जी के पुत्र मतगजेंद्र (मात गैंड) जी का स्थान है। ये अयोध्या के कोटपाल ( कोतवाल) हैं तथा सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। इनको रामकोट के उत्तर फाटक के पाशर्व में कनक भवन के उत्तर पूर्व में स्थित यह मंदिर विभीषण के पुत्र मतगजेन्द्र को समर्पित है। जानकी जीवन ट्रस्ट द्वारा इस मंदिर की देखभाल की जाती है। तथा अयोध्या के उत्तरी दरवाजे की सुरक्षा करता है। मत्गजेंद्र जिन्हें अयोध्या के कोतवाल के रूप में जाना जाता है और उनकी पूजा आराधना होती है । वर्ष भर में कई लाख श्रद्धालु दर्शन पूजन के लिए अयोध्या आते है ।
द्विविद जी का स्थान :-
सुग्रीव के मन्त्री और मैन्द के भाई थे। ये बहुत ही बलवान और शक्तिशाली थे, इनमें दस हजार हाथियों का बल था। महाभारत सभा पर्व के अनुसार किष्किन्धा को पर्वत-गुहा कहा गया है और वहाँ वानरराज मैन्द और द्विविद का निवास स्थान बताया गया है। द्विविद को भौमासुर का मित्र भी कहा गया है। महाभारत सभा पर्व के अनुसार किष्किन्धा को पर्वत-गुहा कहा गया है और वहाँ वानरराज मैन्द और द्विविद का निवास स्थान बताया गया है। महा बाहु सहदेव दक्षिणापथ की ओर गये और लोक विख्यात किष्किन्धा नामक गुफा में जा पहुँचे। वहाँ सहदेव से वानरराज मैन्द और द्विविद के साथ सात दिनों तक युद्ध किया था। वे उन दोनों महान योद्धाओं का कुछ बिगाड़ नहीं सके। तब दोनों वानर भाई प्रसन्न होकर सहदेव से बोले- 'पाण्डव प्रवर! तुम सब प्रकार के रत्नों की भेंट लेकर जाओ। परम बुद्धिमान धर्मराज के कार्य में कोई विघ्न नही पड़ना चाहिये।' वानर यूथपति द्विविद अश्विनी कुमारो के अंश से जनमे हुए थे । अयोध्या के वर्तमान रामकोट में पोस्ट आफिस से अशर्फी भवन मार्ग पर पिण्डारक जी के पूर्व दिशा में बड़े ही बीर और मंगल करने वाले विभीषण जी के पुत्र मतगजेंद्र के पूर्व दिशा में द्विविदजी का स्थान है।
अंगद जी का टीला : -
इंद्र के पुत्र और सुग्रीव के भाई बाली तथा तारा का पुत्र वानर यूथ पति एवं प्रधान योद्धा था। अंगद रामदूत भी था. अंगद ने युद्ध में अदुभुत साहस दिखाया. उन्होंने रावण के पुत्र नरान्तक और रावण की सेना के प्रमुख योद्धा महापार्श्व का वध किया था उसने रावण की शक्तिशाली सेना दस दिनों के अंदर ही धूल चटा दी थी.भगवान् राम को सेना के हृदय वाला स्थान अंगद को दिया गया था।साथ ही अंगद ने दक्षिणी द्वार का मोर्चा संभाल रखा था।अयोध्या के रामदुर्ग में हनुमान गढ़ी से मिला हुआ अंगदजी का दुर्ग है |
जामवंत जी का स्थान :-
जाम्बवन्त जी ऋक्ष प्रजाति के थे। काले रंग के शतकोटि सहस्र (दस अरब) रीछों की सेना के साथ जाम्बवान रावण युद्ध में समलित हुए थे। स्यमंतक मणि के लिये श्री कृष्ण एवं जामवन्त में नंदिवर्धन पर्वत ( नाँदिया, सिरोही, राजस्थान ) पर 28 दिनो तक युध्द चला था। जामवंत को जब श्रीकृष्ण के भीतर श्रीराम के दर्शन हुए तब जामंवत ने अपनी पुत्री जामवन्ती का विवाह श्री कृष्ण द्वारा स्थापित शिवलिंग ( रिचेश्वर महादेव मंदिर नांदिया ) की शाक्शी में करवाया। युद्ध मे जाम्बवन्त ने यज्ञ कूप नामक राक्षस का वध किया था। हनुमान की माता अंजना ने जाम्बवन्त को अपना बड़ा भ्राता माना था जिससे वह शिवान्श हनुमान के मामा बन गये। सुग्रीव के मित्र रीछ, रीछ सेना के सेनापति एवं प्रमुख सलाहकार जामवंत जी थे।अग्नि पुत्र जाम्बवंत एक कुशल योद्धा के साथ ही मचान बांधने और सेना के लिए रहने की कुटिया बनने में भी कुशल थे। अयोध्या के पोस्ट आफिस से अशर्फी भवन मार्ग पर मतगजेंद्र जी के ईशान कोण में मयंद जी और उसके दक्षिण दिशा की प्रधान रक्षा का भार जांबवान जी बिराजते हैं।
नल जी का स्थान : -
यह भगवान विश्वकर्मा के पुत्र हैं और विश्वकर्मा के समान ही शिल्पकला में निपुण हैं । सुग्रीव की सेना का वानर वीर और सुग्रीव के सेना नायक थे। वह सुग्रीव सेना में इंजीनियर भी थे। उन्होंने सेतुबंध की रचना की थी।नल और नील को ऋषियों ने श्राप दिया था कि वे जिस चीज को छुएंगे वह पानी में नहीं डूबेगी. अयोध्या के रामकोट के दक्षिण द्वार पर नल नील की स्थिति है।
नील जी का स्थान : -
यह भगवान अग्नि देव के पुत्र हैं और एक ही मां से पैदा होने के कारण नल के भाई थे। ये सुग्रीव का सेनापति थे। उनके स्पर्श से पत्थर पानी पर तैरते थे। वह सेतुबंध की रचना में सहयोग दिया था। वह सुग्रीव सेना में इंजीनियर और सुग्रीव के सेना नायक रहे। नील के साथ 1,00000 से ज्यादा वानर सेना थी।नल और नील को ऋषियों ने श्राप दिया था कि वे जिस चीज को छुएंगे वह पानी में नहीं डूबेगी.महर्षि वाल्मीकि के अनुसार नील की सेना में 10 अरब 8 लाख सैनिक थे।राजा रावण का मंत्री और वीर सेनापति प्रहसत था। युद्ध में अकम्पन की मृत्यु हो जाने के बाद रावण ने अपने वीर सेनापति प्रहस्त को युद्ध के लिए भेजा था। वानर सेनापति नील और प्रहस्त का युद्ध भी बहुत भयंकर था। नील ने एक बड़ी सी शिला उठाकर प्रहस्त के सिर पर दे मारी, जिससे उसका सिर फट गया और वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। अयोध्या के रामकोट के दक्षिण द्वार पर नल नील की स्थिति है।
शतबली जी का स्थान :-
शतबली के साथ भी 1,00000 से ज्यादा वानर सेना थी। यह सुग्रीव के नेतृत्व में एक महान वानर था। वह सीता की खोज के लिए उत्तरी क्षेत्रों में प्रतिनियुक्त वानरों का नेता था। (वाल्मीकि रामायण, किष्किंधा कांड सर्ग 43, : पुराणिक इनसाइक्लोपीडिया)। शतबलि को 20 करोड़ योद्धाओं के साथ आग्नेय दिशा की ओर से आक्रमण करने के लिए भगवान् ने तैनात किया। अयोध्या के रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र जी के उत्तर दुर्गेश्वर जी के निकट शतवली जी का स्थान है।
मैन्द जी का स्थान :-
मंद द्विविद नामक दो भाई भी सुग्रीव के यूथ पति थे। हर झूंड का एक सेनापति होता था जिसे यूथपति कहा जाता था। ये बहुत ही बलवान और शक्तिशाली थे, इनमें दस हजार हाथियों का बल था। महाभारत सभा पर्व के अनुसार किष्किन्धा को पर्वत-गुहा कहा गया है और वहां वानरराज मैन्द और द्विविद का निवास स्थान बताया गया है। ये दोनों भाई दीर्घजीवी थे। रामायण के बाद भी ये जिंदा रहे और महाभारत काल में भी इनकी उपस्थिति मानी गई थी।यह भी कहा जाता है कि एक बार महाभारत के सहदेव किष्किन्धा नामक गुफा में जा पहुंचे। वहां वानरराज मैन्द और द्विविद के साथ उन्होंने सात दिनों तक युद्ध किया था। परंतु वे उन दोनों महान योद्धाओं का कुछ बिगाड़ नहीं सके। तब दोनों वानर भाई प्रसन्न होकर सहदेव से बोले- 'पाण्डव प्रवर! तुम सब प्रकार के रत्नों की भेंट लेकर जाओ। परम बुद्धिमान धर्मराज के कार्य में कोई विघ्न नही पड़ना चाहिये।' मैंद (वानर) अश्विनी कुमारो के अंश से उत्पन्न हुआ था। अयोध्या के पोस्ट आफिस से अशर्फी भवन मार्ग पर मतगजेंद्र जी के ईशान कोण में मयंद जी
का स्थान है।
नवरत्न कुबेर जी का टीला :-
अयोध्या के हनुमान गढ़ी के दक्षिण में वर्तमान जन्म भूमि अधिग्रहीत क्षेत्र में नवरत्न कुबेर जी टीला है।
सुषेण वैद्य का स्थान:-
रामायण आदि के अनुसार यह वरुण का पुत्र, बाली का ससुर और सुग्रीव का वैद्य था । वह धर्म के अंश से उत्पन्न हुए थे। इसने राम रावण के युद्ध में रामचंद्र की विशेष सहायता की थी ।उनके साथ वेगशाली वानरों की सहस्र कोटि सेना थी। सुषेण वैद्य सुग्रीव के ससुर थे। पहले ये लंका के राजा राक्षसराज रावण का राजवैद्य थे। बालि की पत्नी अप्सरा तारा सुषेण की धर्म पुत्री थीं। बालि वध के बाद तारा का विवाह सुग्रीव से कर दिया गया था। वैसे बालि की पत्नी रूमा थीं। अंगद बालि का पुत्र था। उन सुषेण का जन्म वरुण के अंश से हुआ था। अयोध्या के हनुमान गढ़ी के दक्षिण में वर्तमान जन्म भूमि अधिग्रहीत क्षेत्र में नवरत्न कुबेर जी टीला और उससे पूर्व में सुषेण रहते है ।
केसरी जी का स्थान :-
केसरी एक पुरुष वानर है । वह हनुमान के पिता और अंजना के पति हैं । जब केसरी मेरु पर्वत में निवास कर रहा था , तब ब्रह्मा ने मनगर्वा नाम की एक अप्सरा को श्राप दिया और उसे वानर बना दिया। उन्होंने अंजना के नाम से केसरी से विवाह किया। लंबे समय तक दंपति निःसंतान थे। अंजना ने वायु को एक बच्चे के लिए प्रपोज किया। शैव परंपरा में , शिव से विष्णु की मदद करने के लिए एक पुत्र पैदा करने का अनुरोध किया गया था, जो रावण को मारने के लिए राम के रूप में अवतार लेने वाले थे । शिव और पार्वती ने वानर का रूप धारण किया और संभोग में लगे रहे। जब वायु प्रकट हुई, तो युगल ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और पार्वती ने अपने अंदर के बच्चे को प्रकट किया। पार्वती ने वानर के रूप में भ्रूण को कैलाश ले जाने से मना कर दिया। जैसा कि शिव ने निर्देश दिया था, पार्वती ने बच्चे को वायु को अर्पित किया, जिसने इसे अंजना के गर्भ में स्थानांतरित कर दिया, जिसने हनुमान को जन्म दिया । वह महान योद्धा थे। वह 1,00000 से ज्यादा वानर सेना के साथ युद्ध कर रहे थे। अयोध्या के पोस्ट आफिस से अशर्फी भवन मार्ग पर मतगजेंद्र जी के ईशान कोण में मयंद जी और उसके दक्षिण में जांबवान जी और जांबवान जी के दक्षिण तरफ केशरी जी बिराजते हैं।
ऋषभ जी का स्थान :-
भगवान् राम को सेना के दाहिने पार्श्व में ॠषभ के नेतृत्व में सेना थी। अयोध्या के रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र जी के उत्तर दुर्गेश्वर जी के निकट शतवली जी और कुछ दूर पर गन्धमादन जी के स्थान से आगे ऋषभ जी का स्थान है।
शरभ जी का स्थान :-
महर्षि वाल्मीकि के अनुसार शरभ की सेना में 1 लाख 40 हजार सैनिक थे। ये पर्जन्य देव के पुत्र थे। अयोध्या के रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र जी के उत्तर दुर्गेश्वर जी के निकट शतवली जी और कुछ दूर पर गन्धमादन जी के स्थान से आगे ऋषभ जी के आगे शरभ जी का स्थान है।
पनस जी का स्थान-
यह रामदल का एक बंदर यूथ पति था। विभीषण के चार मंत्रियों में से एक पनस रहा। यह 1,00000 से ज्यादा वानर सेना के साथ युद्ध कर रहा था । उनका जन्म वृहस्पति के अंश से हुआ था। यह परियात्र पर्वत पर रहता था। पनस बुद्धिमान तथा महाबली वानर सत्तावन करोड़ सेना साथ ले आया था। महर्षि वाल्मीकि के अनुसार पनस की सेना में 50 लाख सैनिक थे। अयोध्या के रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र जी के उत्तर दुर्गेश्वर जी के निकट शतवली जी और कुछ दूर पर गन्धमादन जी के स्थान से आगे ऋषभ जी शरभ जी उनसे आगे पनस जी विराजमान हैं ।
गन्धमादन जी का स्थान :-
गन्धमादन पर्वत पर रहने वाला गन्धमादन नाम से विख्यात वानर वानरों की दस खरब सेना साथ लेकर आया। भगवान् राम को सेना के बायें पार्श्व में गन्धमाधन के नेतृत्व में विशाल सेना थी|गंधमादन (वानर) को कुबेर अपने अंश से उत्पन्न किया था। अयोध्या के रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र जी के उत्तर दुर्गेश्वर जी के निकट शतवली जी और कुछ दूर पर गन्धमादन जी का स्थान है।
गवाक्ष जी का स्थान:-
लंगूर वानरों के यूथपति गवाक्ष थे। महर्षि वाल्मीकि के अनुसार गवाक्ष की सेना 1 करोड़ सैनिक थे। लंका युद्ध में दायीं ओर से सहायता देने के लिए लंगूरपति गवाक्ष उपस्थित थे। गोलांगूल (लंगूर) जाति के वानर गवाक्ष, जो देखने में बड़ा भयंकर था, साठ सहस्र कोटि (छः अरब) वानर सेना साथ लिये दृष्टिगोचर हुआ। वानर यूथपति गवाक्ष यम राज अंश से जनमे थे। अयोध्या के हनुमान गढ़ी के दक्षिण में वर्तमान जन्म भूमि अधिग्रहीत क्षेत्र में नवरत्न कुबेर जी टीला के उत्तर में गवाक्ष जी का स्थान है।
दाधिवक्त्र ( दधिमुख)जी स्थान:-
वानरों में वृद्ध तथा अत्यन्त पराक्रमी दधिमुख भयंकर तेज से सम्पन्न वानरों की विशाल सेना साथ लेकर आये। वे बड़े सौम्य, भगवत भक्त और मधुरभाषी थे। जिनके मुख (ललाट) पर तिलक का चिह्न शोभा पा रहा था तथा जो भयंकर पराक्रम करने वाले थे। इन्हें चंद्रमा का अंश कहा जाता है। वह वानर राज सुग्रीव का मामा था। उन्हें सुग्रीव के मधुवन नामक मनोहर बाग की रखवाली का भी दायित्व भी मिला था। जब हनुमान जी ने सीता का पता लगा वापस लौटे तो बानर दल खुशी में उपवन से फल खाने , शहद पीने और बाग उजारने की सूचना सुग्रीव को दी। वह दधिमुख वीर वानर मुझे सूचित करता है कि अंगद के नेतृत्व में उन युद्ध के समान वनवासियों ने शहद पी लिया है और बाग के फल खाने के लिए हैं। जो लोग अपने मिशन में विफल रहे थे, वे इस तरह से पलायन में शामिल नहीं होते। निश्चित रूप से वे सफल रहे हैं क्योंकि उन्होंने लकड़ी को नष्ट कर दिया है। इसी कारण से उन्होंने उन लोगों को घुटनों से पकड़ लिया है जिन्होंने अपनी लीला-क्रीड़ा में बाधा डाली है और उस वीर दधिमुख का तिरस्कार किया है जिसे मैंने स्वयं अपने बाग का संरक्षक नियुक्त किया था। अंगद के नेतृत्व में उन वीर वानरों ने निश्चित रूप से मधुर वन को उजाड़ दिया है। दक्षिणी क्षेत्र की खोज करने के बाद, उनके वापसी पर इस बाग ने अपने लोलुपता को उत्तेजित कर दिया, जिसके बाद उन्होंने इसे लूट लिया और शहद पी लिया, पहरेदारों पर हमला किया और उन्हें अपने घुटनों से पकड़ लिया। अपने पराक्रम के लिए विख्यात यह मृदुभाषी दधिमुख बानर मुझे यह समाचार सुनाने आया है।अयोध्या के रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र ( दधीमुख )जी प्रतिष्ठित हैं ।
दुर्गेश्वर जी का स्थान:-
अयोध्या के रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र जी के उत्तर में स्थित द्वारदेश में दुर्गेश्वर जी का स्थान रहा है।
अपर्याप्त संदर्भ वाले वानर:-
क्राथ जी :-
क्राथ हिन्दू मान्यताओं और पौराणिक महाकाव्य महाभारत के उल्लेखानुसार एक वानर यूथपति था।
जटायु जी:-
महाकाव्य में एक दिव्य पक्षी और अरुण का छोटा पुत्र है। वह दशरथ (राम के पिता) के पुराने मित्र थे। जटायु को रावण ने तब मारा था जब उसने सीता के अपहरण के दौरान सीता को बचाने की कोशिश की थी। यह रामभक्त पक्षी,रावण द्वारा वध, राम द्वारा अंतिम संस्कार किया गया। इनका अयोध्या में जन्म भूमि परिसर में स्थान दिया जाना प्रस्तावित है।
संपाति जी :-
संपाति राम के समर्थक थे। वह जटायु का भाई और अरुण का पुत्र था। उसने श्री राम की मदद करने के लिये अपनी दिव्यदृष्टी से सीता का पता लगाया और श्रीराम को बतलाया की सीता लंका मे है ।
निषादराज गुह जी :-
निषादराज गुह निषादों के राजा का उपनाम है। वे ऋंगवेरपुर के राजा थे, उनका नाम गुह था। वे निषाद समाज के थे और उन्होंने ही वनवासकाल में राम, सीता तथा लक्ष्मण को गंगा पार करवाया था। वह राम के बाल सखा थे । वे एक ही गुरुकुल में रहकर शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने वन गमन के समय राम का स्वागत किया था।
गज जी :-
पुराणों के अनुसार गज विभावसु के भाई थे। महाभारत के अनुसार गज (यूथपति) थे। वह 1,00000 से ज्यादा वानर सेना के साथ युद्ध कर रहे थे। ये यूथपति थे। महापराक्रमी वानरराज ‘गज’ एक अरब सेना के साथ युद्ध किए।गज वानर यूथपति यमराज अंश से जन्मे थे।
त्रिजटा राक्षसी :-
त्रिजटा एक राक्षसी है जिसे सीता की रक्षा का कर्तव्य सौंपा गया था जिसे लंका के राजा ने अपहरण कर लिया था। रामायण के बाद के रूपांतरणों में, उन्हें विभीषण की बेटी के रूप में वर्णित किया गया है। त्रिजटा एक बुद्धिमान राक्षसी के रूप में प्रकट होती है, जो रावण के विनाश और राम की जीत का सपना देखती है। वह राम और रावण के बीच युद्ध के मैदान के सर्वेक्षण में सीता के साथ जाती है और सीता को राम की भलाई के लिए आश्वस्त करती है जब सीता अपने पति को बेहोश देखती है और उसे मृत मान लेती है।
तार (वानर) :-
तार हिन्दू पौराणिक ग्रंथ के अनुसार श्रीरामचन्द्र की सेना का एक वानर यूथपति था। महाभारत वन पर्व के अनुसार यह निखर्वट नामक राक्षस से भिड़ने लगा था। वानर यूथपति तार वृहस्पति देव के अंश से जनमे थे।
विनथ जी :-
महर्षि वाल्मीकि के अनुसार विनथ की सेना में 60 लाख सैनिक थे।
ॠक्षराज धूम्र जी :-
ॠक्षराज धूम्र भगवान् राम को बायीं ओर से सहायता देने के लिए ॠक्षराज धूम्र स्थित थे।
कुमुद जी:-
कुमुद के नेतृत्व में 10 करोड़ सैनिक ईशान दिशा से आक्रमण के लिए तैनात किए गए थे।
गवय जी:-
महर्षि वाल्मीकि के अनुसार गवय की सेना 70 लाख सैनिक थे।महापराक्रमी वानरराज ‘गवय’ -एक अरब सेना के साथ आते दिखाई दिए। वानर यूथपति गवय यमराज के अंश से जन्मे और उन्ही की तरह पराक्रमी थे।
श्वेत जी :-
वानर यूथपति श्वेत का जन्म सूर्य अंश से हुआ था।
क्रथन जी:-
महर्षि वाल्मीकि के अनुसार कृथन की सेना में 10 अरब सैनिक थे।
प्रजंघ जी :-:-
रामभक्त हनूमान् , प्रघस आदि योद्धाओं के साथ लंका का पश्चिमी द्वार को घेरे हुए थे।
प्रमथी जी :-
महर्षि वाल्मीकि के अनुसार प्रमाथी की सेना में 10 करोड़ सैनिक थे। रामभक्त हनूमान् प्रमाथी, आदि योद्धाओं के साथ लंका के पश्चिमी द्वार को घेरे हुए थे।
रम्भ जी :--
महर्षि वाल्मीकि के अनुसार रम्भ की सेना में 1 करोड़ 30 लाख सैनिक थे ।
वेगदर्शी (वानर) मृत्यु यमराज का अंश था।
हेमकूट (वानर) वरुण अंश से जनमा था।
रामजी के बीर सखा :-
निम्नलिखित रामजी के बीर सखा थे -- पृथु, जम्भ, ज्योतिर्मुख,महोदर,सानुप्रस्थ,सभादन,सुन्द,वालीमुख, शतवलि, वेगदर्श और वेमदर्शी आदि कुछ बानर यूथ पतियों के बारे में केवल नामोल्लेख ही मिलता है। राम के वापसी के समय कैकेयी कुमार भरत ने सुग्रीव, जाम्बवान्, अंगद, मैंद, द्विविद, नील, ऋषभ, सुषेण (तारा के पिता), और पनस का पूर्णरूप से आलिङ्गन किया। वे इच्छानुसार रूप धारण करने वाले वानर मानव रूप धारण करके भरत जी से मिले और उन सब ने महान हर्ष से उल्लसित होकर उस समय भरत जी का कुशल समाचार पूछा। (रामायण युद्ध कांड अध्याय 127 )
रावण की मृत्यु के बाद उनके अनुचर सखा गण को राम आभार सहित अपने अपने धाम को जाने को कहा।पर कोई नहीं वापस गया। सभी राज्याभिषेक और सजी धजी अयोध्या देखने आए हुए थे। तुलसी दास कहते हैं --
कंचन कलस बिचित्र संवारे।
सबहिं धरे सजि निज निजद्वारे॥
बंदनवार पताका केतू।
सबन्हि बनाए मंगल हेतू।।
छः माह तक उन सबकी खूब आव भगत होती रही। उन्हें उपहार वस्त्र आभूषण देकर विदा किया गया।वे राम की छवि अपने हृदय में बसाकर लौट गए ,परंतु कई वीर सखा स्थाई रूप से अयोध्या वासी हो गए। जब रामजी बैकुंठ जा रहे थे तो अपने इन सखा वीरों को रामकोट और अयोध्या की रखवाली का दायित्व भी दे दिया था।
श्री रुद्रयामलोक्त अयोध्या महात्म्य के अध्याय 6 श्लोक 30 से 46 के मध्य रामकोट की सुरक्षा में लगे सभी वीरों और सखाओं के स्थान के बारे में विस्तार से जानकारी दिया गया है। इनमे अनेक स्थल तो राम जन्म भूमि न्यास के अधिग्रहण क्षेत्र की सीमा में आते हैं। कुछ को तो न्यास अपनी नई संरचना में स्थान भी दे रहा है।
रामकोट राजप्रासाद के मुख्य फाटक पर अंजनी नन्दन पवन पुत्र श्रीहनुमानजी का निवास है | उनके दक्षिण पाशर्व में श्रीसुग्रीवजी प्रतिष्ठित है। इसी दुर्ग से मिला हुआ अंगदजी का दुर्ग है | रामकोट के दक्षिण द्वार पर नल नील की स्थिति है। नवरत्न कुबेर जी से पूर्व में सुषेण रहते है | नवरत्न कुबेर नामक स्थान के उत्तर में गवाक्ष जी का स्थान है।रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र जी प्रतिष्ठित हैं | उसी पश्चिम भाग में दाधिवक्त्र के उत्तर में स्थित द्वारदेश में दुर्गेश्वर के में से स्थान रहा है। उनके निकट शतवली जी का और कुछ दूर पर गन्धमादन जी का स्थान है।उससे आगे ऋषभ जी तथा उनके आगे शरभ जी , उनसे आगे पनस जी विराजमान हैं | राम दुर्ग के उत्तर द्वार पर प्रधान रक्षक का भार विभीषण जी पर रहा| उनके साथ उनकी स्त्री 'सरमादेवी' भी रहा करती हैं जो अयोध्या में हर्ष पूर्वक रहकर धर्मशील जनों की रक्षा और दुष्ट बुद्धि वालों का भक्षण करती है। शरमा जी के पूर्व में विघ्नेशवर देव का स्थान है। जिनके स्मरण मात्र से विघ्नों का लेश भी नहीं आ सकता है।विघ्नेशवर देवजी के पूर्व दिशा में बलवान श्री पिण्डारक जी का स्थान है। ये पापियों को दंड दिया करते हैं। पिण्डारक जी के पूर्व दिशा में बड़े ही बीर और मंगल करने वाले विभीषण जी के पुत्र मतगजेंद्र (मात गैंड) जी का स्थान है। ये अयोध्या के कोटपाल ( कोतवाल) हैं तथा सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। इनको रामकोट के उत्तर फाटक के पाशर्व स्थापित किया गया | इनके पूर्व दिशा में द्विविदजी का स्थान है। मतगजेंद्र जी के ईशान कोण में बुद्धिशाली मयंद जी बिराजते हैं।मयंद जी के दक्षिण दिशा की प्रधान रक्षा का भार जांबवान जी बिराजते हैं। जांबवान जी के दक्षिण तरफ केशरीजी बिराजते हैं। इस प्रकार दुर्ग रामकोट की चतुर्दिक रक्षा होती रही है।
रामजी के ही सहचर सखा से राम सखा सम्प्रदाय बना :-
सखी या सखा भाव का सम्प्रदाय' 'निम्बार्क मत' की एक शाखा है। इस संप्रदाय में भगवान श्रीकृष्ण की उपासना सखी- सखा भाव से की जाती है। कवि नाभादास जी ने अपने 'भक्तमाल' में कहा है कि- "सखी सम्प्रदाय में राधा-कृष्ण की उपासना और आराधना की लीलाओं का अवलोकन साधक सखीभाव से कहता है। सखी सम्प्रदाय में प्रेम की गम्भीरता और निर्मलता दर्शनीय है। इस संप्रदाय के संस्थापक स्वामी हरिदास (जन्म संवत 1535 वि०) ने की थी। इस संप्रदाय के प्रसिद्द मंदिर वृंदावन मथुरा में श्री बांके बिहारी जी, निधिवन, राधा वल्लभ और प्रेम मंदिर आदि हैं। इसमें माधुर्य भक्ति और प्रेम भक्ति की जाती है ।
राम जी के अभिन्न सहचर सखाओं ने बाद में राम सखा संप्रदाय की स्थापना करके अपने प्रभु से जुड़ने और उनकी भक्ति को और गहरी बनाने का उपक्रम किया है। राधा कृष्ण की भांति सीताराम की उपासना में सखी भाव में उपासना होती है। स्वामी रामानन्द जी, गोस्वामी तुलसी दास जी, कवि नाभा दास जी और कवि अग्रदास जी इस कड़ी को आगे बढ़ाए हैं। इस माधुर्य उपासना में सखी भाव प्रिया - प्रियतम के प्रेम मिलन के भाव से पूजा और आराधना की जाती है। सखी भाव की तरह सखा भाव में कन्हैया कभी अपने दोस्त को पीठ पर लाद लेते हैं तो कभी दोस्त के पीठ पर बैठ लेते थे। कभी गेंद के लिए तो कभी फलादि के लिए लड़ते क्रीड़ा करते देखे गए हैं। इसी तरह सीताराम जी की उपासना में भगवान और मित्र का बराबर बराबर का भाव देखने को मिलता है। राम सखेंदु जी महाराज नेअठारहवीं संवत में इसकी स्थापना की थी।
सखी सम्प्रदाय तो सनातन काल से ही राम सखा ,राम सखी ,सीता सखी ,कृष्ण सखा ,कृष्ण सखी और राधा सखी आदि विविध रुपों में पुराणों व भक्ति साहित्य में पाया जाता रहा है। राम सखा जी के शिष्य गुरु की तरह निध्याचार्य उप नाम प्रयुक्त करने लगे थे।शील निधि सुशील निधि और विचित्र निधि उनके परम शिष्य थे। श्री 1008 सुखेन्द्र निध्याचार्य जी महाराज की तपोभूमि बड़ा अखाड़े के रूप में बहुत लोकप्रिय है। राम सखा महाराज जी जयपुर से निकलने के बाद विराट वैष्णव बन गए थे। वे कर्नाटक के तीर्थ क्षेत्र उडुपी पहुंचे। श्रीमद् सखेंद्र जी महाराज ने माध्य संप्रदाय के आचार्य श्री वशिष्ठ तीर्थ से गुरु दीक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने लिखा है -
"मध्य माध्य निज द्वैत मन मिलन द्वार हनुमान।
राम सखे विद सम्पदा उडुपी गुरु स्थान।।"
वहां के आचार्य ने उन्हें रामसखा की उपाधि दी थी। वे दक्षिण के उडीपि (कर्नाटक) में बड़ी तनमयता से गुरु की सेवा किये थे। उनका निवास नृत्य राघव कुंज के नाम से प्रसिद्व हुआ था ।
रामसखा जी का अयोध्या में आगमन:-
अयोध्या आकर राम सखा जी सरयू नदी के तट पर एक पर्णकुटी में भगवान को याद करते- करते अपना जीवन बिताया। वे प्रभु के दर्शन के लिए सरयू तट पर साधना करने लगे। जब उनकी व्यथा बढ़ी तो वे प्रभु को उपालंभ भी देना शुरू कर दिए। संप्रदाय भासकर में उल्लिखित है -
“अरे शिकारी निर्दयी, करिया नृपति किशोर ।
क्यों तरसावत दरश को, राम सखे चित्त चोर ।।"
उनकी व्यथा देख एक बार प्रभु ने उन्हें अल्प समय के लिए दर्शन दिया। वे उनसे अंक में लिपट कर खूब रोए और खूब आनंद लिए। बाद में प्रभु जी अंतर्ध्यान हो गए। कुछ दिनों बाद फिर उन्हें दर्शन करने की तलब लगी। अब वे और बेचैन रहने लगे।जब उनकी बेचैनी असहय हो गई । उन्हें बेचैन मनोव्यथा जानकर इस बार रामजी माता सीता जी के साथ उन्हें युगल किशोर के दर्शन हुए। उनका सारा दुख दूर हो गया ।
काछवाह राजा द्वारा अयोध्या में मन्दिर का निर्माण :-
बाद में अयोध्या में इसी नाम से एक मंदिर का निर्माण हुआ था।जो राम सखा की दूसरी गद्दी बनी। इसका निर्माण मैहर के तत्कालीन राजा दुर्जन सिंह कछवाह ने करवाया था। कुंवर दुर्जन सिंह राजा मान सिंह के चौथे पुत्र थे. इनकी माता का नाम सहोद्रा गौड़ था. यह अत्यंत ही साहसी और पराक्रमी योद्धा थे. कुंवर दुर्जन सिंह के वंशजों को दुर्जन सिंहोत राजावत के नाम से जाना जाता है।
चित्रकूट में आगमन:-
अयोध्या में बेचैनी पूर्ण समय बिताने के बाद, महाराज जी वहां से चित्रकूट चले गए और वहां कामद वन गिरी पर प्रमोदवन में अपनी प्रार्थना जारी रखी। बहुत दिनों तक दर्शन ना होने पर उनके मस्तिष्क में ये भाव आया । रूप सामर्थ्य चन्द्र में लिखा है -
"ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे,ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे।
ले चल कुटिल बदल जुल्फान छवि राज माधुरी वेशे।
केसर तिलक कंज मुख श्रम जल ललित लसत द्वई रेफे।
दशरथलाल लाल रघुवर बिनु बहुत जियब केही लेखे।
ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे,ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे।
डूब डूब उर श्याम सुरती कर प्राण रहे अवशेषे।
राम सखे विरहिन दोउ अखियां चाहत मिलन विशेषे।।"
सरयू तट की भांति एक बार फिर यहां राम ने अपने जुगुल किशोर स्वरूप का दर्शन दिया। इसके संबंध में कुछ लाइनें राम सखे इस प्रकार लिखी है -
"अवध पुरी से आइके चित्रकूट की ओर।
राम सखे मन हर लियो सुन्दर युगुल किशोर।"
भक्त भगवान का अब लुका छिपी का खेल होने लगा।अब प्रायः दर्शन होने लगे।वे इसका वर्णन सुनाते जाते और भक्त आनंदित होते रहते थे-
"आज की हाल सुनो सजनी मडये प्रकटी एक कौतुक भारी।
जेवत नारी बारात सभौ रघुनाथ लखे मिथिलेश उचारी।
श्री रघुवीर को देख स्वरूप भई मत विभ्रम गावनहारी।
भूली गयो अवधेश को नाम देने लगी मिथिलेश को गारी।।"
अब तक की साधना और भक्ति से राम सखे की कुंडलिनी जागृति हो गई थी।उनकी सुरति खुलने लगी थी।योग में जब चाहा दर्शन होने लगा था ।अब ध्यान लगाना नही पड़ता अपितु मानस पटल पर प्रभु की छवि खुद ब खुद आ जाती थी।
उचेहरा में अस्थाई प्रवास :-
कुछ महात्मा यह भी बताते हैं कि महाराज जी के एक शिष्य उनके साथ रहे, वे लोगों से भिक्षा माँगते थे और ठाकुर जी के लिए भोग भी तैयार करते थे। ठाकुर जी के भोग के बाद, कई महात्माओं के पास प्रसाद था और वे संतुष्ट होकर लौटे। चित्रकूट में रहने के बाद महाराज जी उचेहरा (अब सतना जिला) में गए।लेकिन उन्हें वहाँ बहुत अच्छा नहीं लगा और संवत 1831में मैहर चले गए।
मैहर में तपोसाधना :-
मैहर आकार वह नीलमती गंगा के तट पर उन्होंने एक पर्णकुटी में गणेश जी के सामने भजन किया। बड़ा अखाड़ा एक प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर शिव भगवान जी को समर्पित है। बड़ा अखाड़ा मंदिर में आपको मंदिर और आश्रम देखने के लिए मिल जाता है। यह मंदिर शिव भगवान जी को समर्पित है। यहां पर शिव भगवान जी की बहुत बड़ा शिवलिंग मंदिर के छत पर बना हुआ है, जो बहुत ही सुंदर लगता है। इसके अलावा मंदिर में 108 शिवलिंग विराजमान है। उनके दर्शन भी आप यहां पर आकर कर सकते हैं। यहां पर आपको एक प्राचीन कुआं भी देखने के लिए मिल जाएगा। यहां पर राम जी का मंदिर, गणेश जी का मंदिर और हनुमान जी का मंदिर भी है। आप इन सभी मंदिरों में घूम सकते हैं। बड़ा अखाड़ा में आपको आश्रम भी देखने के लिए मिलता है। आश्रम का जो प्रवेश द्वार है। वह बहुत ही खूबसूरत है। आश्रम के प्रवेश द्वार में आपको हनुमान जी की प्रतिमा देखने के लिए मिलती है और शंकर जी की प्रतिमा देखने के लिए मिलती है, जो बहुत ही खूबसूरत लगती है। इस आश्रम के अंदर आपको बगीचा भी देखने के लिए मिल जाता है। यहां पर बहुत सारे ब्राह्मण विद्यार्थी रहते हैं, जिन्हें यहां पर शिक्षा दीक्षा दी जाती है।श्री राम सखा जू महाराज, हिंदू धर्म के माधव संप्रदाय के प्रतिपादक और अनुयायी थे, लगभग दो सौ साल पहले जयपुर से मैहर आए और मैहर में एक मठ की स्थापना की, जिसे "श्री राम सखेंद्र जू का अखाड़ा" कहा जाता है; कि उन्होंने अखाड़े में 'राम-जानकी' की एक छवि स्थापित की, जिसकी पूजा संप्रदाय के अनुयायी करते थे; कि कई व्यक्तियों ने अखाड़े को संपत्तियां दीं और मैहर के तत्कालीन शासक ने भी अखाड़े के रखरखाव और देवता की पूजा के लिए एक गांव दिया था। "बडा अखाड़ा" ट्रस्ट का गठन किया गया था और एक सोसायटी के रूप में पंजीकृत किया गया था।
मेंहर में अंतिम सांस :-
महाराज जी ने उन्नीसवीं संवत के प्रथम चरण यानी 1842 में मैहर में अमरता प्राप्त की। उनकी समाधि मैहर में ही है। उसे बड़ा अखाड़ा कहा जाता है। यहां राम जानकी मंदिर में आज भी इस पंथ की पुजा पद्वति प्रचलित है। राम सखेन्दु जी महराज के नाम से उनकी ख्याति आज भी विद्यमान है। राजस्थान के पुष्कर में राम सखा आश्रम में आज भी इस सम्प्रदाय के लोग पूजा आराधना करते है अयोध्या, चित्रकूट, पुष्कर और मैहर सबसे प्रमुख स्थान हैं। रीवा, नागोद आदि क्षेत्रों में महाराज जी के शिष्यों की भारी संख्या है।
27.06.1957 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में जन्में डॉ. राधेश्याम द्विवेदी ने अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद से बी.ए. और बी.एड. की डिग्री,गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी),एल.एल.बी., सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी का शास्त्री, साहित्याचार्य , ग्रंथालय विज्ञान शास्त्री B.Lib.Sc. तथा विद्यावारिधि की (पी.एच.डी) "संस्कृत पंच महाकाव्य में नायिका" विषय पर उपार्जित किया। आगरा विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास से एम.ए. तथा ’’बस्ती का पुरातत्व’’ विषय पर दूसरी पी.एच.डी.उपार्जित किया। डा. हरी सिंह सागर विश्व विद्यालय सागर मध्य प्रदेश से MLIS किया। आप 1987 से 2017 तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण वडोदरा और आगरा मण्डल में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। प्रकाशित कृतिः ”इन्डेक्स टू एनुवल रिपोर्ट टू द डायरेक्टर जनरल आफ आकाॅलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया” 1930-36 (1997) पब्लिस्ड बाई डायरेक्टर जनरल, आकालाजिकल सर्वे आफ इण्डिया, न्यू डेलही। आप
अनेक राष्ट्रीय पोर्टलों में नियमित रिर्पोटिंग कर रहे हैं।
साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर आपकी लेखनी सक्रिय है।
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