Monday, January 30, 2023

शालिग्राम शिला से बनेगी अयोध्या के रामलला की प्रतिमा डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

नेपाल की गंडकी नदी से मिली 6 करोड़ साल पुरानी शालिग्राम शिला से रामलला की मूर्तियों का निर्माण किया जाना संभावित है. अयोध्या में बन रहे भव्य राम मंदिर की मूर्तियों के लिए नेपाल के गंडकी नदी से शालिग्राम शिलाएं लाई जा रही हैं. गंडकी नदी एकमात्र ऐसी नदी है, जहां शालिग्राम शिलाए मिलती हैं. इन शिलाओं को एक खुले ट्रक में अयोध्या लाया जा रहा है. 6 करोड़ साल पुराने 2 विशाल शालीग्राम पत्थरों से भगवान श्रीराम के बाल स्वरूप की मूर्ति और माता सीता की मूर्ति बनाई जानी है. श्रीराम मंदिर के गर्भगृह में स्थापित होने वाली प्रतिमा क़रीब 5.5 फ़ीट की बननी है जिसके नीचे 3 फ़ीट का पेडेस्ट्रीयल भी होगा. रामनवमी के लिए सूर्य की किरण रामलला की प्रतिमा के ललाट पर पड़ेगी.ये पत्थर नेपाल अयोध्या के लिए निकल चुके हैं. जहां-जहां से ये पत्थर निकल रहे हैं, वहां-वहां लोग इन्हें छूने के लिए, दर्शन करने के लिए पहुंच रहे हैं.
26 जनवरी 2023 से शुरुवात ,जगह जगह स्वागत : -
जानकी के घर में परम्परानुसार सत्कार हुआ है. शालिग्राम शिला लाने के रूट की एक्सक्लूसिव जानकारी केअनुसार, जनकपुर से शालिग्राम शिला भारत नेपाल बॉर्डर पर जतहीं पर लाया जाएगा. उसके बाद मधुबनी, दरभंगा, मुज़फ़्फ़रपुर, गोपालगंज को पार करते हुए यूपी में प्रवेश करेगी. जगह-जगह शिला का स्वागत और अगवानी के लिए भी कार्यक्रम तय हो सकता है.शालिग्राम शिला लाने की जानकारी देते हुए श्रीराम मंदिर ट्रस्ट के सदस्य कामेश्वर चौपाल ने बताया कि नेपाल के जनकपुर में रामजी की ससुराल है, मां जानकी के मायके की भी कुछ परम्परा है, वहां के साधु संतों की इच्छा और वहां की परम्परा है कि सत्कार और रात्रि विश्राम वहां किया जाए.शिला का 26 जनवरी 2023 को गुरुवार के दिन गलेश्वर महादेव मंदिर में रुद्राभिषेक किया गया. यह पत्थर दो ट्रकों पर रखकर सोमवार 30 जनवरी के दिन अयोध्या के लिए रवाना हो चुके हैं. ये नेपाल से भारत के बिहार से होते हुए कल 31 जनवरी 2023 को गोपालगंज के रास्ते उत्तर प्रदेश में प्रवेश करेंगे. वहां से कुशीनगर और जगदीशपुर से होते हुए गोरखपुर में सायंकाल 4 बजे तक पहुंचेंगे. इन पत्थरों के गोरखपुर पहुंचने से पहले यहां कार्यकर्ता और आम जनमानस में बहुत उत्साह का माहौल है. यात्रा का गोरखपुर में प्रवेश होने पर कुसमी में शानदार ढंग से स्वागत किया जाएगा. इसके बाद गौतम गुरुंग चौराहा, मोहद्दीपुर चौराहा, विश्वविद्यालय चौराहा, यातायात चौराहा, धर्मशाला बाजार तरंग क्रॉसिंग के पास, गोरखनाथ मंदिर ओवरब्रिज के पास विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं एवं विभिन्न सामाजिक और धार्मिक संगठनों के लोगों द्वारा यात्रा का जोरदार ढंग से स्वागत किया जाएगा.
एक फरवरी को अयोध्या के लिए रवाना होगी :-
गोरखनाथ मंदिर पहुंचने के बाद शिलाओं का स्वागत- पूजन पूज्य संतों के हिंदू सेवाश्रम पर करेंगे. इसके बाद यात्रा में सम्मिलित सभी लोगों का मंदिर में भोजन एवं विश्राम होगा. अगले दिन एक फरवरी की सुबह यात्रा का विधि-विधान से पूजन कर उनको अयोध्या जी के लिए गोरक्ष पीठाधीश्वर उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के द्वारा रवाना किया जाएगा.
वशिष्ठ नगर (बस्ती) में स्वागत कार्यक्रम :-
शालिग्राम शिलाखण्ड श्री अयोध्या धाम लायी जा रही है, जो 1 फरवरी को राष्ट्रीय राजमार्ग 28 वशिष्ठ नगर (बस्ती) से होते हुए अयोध्या जायेगी। विश्व हिंदू परिषद, बस्ती और सनातन धर्म संस्था, बस्ती ने आग्रह किया है कि पूज्य शिलाखंड के पूजन, अर्चन, आरती कार्यक्रम में पधार कर पुष्प वर्षा, शंख, ढोल, नगाड़ा, झांझ, घरी घण्ट आदि नाना प्रकार के भारतीय वाद्य यंत्र की ध्वनि से भव्य स्वागत करें, पूजन करें, वंदन करें।
काटें चौराहे से तिलकपुर तक स्वागत कार्यक्रम में आम जन कहीं न कहीं अवश्य सम्मिलित हों। पटेल चौक, निकट- टोल प्लाजा बस्ती पर पूजन, अर्चन व शिलाखण्ड के साथ चल रहे संतजनों के भोजन प्रसाद, फलाहार आदि का कार्यक्रम दोपहर 1 बजे तय किया गया है।
शालिग्राम पत्थरों की यह है पौराणिक मान्यता:-
शास्त्रों के मुताबिक, शालिग्राम में भगवान विष्णु का वास माना जाता है. पौराणिक ग्रंथों में माता तुलसी और भगवान शालिग्राम के विवाह का उल्लेख भी मिलता है. शालिग्राम के पत्थर गंडकी नदी में ही पाए जाते हैं. हिमालय के रास्ते में पानी चट्टान से टकराकर इस पत्थरों को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ देता है. मान्यता है कि जिस घर में शालिग्राम की पूजा होती है, वहां सुख-शांति और आपसी प्रेम बना रहता है. साथ ही माता लक्ष्मी की भी कृपा बनी रहती है. 
पद्मपुराण में शालिग्राम का वर्णन मिलता है ।यह भगवान के विष्णु स्वरूप का नाम है। लक्ष्मी जी की अहेतु की कृपा पाने मे इस विग्रह को प्रयोग किया जाना एक सामान्य सी मान्यता है .
परमेश्वर के प्रतिनिधि के तौर पर मान्य:-
शालीग्राम एक प्रकार का जीवाश्म पत्थर है, जिसका प्रयोग परमेश्वर के प्रतिनिधि के रूप में भगवान का आह्वान करने के लिए किया जाता है. शालीग्राम आमतौर पर पवित्र नदी की तली या किनारों से एकत्र किया जाता है। शिव भक्त पूजा करने के लिए शिव लिंग के रूप में लगभग गोल या अंडाकार शालिग्राम का उपयोग करते हैं। पवित्र नदी गंडकी में पाया जाने वाला एक गोलाकार, आमतौर पर काले रंग के एमोनोइड जीवाश्म को विष्णु के प्रतिनिधि के रूप में उपयोग करते हैं.
भगवान के समीप पहुँचाने वाला शालिग्राम :-
पद्मपुराण के अनुसार - गण्डकी अर्थात नारायणी नदी के एक प्रदेश में शालिग्राम स्थल नाम का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है; वहाँ से निकलनेवाले पत्थर को शालिग्राम कहते हैं. शालिग्राम शिला के स्पर्शमात्र से करोड़ों जन्मों के पाप का नाश हो जाता है। फिर यदि उसका पूजन किया जाय, तब तो उसके फल के विषय में कहना ही क्या है; वह भगवान के समीप पहुँचाने वाला है. बहुत जन्मों के पुण्य से यदि कभी गोष्पद के चिह्न से युक्त श्रीकृष्ण शिला प्राप्त हो जाय तो उसी के पूजन से मनुष्य के पुनर्जन्म की समाप्ति हो जाती है. जैसे सदा काठ के भीतर छिपी हुई आग मन्थन करने से प्रकट होती है, उसी प्रकार भगवान विष्णु सर्वत्र व्याप्त होने पर भी शालिग्राम शिला में विशेष रूप से अभिव्यक्त होते हैं.जो प्रतिदिन द्वारका की शिला-गोमती चक्र से युक्त बारह शालिग्राम मूर्तियों का पूजन करता है, वह वैकुण्ठ लोक में प्रतिष्ठित होता है। जो मनुष्य शालिग्राम शिला के भीतर गुफ़ा का दर्शन करता है, उसके पितर तृप्त होकर कल्प के अन्ततक स्वर्ग में निवास करते हैं। जहाँ द्वारकापुरी की शिला- अर्थात गोमती चक्र रहता है, वह स्थान वैकुण्ठ लोक माना जाता है; वहाँ मृत्यु को प्राप्त हुआ मनुष्य विष्णुधाम में जाता है.
मोक्ष प्रदायक विभिन्न स्थल के शालिग्राम:-
शालिग्राम-स्थल से प्रकट हुए भगवान शालिग्राम और द्वारका से प्रकट हुए गोमती चक्र- इन दोनों देवताओं का जहाँ समागम होता है, वहाँ मोक्ष मिलने में तनिक भी सन्देह नहीं है। द्वारका से प्रकट हुए गोमती चक्र से युक्त, अनेकों चक्रों से चिह्नित तथा चक्रासन-शिला के समान आकार वाले भगवान शालिग्राम साक्षात चित्स्वरूप निरंजन परमात्मा ही हैं. 
शालिग्राम का स्वरूप :- 
जिस शालिग्राम-शिला में द्वार-स्थान पर परस्पर सटे हुए दो चक्र हों, जो शुक्ल वर्ण की रेखा से अंकित और शोभा सम्पन्न दिखायी देती हों, उसे भगवान श्री गदाधर का स्वरूप समझना चाहिये। संकर्षण मूर्ति में दो सटे हुए चक्र होते हैं, लाल रेखा होती है और उसका पूर्वभाग कुछ मोटा होता है। प्रद्युम्न के स्वरूप में कुछ-कुछ पीलापन होता है और उसमें चक्र का चिह्न सूक्ष्म रहता है। अनिरुद्ध की मूर्ति गोल होती है और उसके भीतरी भाग में गहरा एवं चौड़ा छेद होता है; इसके सिवा, वह द्वार भाग में नील वर्ण और तीन रेखाओं से युक्त भी होती है। भगवान नारायण श्याम वर्ण के होते हैं, उनके मध्य भाग में गदा के आकार की रेखा होती है और उनका नाभि-कमल बहुत ऊँचा होता है. भगवान नृसिंह की मूर्ति में चक्र का स्थूल चिह्न रहता है, उनका वर्ण कपिल होता है तथा वे तीन या पाँच बिन्दुओं से युक्त होते हैं। ब्रह्मचारी के लिये उन्हीं का पूजन विहित है। वे भक्तों की रक्षा करनेवाले हैं। जिस शालिग्राम-शिला में दो चक्र के चिह्न विषम भाव से स्थित हों, तीन लिंग हों तथा तीन रेखाएँ दिखायी देती हों; वह वाराह भगवान का स्वरूप है, उसका वर्ण नील तथा आकार स्थूल होता है. भगवान वाराह भी सबकी रक्षा करने वाले हैं। कच्छप की मूर्ति श्याम वर्ण की होती है। उसका आकार पानी की भँवर के समान गोल होता है. उसमें यत्र-तत्र बिन्दुओं के चिह्न देखे जाते हैं तथा उसका पृष्ठ-भाग श्वेत रंग का होता है। श्रीधर की मूर्ति में पाँच रेखाएँ होती हैं, वनमाली के स्वरूप में गदा का चिह्न होता है। गोल आकृति, मध्यभाग में चक्र का चिह्न तथा नीलवर्ण, यह वामन मूर्ति की पहचान है. जिसमें नाना प्रकार की अनेकों मूर्तियों तथा सर्प-शरीर के चिह्न होते हैं, वह भगवान अनन्त की प्रतिमा है. दामोदर की मूर्ति स्थूलकाय एवं नीलवर्ण की होती है. उसके मध्य भाग में चक्र का चिह्न होता है.भगवान दामोदर नील चिह्न से युक्त होकर संकर्षण के द्वारा जगत की रक्षा करते हैं. जिसका वर्ण लाल है, तथा जो लम्बी-लम्बी रेखा, छिद्र, एक चक्र और कमल आदि से युक्त एवं स्थूल है, उस शालिग्राम को ब्रह्मा की मूर्ति समझनी चाहिये. जिसमें बृहत छिद्र, स्थूल चक्र का चिह्न और कृष्ण वर्ण हो, वह श्रीकृष्ण का स्वरूप है. वह बिन्दुयुक्त और बिन्दुशून्य दोनों ही प्रकार का देखा जाता है। हयग्रीव मूर्ति अंकुश के समान आकार वाली और पाँच रेखाओं से युक्त होती है. भगवान वैकुण्ठ कौस्तुभ मणि धारण किये रहते हैं. उनकी मूर्ति बड़ी निर्मल दिखायी देती है. वह एक चक्र से चिह्नित और श्याम वर्ण की होती है। मत्स्य भगवान की मूर्ति बृहत कमल के आकार की होती है.उसका रंग श्वेत होता है तथा उसमें हार की रेखा देखी जाती है. जिस शालिग्राम का वर्ण श्याम हो, जिसके दक्षिण भाग में एक रेखा दिखायी देती हो तथा जो तीन चक्रों के चिह्न से युक्त हो, वह भगवान श्री रामचन्द्रजी का स्वरूप है, वे भगवान सबकी रक्षा करनेवाले हैं. द्वारकापुरी में भगवान गदाधर:-
भगवान गदाधर एक चक्र से चिह्नित देखे जाते हैं. लक्ष्मी नारायण दो चक्रों से, त्रिविक्रम तीन से, चतुर्व्यूह चार से, वासुदेव पाँच से, प्रद्युम्न छ: से, संकर्षण सात से, पुरुषोत्तम आठ से, नवव्यूह नव से, दशावतार दस से, अनिरुद्ध ग्यारह से और द्वादशात्मा बारह चक्रों से युक्त होकर जगत की रक्षा करते हैं। इससे अधिक चक्र चिह्न धारण करने वाले भगवान का नाम अनन्त है.ऐसा बताया जाता है शालिग्राम शिलाएं 33 प्रकार की होती हैं। शालिग्राम शिलाओं से 24 प्रकारों की पूजा भगवान विष्णु के 24 अवतारों के तौर पर की जाती हैं.
(लेखक सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं.)





 


Sunday, January 29, 2023

सहचर- सखी - सखाओं और भक्तों ने बनाया रामसखा सम्प्रदाय : डॉ. राधे श्याम द्विवेदी


            ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे।
             भए समर सागर कहँ बेरे।।
            मम हित लागि जन्म इन्ह हारे।
            भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।
                   (राम चरित मानस)
अपने सहचर सखी सखाओं और भक्तों की प्रशंसा करते हुए श्रीरामजी  गुरुदेव वशिष्ठजी से उक्त बचन कहे थे। धर्म ग्रंथ भक्तमाल के बीसवें छ्न्द में कवि नाभादास जी ने श्री रामजी के विशाल सहचर वर्ग को  गिनाया है। 

इसके अलावा अन्यानेक सहचर , बीरों और भक्तों के भी नाम मिलते हैं। कुछ की कुछ - कुछ  सूचनाएं मिलती है और कुछ का केवल नाम ही मिलते हैं। ये सब सखा किसी ना किसी देवी या देव के अंश से या अर्जित किए हुए कृपा या महान पुण्यों के फल स्वरूप उत्पन्न हुए थे। ब्रह्मा जी के आदेश से इन लोगों ने बानर , रीछ और भक्त गण का शरीर राम काज और अपने उद्धार के लिए धारण किया था। रावण की मृत्यु के बाद राम जी के अनुचर सखा गण को रामजी ने आभार सहित अपने - अपने धाम को जाने को कहा था , पर कोई नहीं वापस गया। सभी राम जी के वनवास से वापस आने के अवसर पर सजी- धजी अयोध्या देखने आ गए थे।


            कंचन कलस बिचित्र संवारे।
           सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे॥
           बंदनवार पताका केतू।
           सबन्हि बनाए मंगल हेतू।। 
        छः माह तक उन सहचर सखी सखाओं और भक्तों की खूब आवभगत अयोध्या में होती रही। उन्हें उपहार, वस्त्र और आभूषण देकर विदा किया गया।सब राम की छवि अपने हृदय में बसाकर लौट गए । कुछ अपने अपने मूल स्थल बसे पर तो कई वीर सखा स्थाई रूप से अयोध्या वासी हो गए। जब रामजी बैकुंठ  धाम जा रहे थे तो अपने इन सखा वीरों को रामकोट , अयोध्या नगरी और भू मंडल की रखवाली का दायित्व भी दे गए थे।
        श्री रुद्रयामलोक्त अयोध्या महात्म्य के अध्याय 6 श्लोक 30 से 46 के मध्य राम कोट की सुरक्षा में लगे सभी वीरों और सखाओं के स्थान के बारे में विस्तार से जानकारी दिया गया है। इनमे अनेक स्थल तो राम जन्म भूमि न्यास के अधिग्रहण क्षेत्र की सीमा में आते हैं। कुछ को तो न्यास अपनी नई संरचना में स्थान भी दे रहा है। इस सब के अलावा भक्ति भाव में अनेक सन्त और महात्मा प्रभु से समीपता प्राप्त कर भगवान की सखा और सभी भाव से आराधना , साधना और पूजा की थी। जिसके उपरान्त सखा और सखी भाव की भक्ति का संचार हुआ था। अयोध्या में अष्ट राम तथा अष्ट जानकी जी सखियों के नाम को आत्मसात करते हुए अनेक मंदिरों की संरचना व अराधना हो रही है।       
सखी- सखा भाव का विस्तार:-
'सखी या सखा भाव नामक एक सम्प्रदाय' 'निम्बार्क मत' की शाखा है। इस संप्रदाय में भगवान श्रीकृष्ण या राम की उपासना सखी- सखा भाव से की जाती है। कवि नाभादास जी ने अपने 'भक्तमाल' में कहा है कि- "सखी सम्प्रदाय में राधा-कृष्ण की उपासना और आराधना की लीलाओं का अवलोकन साधक सखी भाव से करता है।  इस संप्रदाय के प्रसिद्द मंदिर वृंदावन मथुरा में श्री बांके बिहारी जी, निधिवन, राधा वल्लभ और प्रेम मंदिर आदि हैं। इसमें माधुर्य भक्ति और प्रेम भक्ति की जाती है । वृन्दावन और अयोध्या दोनों स्थानों पर प्रेमलक्षणा और राधा भाव का इतना व्यापक प्रभाव किसी काल में पहुँचा था कि राम और सीता को राधा-कृष्ण की छाया में ज्यों का त्यों ग्रहण कर लिया गया और उसी शैली में काव्य-रचना होने लगा।
फादर डॉ. कामिल बुल्के भी श्रृंगारी राम-काव्यों के संविधान में- भाव, साधना और शैली- सभी दृष्टियों से श्रृंगारिक कृष्ण काव्य-साधना के प्रभाव को स्वीकार करते हैं। वे हिन्दी साहित्य कोश में लिखते हैं- इस भक्ति पर कृष्ण-राधा संबंध साहित्य का प्रभाव भी पड़ा और बाद में उत्तरोत्तर बढ़ने लगा । रामभक्ति प्रधानतया दास्य भाव की न रह कर कुछ सम्प्रदायों में मधुरोपासना में परिणत हुई।
17वीं शताब्दी के बाद भक्ति-साहित्य में सखी-भाव की साधना का प्राधान्य हो गया। इसका प्रभाव रामभक्ति शाखा पर भी पड़ा है। वृन्दावन की भाँति अयोध्या भी सखी सम्प्रदाय के भक्तों का केन्द्र बन गई। राम जी के अभिन्न सहचर सखाओं ने भी राम सखा संप्रदाय की स्थापना करके अपने प्रभु से जुड़ने और उनकी भक्ति को और गहरी बनाने का उपक्रम किया है। राधा कृष्ण की भांति सीता राम की उपासना में सखी भाव में उपासना होती है। स्वामी रामानन्द जी, गोस्वामी तुलसी दास जी, कवि नाभा दास जी और कवि अग्रदास जी इस कड़ी को आगे बढ़ाए हैं। इस माधुर्य उपासना में सखी भाव प्रिया - प्रियतम के प्रेम मिलन के भाव से पूजा और आराधना की जाती है। कन्हैया कभी अपने दोस्त को पीठ पर लाद लेते हैं तो कभी दोस्त के पीठ पर बैठ लेते थे। कभी गेंद के लिए तो कभी फलादि के लिए लड़ते क्रीड़ा करते देखे गए हैं। इसी तरह सीताराम जी की उपासना में भगवान के चारो भाई, हनुमान जी ,भगवान शिव शंकर और भक्त व मित्र का बराबर बराबर का भाव  देखने को मिलता है।

पृथक राम सखा सम्प्रदाय का उद्भव ;-
सखी  सम्प्रदाय तो सनातन काल से ही राम सखा ,राम सखी ,सीता सखी ,कृष्ण सखा ,कृष्ण सखी और  राधा सखी आदि विविध रुपों में पुराणों व भक्ति साहित्य में पाया जाता रहा है। राम सखा संप्रदाय के प्रणेता श्रीमद् सखेंद्र जी निध्याचार्य जी महराज का जन्म विक्रम संवत के आखिरी चरण चैत्र शुक्ल राम नवमी को जयपुर में एक सुसंस्कृत गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। राजस्थान में गलिता के आचार्य ने उन्हें रामसखा की उपाधि दी थी। वे दक्षिण के उडीपि कर्नाटक में गये। उनका निवास नृत्य राघव कुंज के नाम से प्रसिद्व हुआ था । सखेंद्र जी महाराज राम लीला में भाग ले ले कर अपने को राम ने उन्हें अपने छोटे भाई के रूप में मानने लगे थे । महाराज जी ने घर छोड़ दिया और विराट वैष्णव बन गए।  उनकी जन्मस्थली होने के कारण वे जयपुर छोड़कर अयोध्या पुरी चले गए,जहां उन्होंने सरयू नदी के तट के अलावा एक पर्णकुटी में भगवान को याद करने के लिए जीवन बिताया।  महाराज जी  ने अठारहवीं संवत  में  राम सखा सम्प्रदाय की स्थापना की थी। राम सखा जी के शिष्य गुरु की तरह निध्याचार्य उप नाम प्रयुक्त करने लगे थे। शील निधि सुशील निधि और विचित्र निधि उनके परम शिष्य थे। राम सखे महाराज जी ने माध्य संप्रदाय के आचार्य श्री वशिष्ठ तीर्थ से गुरु दीक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने लिखा है -    
       "मध्य माध्य निज द्वैत मन मिलन द्वार हनुमान।
        राम सखे विद सम्पदा उडुपी गुरु स्थान।।"
रामसखा जी का अयोध्या में आगमन:-
अयोध्या आकर राम सखा जी सरयू नदी के तट पर एक पर्णकुटी में भगवान को याद करते- करते अपना जीवन बिताया। वे प्रभु के दर्शन के लिए सरयू तट पर साधना करने लगे।


चित्रकूट में आगमन:-
अयोध्या में बेचैनी पूर्ण समय बिताने के बाद, महाराज जी वहां से चित्रकूट चले गए और वहां कामद वन गिरी पर प्रमोदवन में अपनी प्रार्थना जारी रखी। सरयू तट की भांति एक बार फिर यहां राम ने अपने जुगुल किशोर स्वरूप का दर्शन दिया। इसके संबंध में कुछ लाइनें राम सखे इस प्रकार लिखी है -
"अवध पुरी से आइके चित्रकूट की ओर।
राम सखे मन हर लियो सुन्दर युगुल किशोर।"
उचेहरा में अस्थाई  प्रवास :-
कुछ महात्मा यह भी बताते हैं कि महाराज जी के एक शिष्य उनके साथ रहे। चित्रकूट में रहने के बाद महाराज जी उचेहरा (अब सतना जिला) में गए, उन्हें वहाँ बहुत अच्छा नहीं लगा और संवत 1831में मैहर वापस चले गए।
मैहर में तपोसाधना :-
श्री राम सखा जू महाराज,  हिंदू धर्म के माधव संप्रदाय के प्रतिपादक और अनुयायी थे, लगभग दो सौ साल पहले जयपुर से मैहर आए ।  नीलमती गंगा के तट पर उन्होंने एक पर्णकुटी में गणेश जी के सामने भजन किया। वहां एक मठ की स्थापना की, जिसे "श्री राम सखेंद्र जू का अखाड़ा" कहा जाता है। श्री सुखेन्द्र निध्याचार्य जी महाराज की तपोभूमि बड़ा अखाड़े के रूप में मैहर में बहुत लोकप्रिय है । बड़ा अखाड़ा में  मंदिर और आश्रम दोनो  है। यहां पर शिव भगवान जी की बहुत बड़ा शिवलिंग मंदिर के छत पर बना हुआ है, जो बहुत ही सुंदर लगता है। इसके अलावा मंदिर के अन्दर में 108 शिवलिंग विराजमान है। यहां पर  एक प्राचीन कुआं भी है। यहां पर राम जी का मंदिर, गणेश जी का मंदिर और हनुमान जी का मंदिर भी  हैं।  आश्रम का प्रवेश द्वार बहुत ही खूबसूरत है। आश्रम के प्रवेश द्वार में  हनुमान जी और शंकर जी की बहुत ही खूबसूरत प्रतिमा बनी है ।  इस आश्रम के अंदर  बगीचा भी है। यहां पर बहुत सारे ब्राह्मण विद्यार्थी रहते हैं, जिन्हें यहां पर शिक्षा दीक्षा दी जाती है। महाराज जी ने उन्नीसवीं संवत के प्रथम चरण यानी 1842 में मैहर में अमरता प्राप्त की। उनकी समाधि मैहर में ही है । यहां राम जानकी मंदिर में आज भी इस पंथ की पुजा पद्वति प्रचलित है। रामसखा बड़ा अखाड़ा मैहर के परमपूज्य श्री श्री 1008 श्री सीता बल्लभ शरणजू महराज जी राम सुखेंद्र जू महराज की तपोभूमि (अखाड़े का ही भाग) है। महाराज की तपोभूमि (देवी रोड) बहुत ही सिद्ध पीठ है। इस समय श्री श्री1008 श्री सीता शरण जी महाराज इस पीठ के स्वामी हैं।
राम नगरी अयोध्या में विशाल प्रयोग:-
राम नगरी अयोध्या में 11,000 से ज्यादा मंदिर हैं, पूरे विश्व में यह एक ऐसा स्थान है जहां इतनी बड़ी संख्या में मंदिर है. धर्म नगरी अयोध्या भगवान राम की जन्म स्थली के रूप में जानी जाती है.  भगवान विष्णु के ही दूसरे अवतार कृष्ण का नाम पहले लिया जाता है। रासलीला, गोप लीला, राधा प्रेम जैसी कई कथाएं कृष्ण से सम्बन्धित हैं.    
श्रीराम दूल्हे के रूप में पूज्य:-
मान्यता  है कि जब मिथिला में श्रीराम-सीता का विवाह हुआ तब उसके बाद उनकी सखियों ने विवाह ही नहीं किया. उन्हें इस युगल को देखकर ही जीवन का सारा ज्ञान मिल गया. उन्होंने वरदान मांगा कि हमारा जब भी जन्म हो, राम-सीता की भक्ति में ही जीवन कटे और हम अधिक से अधिक उनके निकट रहें. बिहार में सीतामढ़ी, जनकपुरी, दरभंगा, मैथिल आदि इलाकों में आज भी श्रीराम और यहां तक कि अयोध्या के हर वासी को वे पाहुन (ससुराल से आया अतिथि) मानते हैं. वह उन्हें दूल्हा ही मानते हैं.
त्रेतायुग से रामरसिकों की सानिध्यता:-
राम रसिकों की मौजूदगी त्रेतायुग से ही है . निषाद राज गुह अहिल्या और शबरी श्रीराम की नवधा भक्ति में समर्पित भक्त वा महिलाएं थीं. एक खास बात ये भी है कि राम रसिक होने के बाद स्त्री-पुरुष का भेद मिट जाता है, सिर्फ आत्मा रह जाती है, जो किसी देह से बंधी सी रहती है.
लक्ष्मण किले में राम रसिकों की मौजूदगी:-
आचार्य पीठ लक्ष्मण किला रसिक उपासना का सबसे प्राचीन पीठ है. यहां वह सिर्फ सीता के पति हैं, सखियों के जीजा हैं और जगत के स्वामी हैं. उनकी उपासना में श्रृंगार का भाव प्रमुख हैं. राम रसिक सिर्फ राम की भक्ति नहीं करते हैं, बल्कि राम से भक्ति में रचा-बसा प्रेम करते हैं. रसिक उपासना के संत यहां भगवान राम की उपासना दूल्हे के रूप करते हैं. मंदिर में विवाह के पदों का गायन होता है.
राम कृष्ण की तरह सीता और राधा का वर्चस्य:-
कृष्ण नगरी वृंदावन कृष्ण के साथ राधा की और रामनगरी अयोध्या श्रीराम के साथ मां सीता की भी नगरी है. श्रीराम और मां सीता में अभिन्नता प्रतिपादित है. यह शास्त्रीय तथ्य रामनगरी में पूरी प्रामाणिकता और पूर्णता के साथ प्रवाहमान है. रामजन्मभूमि पर विराजे रामलला को छोड़कर बाकी के सभी मंदिरों में श्रीराम के साथ मां जानकी का भी विग्रह अनिवार्य रूप से स्थापित है. वैष्णव परंपरा की दो मुख्यधारा रामानुज एवं रामानंद संप्रदाय में सीता आद्या-परात्परा एवं अखिल ब्रह्मांड नायक सृष्टि नियंता श्रीराम की सहचरी के रूप में समान रूप से स्वीकृत-शिरोधार्य हैं.गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि सीता उत्पत्ति, पालन और संहार की अधिष्ठात्री शक्ति है. वैष्णव मतावलंबी संतों की यह आम धारणा है कि श्रीराम करुणा के साथ न्याय और कर्म के आधार पर फल देने वाले हैं, जबकि मां जानकी अतीव करुणामयी हैं और वे पीड़ित मानवता पर अहेतुक कृपा करती हैं. रामानंद संप्रदाय की उपधारा रसिक उपासना परंपरा में तो मां सीता श्रीराम की चिर सहचरी के साथ जीव मात्र की आदि गुरु और मार्गदर्शिका के रूप में प्रतिष्ठित हैं .मान्यता है कि भक्तों की पुकार वही श्री राम तक पहुंचाती हैं और श्रीराम की कृपा भी उनके ही माध्यम से भक्तों पर बरसती है.
अयोध्या का रंग महल में माता सीता की सखी भाव:-
अयोध्या के मंदिरों में से एक पवित्र मंदिर रंगमहल भी है। यह सैकड़ों वर्ष पुरानी मंदिर है जहां की उपासना बहुत ही महत्वपूर्ण है भगवान श्रीराम की जन्म स्थली से सटे रंगमहल की पौराणिकता अत्यंत अद्भुत है श्री राम जन्मभूमि में जहां श्री राम की उपासना होती है वही राम जन्मभूमि के बगल स्थित रंगमहल में माता सीता की उपासना होती है, इस मंदिर के संत अपने आपको सीता जी की सखी मानते हैं.
अष्ट रामसखा तथा अष्ट जानकी सखी का कनक भवन :-
कनक भवन अयोध्या के अष्ट सखी कुुन्ज में शय्या पर भगवान शयन करते हैं। इस कुन्ज के चारों ओर आठ सखियों के कुंज हैं। श्री चारुशीला जी, श्री क्षेमा जी, श्री हेमा जी, श्री वरारोहा जी, श्री लक्ष्मणा जी, श्री सुलोचना जी, श्री पद्मगंधा जी, श्री सुभगा जी । इन आठ सखियों के प्राचीन चित्र बने हुए हैं। इनके अतिरिक्त सीताजी की आठ सखियाँ और हैं जो श्री सीताजी की अष्टसखी कही जाती हैं उनमें श्री चन्द्र कला जी, श्री प्रसाद जी, श्री विमला जी, मदनकला जी, श्री विश्वमोहिनी, श्री उर्मिला जी , श्री चम्पाकला जी, श्री रूपकला जी हैं। इन श्री सीताजी की सखियों को अत्यन्त अन्तरंग कहा जाता है। ये श्री किशोरी जी की अंगजा हैं। ये प्रिया प्रियतम की सख्यता में लवलीन रहती हैं।
रंगमहल अयोध्या ;-
अयोध्या के रामकोट मोहल्ले में राम जन्म भूमि के निकट भव्य रंग महल मन्दिर स्थित है. ऐसा माना जाता है कि जब सीता माँ विवाहोपरांत अयोध्या की धरती पर आयीं. तब कौशल्या माँ को सीता माँ का स्वरुप इतना अच्छा लगा कि उन्होंने रंग महल सीता जी को मुँह दिखाई में दिया। विवाह के बाद भगवान श्री राम कुछ 4 महीने इसी स्थान पर रहे। और यहाँ सब लोगों ने मिलकर होली खेली थी। तभी से इस स्थान का नाम रंगमहल हुआ। सखी सम्प्रदाय का मंदिर होने से इस स्थान का महत्व अत्यंत वृहद और दर्शनीय हो जाता है । यहाँ नित्य भगवान राम को शयन करते समय पुजारी सखी का रूप धारण करती हैं, भगवान को सुलाने के लिए ये सखियाँ लोरी सुनाती हैं, और उनके साथ रास करती हैं। ये सन्त चंदन के साथ बिंदी भी लगाते हैं।
पृथक राम सखा सम्प्रदाय का उद्भव ;-
अयोध्या में श्रावण कुंज, नृत्य राघव कुंज , सियाराम केलि कुंज ,चार शिला कुंज  , राम सखा जू महाराज और राम सखा बगिया आदि पाच प्रमुख मंदिर इस सम्प्रदाय के हैं।प्रतीत होता है कि अयोध्या मैहर चित्रकूट पुष्कर उडुपि तथा सतना आदि के सभी मंदिर एक ही  परमेश्वर व नियंत्रण के अधीन दीर्घ समय तक रहे। बाद में सुविधा तथा दुर्गमता के कारण सभी स्वतंत्र नियंत्रण मे चले गये।
नृत्य राघव कुंज बासुदेव घाट अयोध्या : -
नृत्य राघव कुंज मणिराम छावनी के निकट बासुदेव घाट  अयोध्या एक प्राचीन मंदिर है।राम सखा की दूसरी गद्दी बनी। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। यही प्रथम गुरु का प्रथम निवास था। इसका निर्माण मैहर के तत्कालीन राजा दुर्जन सिंह कछवाह ने करवाया  था। आजादी के बाद तक वहां से मंदिर की व्यवस्था के लिए खर्चा आता था। अब पुराना मंदिर जीर्ण हो गया है और न मंदिर पुष्कर के महंत के अधीन चला गया है।
श्रावण कुंज बासुदेव घाट अयोध्या :-
श्रावण कुंज अयोध्या के नया घाट पर स्थित है। मान्यता है कि गोस्वामी तुलसी दास जी ने यही रामचरित मानस के बालकंड की रचना की थी। यह प्रति महंत छवि किशोर शरण के संरक्षण में थी। इस पर 1661 वैशाख सुदी 6 बुधवार लिखा है। तुलसीदास जी मानस के रचना अयोध्या में ही शुरू किए थे। वे बहुत दिनों तक अयोध्या में ही रहे। (हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास : डा.राम कुमार वर्मा पृ. 416)। वर्तमान में इस पीठ की देख रेख विदुषी साध्वी राजेश्वरी देवी द्वारा हो रही है । इसके अधीन एक मातृ आश्रम भी चल रहा है।
राम सखा बगिया रानी बाग अयोधा :-
राम सखा बगिया रानी बाग में एक विस्तृत भूभाग में स्थित है। इसका निर्माण भी मैहर के तत्कालीन राजा दुर्जन सिंह कछवाह ने करवाया  था। आजादी के बाद तक वहां से मंदिर की व्यवस्था के लिए खर्चा आता था।
          राम सखा मंदिर रानी बाग अयोध्या के वर्तमान महन्थ श्री अवध किशोर मिश्र ने मंदिर की परम्परा के बारे में बताया कि अयोध्या के कुल पाच मंदिर एक ही महन्थ जी के संरक्षण में पूजा अर्चना करते आ रहें थे। प्रथम गुरु श्रीमद् राम सखेन्द्र जू महराज थे। द्वितीय का नाम सुशील निधि जी महराज रहे है। तृतीय महराज श्री शील निधि जू महराज थे। चतुर्थ श्री अवध शरण जू महराज तथा पंचम श्री रामभुवन शरण जू महराज रहे। षष्टम श्री कामता शरण जू महराज तथा सप्तम श्री रामेश्वर शरण जू महराज रहे। अष्टम महराज के रुप में वर्तमान महन्थ श्री अवध किशोर शरण जी है। इस परम्परा में मुस्लिम धर्म से सनातन धर्म में आये दो सन्तों ने कुछ समय तक इस परम्परा के प्रधान की भूमिका निभाई थी। इनके नाम श्री शीलनिधि महराज तथा श्री सुशील निधि महराज रहा। राम सखेन्दु जू महराज से लेकर कामता शरण महराज तक की परम्परा अखिल भारतीय स्तर पर प्रायः मिलती जुलती है ।
जानकी सखी मन्दिर तुलसी नगर अयोध्या :-
यह मंदिर पंजाबी आश्रम बक्सरिया टोला  तुलसी नगर अयोध्या में मत गजेंद्र चौराहे से तुलसी बालिका विद्यालय होते हुए गोला घाट जाने वाले रोड पर स्थित है। तुलसी उद्यान से बगल के रास्ते से भी इस मंदिर में पहुंचा जा सकता है। यह जानकी सखी मन्दिर के रूप में प्रसिद्ध है।
सियावर केलि कुंज अयोध्या :-
सियावर केलि कुंज नागेश्वरनाथ मंदिर के पीछे , अम्मा जी मंदिर के बगल तथा तुलसी बालिका इन्टर कालेज के पास स्थित है। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है।
राम सखी मंदिर अयोध्या :-
राम सखी मंदिर निकट लक्ष्मण किला चौराहा गोलाघाट अयोध्या में स्थित है। इसके महंथ श्री सिया राम शरण जी हैं।
चारू शिला मंदिर,जानकीघाट  अयोध्या :-
चार शिला कुंज जानकी घाट अयोध्या में स्थित है। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। चारूशिला मंदिर के जगद्गुरू रामानंदाचार्य स्वामी वल्लभाचार्य जी हैं।  चारू शीला राम जी की सखी भी थी। कहा गया है --
प्रथम चारुशीला सुभग, गान कला सुप्रबीन।
युगल केलि रचना रसिक, रास रहिस रस लीन।। 1।।
अर्थात-श्री चारुशीलजी, युगल सरकार की क्रीड़ा के लिये प्रबन्ध करती हैं। आप गान-कला की आचार्य हैं। अखिल ब्रह्माण्ड के देवी-देवता, जो गानविद्या-प्रिय हैं, गन्धर्व आदि उन सबकी अधिष्ठात्री देवी आप हैं। सृष्टि के वाणी आदि कार्य सब आपके आधीन हैं। आप युगल सरकार के ‘
विधान-रचना’ विभाग की प्रधानमंत्री हैं।
नौ खण्डीय रामसखा आश्रम पुष्कर :-
राजस्थान के पुष्कर में राम सखा आश्रम में आज भी इस सम्प्रदाय के लोग पूजा आराधना करते है । पुष्कर के प्राचीन रामसखा आश्रम एवं नवखंडी हनुमान मंदिर के महंत तथा पुष्कर षड़दर्शन साधू समाज के अध्यक्ष रामस्वरूप शरण महाराज ,महंत सियाशरण महराज, सचिदानंद महाराज,रामस्वरूप शरण महाराज आदि परम तत्व मे विलीन हो चुके हैं। वर्तमान महंत नंदराम शरण महाराज सत्ता सीन है। यह मंदिर क्षेत्र के आध्यात्मिक और सामाजिक उन्नयन के लिए सक्रिय भूमिका निभाता चला आ रहा है।
चित्रकूट में रामसखा आश्रम :-
रामसखा आश्रम जानकी कुण्ड चित्रकूट के , महंत मतंग ऋषि। हैं।.(रामसखा जानकी मंदिर) चित्रकूट के महंथ सचिदानंद जी हैं। ये मंदिर क्षेत्र के आध्यात्मिक और सामाजिक उन्नयन के लिए सक्रिय भूमिका निभाता चला आ रहा है।
शहडोल मध्य प्रदेश में रामसखा आश्रम:-
राम सखा आश्रम कल्याणपुर पाली शहडोल मध्य प्रदेश
में है। यह मंदिर क्षेत्र के आध्यात्मिक और सामाजिक उन्नयन के लिए सक्रिय भूमिका निभाता चला आ रहा है।

(लेखक सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर  अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं।)

Wednesday, January 25, 2023

रामजी के ही सहचर- सखी सखाओं का रामसखा सम्प्रदाय---- डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

              (राम सखा बगिया अयोध्या)
            ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। 
           भए समर सागर कहँ बेरे।। 
            मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। 
            भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।
                   (राम चरित मानस)
 अपने सहचर सखाओं की प्रशंसा करते हुए श्रीराम गुरुदेव वशिष्ठ से उक्त बचन कहे थे। भक्तमाल के बीसवें छ्न्द में नाभादास ने राम के विशाल सहचर वर्ग को गिनाया है। इसके अलावा अन्यानेक सहचर , बीरों और भक्तों के नाम भी मिलते हैं। कुछ की कुछ - कुछ सूचनाएं भी मिलती है और कुछ का केवल नाम ही मिलते हैं। ये सब सखा किसी ना किसी देवी या देव के अंश से या अर्जित किए हुए कृपा या महान पुण्यों के फल स्वरूप उत्पन्न हुए थे। ब्रह्मा जी के आदेश से इन लोगों ने बानर , रीछ और भक्त गण का शरीर रामकाज के लिए धारण किया था। इनमें अथाह पौरुष और बल था। भगवान इन सबको अपना सखा मानते थे। रावण की मृत्यु के बाद उनके अनुचर सखा गण को रामजी ने आभार सहित अपने - अपने धाम को जाने को कहा था , पर कोई नहीं वापस गया। सभी राम जी के वनवास से वापस आने के अवसर पर सजी- धजी अयोध्या देखने आ गए थे। 
         कंचन कलस बिचित्र संवारे। 
          सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे॥ 
           बंदनवार पताका केतू। 
           सबन्हि बनाए मंगल हेतू।। 
        छः माह तक उन सब की खूब आव - भगत अयोध्या में होती रही। उन्हें उपहार, वस्त्र और आभूषण देकर विदा किया गया।वे राम की छवि अपने हृदय में बसाकर लौट गए ,परंतु कई वीर सखा स्थाई रूप से अयोध्या वासी हो गए। जब रामजी बैकुंठ जा रहे थे तो अपने इन सखा वीरों को रामकोट , अयोध्या और भी मंडल की रखवाली का दायित्व भी दे दिया था।
        श्री रुद्रयामलोक्त अयोध्या महात्म्य के अध्याय 6 श्लोक 30 से 46 के मध्य रामकोट की सुरक्षा में लगे सभी वीरों और सखाओं के स्थान के बारे में विस्तार से जानकारी दिया गया है। इनमे अनेक स्थल तो राम जन्म भूमि न्यास के अधिग्रहण क्षेत्र की सीमा में आते हैं। कुछ को तो न्यास अपनी नई संरचना में स्थान भी दे रहा है। इस सब के अलावा भक्ति भाव में अनेक सन्त और महात्मा प्रभु से समीपता प्राप्त कर भगवान की सखा और सभी भाव से आराधना साधना और पूजा की थी। जिसके उपरान्त सखा और सखी भाव की भक्ति का संचार हुआ था। अयोध्या में अष्ट राम तथा अष्ट जानकी जी सखियों के नाम को आत्मसात करती हुई अनेक मंदिरों की संरचना व अराधना हो रही है।        
सखी- सखा सम्प्रदाय का विस्तार:-
'सखी या सखा भाव का सम्प्रदाय' 'निम्बार्क मत' की एक शाखा है। इस संप्रदाय में भगवान श्रीकृष्ण या राम की उपासना सखी- सखा भाव से की जाती है। कवि नाभादास जी ने अपने 'भक्तमाल' में कहा है कि- "सखी सम्प्रदाय में राधा-कृष्ण की उपासना और आराधना की लीलाओं का अवलोकन साधक सखीभाव से कहता है। इस संप्रदाय के प्रसिद्द मंदिर वृंदावन मथुरा में श्री बांके बिहारी जी, निधिवन, राधा वल्लभ और प्रेम मंदिर आदि हैं। इसमें माधुर्य भक्ति और प्रेम भक्ति की जाती है ।वृन्दावन और अयोध्या दोनों स्थानों पर प्रेमलक्षणा और राधा भाव का इतना व्यापक प्रभाव किसी काल में पहुँचा था कि राम और सीता को राधा-कृष्ण की छाया में ज्यों का त्यों ग्रहण कर लिया गया और उसी शैली में काव्य-रचना होने लगी। 
 राम-काव्य के सुधी विद्वान् भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं। फादर डॉ. कामिल बुल्के भी श्रृंगारी राम-काव्यों के संविधान में- भाव, साधना और शैली- सभी दृष्टियों से श्रृंगारिक कृष्ण काव्य-साधना के प्रभाव को स्वीकार करते हैं। वे हिन्दी साहित्य कोश में लिखते हैं- इस भक्ति पर कृष्ण-राधा संबंध साहित्य का प्रभाव भी पड़ा और बाद में उत्तरोत्तर बढ़ने लगा । रामभक्ति प्रधानतया दास्यभाव की न रह कर कुछ सम्प्रदायों में मधुरोपासना में परिणत हुई। अनुसन्धायकों के अतिरिक्त साहित्य के इतिहासकारों ने भी इस तथ्य को लक्ष्य किया है। आचार्य शुक्ल इनमें अग्रगण्य है। उनके अतिरिक्त आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी अपने इतिहास में इस धारणा की स्पष्ट-घोषणा की है। तदनुसार- 17वीं शताब्दी के बाद भक्ति-साहित्य में सखी-भाव की साधना का प्राधान्य हो गया। इसका प्रभाव रामभक्ति शाखा पर भी पड़ा है। वृन्दावन की भाँति अयोध्या भी सखी सम्प्रदाय के भक्तों का केन्द्र बन गई। राम जी के अभिन्न सहचर सखाओं ने भी राम सखा संप्रदाय की स्थापना करके अपने प्रभु से जुड़ने और उनकी भक्ति को और गहरी बनाने का उपक्रम किया है। राधा कृष्ण की भांति सीताराम की उपासना में सखी भाव में उपासना होती है। स्वामी रामानन्द जी, गोस्वामी तुलसी दास जी, कवि नाभा दास जी और कवि अग्रदास जी इस कड़ी को आगे बढ़ाए हैं। इस माधुर्य उपासना में सखी भाव प्रिया - प्रियतम के प्रेम मिलन के भाव से पूजा और आराधना की जाती है। कन्हैया कभी अपने दोस्त को पीठ पर लाद लेते हैं तो कभी दोस्त के पीठ पर बैठ लेते थे। कभी गेंद के लिए तो कभी फलादि के लिए लड़ते क्रीड़ा करते देखे गए हैं। इसी तरह सीताराम जी की उपासना में भगवान के चारो भाई, हनुमान जी ,भगवान शिव शंकर और भक्त व मित्र का बराबर बराबर का भाव देखने को मिलता है। 
पृथक राम सखा सम्प्रदाय का उद्भव ;-
श्रीमद् सखेंद्र जी निध्याचार्य जी महराज का जन्म विक्रम संवत के आखिरी चरण चैत्र शुक्ल में राम नवमी को जयपुर में एक सुसंस्कृत गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने श्री वशिष्ठ मुनि से गुरु दीक्षा प्राप्त की। राजस्थान में गलिता के आचार्य ने उन्हें रामसखा की उपाधि दी थी। वे दक्षिण के उडीपि कर्नाटक में गये जहां बड़ी तनमयता से गुरु की सेवा की थी। उनका निवास नृत्य राघव कुंज के नाम से प्रसिद्व हुआ था । सखेंद्र जी महाराज को जब लगा कि भगवान राम ने उन्हें अपने छोटे भाई के रूप में स्वीकार कर लिया है। उसी क्षण महाराज जी ने घर छोड़ दिया और विराट वैष्णव बन गए। उनकी जन्मस्थली होने के कारण वे जयपुर छोड़कर अयोध्या पुरी चले गए। अयोध्या आकर उन्होंने सरयू नदी के तट के अलावा एक पर्णकुटी में भगवान को याद करने के लिए जीवन बिताया। राम सखेंदु जी महाराज ने अठारहवीं संवत में राम सखा सम्प्रदाय की स्थापना की थी। सखी सम्प्रदाय तो सनातन काल से ही राम सखा ,राम सखी ,सीता सखी ,कृष्ण सखा ,कृष्ण सखी और राधा सखी आदि विविध रुपों में पुराणों व भक्ति साहित्य में पाया जाता रहा है। राम सखा जी के शिष्य गुरु की तरह निध्याचार्य उप नाम प्रयुक्त करने लगे थे। शील निधि सुशील निधि और विचित्र निधि उनके परम शिष्य थे।
          श्रीमद् सखेंद्र जी महाराज ने माध्य संप्रदाय के आचार्य श्री वशिष्ठ तीर्थ से गुरु दीक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने लिखा है -   
       "मध्य माध्य निज द्वैत मन मिलन द्वार हनुमान।
        राम सखे विद सम्पदा उडुपी गुरु स्थान।।"
रामसखा जी का अयोध्या में आगमन:-
अयोध्या आकर राम सखा जी सरयू नदी के तट पर एक पर्णकुटी में भगवान को याद करते- करते अपना जीवन बिताया। वे प्रभु के दर्शन के लिए सरयू तट पर साधना करने लगे। 
चित्रकूट में आगमन:-
अयोध्या में बेचैनी पूर्ण समय बिताने के बाद, महाराज जी वहां से चित्रकूट चले गए और वहां कामद वन गिरी पर प्रमोदवन में अपनी प्रार्थना जारी रखी। सरयू तट की भांति एक बार फिर यहां राम ने अपने जुगुल किशोर स्वरूप का दर्शन दिया। इसके संबंध में कुछ लाइनें राम सखे इस प्रकार लिखी है -
"अवध पुरी से आइके चित्रकूट की ओर।
राम सखे मन हर लियो सुन्दर युगुल किशोर।"
उचेहरा में अस्थाई प्रवास :-
कुछ महात्मा यह भी बताते हैं कि महाराज जी के एक शिष्य उनके साथ रहे। चित्रकूट में रहने के बाद महाराज जी उचेहरा (अब सतना जिला) में गए, उन्हें वहाँ बहुत अच्छा नहीं लगा और संवत 1831में मैहर चले गए।
मैहर में तपोसाधना :-
श्री राम सखा जू महाराज, हिंदू धर्म के माधव संप्रदाय के प्रतिपादक और अनुयायी थे, लगभग दो सौ साल पहले जयपुर से मैहर आए । मैहर आकार वह नीलमती गंगा के तट पर उन्होंने एक पर्णकुटी में गणेश जी के सामने भजन किया। मैहर में एक मठ की स्थापना की, जिसे "श्री राम सखेंद्र जू का अखाड़ा" कहा जाता है। श्री सुखेन्द्र निध्याचार्य जी महाराज की तपोभूमि बड़ा अखाड़े के रूप में मैहर में बहुत लोकप्रिय है । यह मंदिर शिव भगवान जी को समर्पित है। बड़ा अखाड़ा में मंदिर और आश्रम दोनो देखने के लिए मिल जाता है। यहां पर शिव भगवान जी की बहुत बड़ा शिवलिंग मंदिर के छत पर बना हुआ है, जो बहुत ही सुंदर लगता है। इसके अलावा मंदिर के अन्दर में 108 शिवलिंग विराजमान है। यहां पर एक प्राचीन कुआं भी है। यहां पर राम जी का मंदिर, गणेश जी का मंदिर और हनुमान जी का मंदिर भी हैं। आश्रम का प्रवेश द्वार बहुत ही खूबसूरत है। आश्रम के प्रवेश द्वार में हनुमान जी और शंकर जी की प्रतिमा बनी है, जो बहुत ही खूबसूरत लगती है। इस आश्रम के अंदर बगीचा भी है। यहां पर बहुत सारे ब्राह्मण विद्यार्थी रहते हैं, जिन्हें यहां पर शिक्षा दीक्षा दी जाती है। महाराज जी ने उन्नीसवीं संवत के प्रथम चरण यानी 1842 में मैहर में अमरता प्राप्त की। उनकी समाधि मैहर में ही है । यहां राम जानकी मंदिर में आज भी इस पंथ की पुजा पद्वति प्रचलित है। 
              रामसखा बड़ा अखाड़ा मैहर के परमपूज्य श्री श्री 1008 श्री सीताबल्लभ शरणजू महराज जी राम सुखेंद्र जू महराज की तपोभूमि (अखाड़े का ही भाग) है। श्री 1008 सुखेन्द्र निध्याचार्य जी महाराज की तपोभूमि (देवी रोड) बहुत ही सिद्ध पीठ है।            श्री1008 श्री सीता शरण जी महाराज 
इस समय श्री श्री1008 श्री सीता शरण जी महाराज इस पीठ के स्वामी हैं।
राम नगरी अयोध्या में विशाल प्रयोग:-
राम नगरी अयोध्या में 11,000 से ज्यादा मंदिर हैं, पूरे विश्व में यह एक ऐसा स्थान है जहां इतनी बड़ी संख्या में मंदिर है. धर्म नगरी अयोध्या भगवान राम की जन्म स्थली के रूप में जानी जाती है. भगवान विष्णु के ही दूसरे अवतार कृष्ण का नाम पहले लिया जाता है। रासलीला, गोपलीला, राधा प्रेम जैसी कई कथाएं कृष्ण से सम्बन्धित हैं.     
सिर पर चुनरी डालकर उपासना :-
अयोध्या में जन्मभूमि मंदिर से कुछ दूर कनक भवन स्थित है . रसिक संप्रदाय के लोग यहां सिर पर चुनरी डालकर भगवान की आरती करते हैं और राम संकीर्तन में खो जाते हैं. वह खुद का संबंध सीता से जोड़ते हैं और श्रीराम को दूल्हा मानते हैं।
श्रीराम दूल्हे के रूप में पूज्य:-
मान्यता है कि जब मिथिला में श्रीराम-सीता का विवाह हुआ तब उसके बाद उनकी सखियों ने विवाह ही नहीं किया. उन्हें इस युगल को देखकर ही जीवन का सारा ज्ञान मिल गया. उन्होंने वरदान मांगा कि हमारा जब भी जन्म हो, राम-सीता की भक्ति में ही जीवन कटे और हम अधिक से अधिक उनके निकट रहें. बिहार में सीतामढ़ी, जनकपुरी, दरभंगा, मैथिल आदि इलाकों में आज भी श्रीराम और यहां तक कि अयोध्या के हर वासी को वे पाहुन (ससुराल से आया अतिथि) मानते हैं. वह उन्हें दूल्हा ही मानते हैं. 
त्रेतायुग से रामरसिकों की सानिध्यता:-
राम रसिकों की मौजूदगी त्रेतायुग से ही है. अहिल्या और शबरी श्रीराम की नवधा भक्ति में समर्पित महिलाएं थीं. 
 एक खास बात ये भी है कि राम रसिक होने के बाद स्त्री-पुरुष का भेद मिट जाता है, सिर्फ आत्मा रह जाती है, जो किसी देह से बंधी सी है.
खाकी बाबा प्रिया अली सहचरी भाव पाये :-
श्री रूपकला जी (अयोध्या के सिद्ध संत) के साथ खाकी बाबा की मित्रता थी । जब कभी अयोध्या आते तो उनसे मिलते और श्री रामकथा सुनकर उसका आनंद लेते । एक दिन रात्रि मे वही विश्राम किया । रात्रि मे श्री रूपकला जी को विरह हुआ तो उनके मुख से आर्त वाणी से निकलने लगा - हे प्रियतम ! हे प्राणनाथ ! हे किशोरी जू । इस तरह कहकर रोने लगे । 
        खाकी बाबा ने उनको डांटा और कहा कि यह क्या प्रियतम और प्यारे प्यारे कहकर रोते रहते हो ? रूपकला जी ने खाकी बाबा से कहा - खाकी बाबा ! श्री अवध आये हो तो आपको एक बार श्री श्री लक्ष्मण शरण जी का दर्शन करना चाहिए । श्री रूपकला जी के कहने पर खाकी बाबा उन रसिक संत श्री श्री लक्ष्मण शरण जी का दर्शन करने गए । जब खाकी बाबा दर्शन करने गए तब बाबा जी चारपाई पर लेटे थे । श्री लक्ष्मण शरण जी ने खाकी बाबा से कहा की थोड़ा समय रुके रहो । जब सब लोग चले गए तब खाकी बाबा को अपने पास बुलाया । खाकी बाबा ने जैसे ही पास जाकर अपने गुरु के चरणों का स्पर्श किया तो देखा की उनके शरीर का अंग प्रत्यंग बदल गया । उनका शरीर एक अतिसुंदर तरुणी के शरीर मे बदल गया । सामने जो रसिक संत लेटे है उनको भी एक सुंदर युवती के रूप मे देखा । कुछ क्षणों मे वह दृश्य चला गया । खाकी बाबा वहां से भागे ।रूपकला जी के पास आकर बोले -  उसके चरण छूते ही मै एक युवती बन गया और वह बाबा खुद भी एक युवती बन गया । 
       रूपकला जी ने कहा - आप पर श्री किशोरी जी की कृपा हो गयी । आपको संत ने श्री किशोरी जी की सहचरियों मे सम्मिलित कर लिया । आप अपने स्वरूप को पहचानो, आज से आप तो प्रिया अली हो गए।  गुरुदेव द्वारा प्रदत्त नाम सीताराम दास, दुनिया के लिए खाकी बाबा और अंतरंग उपासना मे प्रिया अली हो गया । उसके बाद धीरे धीरे रसिक संतो एक संग व सेवा करते करते उनको माधुर्य उपासना की प्राप्ति हुई । 
अयोध्या के लक्ष्मण किले में राम रसिकों की मौजूदगी:-
आचार्य पीठ लक्ष्मण किला रसिक उपासना का सबसे प्राचीन पीठ है. आचार्य जीवाराम के शिष्य स्वामी युगलानन्य शरण की तपोस्थली पर इस मंदिर को साल 1865 में रीवा स्टेट के दीवान दीनबंधु के विशेष आग्रह के बाद बनवाया गया था. यहां वह सिर्फ सीता के पति हैं, सखियों के जीजा हैं और जगत के स्वामी हैं. उनकी उपासना में श्रृंगार का भाव प्रमुख हैं. राम रसिक सिर्फ राम की भक्ति नहीं करते हैं, बल्कि राम से भक्ति में रचा-बसा प्रेम करते हैं. रसिक उपासना के संत यहां भगवान राम की उपासना दूल्हे के रूप करते हैं. मंदिर में विवाह के पदों का गायन होता है.
अयोध्या मां सीता की भी नगरी:-
रामनगरी वस्तुत: श्रीराम के साथ मां सीता की भी नगरी है. श्रीराम और मां सीता में अभिन्नता प्रतिपादित है. यह शास्त्रीय तथ्य रामनगरी में पूरी प्रामाणिकता और पूर्णता के साथ प्रवाहमान है. रामजन्मभूमि पर विराजे रामलला को छोड़कर बाकी के सभी मंदिरों में श्रीराम के साथ मां जानकी का भी विग्रह अनिवार्य रूप से स्थापित है. वैष्णव परंपरा की दो मुख्यधारा रामानुज एवं रामानंद संप्रदाय में सीता आद्या-परात्परा एवं अखिल ब्रह्मांड नायक सृष्टि नियंता श्रीराम की सहचरी के रूप में समान रूप से स्वीकृत-शिरोधार्य हैं.गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि सीता उत्पत्ति, पालन और संहार की अधिष्ठात्री शक्ति है. वैष्णव मतावलंबी संतों की यह आम धारणा है कि श्रीराम करुणा के साथ न्याय और कर्म के आधार पर फल देने वाले हैं, जबकि मां जानकी अतीव करुणामयी हैं और वे पीड़ित मानवता पर अहेतुक कृपा करती हैं. रामानंद संप्रदाय की उपधारा रसिक उपासना परंपरा में तो मां सीता श्रीराम की चिर सहचरी के साथ जीव मात्र की आदि गुरु और मार्गदर्शिका के रूप में प्रतिष्ठित हैं.मान्यता है कि भक्तों की पुकार वही श्री राम तक पहुंचाती हैं और श्रीराम की कृपा भी उनके ही माध्यम से भक्तों पर बरसती है.
अयोध्या का रंग महल में माता सीता की सखी भाव:-
अयोध्या के मंदिरों में से एक पवित्र मंदिर रंगमहल भी है। यह सैकड़ों वर्ष पुरानी मंदिर है जहां की उपासना बहुत ही महत्वपूर्ण है भगवान श्रीराम की जन्म स्थली से सटे रंगमहल की पौराणिकता अत्यंत अद्भुत है श्री राम जन्मभूमि में जहां श्री राम की उपासना होती है वही राम जन्मभूमि के बगल स्थित रंगमहल में माता सीता की उपासना होती है, इस मंदिर के संत अपने आपको सीता जी की सखी मानते हैं.
बड़ा स्थान जानकीघाट :- 
बड़ा स्थान जानकीघाट मन्दिर रसिक उपासना का केन्द्र
रसिक उपासना की मूलपीठ श्री स्वामी करुणा सिंधु मेमोरियल चैरिटेबल सेवा संस्थान द्वारा संचालित श्री जानकीघाट बड़ा स्थान है. परमार्थ सेवा की यह सिद्ध स्थली है. यह अयोध्या की अति प्राचीनतम मन्दिर है. जहा पर हर वर्ष विविध धार्मिक आयोजनों के साथ ही जन मानस व राम भक्तो की सेवा सतत चलती ही रहती है.
अष्ट रामसखा तथा अष्ट जानकी सखी: कनक भवन :-
कनक भवन के अष्ट सखी कुुन्ज में शय्या पर भगवान शयन करते हैं। इस कुन्ज के चारों ओर आठ सखियों के कुंज हैं। श्री चारुशीला जी, श्री क्षेमा जी, श्री हेमा जी, श्री वरारोहा जी, श्री लक्ष्मणा जी, श्री सुलोचना जी, श्री पद्मगंधा जी, श्री सुभगा जी । इन आठ सखियों के प्राचीन चित्र बने हुए हैं। इनके अतिरिक्त सीताजी की आठ सखियाँ और हैं जो श्री सीताजी की अष्टसखी कही जाती हैं उनमें श्री चन्द्र कला जी, श्री प्रसाद जी, श्री विमला जी, मदनकला जी, श्री विश्वमोहिनी, श्री उर्मिला जी , श्री चम्पाकला जी, श्री रूपकला जी हैं। इन श्री सीताजी की सखियों को अत्यन्त अन्तरंग कहा जाता है। ये श्री किशोरी जी की अंगजा हैं। ये प्रिया प्रियतम की सख्यता में लवलीन रहती हैं। 
रंगमहल अयोध्या ;-
अयोध्या के रामकोट मोहल्ले में राम जन्म भूमि के निकट भव्य रंग महल मन्दिर स्थित है. ऐसा माना जाता है कि जब सीता माँ विवाहोपरांत अयोध्या की धरती पर आयीं. तब कौशल्या माँ को सीता माँ का स्वरुप इतना अच्छा लगा कि उन्होंने रंग महल सीता जी को मुँह दिखाई में दिया। विवाह के बाद भगवान श्री राम कुछ 4 महीने इसी स्थान पर रहे। और यहाँ सब लोगों ने मिलकर होली खेली थी। तभी से इस स्थान का नाम रंगमहल हुआ। सखी सम्प्रदाय का मंदिर होने से इस स्थान का महत्व अत्यंत वृहद और दर्शनीय हो जाता है । यहाँ नित्य भगवान राम को शयन करते समय पुजारी सखी का रूप धारण करती हैं, भगवान को सुलाने के लिए ये सखियाँ लोरी सुनाती हैं, और उनके साथ रास करती हैं।
हनुमत् निवास मंदिर:-
अयोध्या में रसिक उपासना परम्परा से जुड़े हनुमत् उपासना के प्रमुख केन्द्र हनुमत् निवास मंदिर है। सौ वर्षों से भी अधिक पुराने इस धर्म स्थान की हनुमत् उपासना के क्षेत्र में विशिष्ट परम्परा रही है। कहा जाता है की गोमती शरण जी महाराज को हनुमानजी का साक्षात्कार हुआ था। चित्रकूट में कठिन साधना के पश्चात ईश्वरीय प्रेरणा से रसिक परम्परा की केन्द्रीय पीठ लक्ष्मण किला के इस स्थान पर स्थित गौशाला को ही उन्होंने अपनी साधना स्थली बना लिया था। 
पृथक राम सखा सम्प्रदाय का उद्भव ;-
अयोध्या में श्रावण कुंज, नृत्य राघव कुंज , सियाराम केलि कुंज ,चार शिला कुंज , राम सखा जू महाराज और राम सखा बगिया आदि पाच प्रमुख मंदिर इस सम्प्रदाय के हैं।प्रतीत होता है कि अयोध्या मैहर चित्रकूट पुष्कर उडुपि तथा सतना आदि के सभी मंदिर एक ही परमेश्वर व नियंत्रण के अधीन दीर्घ समय तक रहे। बाद में सुविध तथा दुर्गमता के कारण सभी स्वतंत्र नियंत्रण मे चले गये।
नृत्य राघव कुंज :-
नृत्य राघव कुंज मणिराम छावनी के निकट बासुदेव घाट अयोध्या एक प्राचीन मंदिर है।राम सखा की दूसरी गद्दी बनी। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। यही प्रथम गुरु का प्रथम निवास था। इसका निर्माण मैहर के तत्कालीन राजा दुर्जन सिंह कछवाह ने करवाया था। आजादी के बाद तक वहां से मंदिर की व्यवस्था के लिए खर्चा आता था। अब पुराना मंदिर जीर्ण हो गया है और न मंदिर पुष्कर के महंत के अधीन चला गया है।
श्रावण कुंज अयोध्या :-
 श्रावण कुंज अयोध्या के नया घाट पर स्थित है। मान्यता के अनुसार गोस्वामी तुलसी दास जी ने यही रामचरित मानस के बालकंड की रचना की थी। यह प्रति महंत छवि किशोर शरण के संरक्षण में थी। इस पर 1661 वैशाख सुदी 6 बुधवार छपा है। तुलसीदास जी मानस के रचना अयोध्या में ही शुरू किए थे। वे बहुत दिनों तक अयोध्या में रहे। (हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास : डा.राम कुमार वर्मा पृ. 416)। वर्तमान में इस पीठ की देख रेख साध्वी राजेश्वरी देवी द्वारा हो रही है ।इसके अधीन एक मातृ आश्रम भी चल रहा है।
राम सखा बगिया :-
राम सखा बगिया रानी बाग में एक विस्तृत भूभाग में स्थित है। इसका निर्माण भी मैहर के तत्कालीन राजा दुर्जन सिंह कछवाह ने करवाया था। आजादी के बाद तक वहां से मंदिर की व्यवस्था के लिए खर्चा आता था।
 श्री अवध किशोर शरण मिश्र राम सखा बगिया अयोध्या 
राम सखा मंदिर रानी बाग अयोध्या के वर्तमान महन्थ श्री अवध किशोर मिश्र ने मंदिर की परम्परा के बारे में बताया कि अयोध्या के कुल पाच मंदिर एक ही महन्थ जी के संरक्षण में पूजा अर्चनाकरते आ रहें थे। प्रथम गुरु श्रीमद् राम सखेन्द्र जू महराज थे। द्वितीय का नाम सुशील निधि जी महराज रहे है। तृतीय महराज श्री शील निधि जू महराज थे। चतुर्थ श्री अवध शरण जू महराज तथा पंचम श्री रामभुवन शरण जू महराज रहे। षष्टम श्री कामता शरण जू महराज तथा सप्तम श्री रामेश्वर शरण जू महराज रहे।अष्टम महराज के रुप में वर्तमान महन्थ श्री अवध किशोर शरण जी है।इस परम्परा में मुस्लिम धर्म से सनातन धर्म में आये दो सन्तों ने कुछ समय तक इस परम्परा के प्रधान की भूमिका निभाई थी। इनके नाम श्री शीलनिधि महराज तथा श्री सुशील निधि महराज रहा। राम सखेन्दु जू महराज से लेकर कामता शरण महराज तक की परम्परा अखिल भारतीय स्तर पर प्रायः मिलती जुलती है । 
जानकी सखी मन्दिर:-
यह मंदिर पंजाबी आश्रम बक्सरिया टोला तुलसी नगर अयोध्या में मत गजेंद्र चौराहे से तुलसी बालिका विद्यालय होते हुए गोला घाट जाने वाले रोड पर स्थित है। तुलसी उद्यान से बगल के रास्ते से भी इस मंदिर में पहुंचा जा सकता है।
सियावर केलि कुंज :-
सियावर केलि कुंज नागेश्वरनाथ मंदिर के पीछे तथा अम्मा जी मंदिर के बगल तथा तुलसी बालिका इन्टर कालेज के पास स्थित है। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। 
राम सखी मंदिर :-
राम सखी मंदिर निकट लक्ष्मण किला चौराहा गोलाघाट 
राम सखी मंदिर गोला घाट महंथ सिया राम शरण जी हैं।
चारू शिला मंदिर,जानकीघाट :-
चार शिला कुंज जानकी घाट अयोध्या में स्थित है। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। चारूशिला मंदिर के जगद्गुरू रामानंदाचार्य स्वामी वल्लभाचार्य जी हैं। चारूशीला राम जी की सखी थी।
प्रथम चारुशीला सुभग, गान कला सुप्रबीन।
युगल केलि रचना रसिक, रास रहिस रस लीन।। 1।।
अर्थात-श्री चारुशीलजी, युगल सरकार की क्रीड़ा के लिये प्रबन्ध करती हैं। आप गान-कला की आचार्य हैं। अखिल ब्रह्माण्ड के देवी-देवता, जो गानविद्या-प्रिय हैं, गन्धर्व आदि उन सबकी अधिष्ठात्री देवी आप हैं। सृष्टि के वाणी आदि कार्य सब आपके आधीन हैं। आप युगल सरकार के ‘
विधान-रचना’ विभाग की प्रधानमंत्री हैं।
नौ खण्डीय रामसखा आश्रम पुष्कर :-
राजस्थान के पुष्कर में राम सखा आश्रम में आज भी इस सम्प्रदाय के लोग पूजा आराधना करते है । पुष्करके प्राचीन रामसखा आश्रम एवं नवखंडी हनुमान मंदिर के महंत तथा पुष्कर षड़दर्शन साधू समाज के अध्यक्ष रामस्वरूप शरण महाराज ,महंत सियाशरण महराज, सचिदानंद महाराज,रामस्वरूप शरण महाराज आदि परम तत्व मे विलीन हो चुके हैं। वर्तमान महंत नंदराम शरण महाराज सत्ता सीन है। यह मंदिर क्षेत्र के आध्यात्मिक और सामाजिक उन्नयन के लिए सक्रिय भूमिका निभाता चला आ रहा है।
पीताम्बर गाल किशनगढ़:-
यह धार्मिक स्थल भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है। इस जगह का नाम एक पीताम्बर नामक सिद्ध तपस्वी के द्वारा यहां तप करने और उनकी तपोस्थली रही इस जगह का नाम उनके नाम पर ही पीताम्बर पड़ा। पिताम्बर गाल सिलोरा के संचालक श्री 108 रामस्वरूप शरण जी महाराज के कृपापात्र शिष्य नौ खण्डीय रामसखा आश्रम पुष्कर के महंथ श्री नंदकिशोर शरण जी महाराज है, 
चित्रकूट में रामसखा आश्रम :-
रामसखा आश्रम जानकी कुण्ड चित्रकूट के , महंत मतंग ऋषि। हैं।.(रामसखा जानकी मंदिर) चित्रकूट के महंथ सचिदानंद जी हैं। ये मंदिर क्षेत्र के आध्यात्मिक और सामाजिक उन्नयन के लिए सक्रिय भूमिका निभाता चला आ रहा है।
शहडोल एम पी में रामसखा आश्रम:-
राम सखा आश्रम कल्याणपुर पाली शहडोल एम पी में है।
यह मंदिर क्षेत्र के आध्यात्मिक और सामाजिक उन्नयन के लिए सक्रिय भूमिका निभाता चला आ रहा है।
 

मनोरमा जी की आरती मनोरमा प्रकटोत्सव के अवसर पर

                      मनोरमा जी की आरती 
मनोरमा प्रकटोत्सव के अवसर पर सादर और भाव सहित      
                      -डा. राधेश्याम द्विवेदी: 
               उतारे तेरी आरती ,जै जै मनोरमा मैया।
              हम गावैं तेरी आरती, जै जै मनोरमा मैया।
        इटिया थोक के टिकरी बन में है तिर्रे तालाई
        उद्दालक आवाहन कर तुम्हें धरती पर लाई।
        सरस्वती का आवाहन तुमको प्रकट करैया।
         उतारे तेरी आरती ,जै जै मनोरमा मैया।1!!
       दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ से राम का जन्म कराई।
       सरस्वती की सातवीं धारा भी तुमही कहलाईं।
        मन मांगा वर तुम देती हो मनवर नाम धरैया ।
        उतारे तेरी आरती ,जै जै मनोरमा मैया।2!!
     तुम्हरी धारा रामरेखा बन सरयू में मिल जाई।
    मनोरमा नाम कहाकर जन मन मंे रम जाई ।
    नाम पतितपावन है तुम्हारा भव से पार लगैया।।
      उतारें तेरी आरती ,जै जै मनोरमा मैया।3!!
       हरि की रहिया को तुम सीचें कांकर पाथर गलाई।
       राम जानकी मारग संग चल तुम आगे बढ़ि जाई।
       लालगंज में छटा समेटी कुवानों में मिलि जइया।
        उतारे तेरी आरती ,जै जै मनोरमा मैया।4!!

    जो जन मनोरमा का दर्शन पावै, जल में दूध चढावै।
   धूप दीप मिष्ठान चढ़ाकर, मनोरमा आरति गावै।
   राधेश्याम की भवसागर से, पार लगेगी नैया।।
    उतारें तेरी आरती ,जै जै मनोरमा मैया।5!!

कहीं हम कुसंस्कार को बढ़ावा तो नहीं दे रहे -- डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

हमारा देश भारत युवाओं का देश है,किन्तु आज समाज के वर्तमान परिदृश्य को देखा जाए तो हमारे समाज की युवा पीढ़ी संस्कार से विमुख होती जा रही है। समाज के लगभग तीन चौथाई युवा कुसंस्कार नाम के रोग से ग्रसित होते जा रहे हैं । संस्कार ही हमारे जीवन का सबसे बड़ा श्रृंगार और लक्ष्य होता है। जब कि कुसंस्कार हमारे जीवन मे कालिमा के समान होता है। 
          विचार करने वाली बात यह है कि , क्या यह कुसंस्कार या फिर सुसंस्कार मनुष्य के भीतर जन्म से ही प्राप्त होती है? 
जी नही ! कोई भी बालक जन्म से संस्कार रहित होता है। किसी बालक के भीतर गुण – अवगुण,अच्छाई-बुराई के चिन्ह भी कहीं अंकित नही होता है । 
तो क्या ? हमने कभी विचार किया जब बालक के अंदर जन्म से अच्छाई – बुराई तथा गुण या दोष नही होते तो फिर यह कहाँ से प्राप्त होते है? किसी भी बालक के ह्रदय में यह कुसंस्कार नाम का रोग कहाँ से प्रवेश करता है? 
       यह एक गहन विचार करने वाली बात है । इसके बारे में यह कहा जा सकता है कि माता -पिता के मुख से जो बात सुनी जाती है वही बात बालक के संस्कार बनती है। जिस प्रकार किसी गांव में स्थित नदी तट या किसी अजूती भूमि पर बार – बार चलने मात्र से पगडंडी बन जाती है। उसी प्रकार माता-पिता की इच्छाएँ , उनके छोटी छोटी बातों को नजरंदाज करने या उन पर समझ बूझ न दिखाना, उन्हें ना डांटना आदि गतिविधियां ही बालक के अंदर संस्कार बनती जाती है। अगर हमारे संतानो में कुसंस्कार या दोष दिखाई पड़ने लगता है,तो प्रत्येक माता-पिता यह देखकर आश्चर्य एवं घोर दुख से भर जाते है । उनका ह्रदय उनसे बार-बार यही प्रश्न करता है, कि उनकी संतानो में यह कुसंस्कार आया कहाँ से ? हालांकि माता-पिता जाने - अनजाने में ही अपने संतान के भीतर कुसंस्कार के बीज बो देते है । जो बाद में उनके संतानो के भीतर ह्रदयरूपी भूमि पर कुसंस्कार का एक वृक्ष बनता जाता है । 
बुरी आदतें कुसंस्कारों का परिणाम:-
मनुष्य की बुरी आदतें मूलतः उसके हृदय में जमे हुए कुसंस्कारों के परिणाम हैं। प्रत्येक अंग का परिचालन आन्तरिक सूचनाओं द्वारा होता है। ये आन्तरिक सूचनाएं कुछ तो स्वयं अपने द्योतन से होती हैं, कुछ दूसरों की विषैली सूचनाओं के कारण होती हैं। परिस्थितियाँ, दूसरे व्यक्तियों के साथ रहन सहन, बोलचाल, विशेष सम्प्रदाय के कारण भी अनेक प्रकार की आदतों का जन्म होता है।
बुरे संस्कारों के कारण जीवन कलुषित :-
अनेक व्यक्ति आज अपने बुरे संस्कारों के कारण कलुषित जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वे अपनी आदतों से मजबूर हैं। हमने स्वयं देखा है जेल के कैदियों को तीन आने रोज मिले। इनमें से अधिकाँश व्यक्तियों ने अपने पैसे बीड़ी, पान, सुँघनी, तम्बाकू, चाय, इत्यादि में व्यय कर डाले। कोई भी पौष्टिक तत्व उनके हाथ न लगा। अनेक निम्न श्रेणी के व्यक्ति, मजदूर, मोची, नाई, मेहतर दिन भर भूखे रह कर भी सन्ध्या समय चार-चार आने सिनेमा में फूँक देना अच्छा समझते हैं। इसी प्रकार अनेक कंजूस व्यक्ति अपने तथा अपने बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा, विकास, मनोरंजन में कुछ भी काम नहीं करते किंतु विवाह, शादी, दहेज, इमारत बनाने में बहुत व्यय कर डालते हैं। धन का ऐसा अपव्यय एक प्रकार की मानसिक दुर्बलता एवं अनेक जन्मों के कुसंस्कारों का द्योतक है।
परिवार में समन्वय हो :-
सदियों से परिवार को एक ऐसा प्रशिक्षण केन्द्र माना जाता है जहां हम निज पसंद-नापसंद से ऊपर उठकर एक दूसरे के साथ समन्वय करना सीखते हैं। मतभेद के बावजूद मनभेद को पनपने नहीं देते। एक-दूसरे के कष्ट और पीड़ा को उससे अधिक हम अनुभव करते हैं। अपने पोषण और विकास का एक अंश निस्वार्थ भाव से परिवार और समाज को समर्पित करने के संस्कार जहां पुष्पित पल्लवित होते हैं वह परिवार ही है। जब से आधुनिक शिक्षा और संचार के आधुनिकतम माध्यमों ने मोर्चा संभाला है, संस्कारों के लिए स्थान काफी कम होता जा रहा है। पहले शिक्षा के लिए परिवार अस्थाई रूप से दूर होता है लेकिन उसके बाद नौकरी के लिए दूर देश जाकर रहने की विवशता, संयुक्त परिवार से संवाद सम्पर्क को लगातार कम करती है और एक दिन ऐसा आता है जब दिल- दिमाग में भी विभाजन की लकीरें खिंच जाती है। 
दूषित संस्कारों से छुटकारे का उपाय :-
वास्तव में मनुष्य का उत्थान तथा पतन उसके मन मंदिर में उत्पन्न होने वाले विचारों से होता है? वहाँ से विकास एवं वहीं से पतन का प्रारंभ होता है। दुर्बलता और शक्ति मानसिक विकास या पतन की दो भिन्न-भिन्न स्थितियाँ हैं। पुनरुत्थान तथा नव निर्माण का कार्य भी हमें यहीं से प्रारंभ करना चाहिए।
उत्तम गुणों को ही विकसित करें :-
मनुष्य के हृदय में सभी उत्तम गुणों के बीज मौजूद हैं। कुछ में ये दूसरों की बनिस्बत अधिक विकसित है। हमें चाहिए कि हममें जो दुर्बलता है, उसके विपरीत वाले गुण को प्रोत्साहन देकर उसे विकसित करे। पुनः-पुनः आत्म- द्योतक से अनायास ही मानव स्वभाव के उत्तम तत्व प्रस्फुटित होकर बढ़ने लगेंगे। जैसे-2 ये विकसित होंगे गन्दी आदतें तथा विषैले संस्कार फीके पड़ते जायेंगे। हमें चाहिए कि हम नवनिर्माण का कार्य अपने आपको भाग्यशाली मानकर आरम्भ करे। हम सोचें कि हम बड़े भाग्यशाली हैं। सुख, समृद्धि, आनन्द, विशुद्ध, जीवन से हमारा निकट सम्बन्ध है। हमारी बुरी आदतों का अन्त हो गया है, शुद्ध विवेक जागृत होने से कुसंस्कार स्वतः दब गये हैं। हम अब केवल भव्य विचार, पवित्र संकल्प, सद्चिन्तन को ही हृदय में स्थान देते हैं।
शुभता और सुचिता:-
आप दृढ़ता से मन में नये पवित्र संस्कार जमाइये। बार-बार उन्हें दुहरा कर पुराने कुसंस्कारों को फीका बनाइये। प्रतिक्षण अपने मन में सद्चिन्तन, सद्वचन, शुभ कर्म में प्रवृत्त रहिये। पवित्र स्थानों में रमण कीजिये। सद्पुरुषों के संपर्क में रह कर उनकी मंजुल वाणी में आवाहन कीजिए। पुराने स्वभाव तथा आदतों को दूर करने का एक ही उपाय है। वह है उनके विरुद्ध उत्तम तथा विशुद्ध संस्कारों का दृढ़ निश्चय तथा दृढ़ता से उन पर कार्य। सत्य संकल्प से सब मनोरथ सम्पन्न होते हैं।
माता-पिता को अपनी इच्छाएं नियंत्रित करें:-
अपने संतान को सु संस्कारी एवं उनके ह्रदय को धर्ममय बनाने की आशा रखने वाले माता-पिता को अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाना अनिवार्य है ।हमे आज के परिवेश में तेज़ी से फैल रहे कुसंस्कार के बीज को फैलने से रोकना चाहिए। आज बदलते परिवेश में कुसंस्कारी मनुष्य अपने आप को भौतिक रूप से समृद्धशाली कर के खुद को समृद्ध समझ रहा है,परंतु वह अपने ह्रदय से कभी भी समृद्ध नही हो सकता है । मनुष्य के सुसंस्कार ही उसे ह्रदय से समृद्ध बनाते है ।आज के युवा को इस कुसंस्कार जैसे रोग से बचने की आवश्यकता है।
(लेखक सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं।)


Thursday, January 19, 2023

रामजी के ही सहचर सखा से राम सखा सम्प्रदाय बना --- डॉ.राधे श्याम द्विवेदी

रावण की मृत्यु के बाद उनके अनुचर सखा गण को राम आभार सहित अपने अपने धाम को जाने को कहा।पर कोई नहीं वापस गया। सभी सजी धजी अयोध्या देखने आ गए थे। 
         कंचन कलस बिचित्र संवारे। 
          सबहिं धरे सजि निज निजद्वारे॥ 
           बंदनवार पताका केतू। 
           सबन्हि बनाए मंगल हेतू।। 
        छः माह तक उन सबकी खूब आव भगत होती रही। उन्हें उपहार वस्त्र आभूषण देकर विदा किया गया।वे राम की छवि अपने हृदय में बसाकर लौट गए ,परंतु कई वीर सखा स्थाई रूप से अयोध्या वासी हो गए। जब रामजी बैकुंठ जा रहे थे तो अपने इन सखा वीरों को रामकोट और अयोध्या की रखवाली का दायित्व भी दे दिया था।
        श्री रुद्रयामलोक्त अयोध्या महात्म्य के अध्याय 6 श्लोक 30 से 46 के मध्य रामकोट की सुरक्षा में लगे सभी वीरों और सखाओं के स्थान के बारे में विस्तार से जानकारी दिया गया है। इनमे अनेक स्थल तो राम जन्म भूमि न्यास के अधिग्रहण क्षेत्र की सीमा में आते हैं। कुछ को तो न्यास अपनी नई संरचना में स्थान भी दे रहा है।
         रामकोट राजप्रासाद के मुख्य फाटक पर अंजनी नन्दन पवन पुत्र श्रीहनुमानजी का निवास है | उनके दक्षिण पाशर्व में श्रीसुग्रीवजी प्रतिष्ठित है। इसी दुर्ग से मिला हुआ अंगदजी का दुर्ग है | रामकोट के दक्षिण द्वार पर नल नील की स्थिति है। नवरत्न कुबेर जी से पूर्व में सुषेण रहते है | नवरत्न कुबेर नामक स्थान के उत्तर में गवाक्ष जी का स्थान है।रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र जी प्रतिष्ठित हैं | उसी पश्चिम भाग में दाधिवक्त्र के उत्तर में स्थित द्वारदेश में दुर्गेश्वर के में से स्थान रहा है। उनके निकट शतवली जी का और कुछ दूर पर गन्धमादन जी का स्थान है।उससे आगे ऋषभ जी तथा उनके आगे शरभ जी , उनसे आगे पनस जी विराजमान हैं | राम दुर्ग के उत्तर द्वार पर प्रधान रक्षक का भार विभीषण जी पर रहा| उनके साथ उनकी स्त्री 'सरमादेवी' भी रहा करती हैं जो अयोध्या में हर्ष पूर्वक रहकर धर्मशील जनों की रक्षा और दुष्ट बुद्धि वालों का भक्षण करती है। शरमा जी के पूर्व में विघ्नेशवर देव का स्थान है। जिनके स्मरण मात्र से विघ्नों का लेश भी नहीं आ सकता है।विघ्नेशवर देवजी के पूर्व दिशा में बलवान श्री पिण्डारक जी का स्थान है। ये पापियों को दंड दिया करते हैं। पिण्डारक जी के पूर्व दिशा में बड़े ही बीर और मंगल करने वाले विभीषण जी के पुत्र मतगजेंद्र (मात गैंड) जी का स्थान है। ये अयोध्या के कोटपाल ( कोतवाल) हैं तथा सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। इनको रामकोट के उत्तर फाटक के पाशर्व स्थापित किया गया | इनके पूर्व दिशा में द्विविदजी का स्थान है। मतगजेंद्र जी के ईशान कोण में बुद्धिशाली मयंद जी बिराजते हैं।मयंद जी के दक्षिण दिशा की प्रधान रक्षा का भार जांबवान जी बिराजते हैं। जांबवान जी के दक्षिण तरफ केशरीजी बिराजते हैं। इस प्रकार दुर्ग रामकोट की चतुर्दिक रक्षा होती रही है।
        ब्रह्मा से इन लोगों ने बानर और रीक्ष का शरीर रामकाज के लिए धारण किया था। इनमें अथाह बल था। भगवान इन सबको अपना सखा मानते थे। इनकी प्रशंसा करते हुए राम गुरुदेव वशिष्ठ से कहते हैं --
           ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। 
           भए समर सागर कहँ बेरे।। 
            मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। 
            भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।
       इन सहचरों का भी प्रभु पर इतना प्रेम था कि वे लोग जी जान से युद्ध करने पर भी इसे प्रभु की सेवा में तुच्छ कार्य भी नहीं गिनते। भगवान द्वारा प्रशंसा किए जाने पर वे कहते हैं -- 
             सुनि प्रभु बचन लाज हम मरही।
             मसक कहूं खग पति हित करहीं।।
राम सखा सम्प्रदाय का विस्तार:-
सखी या सखा भाव का सम्प्रदाय' 'निम्बार्क मत' की एक शाखा है। इस संप्रदाय में भगवान श्रीकृष्ण की उपासना सखी- सखा भाव से की जाती है। कवि नाभादास जी ने अपने 'भक्तमाल' में कहा है कि- "सखी सम्प्रदाय में राधा-कृष्ण की उपासना और आराधना की लीलाओं का अवलोकन साधक सखीभाव से कहता है। सखी सम्प्रदाय में प्रेम की गम्भीरता और निर्मलता दर्शनीय है। इस संप्रदाय के संस्थापक स्वामी हरिदास (जन्म संवत 1535 वि०) ने की थी। इस संप्रदाय के प्रसिद्द मंदिर वृंदावन मथुरा में श्री बांके बिहारी जी, निधिवन, राधा वल्लभ और प्रेम मंदिर आदि हैं। इसमें माधुर्य भक्ति और प्रेम भक्ति की जाती है ।
            राम जी के अभिन्न सहचर सखाओं ने बाद में राम सखा संप्रदाय की स्थापना करके अपने प्रभु से जुड़ने और उनकी भक्ति को और गहरी बनाने का उपक्रम किया है। राधा कृष्ण की भांति सीताराम की उपासना में सखी भाव में उपासना होती है। स्वामी रामानन्द जी, गोस्वामी तुलसी दास जी, कवि नाभा दास जी और कवि अग्रदास जी इस कड़ी को आगे बढ़ाए हैं। इस माधुर्य उपासना में सखी भाव प्रिया - प्रियतम के प्रेम मिलन के भाव से पूजा और आराधना की जाती है। सखी भाव की तरह सखा भाव में कन्हैया कभी अपने दोस्त को पीठ पर लाद लेते हैं तो कभी दोस्त के पीठ पर बैठ लेते थे। कभी गेंद के लिए तो कभी फलादि के लिए लड़ते क्रीड़ा करते देखे गए हैं। इसी तरह सीताराम जी की उपासना में भगवान और मित्र का बराबर बराबर का भाव देखने को मिलता है। राम सखेंदु जी महाराज नेअठारहवीं संवत में इसकी स्थापना की थी।
        सखी सम्प्रदाय तो सनातन काल से ही राम सखा ,राम सखी ,सीता सखी ,कृष्ण सखा ,कृष्ण सखी और राधा सखी आदि विविध रुपों में पुराणों व भक्ति साहित्य में पाया जाता रहा है। राम सखा जी के शिष्य गुरु की तरह निध्याचार्य उप नाम प्रयुक्त करने लगे थे। शील निधि सुशील निधि और विचित्र निधि उनके परम शिष्य थे। श्री 1008 सुखेन्द्र निध्याचार्य जी महाराज की तपोभूमि बड़ा अखाड़े के रूप में मैहर में बहुत लोकप्रिय है। 
         राम सखा महाराज जी जयपुर से निकलने के बाद विराट वैष्णव बन गए थे। वे कर्नाटक के तीर्थ क्षेत्र उडुपी पहुंचे। श्रीमद् सखेंद्र जी महाराज ने माध्य संप्रदाय के आचार्य श्री वशिष्ठ तीर्थ से गुरु दीक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने लिखा है -   
         "मध्य माध्य निज द्वैत मन मिलन द्वार हनुमान।
        राम सखे विद सम्पदा उडुपी गुरु स्थान।।"
       वहां के आचार्य ने उन्हें रामसखा की उपाधि दी थी। वे दक्षिण के उडीपि (कर्नाटक) में बड़ी तनमयता से गुरु की सेवा किये थे। उनका निवास नृत्य राघव कुंज के नाम से प्रसिद्व हुआ था । 
रामसखा जी का अयोध्या में आगमन:-
अयोध्या आकर राम सखा जी सरयू नदी के तट पर एक पर्णकुटी में भगवान को याद करते- करते अपना जीवन बिताया। वे प्रभु के दर्शन के लिए सरयू तट पर साधना करने लगे। जब उनकी व्यथा बढ़ी तो वे प्रभु को उपालंभ भी देना शुरू कर दिए। संप्रदाय भासकर में उल्लिखित है -
       “अरे शिकारी निर्दयी, करिया नृपति किशोर ।
       क्यों तरसावत दरश को, राम सखे चित्त चोर ।।"
        उनकी व्यथा देख एक बार प्रभु ने उन्हें अल्प समय के लिए दर्शन दिया। वे उनसे अंक में लिपट कर खूब रोए और खूब आनंद लिए। बाद में प्रभु जी अंतर्ध्यान हो गए। कुछ दिनों बाद फिर उन्हें दर्शन करने की तलब लगी। अब वे और बेचैन रहने लगे।जब उनकी बेचैनी असहय हो गई । उन्हें बेचैन मनोव्यथा जानकर इस बार रामजी माता सीता जी के साथ उन्हें युगल किशोर के दर्शन हुए। उनका सारा दुख दूर हो गया।
काछवाह राजा द्वारा अयोध्या में मन्दिर का निर्माण :-
बाद में अयोध्या में इसी नाम से एक मंदिर का निर्माण हुआ था।जो राम सखा की दूसरी गद्दी बनी। इसका निर्माण मैहर के तत्कालीन राजा दुर्जन सिंह कछवाह ने करवाया था।
कुंवर दुर्जन सिंह राजा मान सिंह के चौथे पुत्र थे. इनकी माता का नाम सहोद्रा गौड़ था. यह अत्यंत ही साहसी और पराक्रमी योद्धा थे. कुंवर दुर्जन सिंह के वंशजों को दुर्जन सिंहोत राजावत के नाम से जाना जाता है।
चित्रकूट में आगमन:-
अयोध्या में बेचैनी पूर्ण समय बिताने के बाद, महाराज जी वहां से चित्रकूट चले गए और वहां कामद वन गिरी पर प्रमोदवन में अपनी प्रार्थना जारी रखी। बहुत दिनों तक दर्शन ना होने पर उनके मस्तिष्क में ये भाव आया । रूप सामर्थ्य चन्द्र में लिखा है -
"ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे,ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे।
ले चल कुटिल बदल जुल्फान छवि राज माधुरी वेशे।
केसर तिलक कंज मुख श्रम जल ललित लसत द्वई रेफे।
दशरथलाल लाल रघुवर बिनु बहुत जियब केही लेखे।
ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे,ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे।
डूब डूब उर श्याम सुरती कर प्राण रहे अवशेषे।
राम सखे विरहिन दोउ अखियां चाहत मिलन विशेषे।।"
        सरयू तट की भांति एक बार फिर यहां राम ने अपने जुगुल किशोर स्वरूप का दर्शन दिया। इसके संबंध में कुछ लाइनें राम सखे इस प्रकार लिखी है -
"अवध पुरी से आइके चित्रकूट की ओर।
राम सखे मन हर लियो सुन्दर युगुल किशोर।"
        भक्त भगवान का अब लुका छिपी का खेल होने लगा।अब प्रायः दर्शन होने लगे।वे इसका वर्णन सुनाते जाते और भक्त आनंदित होते रहते थे-
"आज की हाल सुनो सजनी मडये प्रकटी एक कौतुक भारी।
जेवत नारी बारात सभौ रघुनाथ लखे मिथिलेश उचारी।
श्री रघुवीर को देख स्वरूप भई मत विभ्रम गावनहारी।
भूली गयो अवधेश को नाम देने लगी मिथिलेश को गारी।।"
         अब तक की साधना और भक्ति से राम सखे की कुंडलिनी जागृति हो गई थी।उनकी सुरति खुलने लगी थी।योग में जब चाहा दर्शन होने लगा था ।अब ध्यान लगाना नही पड़ता अपितु मानस पटल पर प्रभु की छवि खुद ब खुद आ जाती थी।
उचेहरा में अस्थाई प्रवास :-
कुछ महात्मा यह भी बताते हैं कि महाराज जी के एक शिष्य उनके साथ रहे, वे लोगों से भिक्षा माँगते थे और ठाकुर जी के लिए भोग भी तैयार करते थे। ठाकुर जी के भोग के बाद, कई महात्माओं के पास प्रसाद था और वे संतुष्ट होकर लौटे। चित्रकूट में रहने के बाद महाराज जी उचेहरा (अब सतना जिला) में गए।लेकिन उन्हें वहाँ बहुत अच्छा नहीं लगा और संवत 1831में मैहर चले गए।
मैहर में तपोसाधना :-
मैहर आकार वह नीलमती गंगा के तट पर उन्होंने एक पर्णकुटी में गणेश जी के सामने भजन किया। बड़ा अखाड़ा एक प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर शिव भगवान जी को समर्पित है। बड़ा अखाड़ा मंदिर में आपको मंदिर और आश्रम देखने के लिए मिल जाता है। यह मंदिर शिव भगवान जी को समर्पित है। यहां पर शिव भगवान जी की बहुत बड़ा शिवलिंग मंदिर के छत पर बना हुआ है, जो बहुत ही सुंदर लगता है। इसके अलावा मंदिर में 108 शिवलिंग विराजमान है। उनके दर्शन भी आप यहां पर आकर कर सकते हैं। यहां पर आपको एक प्राचीन कुआं भी देखने के लिए मिल जाएगा। यहां पर राम जी का मंदिर, गणेश जी का मंदिर और हनुमान जी का मंदिर भी है। आप इन सभी मंदिरों में घूम सकते हैं। बड़ा अखाड़ा में आपको आश्रम भी देखने के लिए मिलता है। आश्रम का जो प्रवेश द्वार है। वह बहुत ही खूबसूरत है। आश्रम के प्रवेश द्वार में आपको हनुमान जी की प्रतिमा देखने के लिए मिलती है और शंकर जी की प्रतिमा देखने के लिए मिलती है, जो बहुत ही खूबसूरत लगती है। इस आश्रम के अंदर आपको बगीचा भी देखने के लिए मिल जाता है। यहां पर बहुत सारे ब्राह्मण विद्यार्थी रहते हैं, जिन्हें यहां पर शिक्षा दीक्षा दी जाती है।
 राम सखा जू महाराज :-
श्री राम सखा जू महाराज, हिंदू धर्म के माधव संप्रदाय के प्रतिपादक और अनुयायी थे, लगभग दो सौ साल पहले जयपुर से मैहर आए और मैहर में एक मठ की स्थापना की, जिसे "श्री राम सखेंद्र जू का अखाड़ा" कहा जाता है; कि उन्होंने अखाड़े में 'राम-जानकी' की एक छवि स्थापित की, जिसकी पूजा संप्रदाय के अनुयायी करते थे; कि कई व्यक्तियों ने अखाड़े को संपत्तियां दीं और मैहर के तत्कालीन शासक ने भी अखाड़े के रखरखाव और देवता की पूजा के लिए एक गांव दिया था। "बडा अखाड़ा" ट्रस्ट का गठन किया गया था और एक सोसायटी के रूप में पंजीकृत किया गया था।
 मेंहर में अंतिम सांस :-
महाराज जी ने उन्नीसवीं संवत के प्रथम चरण यानी 1842 में मैहर में अमरता प्राप्त की। उनकी समाधि मैहर में ही है। उसे बड़ा अखाड़ा कहा जाता है। यहां राम जानकी मंदिर में आज भी इस पंथ की पुजा पद्वति प्रचलित है। राम सखेन्दु जी महराज के नाम से उनकी ख्याति आज भी विद्यमान है। राजस्थान के पुष्कर में राम सखा आश्रम में आज भी इस सम्प्रदाय के लोग पूजा आराधना करते है अयोध्या, चित्रकूट, पुष्कर और मैहर सबसे प्रमुख स्थान हैं। रीवा, नागोद आदि क्षेत्रों में महाराज जी के शिष्यों की भारी संख्या है। 
पृथक राम सखा सम्प्रदाय का उद्भव ;-
श्रीमद् सखेंद्र जी महाराज (संभवतः निध्याचार्य जी महराज) का जन्म विक्रमसंवत के आखिरी चरण चैत्र शुक्ल में राम नवमी को जयपुर में एक सुसंस्कृत गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने श्री वशिष्ठ मुनि से गुरु दीक्षा प्राप्त की। गलिता के आचार्य ने उन्हें रामसखा की उपाधि दी थी। वे दक्षिण के उडीपि कर्नाटक में गये जहां बड़ी तनमयता से गुरु की सेवा की थी।उनका निवास नृत्य राघव कुंज के नाम से प्रसिद्व हुआ था । सखेंद्र जी महाराज को जब लगा कि भगवान राम ने उन्हें अपने छोटे भाई के रूप में स्वीकार कर लिया है। उसी क्षण महाराज जी ने घर छोड़ दिया और विराट वैष्णव बन गए।उन्होंने सत्यता का मार्ग खोजना शुरू कर दिया। वह अपने गुरु जी के साथ रहे और भगवान और उनके स्नेह को प्राप्त करने का कौशल सीखा। इस समय तक महाराज जी जयपुर में ही थे, लेकिन उनकी जन्मस्थली होने के कारण वे जयपुर छोड़कर अयोध्या पुरी चले गए। अयोध्या में गुरुजी के आवास का नाम नृत्य राघव कुंज के नाम से प्रसिद्व हुआ था। अयोध्या आकर उन्होंने सरयू नदी के तट के अलावा एक पर्णकुटी में भगवान को याद करने के लिए जीवन बिताया। महाराज जी को उन सभी भौतिक चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, जो वे करना चाहते थे, वे अपने भगवान के बारे में अधिक जानते हैं और दुनिया में और कुछ भी उनके लिए मायने नहीं रखता था। जब वह ध्यान और प्रार्थना में व्यस्त थे कुछ और महात्मा उससे प्रभावित हुए उनके वास्तविकता का परीक्षण करना चाहे। वह उनसे बोले यदि भगवान राम अपने धनुष वाण के साथ प्रकट हो तो मानेगे कि महात्मा जी उनके सच्चे सेवक है। महात्माओं के सुनने के बाद महराज जी चुप हो गये और इसका उत्तर नहीं दिये। किन्तु रामजी ने इसे नहीं छोड़ा । इसके कुछ देर के बाद रामजी प्रकट हुए और सिद्व किये महराज जी सच्चे भक्त है। यह महात्माओं के लिए एक पाठ था। वे अपने करनी के लिए दुखी हुए। वह उन्हें महराज जी के सामने धनुष वाण के साथ लेकर देखने व मुस्कराने को महराज जी के आर्शाबाद को मानने लगे।
अयोध्या में राम सखा के मंदिर:-
अयोध्या में श्रावण कुंज नृत्य राघव कुंज , सियाराम केलि कुंज चार शिला कुंज राम सखा जू महाराज राम सखा बगिया आदि पाच प्रमुख मंदिर इस सम्प्रदाय के हैं। श्रावण कुंज अयोध्या के नया घाट पर स्थित है। मान्यता के अनुसार गोस्वामी तुलसी दास जी ने यही रामचरित मानस के बालकंड की रचना की थी। नृत्य राघव कुंज मणिराम छावनी के निकट बासुदेव घाट स्थित है। राम सखा बगिया रानी बाग में एक विस्तृत भूभाग में स्थित है। नृत्य राघव कुंज बासुदेवघाट अयोध्या एक प्राचीन मंदिर है। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। सियावर केलि कुंज नागेश्वरनाथ मंदिर के पीछे स्थित है। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। चार शिला कुंज जानकी घाट अयोध्या में स्थित है। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। राम सखा मंदिर रानी बाग अयोध्या के वर्तमान महन्थ श्री अवध किशोर मिश्र ने मंदिर की परम्परा के बारे में बताया कि अयोध्या के कुल पाच मंदिर एक ही महन्थ जी के संरक्षण में पूजा अर्चनाकरते आ रहें थे। प्रथम गुरु श्रीमद् राम सखेन्द्र जू महराज थे। द्वितीय का नाम उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। तृतीय महराज श्री शील निधि जू महराज थे। चतुर्थ श्री अवध शरण जू महराज तथा पंचम श्री रामभुवन शरण जू महराज रहे। षष्टम श्री कामता शरण जू महराज तथा सप्तम श्री रामेश्वर शरण जू महराज रहे। अष्टम महराज के रुप में वर्तमान महन्थ श्री अवध किशोर शरण जी है।इस परम्परा में मुस्लिम धर्म से सनातन धर्म में आये दो सन्तों ने कुछ समय तक इस परम्परा के प्रधान की भूमिका निभाई थी। इनके नाम श्री शीलनिधि महराज तथा श्री सुशील निधि महराज रहा। राम सखेन्दु जू महराज से लेकर कामता शरण महराज तक की परम्परा अखिल भारतीय स्तर पर प्रायः मिलती जुलती है । प्रतीत होता है कि अयोध्या मैहर चित्रकूट पुष्कर उडुपि तथा सतना आदि के सभी मंदिर एक ही परम्रा व नियंत्रण के अधीन दीर्घ समय तक रहे। बाद में सुविध तथा दुर्गमता के कारण सभी स्वतंत्र नियंत्रण मे चले गये।
                         लेखक परिचय - 
27.06.1957 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में जन्में डॉ. राधेश्याम द्विवेदी ने अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद से बी.ए. और बी.एड. की डिग्री,गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी),एल.एल.बी., सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी का शास्त्री, साहित्याचार्य , ग्रंथालय विज्ञान शास्त्री B.Lib.Sc. तथा विद्यावारिधि की (पी.एच.डी) "संस्कृत पंच महाकाव्य में नायिका" विषय पर उपार्जित किया। आगरा विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास से एम.ए. तथा ’’बस्ती का पुरातत्व’’ विषय पर दूसरी पी.एच.डी.उपार्जित किया। डा. हरी सिंह सागर विश्व विद्यालय सागर मध्य प्रदेश से MLIS किया। आप 1987 से 2017 तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण वडोदरा और आगरा मण्डल में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। प्रकाशित कृतिः ”इन्डेक्स टू एनुवल रिपोर्ट टू द डायरेक्टर जनरल आफ आकाॅलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया” 1930-36 (1997) पब्लिस्ड बाई डायरेक्टर जनरल, आकालाजिकल सर्वे आफ इण्डिया, न्यू डेलही। आप
अनेक राष्ट्रीय पोर्टलों में नियमित रिर्पोटिंग कर रहे हैं।
साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर आपकी लेखनी सक्रिय है।




श्रीराम की सेना के प्रमुख बीर- सहचर और सखा डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

 राम में विष्णु का आधा अंश था। भरत में विष्णु का एक चौथाई अंश था। लक्ष्मण और शत्रुघ्न में विष्णु का एक आठवां -एक आठवां अंश रहा है। इसी अनुपात में इनमें दैवी गुणों का प्रस्फुटन हुआ है। जहां त्रेता युग के भगवान राम भगवान विष्णु के अंश थे। वहीं लक्ष्मण शेष नाग के अवतार थे। भरत गरुण और सुदर्शन चक्र के अवतार थे तथा शत्रुघ्न पांचजन्य शंख के अवतार थे।
लक्ष्मण राम के शाश्वत प्रधान योद्धा :-
 दशरथ तथा सुमित्रा के पुत्र, उर्मिला के पति लक्ष्मण प्रधान योद्धाओं में शामिल थे।राम को वनवास मिलने के बाद उनकी रक्षा के लिए छोटे भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता भी जंगल चले गए, लेकिन वहां भाई और भाभी की रक्षा के लिए लक्ष्मण जी नींद पर विजय प्राप्त कर पूरे 14 साल तक जागते रहे.वे संसार के सबसे बड़े सुरक्षा सेवक रहे।
भक्ति और आदर्श भ्रातृप्रेम से सराबोर भरत :-
भरत हिंदू धर्म के पूजनीय देवता श्रीराम के भाई थे। 
भरत का चरित्र समुद्र की भाँति अगाध है, बुद्धि की सीमा से परे है। लोक-आदर्श का ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण अन्यत्र मिलना कठिन है। भ्रातृ प्रेम की तो ये सजीव मूर्ति थे।
भरत ने गुरु वसिष्ठ की आज्ञा से पिता की अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की। सबके बार-बार आग्रह के बाद भी इन्होंने राज्य लेना अस्वीकार कर दिया और दल-बल के साथ श्री राम को मनाने के लिये चित्रकूट चल दिये। भरत के समान शीलवान भाई इस संसार में मिलना दुर्लभ है। अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या ब्रह्मा, विष्णु और महेश का भी पद प्राप्त करके श्री भरत को मद नहीं हो सकता। श्री रामभक्ति और आदर्श भ्रातृप्रेम के अनुपम उदाहरण श्री भरत धन्य हैं।
मौन सेवाव्रती शत्रुघ्न :-
शत्रुघ्न अयोध्या के राजा दशरथ के चौथे पुत्र और राम के छोटे भाई थे। सुमित्रा से लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न उत्पन्न हुए थे। शत्रुघ्न ने मधुपुरी (आधुनिक मथुरा) के शासक लवणासुर को मारकर उसे फिर से बसाया था। शत्रुघ्न कम से कम बारह वर्ष तक मधुपुरी नगरी एवं प्रदेश के शासक रहे। शत्रुघ्न का चरित्र अत्यन्त विलक्षण था। ये मौन सेवाव्रती थे। बचपन से भरत का अनुगमन तथा सेवा ही इनका मुख्य व्रत था। ये मितभाषी, सदाचारी, सत्यवादी, विषय-विरागी तथा भगवान श्री राम के दासानुदास थे। जिस प्रकार लक्ष्मण हाथ में धनुष लेकर राम की रक्षा करते हुए उनके पीछे चलते थे, उसी प्रकार शत्रुघ्न भी भरत के साथ रहते थे। 
राम की सेना के प्रमुख बीर सहचर सखा:-
भक्तमाल के बीसवें छ्न्द में नाभादास ने राम के सहचर वर्ग को इस प्रकार गिनाया है--
         दिनकर सुत हरिराज बालिबछ केसरि औरस।
         दधिमुख द्विविद मयंद रिच्छपति सम को पौरस।।
         उल्का सुभट सुषेन दरीमुख कुमुद नील नल।
          सरभ रु गवै गवाच्छ पनस गन्धमादन अतिबल।।
         पद्म अठारह यूथपति रामकाज भट भीर के।
         सुभ दृष्टि वृष्टि मो पर करौ जे सहचर रघुबीर के।।
      उक्त सूची के अलावा अन्यानेक सहचर और बीरों का नाम भी मिलता।कुछ की कुछ सूचनाएं भी मिलती है और कुछ का केवल नाम ही मिलता है। ये सब किसी ना किसी देव के अंश से उत्पन्न हुए थे। ब्रह्मा जी के आदेश से इन लोगों ने बानर और रीक्ष का शरीर रामकाज के लिए धारण किया था। इनमें अथाह बल था। भगवान इन सबको अपना सखा मानते थे। इनकी प्रशंसा करते हुए राम गुरुदेव वशिष्ठ से कहते हैं --
           ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। 
           भए समर सागर कहँ बेरे।।
            मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। 
            भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।
       इन सहचरों का भी प्रभु पर इतना प्रेम था कि वे लोग जी जान से युद्ध करने पर भी इसे प्रभु की सेवा में तुच्छ कार्य भी नहीं गिनते। भगवान द्वारा प्रशंसा किए जाने पर वे कहते हैं -- 
             सुनि प्रभु बचन लाज हम मरही।
             मसक कहूं खग पति हित करहीं।।
          सुग्रीव की आज्ञा के अनुसार लंका पर चढ़ाई करते समय बड़े-बड़े वानर वीर माल्यवान पर्वत लक्ष्मण आदि के साथ बैठे हुए भगवान श्रीराम के पास पहुँचने लगे। तुलसी दासजी कहते हैं कि उस सेना में 18 पद्म यूथपति थे। श्री सुग्रीव, हनुमान, अंगद, जामवंत, नल और नील से तो सभी परचित हैं वानर सेना में वानरों के अलग अलग झूंड थे। हर झूंड का एक सेनापति होता था जिसे यूथपति कहा जाता था। लंका पर चढ़ाई के लिए सुग्रीव ने ही वानर तथा ऋक्ष सेना का प्रबन्ध किया था। नल, नील, अंगद, क्राथ, मैन्द तथा द्विविद के द्वारा सुरक्षित हुई वह विशाल वानर सेना श्रीरामचन्द्र जी का कार्य सिद्ध करने के लिये आगे बढ़ती जा रही थी। जहाँ फल-मूल की बहुतायत होती, मधु और कन्द-मूल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते तथा जल की अधिक सुविधा होती, ऐसे कल्याणकारी और उत्तम विविध पर्वतीय शिखरों पर डेरा डालती हुई वह वानर सेना बिना किसी विघ्न-बाधा के खारे पानी के समुद्र के निकट जा पहुँची। असंख्य ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित वह विशाल वाहिनी दूसरे महासागर के समान जान पड़ती थी। सागर के तटवर्ती वन में पहुँचकर उसने अपना पड़ाव डाला।
           रामजी के अनेक बीर सखा का पर्याप्त विवरण जो मिलता है। उसे नीचे दिया जा रहा है। कुछ के नाम ही मिलते हैं जिनका विवरण दे पाना संभव नही है -- पृथु, जम्भ, ज्योतिर्मुख,महोदर,सानुप्रस्थ,सभादन,सुन्द,वालीमुख, शतवलि, वेगदर्श और वेमदर्शी आदि कुछ बानर यूथ पतियों के बारे में केवल नामोल्लेख ही मिलता है। राम के वापसी के समय कैकेयी कुमार भरत ने सुग्रीव, जाम्बवान्‌, अंगद, मैंद, द्विविद, नील, ऋषभ, सुषेण (तारा के पिता), और पनस का पूर्णरूप से आलिङ्गन किया। वे इच्छानुसार रूप धारण करने वाले वानर मानव रूप धारण करके भरत जी से मिले और उन सब ने महान हर्ष से उल्लसित होकर उस समय भरत जी का कुशल समाचार पूछा। (रामायण युद्ध कांड अध्याय 127 )
           रावण की मृत्यु के बाद उनके अनुचर सखा गण को राम आभार सहित अपने अपने धाम को जाने को कहा।पर कोई नहीं वापस गया। सभी राज्याभिषेक और सजी धजी अयोध्या देखने आए हुए थे। तुलसी दास कहते हैं --
           कंचन कलस बिचित्र संवारे। 
           सबहिं धरे सजि निज निजद्वारे॥ 
          बंदनवार पताका केतू। 
           सबन्हि बनाए मंगल हेतू।। 
        छः माह तक उन सबकी खूब आव भगत होती रही। उन्हें उपहार वस्त्र आभूषण देकर विदा किया गया।वे राम की छवि अपने हृदय में बसाकर लौट गए ,परंतु कई वीर सखा स्थाई रूप से अयोध्या वासी हो गए। जब रामजी बैकुंठ जा रहे थे तो अपने इन सखा वीरों को रामकोट और अयोध्या की रखवाली का दायित्व भी दे दिया था।
        श्री रुद्रयामलोक्त अयोध्या महात्म्य के अध्याय 6 श्लोक 30 से 46 के मध्य रामकोट की सुरक्षा में लगे सभी वीरों और सखाओं के स्थान के बारे में विस्तार से जानकारी दिया गया है। इनमे अनेक स्थल तो राम जन्म भूमि न्यास के अधिग्रहण क्षेत्र की सीमा में आते हैं। कुछ को तो न्यास अपनी नई संरचना में स्थान प्रदान किया गया है।
हनुमान जी का हनुमान गढ़ी :- 
सुग्रीव के मित्र और वानर यूथ पति। प्रधान योद्धाओं में से एक। ये रामदूत भी हैं। हनुमान एक दिव्य वानर साथी और भगवान राम के भक्त हैं। हनुमान महाकाव्य के केंद्रीय पात्रों में से एक हैं। वह एक ब्रह्मचारी (जीवन भर ब्रह्मचारी) और चिरंजीवी में से एक है। उन्हें शिव के अवतार के रूप में वर्णित किया गया है। अयोध्या के वर्तमान रामकोट राजप्रासाद के मुख्य फाटक पर अंजनी नन्दन पवन पुत्र श्रीहनुमानजी का निवास हनुमानगढ़ी स्थित है ।
सुग्रीव जी का टीला :- 
यह बाली का छोटा भाई और राम सेना का प्रमुख प्रधान सेना अध्यक्ष था । यह सूर्य के पुत्र थे ।सूर्य के सारथी अरुण इनकी जैविक मां थे। सूर्य के आदेश से उनके परम प्रिय शिष्य हनुमान इनके मंत्री थे। वानरों के राजा सुग्रीव 10,00,000 से ज्यादा सेना के साथ युद्ध कर रहे थे।भगवान् राम को सेना के पीछे का भाग सुग्रीव के नेतृत्व में था। भगवान् राम ने किष्किन्धापति सुग्रीव को परकोटे का वायव्य भाग घेरने के लिए तैनात किया था। वे 36 करोड़ यूथपतियों के साथ वहॉं स्थित थे। अयोध्या के श्रीहनुमान गढ़ी जी के दक्षिण पाशर्व में श्रीसुग्रीव जी अपने किले में प्रतिष्ठित है।
विभीषण जी का कुण्ड और मंदिर :- 
विभीषण रावण का छोटा भाई था। वह महान चरित्र वाला राम का प्रमुख सलाहकार राक्षस था।जब रावण ने सीता का अपहरण किया, तो उसने रावण को सलाह दी कि वह उसे अपने पति राम को एक क्रमबद्ध तरीके से लौटा दे। रंत रावण ने सख्ती से मना कर दिया। जब रावण ने उसकी सलाह नहीं मानी और उसे राज्य से बाहर निकाल दिया, तो विभीषण ने रावण को छोड़ दिया और राम की सेना में शामिल हो गया। बाद में, जब राम ने रावण को हराया, राम ने विभीषण को लंका के राजा के रूप में ताज पहनाया। अयोध्या के राम दुर्ग के उत्तर द्वार पर प्रधान रक्षक का भार विभीषण जी का कुंड और मंदिर है। उनके साथ उनकी स्त्री 'सरमादेवी' भी रहा करती हैं जो अयोध्या में हर्ष पूर्वक रहकर धर्मशील जनों की रक्षा और दुष्ट बुद्धि वालों का भक्षण करती है। 
विघ्नेशवर देव का स्थान :-
अयोध्या के राम दुर्ग के उत्तर द्वार पर प्रधान रक्षक का भार विभीषण कुंड वा शरमा जी के पूर्व में विघ्नेशवर देव का स्थान है। जिनके स्मरण मात्र से विघ्नों का लेश भी नहीं आ सकता है।
पिण्डारक जी का स्थान:-
अयोध्या के राम दुर्ग के उत्तर द्वार पर प्रधान रक्षक का भार विभीषण जी वा शरमा जी के पूर्व में विघ्नेशवर जी हैं उनके पूर्व दिशा में बलवान श्री पिण्डारक जी का स्थान है। ये पापियों को दंड दिया करते हैं।
मतगजेंद्र (मात गैंडजी) का स्थान:-
अयोध्या के वर्तमान रामकोट में पोस्ट आफिस से अशर्फी भवन मार्ग पर पिण्डारक जी के पूर्व दिशा में बड़े ही बीर और मंगल करने वाले विभीषण जी के पुत्र मतगजेंद्र (मात गैंड) जी का स्थान है। ये अयोध्या के कोटपाल ( कोतवाल) हैं तथा सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। इनको रामकोट के उत्तर फाटक के पाशर्व में कनक भवन के उत्तर पूर्व में स्थित यह मंदिर विभीषण के पुत्र मतगजेन्द्र को समर्पित है। जानकी जीवन ट्रस्ट द्वारा इस मंदिर की देखभाल की जाती है। तथा अयोध्या के उत्तरी दरवाजे की सुरक्षा करता है। मत्गजेंद्र जिन्हें अयोध्या के कोतवाल के रूप में जाना जाता है और उनकी पूजा आराधना होती है । वर्ष भर में कई लाख श्रद्धालु दर्शन पूजन के लिए अयोध्या आते है । 
द्विविद जी का स्थान :- 
सुग्रीव के मन्त्री और मैन्द के भाई थे। ये बहुत ही बलवान और शक्तिशाली थे, इनमें दस हजार हाथियों का बल था। महाभारत सभा पर्व के अनुसार किष्किन्धा को पर्वत-गुहा कहा गया है और वहाँ वानरराज मैन्द और द्विविद का निवास स्थान बताया गया है। द्विविद को भौमासुर का मित्र भी कहा गया है। महाभारत सभा पर्व के अनुसार किष्किन्धा को पर्वत-गुहा कहा गया है और वहाँ वानरराज मैन्द और द्विविद का निवास स्थान बताया गया है। महा बाहु सहदेव दक्षिणापथ की ओर गये और लोक विख्यात किष्किन्धा नामक गुफा में जा पहुँचे। वहाँ सहदेव से वानरराज मैन्द और द्विविद के साथ सात दिनों तक युद्ध किया था। वे उन दोनों महान योद्धाओं का कुछ बिगाड़ नहीं सके। तब दोनों वानर भाई प्रसन्न होकर सहदेव से बोले- 'पाण्डव प्रवर! तुम सब प्रकार के रत्नों की भेंट लेकर जाओ। परम बुद्धिमान धर्मराज के कार्य में कोई विघ्न नही पड़ना चाहिये।' वानर यूथपति द्विविद अश्विनी कुमारो के अंश से जनमे हुए थे । अयोध्या के वर्तमान रामकोट में पोस्ट आफिस से अशर्फी भवन मार्ग पर पिण्डारक जी के पूर्व दिशा में बड़े ही बीर और मंगल करने वाले विभीषण जी के पुत्र मतगजेंद्र के पूर्व दिशा में द्विविदजी का स्थान है।
अंगद जी का टीला : -
इंद्र के पुत्र और सुग्रीव के भाई बाली तथा तारा का पुत्र वानर यूथ पति एवं प्रधान योद्धा था। अंगद रामदूत भी था. अंगद ने युद्ध में अदुभुत साहस दिखाया. उन्होंने रावण के पुत्र नरान्तक और रावण की सेना के प्रमुख योद्धा महापार्श्व का वध किया था उसने रावण की शक्तिशाली सेना दस दिनों के अंदर ही धूल चटा दी थी.भगवान् राम को सेना के हृदय वाला स्थान अंगद को दिया गया था।साथ ही अंगद ने दक्षिणी द्वार का मोर्चा संभाल रखा था।अयोध्या के रामदुर्ग में हनुमान गढ़ी से मिला हुआ अंगदजी का दुर्ग है | 
जामवंत जी का स्थान :-
जाम्बवन्त जी ऋक्ष प्रजाति के थे। काले रंग के शतकोटि सहस्र (दस अरब) रीछों की सेना के साथ जाम्बवान रावण युद्ध में समलित हुए थे। स्यमंतक मणि के लिये श्री कृष्ण एवं जामवन्त में नंदिवर्धन पर्वत ( नाँदिया, सिरोही, राजस्थान ) पर 28 दिनो तक युध्द चला था। जामवंत को जब श्रीकृष्ण के भीतर श्रीराम के दर्शन हुए तब जामंवत ने अपनी पुत्री जामवन्ती का विवाह श्री कृष्ण द्वारा स्थापित शिवलिंग ( रिचेश्वर महादेव मंदिर नांदिया ) की शाक्शी में करवाया। युद्ध मे जाम्बवन्त ने यज्ञ कूप नामक राक्षस का वध किया था। हनुमान की माता अंजना ने जाम्बवन्त को अपना बड़ा भ्राता माना था जिससे वह शिवान्श हनुमान के मामा बन गये। सुग्रीव के मित्र रीछ, रीछ सेना के सेनापति एवं प्रमुख सलाहकार जामवंत जी थे।अग्नि पुत्र जाम्बवंत एक कुशल योद्धा के साथ ही मचान बांधने और सेना के लिए रहने की कुटिया बनने में भी कुशल थे। अयोध्या के पोस्ट आफिस से अशर्फी भवन मार्ग पर मतगजेंद्र जी के ईशान कोण में मयंद जी और उसके दक्षिण दिशा की प्रधान रक्षा का भार जांबवान जी बिराजते हैं।
नल जी का स्थान : - 
यह भगवान विश्वकर्मा के पुत्र हैं और विश्वकर्मा के समान ही शिल्पकला में निपुण हैं । सुग्रीव की सेना का वानर वीर और सुग्रीव के सेना नायक थे। वह सुग्रीव सेना में इंजीनियर भी थे। उन्होंने सेतुबंध की रचना की थी।नल और नील को ऋषियों ने श्राप दिया था कि वे जिस चीज को छुएंगे वह पानी में नहीं डूबेगी. अयोध्या के रामकोट के दक्षिण द्वार पर नल नील की स्थिति है। 
नील जी का स्थान : -
यह भगवान अग्नि देव के पुत्र हैं और एक ही मां से पैदा होने के कारण नल के भाई थे। ये सुग्रीव का सेनापति थे। उनके स्पर्श से पत्थर पानी पर तैरते थे। वह सेतुबंध की रचना में सहयोग दिया था। वह सुग्रीव सेना में इंजीनियर और सुग्रीव के सेना नायक रहे। नील के साथ 1,00000 से ज्यादा वानर सेना थी।नल और नील को ऋषियों ने श्राप दिया था कि वे जिस चीज को छुएंगे वह पानी में नहीं डूबेगी.महर्षि वाल्मीकि के अनुसार नील की सेना में 10 अरब 8 लाख सैनिक थे।राजा रावण का मंत्री और वीर सेनापति प्रहसत था। युद्ध में अकम्पन की मृत्यु हो जाने के बाद रावण ने अपने वीर सेनापति प्रहस्त को युद्ध के लिए भेजा था। वानर सेनापति नील और प्रहस्त का युद्ध भी बहुत भयंकर था। नील ने एक बड़ी सी शिला उठाकर प्रहस्त के सिर पर दे मारी, जिससे उसका सिर फट गया और वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। अयोध्या के रामकोट के दक्षिण द्वार पर नल नील की स्थिति है। 
शतबली जी का स्थान :-
शतबली के साथ भी 1,00000 से ज्यादा वानर सेना थी। यह सुग्रीव के नेतृत्व में एक महान वानर था। वह सीता की खोज के लिए उत्तरी क्षेत्रों में प्रतिनियुक्त वानरों का नेता था। (वाल्मीकि रामायण, किष्किंधा कांड सर्ग 43, : पुराणिक इनसाइक्लोपीडिया)। शतबलि को 20 करोड़ योद्धाओं के साथ आग्नेय दिशा की ओर से आक्रमण करने के लिए भगवान् ने तैनात किया। अयोध्या के रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र जी के उत्तर दुर्गेश्वर जी के निकट शतवली जी का स्थान है।
मैन्द जी का स्थान :- 
मंद द्विविद नामक दो भाई भी सुग्रीव के यूथ पति थे। हर झूंड का एक सेनापति होता था जिसे यूथपति कहा जाता था। ये बहुत ही बलवान और शक्तिशाली थे, इनमें दस हजार हाथियों का बल था। महाभारत सभा पर्व के अनुसार किष्किन्धा को पर्वत-गुहा कहा गया है और वहां वानरराज मैन्द और द्विविद का निवास स्थान बताया गया है। ये दोनों भाई दीर्घजीवी थे। रामायण के बाद भी ये जिंदा रहे और महाभारत काल में भी इनकी उपस्थिति मानी गई थी।यह भी कहा जाता है कि एक बार महाभारत के सहदेव किष्किन्धा नामक गुफा में जा पहुंचे। वहां वानरराज मैन्द और द्विविद के साथ उन्होंने सात दिनों तक युद्ध किया था। परंतु वे उन दोनों महान योद्धाओं का कुछ बिगाड़ नहीं सके। तब दोनों वानर भाई प्रसन्न होकर सहदेव से बोले- 'पाण्डव प्रवर! तुम सब प्रकार के रत्नों की भेंट लेकर जाओ। परम बुद्धिमान धर्मराज के कार्य में कोई विघ्न नही पड़ना चाहिये।' मैंद (वानर) अश्विनी कुमारो के अंश से उत्पन्न हुआ था। अयोध्या के पोस्ट आफिस से अशर्फी भवन मार्ग पर मतगजेंद्र जी के ईशान कोण में मयंद जी  
का स्थान है।
नवरत्न कुबेर जी का टीला :-
अयोध्या के हनुमान गढ़ी के दक्षिण में वर्तमान जन्म भूमि अधिग्रहीत क्षेत्र में नवरत्न कुबेर जी टीला है।
सुषेण वैद्य का स्थान:-
रामायण आदि के अनुसार यह वरुण का पुत्र, बाली का ससुर और सुग्रीव का वैद्य था । वह धर्म के अंश से उत्पन्न हुए थे। इसने राम रावण के युद्ध में रामचंद्र की विशेष सहायता की थी ।उनके साथ वेगशाली वानरों की सहस्र कोटि सेना थी। सुषेण वैद्य सुग्रीव के ससुर थे। पहले ये लंका के राजा राक्षसराज रावण का राजवैद्य थे। बालि की पत्नी अप्सरा तारा सुषेण की धर्म पुत्री थीं। बालि वध के बाद तारा का विवाह सुग्रीव से कर दिया गया था। वैसे बालि की पत्नी रूमा थीं। अंगद बालि का पुत्र था। उन सुषेण का जन्म वरुण के अंश से हुआ था। अयोध्या के हनुमान गढ़ी के दक्षिण में वर्तमान जन्म भूमि अधिग्रहीत क्षेत्र में नवरत्न कुबेर जी टीला और उससे पूर्व में सुषेण रहते है ।
केसरी जी का स्थान :-
केसरी एक पुरुष वानर है । वह हनुमान के पिता और अंजना के पति हैं । जब केसरी मेरु पर्वत में निवास कर रहा था , तब ब्रह्मा ने मनगर्वा नाम की एक अप्सरा को श्राप दिया और उसे वानर बना दिया। उन्होंने अंजना के नाम से केसरी से विवाह किया। लंबे समय तक दंपति निःसंतान थे। अंजना ने वायु को एक बच्चे के लिए प्रपोज किया। शैव परंपरा में , शिव से विष्णु की मदद करने के लिए एक पुत्र पैदा करने का अनुरोध किया गया था, जो रावण को मारने के लिए राम के रूप में अवतार लेने वाले थे । शिव और पार्वती ने वानर का रूप धारण किया और संभोग में लगे रहे। जब वायु प्रकट हुई, तो युगल ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और पार्वती ने अपने अंदर के बच्चे को प्रकट किया। पार्वती ने वानर के रूप में भ्रूण को कैलाश ले जाने से मना कर दिया। जैसा कि शिव ने निर्देश दिया था, पार्वती ने बच्चे को वायु को अर्पित किया, जिसने इसे अंजना के गर्भ में स्थानांतरित कर दिया, जिसने हनुमान को जन्म दिया । वह महान योद्धा थे। वह 1,00000 से ज्यादा वानर सेना के साथ युद्ध कर रहे थे। अयोध्या के पोस्ट आफिस से अशर्फी भवन मार्ग पर मतगजेंद्र जी के ईशान कोण में मयंद जी और उसके दक्षिण में जांबवान जी और जांबवान जी के दक्षिण तरफ केशरी जी बिराजते हैं। 
ऋषभ जी का स्थान :-
भगवान् राम को सेना के दाहिने पार्श्व में ॠषभ के नेतृत्व में सेना थी। अयोध्या के रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र जी के उत्तर दुर्गेश्वर जी के निकट शतवली जी और कुछ दूर पर गन्धमादन जी के स्थान से आगे ऋषभ जी का स्थान है।
शरभ जी का स्थान :- 
महर्षि वाल्मीकि के अनुसार शरभ की सेना में 1 लाख 40 हजार सैनिक थे। ये पर्जन्य देव के पुत्र थे। अयोध्या के रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र जी के उत्तर दुर्गेश्वर जी के निकट शतवली जी और कुछ दूर पर गन्धमादन जी के स्थान से आगे ऋषभ जी के आगे शरभ जी का स्थान है।
 पनस जी का स्थान-  
यह रामदल का एक बंदर यूथ पति था। विभीषण के चार मंत्रियों में से एक पनस रहा। यह 1,00000 से ज्यादा वानर सेना के साथ युद्ध कर रहा था । उनका जन्म वृहस्पति के अंश से हुआ था। यह परियात्र पर्वत पर रहता था। पनस बुद्धिमान तथा महाबली वानर सत्तावन करोड़ सेना साथ ले आया था। महर्षि वाल्मीकि के अनुसार पनस की सेना में 50 लाख सैनिक थे। अयोध्या के रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र जी के उत्तर दुर्गेश्वर जी के निकट शतवली जी और कुछ दूर पर गन्धमादन जी के स्थान से आगे ऋषभ जी शरभ जी उनसे आगे पनस जी विराजमान हैं ।
गन्धमादन जी का स्थान :-
गन्धमादन पर्वत पर रहने वाला गन्धमादन नाम से विख्यात वानर वानरों की दस खरब सेना साथ लेकर आया। भगवान् राम को सेना के बायें पार्श्व में गन्धमाधन के नेतृत्व में विशाल सेना थी|गंधमादन (वानर) को कुबेर अपने अंश से उत्पन्न किया था। अयोध्या के रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र जी के उत्तर दुर्गेश्वर जी के निकट शतवली जी और कुछ दूर पर गन्धमादन जी का स्थान है।
गवाक्ष जी का स्थान:-
लंगूर वानरों के यूथपति गवाक्ष थे। महर्षि वाल्मीकि के अनुसार गवाक्ष की सेना 1 करोड़ सैनिक थे। लंका युद्ध में दायीं ओर से सहायता देने के लिए लंगूरपति गवाक्ष उपस्थित थे। गोलांगूल (लंगूर) जाति के वानर गवाक्ष, जो देखने में बड़ा भयंकर था, साठ सहस्र कोटि (छः अरब) वानर सेना साथ लिये दृष्टिगोचर हुआ। वानर यूथपति गवाक्ष यम राज अंश से जनमे थे। अयोध्या के हनुमान गढ़ी के दक्षिण में वर्तमान जन्म भूमि अधिग्रहीत क्षेत्र में नवरत्न कुबेर जी टीला के उत्तर में गवाक्ष जी का स्थान है।
दाधिवक्त्र ( दधिमुख)जी स्थान:-
वानरों में वृद्ध तथा अत्यन्त पराक्रमी दधिमुख भयंकर तेज से सम्पन्न वानरों की विशाल सेना साथ लेकर आये। वे बड़े सौम्य, भगवत भक्त और मधुरभाषी थे। जिनके मुख (ललाट) पर तिलक का चिह्न शोभा पा रहा था तथा जो भयंकर पराक्रम करने वाले थे। इन्हें चंद्रमा का अंश कहा जाता है। वह वानर राज सुग्रीव का मामा था। उन्हें सुग्रीव के मधुवन नामक मनोहर बाग की रखवाली का भी दायित्व भी मिला था। जब हनुमान जी ने सीता का पता लगा वापस लौटे तो बानर दल खुशी में उपवन से फल खाने , शहद पीने और बाग उजारने की सूचना सुग्रीव को दी। वह दधिमुख वीर वानर मुझे सूचित करता है कि अंगद के नेतृत्व में उन युद्ध के समान वनवासियों ने शहद पी लिया है और बाग के फल खाने के लिए हैं। जो लोग अपने मिशन में विफल रहे थे, वे इस तरह से पलायन में शामिल नहीं होते। निश्चित रूप से वे सफल रहे हैं क्योंकि उन्होंने लकड़ी को नष्ट कर दिया है। इसी कारण से उन्होंने उन लोगों को घुटनों से पकड़ लिया है जिन्होंने अपनी लीला-क्रीड़ा में बाधा डाली है और उस वीर दधिमुख का तिरस्कार किया है जिसे मैंने स्वयं अपने बाग का संरक्षक नियुक्त किया था। अंगद के नेतृत्व में उन वीर वानरों ने निश्चित रूप से मधुर वन को उजाड़ दिया है। दक्षिणी क्षेत्र की खोज करने के बाद, उनके वापसी पर इस बाग ने अपने लोलुपता को उत्तेजित कर दिया, जिसके बाद उन्होंने इसे लूट लिया और शहद पी लिया, पहरेदारों पर हमला किया और उन्हें अपने घुटनों से पकड़ लिया। अपने पराक्रम के लिए विख्यात यह मृदुभाषी दधिमुख बानर मुझे यह समाचार सुनाने आया है।अयोध्या के रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र ( दधीमुख )जी प्रतिष्ठित हैं ।
दुर्गेश्वर जी का स्थान:-
अयोध्या के रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र जी के उत्तर में स्थित द्वारदेश में दुर्गेश्वर जी का स्थान रहा है।
अपर्याप्त संदर्भ वाले वानर:-
क्राथ जी :
क्राथ हिन्दू मान्यताओं और पौराणिक महाकाव्य महाभारत के उल्लेखानुसार एक वानर यूथपति था।
जटायु जी:-
महाकाव्य में एक दिव्य पक्षी और अरुण का छोटा पुत्र है। वह दशरथ (राम के पिता) के पुराने मित्र थे। जटायु को रावण ने तब मारा था जब उसने सीता के अपहरण के दौरान सीता को बचाने की कोशिश की थी। यह रामभक्त पक्षी,रावण द्वारा वध, राम द्वारा अंतिम संस्कार किया गया। इनका अयोध्या में जन्म भूमि परिसर में स्थान दिया जाना प्रस्तावित है।
संपाति जी :-
संपाति राम के समर्थक थे। वह जटायु का भाई और अरुण का पुत्र था। उसने श्री राम की मदद करने के लिये अपनी दिव्यदृष्टी से सीता का पता लगाया और श्रीराम को बतलाया की सीता लंका मे है ।
निषादराज गुह जी :-
निषादराज गुह निषादों के राजा का उपनाम है। वे ऋंगवेरपुर के राजा थे, उनका नाम गुह था। वे निषाद समाज के थे और उन्होंने ही वनवासकाल में राम, सीता तथा लक्ष्मण को गंगा पार करवाया था। वह राम के बाल सखा थे । वे एक ही गुरुकुल में रहकर शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने वन गमन के समय राम का स्वागत किया था।
गज जी :- 
 पुराणों के अनुसार गज विभावसु के भाई थे। महाभारत के अनुसार गज (यूथपति) थे। वह 1,00000 से ज्यादा वानर सेना के साथ युद्ध कर रहे थे। ये यूथपति थे। महापराक्रमी वानरराज ‘गज’ एक अरब सेना के साथ युद्ध किए।गज वानर यूथपति यमराज अंश से जन्मे थे।
त्रिजटा राक्षसी :-
त्रिजटा एक राक्षसी है जिसे सीता की रक्षा का कर्तव्य सौंपा गया था जिसे लंका के राजा ने अपहरण कर लिया था। रामायण के बाद के रूपांतरणों में, उन्हें विभीषण की बेटी के रूप में वर्णित किया गया है। त्रिजटा एक बुद्धिमान राक्षसी के रूप में प्रकट होती है, जो रावण के विनाश और राम की जीत का सपना देखती है। वह राम और रावण के बीच युद्ध के मैदान के सर्वेक्षण में सीता के साथ जाती है और सीता को राम की भलाई के लिए आश्वस्त करती है जब सीता अपने पति को बेहोश देखती है और उसे मृत मान लेती है।
तार (वानर) :-
तार हिन्दू पौराणिक ग्रंथ के अनुसार श्रीरामचन्द्र की सेना का एक वानर यूथपति था। महाभारत वन पर्व के अनुसार यह निखर्वट नामक राक्षस से भिड़ने लगा था। वानर यूथपति तार वृहस्पति देव के अंश से जनमे थे।
विनथ जी :-
महर्षि वाल्मीकि के अनुसार विनथ की सेना में 60 लाख सैनिक थे।
ॠक्षराज धूम्र जी :-
ॠक्षराज धूम्र भगवान् राम को बायीं ओर से सहायता देने के लिए ॠक्षराज धूम्र स्थित थे।
कुमुद जी:-
कुमुद के नेतृत्व में 10 करोड़ सैनिक ईशान दिशा से आक्रमण के लिए तैनात किए गए थे।
गवय जी:- 
महर्षि वाल्मीकि के अनुसार गवय की सेना 70 लाख सैनिक थे।महापराक्रमी वानरराज ‘गवय’ -एक अरब सेना के साथ आते दिखाई दिए। वानर यूथपति गवय यमराज के अंश से जन्मे और उन्ही की तरह पराक्रमी थे।
श्वेत जी :-
वानर यूथपति श्वेत का जन्म सूर्य अंश से हुआ था।
क्रथन जी:-
महर्षि वाल्मीकि के अनुसार कृथन की सेना में 10 अरब सैनिक थे।
प्रजंघ जी :-:-
रामभक्त हनूमान् , प्रघस आदि योद्धाओं के साथ लंका का पश्‍चिमी द्वार को घेरे हुए थे।
प्रमथी जी :- 
महर्षि वाल्मीकि के अनुसार प्रमाथी की सेना में 10 करोड़ सैनिक थे। रामभक्त हनूमान् प्रमाथी, आदि योद्धाओं के साथ लंका के पश्‍चिमी द्वार को घेरे हुए थे।
रम्भ जी :--
महर्षि वाल्मीकि के अनुसार रम्भ की सेना में 1 करोड़ 30 लाख सैनिक थे ।
वेगदर्शी (वानर) मृत्यु यमराज का अंश था।
हेमकूट (वानर) वरुण अंश से जनमा था।
रामजी के बीर सखा :-
         निम्नलिखित रामजी के बीर सखा थे -- पृथु, जम्भ, ज्योतिर्मुख,महोदर,सानुप्रस्थ,सभादन,सुन्द,वालीमुख, शतवलि, वेगदर्श और वेमदर्शी आदि कुछ बानर यूथ पतियों के बारे में केवल नामोल्लेख ही मिलता है। राम के वापसी के समय कैकेयी कुमार भरत ने सुग्रीव, जाम्बवान्‌, अंगद, मैंद, द्विविद, नील, ऋषभ, सुषेण (तारा के पिता), और पनस का पूर्णरूप से आलिङ्गन किया। वे इच्छानुसार रूप धारण करने वाले वानर मानव रूप धारण करके भरत जी से मिले और उन सब ने महान हर्ष से उल्लसित होकर उस समय भरत जी का कुशल समाचार पूछा। (रामायण युद्ध कांड अध्याय 127 )
           रावण की मृत्यु के बाद उनके अनुचर सखा गण को राम आभार सहित अपने अपने धाम को जाने को कहा।पर कोई नहीं वापस गया। सभी राज्याभिषेक और सजी धजी अयोध्या देखने आए  हुए थे। तुलसी दास कहते हैं --
         कंचन कलस बिचित्र संवारे। 
          सबहिं धरे सजि निज निजद्वारे॥ 
           बंदनवार पताका केतू। 
            सबन्हि बनाए मंगल हेतू।। 
        छः माह तक उन सबकी खूब आव भगत होती रही। उन्हें उपहार वस्त्र आभूषण देकर विदा किया गया।वे राम की छवि अपने हृदय में बसाकर लौट गए ,परंतु कई वीर सखा स्थाई रूप से अयोध्या वासी हो गए। जब रामजी बैकुंठ जा रहे थे तो अपने इन सखा वीरों को रामकोट और अयोध्या की रखवाली का दायित्व भी दे दिया था।
        श्री रुद्रयामलोक्त अयोध्या महात्म्य के अध्याय 6 श्लोक 30 से 46 के मध्य रामकोट की सुरक्षा में लगे सभी वीरों और सखाओं के स्थान के बारे में विस्तार से जानकारी दिया गया है। इनमे अनेक स्थल तो राम जन्म भूमि न्यास के अधिग्रहण क्षेत्र की सीमा में आते हैं। कुछ को तो न्यास अपनी नई संरचना में स्थान भी दे रहा है।
         रामकोट राजप्रासाद के मुख्य फाटक पर अंजनी नन्दन पवन पुत्र श्रीहनुमानजी का निवास है | उनके दक्षिण पाशर्व में श्रीसुग्रीवजी प्रतिष्ठित है। इसी दुर्ग से मिला हुआ अंगदजी का दुर्ग है | रामकोट के दक्षिण द्वार पर नल नील की स्थिति है। नवरत्न कुबेर जी से पूर्व में सुषेण रहते है | नवरत्न कुबेर नामक स्थान के उत्तर में गवाक्ष जी का स्थान है।रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र जी प्रतिष्ठित हैं | उसी पश्चिम भाग में दाधिवक्त्र के उत्तर में स्थित द्वारदेश में दुर्गेश्वर के में से स्थान रहा है। उनके निकट शतवली जी का और कुछ दूर पर गन्धमादन जी का स्थान है।उससे आगे ऋषभ जी तथा उनके आगे शरभ जी , उनसे आगे पनस जी विराजमान हैं | राम दुर्ग के उत्तर द्वार पर प्रधान रक्षक का भार विभीषण जी पर रहा| उनके साथ उनकी स्त्री 'सरमादेवी' भी रहा करती हैं जो अयोध्या में हर्ष पूर्वक रहकर धर्मशील जनों की रक्षा और दुष्ट बुद्धि वालों का भक्षण करती है। शरमा जी के पूर्व में विघ्नेशवर देव का स्थान है। जिनके स्मरण मात्र से विघ्नों का लेश भी नहीं आ सकता है।विघ्नेशवर देवजी के पूर्व दिशा में बलवान श्री पिण्डारक जी का स्थान है। ये पापियों को दंड दिया करते हैं। पिण्डारक जी के पूर्व दिशा में बड़े ही बीर और मंगल करने वाले विभीषण जी के पुत्र मतगजेंद्र (मात गैंड) जी का स्थान है। ये अयोध्या के कोटपाल ( कोतवाल) हैं तथा सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। इनको रामकोट के उत्तर फाटक के पाशर्व स्थापित किया गया | इनके पूर्व दिशा में द्विविदजी का स्थान है। मतगजेंद्र जी के ईशान कोण में बुद्धिशाली मयंद जी बिराजते हैं।मयंद जी के दक्षिण दिशा की प्रधान रक्षा का भार जांबवान जी बिराजते हैं। जांबवान जी के दक्षिण तरफ केशरीजी बिराजते हैं। इस प्रकार दुर्ग रामकोट की चतुर्दिक रक्षा होती रही है।
रामजी के ही सहचर सखा से राम सखा सम्प्रदाय बना :-
सखी या सखा भाव का सम्प्रदाय' 'निम्बार्क मत' की एक शाखा है। इस संप्रदाय में भगवान श्रीकृष्ण की उपासना सखी- सखा भाव से की जाती है। कवि नाभादास जी ने अपने 'भक्तमाल' में कहा है कि- "सखी सम्प्रदाय में राधा-कृष्ण की उपासना और आराधना की लीलाओं का अवलोकन साधक सखीभाव से कहता है। सखी सम्प्रदाय में प्रेम की गम्भीरता और निर्मलता दर्शनीय है। इस संप्रदाय के संस्थापक स्वामी हरिदास (जन्म संवत 1535 वि०) ने की थी। इस संप्रदाय के प्रसिद्द मंदिर वृंदावन मथुरा में श्री बांके बिहारी जी, निधिवन, राधा वल्लभ और प्रेम मंदिर आदि हैं। इसमें माधुर्य भक्ति और प्रेम भक्ति की जाती है ।
        राम जी के अभिन्न सहचर सखाओं ने बाद में राम सखा संप्रदाय की स्थापना करके अपने प्रभु से जुड़ने और उनकी भक्ति को और गहरी बनाने का उपक्रम किया है। राधा कृष्ण की भांति सीताराम की उपासना में सखी भाव में उपासना होती है। स्वामी रामानन्द जी, गोस्वामी तुलसी दास जी, कवि नाभा दास जी और कवि अग्रदास जी इस कड़ी को आगे बढ़ाए हैं। इस माधुर्य उपासना में सखी भाव प्रिया - प्रियतम के प्रेम मिलन के भाव से पूजा और आराधना की जाती है। सखी भाव की तरह सखा भाव में कन्हैया कभी अपने दोस्त को पीठ पर लाद लेते हैं तो कभी दोस्त के पीठ पर बैठ लेते थे। कभी गेंद के लिए तो कभी फलादि के लिए लड़ते क्रीड़ा करते देखे गए हैं। इसी तरह सीताराम जी की उपासना में भगवान और मित्र का बराबर बराबर का भाव देखने को मिलता है। राम सखेंदु जी महाराज नेअठारहवीं संवत में इसकी स्थापना की थी।
           सखी सम्प्रदाय तो सनातन काल से ही राम सखा ,राम सखी ,सीता सखी ,कृष्ण सखा ,कृष्ण सखी और राधा सखी आदि विविध रुपों में पुराणों व भक्ति साहित्य में पाया जाता रहा है। राम सखा जी के शिष्य गुरु की तरह निध्याचार्य उप नाम प्रयुक्त करने लगे थे।शील निधि सुशील निधि और विचित्र निधि उनके परम शिष्य थे। श्री 1008 सुखेन्द्र निध्याचार्य जी महाराज की तपोभूमि बड़ा अखाड़े के रूप में बहुत लोकप्रिय है। राम सखा महाराज जी जयपुर से निकलने के बाद विराट वैष्णव बन गए थे। वे कर्नाटक के तीर्थ क्षेत्र उडुपी पहुंचे। श्रीमद् सखेंद्र जी महाराज ने माध्य संप्रदाय के आचार्य श्री वशिष्ठ तीर्थ से गुरु दीक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने लिखा है -
"मध्य माध्य निज द्वैत मन मिलन द्वार हनुमान।
राम सखे विद सम्पदा उडुपी गुरु स्थान।।"
वहां के आचार्य ने उन्हें रामसखा की उपाधि दी थी। वे दक्षिण के उडीपि (कर्नाटक) में बड़ी तनमयता से गुरु की सेवा किये थे। उनका निवास नृत्य राघव कुंज के नाम से प्रसिद्व हुआ था ।
रामसखा जी का अयोध्या में आगमन:-
अयोध्या आकर राम सखा जी सरयू नदी के तट पर एक पर्णकुटी में भगवान को याद करते- करते अपना जीवन बिताया। वे प्रभु के दर्शन के लिए सरयू तट पर साधना करने लगे। जब उनकी व्यथा बढ़ी तो वे प्रभु को उपालंभ भी देना शुरू कर दिए। संप्रदाय भासकर में उल्लिखित है -
अरे शिकारी निर्दयी, करिया नृपति किशोर ।
क्यों तरसावत दरश को, राम सखे चित्त चोर ।।"
उनकी व्यथा देख एक बार प्रभु ने उन्हें अल्प समय के लिए दर्शन दिया। वे उनसे अंक में लिपट कर खूब रोए और खूब आनंद लिए। बाद में प्रभु जी अंतर्ध्यान हो गए। कुछ दिनों बाद फिर उन्हें दर्शन करने की तलब लगी। अब वे और बेचैन रहने लगे।जब उनकी बेचैनी असहय हो गई । उन्हें बेचैन मनोव्यथा जानकर इस बार रामजी माता सीता जी के साथ उन्हें युगल किशोर के दर्शन हुए। उनका सारा दुख दूर हो गया ।
काछवाह राजा द्वारा अयोध्या में मन्दिर का निर्माण :-
बाद में अयोध्या में इसी नाम से एक मंदिर का निर्माण हुआ था।जो राम सखा की दूसरी गद्दी बनी। इसका निर्माण मैहर के तत्कालीन राजा दुर्जन सिंह कछवाह ने करवाया था। कुंवर दुर्जन सिंह राजा मान सिंह के चौथे पुत्र थे. इनकी माता का नाम सहोद्रा गौड़ था. यह अत्यंत ही साहसी और पराक्रमी योद्धा थे. कुंवर दुर्जन सिंह के वंशजों को दुर्जन सिंहोत राजावत के नाम से जाना जाता है।
चित्रकूट में आगमन:-
अयोध्या में बेचैनी पूर्ण समय बिताने के बाद, महाराज जी वहां से चित्रकूट चले गए और वहां कामद वन गिरी पर प्रमोदवन में अपनी प्रार्थना जारी रखी। बहुत दिनों तक दर्शन ना होने पर उनके मस्तिष्क में ये भाव आया । रूप सामर्थ्य चन्द्र में लिखा है -
"ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे,ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे।
ले चल कुटिल बदल जुल्फान छवि राज माधुरी वेशे।
केसर तिलक कंज मुख श्रम जल ललित लसत द्वई रेफे।
दशरथलाल लाल रघुवर बिनु बहुत जियब केही लेखे।
ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे,ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे।
डूब डूब उर श्याम सुरती कर प्राण रहे अवशेषे।
राम सखे विरहिन दोउ अखियां चाहत मिलन विशेषे।।"
सरयू तट की भांति एक बार फिर यहां राम ने अपने जुगुल किशोर स्वरूप का दर्शन दिया। इसके संबंध में कुछ लाइनें राम सखे इस प्रकार लिखी है -
"अवध पुरी से आइके चित्रकूट की ओर।
राम सखे मन हर लियो सुन्दर युगुल किशोर।"
भक्त भगवान का अब लुका छिपी का खेल होने लगा।अब प्रायः दर्शन होने लगे।वे इसका वर्णन सुनाते जाते और भक्त आनंदित होते रहते थे-
"आज की हाल सुनो सजनी मडये प्रकटी एक कौतुक भारी।
जेवत नारी बारात सभौ रघुनाथ लखे मिथिलेश उचारी।
श्री रघुवीर को देख स्वरूप भई मत विभ्रम गावनहारी।
भूली गयो अवधेश को नाम देने लगी मिथिलेश को गारी।।"
अब तक की साधना और भक्ति से राम सखे की कुंडलिनी जागृति हो गई थी।उनकी सुरति खुलने लगी थी।योग में जब चाहा दर्शन होने लगा था ।अब ध्यान लगाना नही पड़ता अपितु मानस पटल पर प्रभु की छवि खुद ब खुद आ जाती थी।
उचेहरा में अस्थाई प्रवास :-
कुछ महात्मा यह भी बताते हैं कि महाराज जी के एक शिष्य उनके साथ रहे, वे लोगों से भिक्षा माँगते थे और ठाकुर जी के लिए भोग भी तैयार करते थे। ठाकुर जी के भोग के बाद, कई महात्माओं के पास प्रसाद था और वे संतुष्ट होकर लौटे। चित्रकूट में रहने के बाद महाराज जी उचेहरा (अब सतना जिला) में गए।लेकिन उन्हें वहाँ बहुत अच्छा नहीं लगा और संवत 1831में मैहर चले गए।
मैहर में तपोसाधना :-
मैहर आकार वह नीलमती गंगा के तट पर उन्होंने एक पर्णकुटी में गणेश जी के सामने भजन किया। बड़ा अखाड़ा एक प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर शिव भगवान जी को समर्पित है। बड़ा अखाड़ा मंदिर में आपको मंदिर और आश्रम देखने के लिए मिल जाता है। यह मंदिर शिव भगवान जी को समर्पित है। यहां पर शिव भगवान जी की बहुत बड़ा शिवलिंग मंदिर के छत पर बना हुआ है, जो बहुत ही सुंदर लगता है। इसके अलावा मंदिर में 108 शिवलिंग विराजमान है। उनके दर्शन भी आप यहां पर आकर कर सकते हैं। यहां पर आपको एक प्राचीन कुआं भी देखने के लिए मिल जाएगा। यहां पर राम जी का मंदिर, गणेश जी का मंदिर और हनुमान जी का मंदिर भी है। आप इन सभी मंदिरों में घूम सकते हैं। बड़ा अखाड़ा में आपको आश्रम भी देखने के लिए मिलता है। आश्रम का जो प्रवेश द्वार है। वह बहुत ही खूबसूरत है। आश्रम के प्रवेश द्वार में आपको हनुमान जी की प्रतिमा देखने के लिए मिलती है और शंकर जी की प्रतिमा देखने के लिए मिलती है, जो बहुत ही खूबसूरत लगती है। इस आश्रम के अंदर आपको बगीचा भी देखने के लिए मिल जाता है। यहां पर बहुत सारे ब्राह्मण विद्यार्थी रहते हैं, जिन्हें यहां पर शिक्षा दीक्षा दी जाती है।श्री राम सखा जू महाराज, हिंदू धर्म के माधव संप्रदाय के प्रतिपादक और अनुयायी थे, लगभग दो सौ साल पहले जयपुर से मैहर आए और मैहर में एक मठ की स्थापना की, जिसे "श्री राम सखेंद्र जू का अखाड़ा" कहा जाता है; कि उन्होंने अखाड़े में 'राम-जानकी' की एक छवि स्थापित की, जिसकी पूजा संप्रदाय के अनुयायी करते थे; कि कई व्यक्तियों ने अखाड़े को संपत्तियां दीं और मैहर के तत्कालीन शासक ने भी अखाड़े के रखरखाव और देवता की पूजा के लिए एक गांव दिया था। "बडा अखाड़ा" ट्रस्ट का गठन किया गया था और एक सोसायटी के रूप में पंजीकृत किया गया था।
 मेंहर में अंतिम सांस :-
महाराज जी ने उन्नीसवीं संवत के प्रथम चरण यानी 1842 में मैहर में अमरता प्राप्त की। उनकी समाधि मैहर में ही है। उसे बड़ा अखाड़ा कहा जाता है। यहां राम जानकी मंदिर में आज भी इस पंथ की पुजा पद्वति प्रचलित है। राम सखेन्दु जी महराज के नाम से उनकी ख्याति आज भी विद्यमान है। राजस्थान के पुष्कर में राम सखा आश्रम में आज भी इस सम्प्रदाय के लोग पूजा आराधना करते है अयोध्या, चित्रकूट, पुष्कर और मैहर सबसे प्रमुख स्थान हैं। रीवा, नागोद आदि क्षेत्रों में महाराज जी के शिष्यों की भारी संख्या है। 
                        लेखक परिचय
27.06.1957 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में जन्में डॉ. राधेश्याम द्विवेदी ने अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद से बी.ए. और बी.एड. की डिग्री,गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी),एल.एल.बी., सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी का शास्त्री, साहित्याचार्य , ग्रंथालय विज्ञान शास्त्री B.Lib.Sc. तथा विद्यावारिधि की (पी.एच.डी) "संस्कृत पंच महाकाव्य में नायिका" विषय पर उपार्जित किया। आगरा विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास से एम.ए. तथा ’’बस्ती का पुरातत्व’’ विषय पर दूसरी पी.एच.डी.उपार्जित किया। डा. हरी सिंह सागर विश्व विद्यालय सागर मध्य प्रदेश से MLIS किया। आप 1987 से 2017 तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण वडोदरा और आगरा मण्डल में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। प्रकाशित कृतिः ”इन्डेक्स टू एनुवल रिपोर्ट टू द डायरेक्टर जनरल आफ आकाॅलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया” 1930-36 (1997) पब्लिस्ड बाई डायरेक्टर जनरल, आकालाजिकल सर्वे आफ इण्डिया, न्यू डेलही। आप
अनेक राष्ट्रीय पोर्टलों में नियमित रिर्पोटिंग कर रहे हैं।
साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर आपकी लेखनी सक्रिय है।