राम’ भारतीय परंपरा में एक प्यारा नाम है. वह ब्रह्मवादियों का ब्रह्म है. निर्गुणवादी संतों का आत्मराम है. ईश्वरवादियों का ईश्वर है. कबीर के राम निराकार है।ये अवतारवादियों का अवतार है. वे वैदिक साहित्य में एक रूप में आया है, तो बौद्ध जातक कथाओं में किसी दूसरे रूप में. एक ही ऋषि वाल्मीकि के ‘रामायण’ नाम के ग्रंथ में एक रूप में आया है, तो उन्हीं के लिखे ‘योगवसिष्ठ’ में दूसरे रूप में. ‘कम्ब रामायणम’ में वह दक्षिण भारतीय जनमानस को भावविभोर कर देता है, तो तुलसीदास के रामचरितमानस तक आते-आते वह उत्तर भारत में घर-घर का बड़ा और आज्ञाकारी बेटा, आदर्श राजा और सौम्य पति बन साकार रूप में जन जन तक पहुंच जाते है।
राम' तो 'सत' अर्थात् 'ब्रह्म' है ही,इसमें कोई संदेह नहीं। 'राम' के संबंध में दोनों पंथ के संत कवियों के जो अनुभूति परक विचार है कबीर और तुलसी दोनों ही भक्तिकालीन किंतु एक ही काल की अलग - अलग शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं । अंतर यहीं से ज्ञात होने लग जाती है। कबीर दास भक्तिकाल की निर्गुण धारा के अंतर्गत आने वाली संत काव्यधारा या ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि है तो तुलसीदास सगुण धारा के अंतर्गत आने वाली राम काव्यधारा के कवि है ।
कबीर के राम: निर्गुणोपासक होने के कारण कबीर ने ईश्वर को निराकार माना है और निर्गुणोपासना को स्वीकारने से अवतारवाद ,बहुदेववाद एवं मूर्तिपूजा का अपने -आप ही विरोध हो जाता है । अतः जिस समय कबीर का समाज में प्रादुर्भाव हुआ ,उस समय समाज के विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रकार की कुरीतियाँ जैसे मूर्तिपूजा ,बहुदेववाद आदि व्याप्त थी ,जिसे दूर करने के लिए उन्होंने अदृश्य ईश्वर को 'राम' का नाम दिया ताकि लोगों को उन्हीं की भाषा में सही मार्ग पर लाया जा सके । इसके अलावा भी ब्रह्म को उन्होंने रहीम, हरि, गोविंद आदि नामों से संबोधित किया , जो एक ही ईश्वर के अलग-अलग नाम हैं और इस निराकार ब्रह्म की प्राप्ति को ज्ञान से संभव बताया । कबीर ने कई बार 'राम' शब्द का अपने पदों में प्रयोग किया है , उनका 'राम' 'दशरथी राम' न होकर परम् ब्रह्म का प्रतीक है क्योंकि वे नाम को ,रूप की अपेक्षा अधिक महत्व देते थे । इसलिए कबीर के 'राम' ,नाम साधना के प्रतीक है । कबीर ने राम यानी ईश्वर के नाम का सहारा लेकर समाज-सुधार का प्रयास किया ।कबीर एक संत साधक थे।अपने आध्यात्मिक अनुभव के बल पर ही उन्होंने 'सत' के स्वरूप का उद्घाटन किया है।उनके 'राम' निर्गुण राम (ब्रह्म) है,आत्माराम है जिनके बारें में निम्न बातें कही जा सकती हैं:
(1) कबीर के राम सर्व- निरपेक्ष परम तत्त्व है।
(2) वे एक होते हुए भी अखिल विश्वव्यापी है।
(3) वे इच्छा मात्र से सृष्टि रचना में समर्थ है।
(4) वे अव्यक्त,अगोचर होते हुए भी करुणा,दया,कृपा,उदारता आदि गुणों से युक्त है।
(5) वे इन्द्रियों के अभाव में भी संसार की सारी संवेदनाओं को ग्रहण करने में समर्थ है।
तुलसी के राम : तुलसी के राम सगुण हैं यानी जिनके रूप - आकार को देखा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है और जिन्होंने धरती पर अवतार लिया था, राजा दशरथ के पुत्र के रूप में । जिसका वर्णन रामचरितमानस में तुलसीदास ने किया है । तुलसी के राम ने समाज की विकृतियों को समाप्त करने के लिए धरती पर अवतार लिया था । राम आराध्य थे और वे स्वयं को सेवक मानते थे तथा राम की चरणों में रहना अपना सौभाग्य समझते थे । उनके अनुसार 'राम' शक्ति ,सौन्दर्य के भंडार हैं जो जन-जन को मोहित कर सकते हैं और अद्वितीय वीरता से अधर्म का विनाश कर सकते हैं यानी राम एक प्रकार से गोस्वामी तुलसी के मार्गदर्शक हुए और समाज के नायक या समाज सुधारक ।
तुलसीदासजी ने भले ही यह कहते हुए कि ‘राम न सकहिं नाम गुन गाहीं.’ (यानी स्वयं राम भी इतने समर्थ नहीं हैं कि वह अपने ही नाम के प्रभाव का गान कर सकें) अपने श्रद्धेय के प्रति भक्तिभाव दर्शाया हो, लेकिन राम के नाम को कबीर ने एक अलग ही अर्थ प्रदान करते हुए एक नई ऊंचाई दे दी। जब उन्होंने कहा कि ‘दसरथ सुत तिहुं लोक बखाना, राम नाम का मरम है आना’ (यानि दशरथ के बेटे राम को तो सभी भजते हैं, लेकिन राम नाम का मरम तो कुछ और ही है), तो उन्होंने रामकथाओं में आए राम की तमाम स्थापनाओं को ही एक किनारे रख दिया।
तुलसीदास सगुणोपासक रामभक्त थे।उस 'राम' के बारें में निम्न बातें कही जा सकती है:
(1) तुलसी के राम अवतारी राम है जिसमें लोक रक्षक रूप की सर्वाधिक अभिव्यक्ति हुई है।
(2) तुलसी के राम में शील, शक्ति और सौंदर्य का पूर्ण रूप देखने को मिलता है। इसीलिए वे राम भजन को राजमार्ग मानते है।
(3) तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम है और हर तरह के आदर्श के प्रतिरूप है। आदर्श पुत्र,आदर्श शिष्य,आदर्श मित्र, आदर्श भ्राता और सबसे अधिक आदर्श पति और फिर आदर्श शासक।
(4) तुलसी के राम परात्पर ब्रह्म है।उसमें सगुण और निर्गुण दोनों का पर्यवसान है।
(5) तुलसी के अनुसार सगुण और निर्गुण में कोई वास्तविक भेद नहीं है।उनके अनुसार राम नाम को निर्गुण- सगुण का नियामक समझना चाहिए। राम नाम राम से भी बड़ा है:
निरगुन तै एहि भाँति बड़, नाम प्रभाउ अपार।
कहेउँ नामु बड़ राम तै, निज विचार अनुसार।।
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