Friday, April 1, 2022

जन जन की आराध्य देवी महाकाली डा. राधे श्याम द्विवेदी

' आद्या शक्ति काली' ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति से पूर्व घोर अंधकार से उत्पन्न होने वाली महाशक्ति हैं या यूं कहे तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण करने वाली शक्ति, 'आद्या या आदि शक्ति' के नाम से जानी जाती हैं। अंधकार से जन्मा होने के कारण वह 'काली' नाम से विख्यात हैं। देवी पुराण में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण माता महाकाली के अवतार थे और देवी राधा जी स्वंय भगवान शिवशंकर का अवतार थी। धरती से अधर्म और असुरों के नाश के लिए देवताओं और ऋषियों के निवेदन पर द्वापरयुग में महाकाली माता ने श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से जन्म लिया था। भगवान शिवशंकर जी ने वृषभानु की पुत्री श्री राधा जी के रूप में जन्म लिया था।
महाकाली मधु और कैटभ को संहार करने के लिए ब्रह्मा स्तुति से प्रकट हुई:-
जब सम्पूर्ण जगत् जलमग्न था और भगवान विष्णु शेषनाग की शय्या पर योगनिद्रा का आश्रय ले सो रहे थे, उस समय उनके कानों के मैल से मधु और कैटभ दो भयंकर राक्षस उत्पन्न हुए। वे दोनों ब्रह्माजी का वध करने को तैयार हो गये। भगवान विष्णु के नाभिकमल में विराजमान प्रजापति ब्रह्माजी ने जब उन दोनों भयानक राक्षसों को अपने पास आया और भगवान को सोया हुआ देखा, तब एकाग्रचित्त होकर उन्होंने भगवान विष्णु को जगाने के लिये उनके नेत्रों में निवास करनेवाली योगनिद्रा का स्तवन आरम्भ किया। जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत् को धारण करनेवाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेज:स्वरूप भगवान विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रादेवी की भगवान ब्रह्मा स्तुति करने लगे। ब्रह्माजी ने कहा- देवि! तुम्हीं इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाली हो। तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो। देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो। तुम्हीं इस विश्व-ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुमसे ही इस जगत् की सृष्टि होती है। तुम्हीं से इसका पालन होता है और सदा तुम्हीं कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो। जगन्मयी देवि! इस जगत् की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन-काल में स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करनेवाली हो। तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो। तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करनेवाली सबकी प्रकृति हो। भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्री और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करनेवाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ- ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं। तुम सौम्य और सौम्यतर हो-इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो। पर और अपर-सबके परे रहनेवाली परमेश्वरी तुम्हीं हो। सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत्-असत्रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो। ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? जो इस जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है? मुझको, भगवान शंकर को तथा भगवान विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है; अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है? देवि! ये जो दोनों दुर्धर्ष राक्षस मधु और कैटभ हैं, इनको मोह में डाल दो और जगदीश्वर भगवान विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान राक्षसों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो। इस प्रकार स्तुति करने पर तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा भगवान के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और वक्ष:स्थल से निकलकर ब्रह्माजी के समक्ष उपस्थित हो गयीं। योगनिद्रा से मुक्त होने पर भगवान जनार्दन उस एकार्णव के जल में शेषनाग की शय्या से जाग उठे। उन्होंने दोनों पराक्रमी असुरों को देखा जो लाल आँखें किये ब्रह्माजी को खा जाने का उद्योग कर रहे थे। तब भगवान श्रीहरि ने दोनों के साथ पाँच हजार वर्षो तक केवल बाहुयुद्ध किया। इसके बाद महामाया ने जब दोनों दैत्यों को मोह में डाल दिया तो वे बलोन्मत्त होकर भगवान से ही वर माँगने को कहा। भगवान ने कहा कि यदि मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरे हाथों मारे जाओ। राक्षसों ने कहा जहाँ पृथ्वी जल में डूबी न हो, वहीं हमारा वध करो। तब भगवान ने तथास्तु कहकर दोनों राक्षसों के मस्तकों को अपनी जाँघ पर रख लिया तथा चक्र से काट डाला। इस प्रकार देवी महामाया (महाकाली) ब्रह्माजी की स्तुति करने पर प्रकट हुई। कमलजन्मा ब्रह्माजी द्वारा स्तवित महाकाली अपने दस हाथों में खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डि, मस्तक और शंख धारण करती हैं। त्रिनेत्रा भगवती के समस्त अंग दिव्य आभूषणों से विभूषित हैं।
रक्तबीज संहार के लिए महाकाल शिव की पत्नी और शिव का स्वरूप ही महाकाली
महाकाली विनाश और प्रलय की पूजनीय देवी हैं। महाकाली सार्वभौमिक शक्ति, समय, जीवन, मृत्यु और पुनर्जन्म और मुक्ति की देवी हैं। वह काल (समय) का भक्षण करती है और फिर अपनी काली निराकारता को फिर से शुरू कर देती है। वह महाकाल की पत्नी भी हैं, महाकाली भगवान शिव का ही एक रूप है। संस्कृत में महाकाली महाकाल का नारीकृत रूप है, पार्वती और उनके सभी रूप महाकाली के विभिन्न रूप हैं। 
महाकाली की उत्पत्ति 
रक्तबीज नाम का एक राक्षश था ,उसे ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त था, के उसे स्त्री के आलावा और कोई मार नहीं सकता था।
उसे यह भी वरदान था के उसके खून की एक बूँद ज़मीं पर गिरे तो एक और रक्तबीज राक्षश पैदा हो जाये। उसने देवताओ और ब्राह्मणो पर अत्याचार करके तीनो लोको में कोहराम मचा रखा था। देवता इस वरदान के कारण रक्तबीज को मारने में असमर्थ थे। युद्ध के मैदान में, जब देवता उसे मारते हैं, तो उसके खून की हर बूंद जो जमीन को छूती है, खुद को एक नए और अधिक शक्तिशाली रक्त बीज में बदल देती है, और पूरे युद्ध के मैदान को लाखों रक्त बीज के साथ से युद्ध करना पड़ता। निराशा में देवताओं ने मदद के लिए भगवान शिव का रुख किया। लेकिन जैसे ही भगवान शिव उस समय गहरे ध्यान में थे, देवताओं ने मदद के लिए उनकी पत्नी पारवती की ओर रुख किया। देवी ने तुरंत काली के रूप में इस खूंखार दानव से युद्ध करने के लिए निकल पड़े।
            रक्तबीज का वध करने के बाद महाकाली माता का क्रोध शांत नहीं हो रहा था। उनका अति विक्राल स्वरुप के सामने आने से सब लोग डरने लगे,और उनके सामने जो भी आता उनका विनाश कर देती,उनको स्वयं ही नहीं पता था के वह क्या कर रही है। देवताओ की चिंता बढ़ गई के महाकाली माँ का गुस्सा कैसे शांत करे। तब देवता महादेव के पास गए और उनको विनंती की के माता को शांत करने का कोई मार्ग बताये। तब स्वयं भगवन शिव ने अनेक उपायों किये पर माता शांत न हो पाई। आखिर शिव जी ने खुद को माता के पैरो के बिच गिरा दिया और जैसे ही माता को शिवजी का स्पर्श हुआ। माता शांत हो गई, और महाकाली से पारवती बन गई। फिर सारे देवतागण जय जयकार करने लगे।
काली मां का हाथी के स्वरूप में पूजा का प्रचलन
हिन्दू पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हाथियों का जन्म चार दांतों वाले ऐरावत नाम के सफेद हाथी से माना जाता है। मतलब यह कि जैसे मनुष्‍यों का पूर्वज बाबा आदम या स्वयंभुव मनु है उसी तरह हाथियों का पूर्वज ऐरावत है। ऐरावत की उत्पत्ति समुद्र मंथन के समय हुई थी और इसे इंद्र ने अपने पास रख लिया था। ऐरावत सफेद हाथियों का राजा था। 'इरा' का अर्थ जल है, अत: 'इरावत' (समुद्र) से उत्पन्न हाथी को 'ऐरावत' नाम दिया गया है। इसीलिए इसका 'इंद्रहस्ति' अथवा 'इंद्रकुंजर' नाम भी पड़ा। गीता में श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन में हाथियों में ऐरावत हूं।
इस पशु का संबंध विघ्नहर्ता गणपति जी से है। गणेश जी का मुख हाथी का होने के कारण उनके गजतुंड, गजानन आदि नाम हैं। इसलिए भी हाथी हिन्दू धर्म में सबसे पूज्जनीय पशु माना जाता है। हिन्दू धर्म में अश्विन मास की पूर्णिमा के दिन गजपूजा व्रत रखा जाता है। सुख-समृद्धि की इच्छा से हाथी की पूजा करते हैं। हाथी को पूजना अर्थात गणेशजी को पूजना माना जाता है। हाथी शुभ शकुन वाला और लक्ष्मी दाता माना गया है।
           श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हाथी द्वारा विष्णु स्तुति का वर्णन मिलता है। कहते हैं कि क्षीरसागर में त्रिकुट पर्वत के घने जंगल में बहुत से हाथियों के साथ ही हाथियों का मुखिया गजेंद्र नामक हाथी भी रहता था। गजेन्द्र मोक्ष कथा में इसका वर्ण मिलेगा। गजेन्द्र नामक हाथी को एक नदी के किनारे एक मगरमच्छ ने उसका पैर अपने जबड़ों में पकड़ लिया था जो उसके जबड़े से छूटने के लिए विष्णु की स्तुति की। श्री हरि विष्णु ने गजेन्द्र को मगर के ग्राह से छुड़ाया था। 
                 पाद्म कल्प में देवराज इंद्र की एक भूल की वजह से गणेशजी को गज का सिर लगाना पड़ा। एक समय देवराज इंद्र पुष्प भद्रा नदी के तट पर टहल रहे थे। उस निर्जन वन में कोई जीव जंतु नहीं था। संयोगवश रंभा नामकी अप्सरा उस समय वन में आराम कर रही थी। देवराज इंद्र ने जब रंभा को देखा तो उनके मन में काम भाव जागृत हो गया। दोनों एक-दूसरे को आकर्षित होकर देख रहे थे। संयोगवश उस वन में दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ बैकुंठ से होकर लौट रहे थे। देवराज इंद्र ने जैसे ही दुर्वासा को देखा तो सकुचा गए और तुरंत ही प्रणाम किया। दुर्वासा ने आशीर्वाद स्वरूप भगवान विष्णु द्वारा प्राप्त पारिजात पुष्प देवराज इंद्र को दे दिया और कहा यह पुष्प जिसके मस्तक पर होगा वह तेजस्वी, परम बुद्धिमान होगा। देवी लक्ष्मी की उस पर कृपा रहेगी और वह भगवान विष्णु के समान ही पूजित होगा।
           कामासक्त देवराज ने पुष्प का अनादर किया और उसे हाथी के सिर पर रख दिया। ऐसा करते ही देवराज इंद्र का तेज समाप्त हो गया। अप्सरा रंभा भी इंद्र को वियोग में छोड़कर चली गई। हाथी मतवाला होकर इंद्र को छोड़कर चला गया। वन में एक हथिनी उस हाथी पर मोहित हो गई और उसके साथ रहने लगी। हाथी अपने मद में वन के प्राणियों को पीड़ित करने लगा। तभी देवराज इंद्र ने एरावत को श्रीहीन होने का श्राप दे दिया। वह उत्तर दिशा में भटक रहा था। इस हाथी के मद को कम करने और शाप से उद्धार के लिए ही ईश्वरीय लीला हुई ।
         मां पार्वती के पुत्र गणेश जी को शिव के त्रिशूल ने अचेतन कर दिया था। पार्वती काली मां का रूप धारण कर जगत में उत्पात मचा रखी थी। सभी देव और मानव परेशान हो रहे थे।भगवान शिव की प्रेरणा और गणेश जी की इच्छा से एरावत का शिर विष्णु भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र से काटकर उसे श्राप मुक्त किया और शिव जी ने शल्य चिकित्सा से वही शिर गणेश के धड़ पर जोड़ कर उन्हें पुनः जीवन दान प्रदान किया।
             उस हाथी का सिर काटकर गणेशजी के धड़ से लगाया गया और पारिजात पुष्‍प को प्राप्त वरदान गणेशजी को मिला। मां काली अपने पुत्र को जीवन दान देने वाले हाथी पर प्रसन्न होकर अपना प्रतीक हाथी को स्वीकार कर लिया। तभी से संसार में मां काली के स्वरूप में हाथी को मान कर पूजा आराधना किया जाने लगा। तब से हर गांव कस्बे में गांव कस्बे के पूरब दिशा में हाथी स्वरूप वाली काली मां की प्रतिमा स्थापित होने लगा। कही कही काल को समय मान समय मां की मूर्ति की पूजा का विधान मिलता है। ये गांव कस्बे की रक्षा अपने भक्त क्षेत्रपाल डीवहारे बाबा के सहयोग से करते हैं।



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