गोस्वामी तुलसीदास जी के समय पर्यावरण प्रदूषण कोई समस्या नहीं थी। पृथ्वी का अधिकांश भू - भाग पर वन - क्षेत्र होता था। शिक्षा के केन्द्र आबादी से दूर ऋषि - मुनियों के वनों में स्थित आश्रम हुआ करते थे। श्रीरामचन्द्र जी ने भी अपने भाईयों सहित गुरु वशिष्ठ और महर्षि विश्वामित्र जी से उनके आश्रम में ही शिक्षा ग्रहण की थी। समाज में इन ऋषि - मुनियों का बड़ा सम्मान था। प्रतापी राजा - महाराजा भी इन ऋषि - मुनियों के सम्मुख नतमस्तक होने में अपना सौभाग्य समझते थे। यही करण है कि जब श्रीराम को बनवास हुआ तो उन्हें सर्वाधिक प्रसन्नता इसी बात की हुई थी कि वन - क्षेत्र में ऋषि - मुनियों के सत्संग का लाभ प्राप्त होगा -
मुनिगन मिलन विषेष वन , सबहिं भांति हित मोर।
श्रीराम को भविष्य में रामराज्य की स्थापना करनी थी जिसमें मानव - जीवन को सुखमय बनाने हेतु मानव - प्रकृति - जीव - वनस्पति सभी में सामजस्य पर आधारित समवेती विकास सम्भव हो सके। रामचरित मानस में पाते है कि विभिन्न प्राकृतिक अवयवों को मात्र उपभोग की वस्तु नहीं माना गया है बल्कि सभी जीवों तथा वनस्पतियों से प्रेम का सम्बन्ध स्थापित किया गया है। प्रकृति के अवयवों का उपभोग निषिद्व न होकर आवयकता के अनुसार कृतज्ञता पूर्वक उपभोग की संस्कृति प्रतिपादित की गयी है । जैसे वृक्ष से फल तोड़कर खाना तो उचित है लेकिन वृक्ष को काटना अपराध है -
‘ रीझि खीझी गुरूदेव सिख सखा सुसाहित साधु।
तोरि खाहु फल होई भलु तरु काटे अपराधू।
रामराज्य धरती पर अनायास स्थापित नहीं किया जा सकता है इसके लिए प्राकृतिक पर्यावरण संरक्षण की संस्कृति विकसित करने की आवश्यकता है । तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में वर्णित किया है कि जब श्रीरामचन्द्र जी के विवाहोपरान्त बारात लौटकर अयोध्या आती है तो अयोध्या नगरी में विविध पौधों का रोपण किया गया -
“ सफल पूगफल कदलि रसाला।
रोपे बकुल कदम्ब तमाला।। ”
पौधा - रोपण की संस्कृति को विकसित करने के लिए श्रीराम ने अपने वन - प्रवास के दिनों में सीता जी व लक्ष्मण जी के साथ विस्तृत पौधारोपण की ओर सकेंत करते हुए कहा कि -
“ तुलसी तरुवर विविध सुहाए।
कहुँ कहुँ सिएँ , कहूँ लखन लगाये।। ”
पारिवारिक शुभ अवसरो पर पौधा - रोपण की संस्कृति से आज के सबसे भयावह संकट - पर्यावरण प्रदूषण से मुक्ति संभव है। इसीलिए रामराज्य में प्रकृति के उपहार स्वतः प्राप्त थे। तुलसीदास जी ने रामराज्य में वनों की छटा और उनसे मिलने वाले उपहारों का संजीव चित्रण करते हुए वर्णन किया है --
फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन।
रहहि एक संग गज पंचानन।।
खग मृग सहज बयरु बिसराई।
सबन्हिं परस्पर प्रीति बढ़ाई।।
कूजहिं खग मृग नाना वृंदा।
अभय चरहिं बन करंहि अनंदा।।
सीतल सुरभि पवन बह मंदा।
गुंजत अति लै चलि मकरंदा।।
लता बिटप माँगे मधु चवहीं।
मन भावतो धेनु पय स्रवहीं।।
ससि सम्पन्न सदा रह धरनी।
त्रेता भइ कृतयुग के करनी।।
प्रगटी गिरिन्ह विविध मनि खानि।
जगदातमा भूप जग जानी।।
सरिता सकल बहहिं बर बारी।
सीतल अमल स्वाद सुखकारी।।
सागर निज मरजादा रहहीं।
डॉरहिं रत्न तटन्हि नर लहहिं।।
सरसि संकुल सकल तड़ागा।
अति प्रसन्न दस दिसा विभागा।।
बिधु महि पूर मयूखन्हि रवि जय जेतनेहिं काजा।।
मांगे बारिद देहिं जल रामचन्द्र के काज।।
प्रकृति का सीमित दोहन ही मानव - जीवन के सुखमय भविष्य की गारंटी है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त वस्तु का उपयोग हमें प्रकृति से अनावश्क छेड़छाड़ किये बिना करना चाहिए। ऐसी सामाजिक संस्कृति को पुनः प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है जिसका वर्णन तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में बखूबी किया है।
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