उत्कल और वत्सर का शासन
ध्रुव जी त्रिलोक्य पार कर सप्त ऋषियों मण्डल से भी ऊपर पहुंच गए । उनके दो पुत्र उत्कल और वत्सर को राजपाट देने की बारी आई । उत्कल पागलो की तरह व्यवहार करता था। उसे राजपाट और भौतिक सुख से कोई मतलब न था । वह तो गूंगा और बहरा समझा जाता था ,न कुछ बोलता न कहता । अतः ध्रुव की पत्नी भ्रमि के छोटे पुत्र वत्सर को राजा बना दिया गया।
वत्सर राजा
वत्सर की पत्नी का नाम था स्वार्थी ,उससे पुष्पार्ण, तिग्मिकेतु इष ,ऊर्ज वसु और जय नामक छः पुत्र हुए। पुष्पार्ण के प्रभा और दोषा नाम की दो पत्नियां थी। प्रभा के प्रातः ,मध्यान्ह ,और सायं तीन पुत्र हुए। दोषा के प्रदोष ,निशीथ और व्युष्ट नामक तीन पुत्र हुए। व्युष्ट ने अपनी पत्नी पुष्करिणीसे सर्वतेजा नाम के पुत्र को जन्म दिया। सर्वतेजा की पत्नी आकूति से चक्षु नाम के पुत्र का जन्म हुआ।
चाक्षुस छठवां मन्वन्तर :-
चक्षु से ही चाक्षुस मन्वन्तर हुआ। यह छठवां मन्वन्तर [युग] हुआ। चक्षु मनु की पत्नी नड्वला से पुरु , कुत्स ,त्रित धुम्न , सत्यवान, ऋत व्रत , अग्निष्टोम , अतिरात्रि , प्रधुम्न ,शिबि ,और उल्मूक नामक 12 सत्वगुणी बालक हुए। इनमे से उल्मूक को अपनी पत्नी पुष्करणी से अंग , सुमना , ख्याति , क्रत ,अंगिरा और गय नामक पुत्र उत्पन्न हुए ।
राजा अंग:-
इनमे अंग की पत्नी सुनीथा थी। एक बार राजा अंग यज्ञ करवा रहे थे तब देवता उनसे खुश न थे और वे यज्ञ के भोग को वे ग्रहण नहीं कर रहे थे तब उन्होंने ब्राह्मणो से पूछा की हमारे यज्ञ का भोग देवता ग्रहण क्यों नहीं कर रहे है ?
ब्राह्मणो ने उत्तर दिया कि आपके पिछले जन्मो के कर्मो के कारण आपका यज्ञ सफल नहीं हो रहा है और इसी कारण आपके कोई पुत्र नहीं है । आप पुत्र की कामना से यज्ञ करे । तब अंग ने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ किया। यज्ञ के प्रसाद को उन्होंने अपनी पत्नी सुनीथा को खिलाया। सुनीथा के पिता मृत्यु के देवता थे ,सुनीथा से वेन नामक पुत्र हुआ ।
राजा वेन:-
राजा वेन क्रूर और अत्याचारी हुआ । वेन के नाना मृत्यु के देवता थे अतः वेन पर उनके ही गुण दिखते थे। वेन से दुखी होकर उनके पिता अंग वेन को छोड़कर एक दिन जंगल चले गए। राजा अंग के जंगल चले जाने के बाद कोई राजा न हुआ यह देखकर ऋषि भृगु ने वेन को ही राजा बना दिया। वेन के अत्याचार बढ़ने लगे और वह प्रत्येक दिन निर्दोष जीवो की हत्या करता और उन्हें बिना अपराध के ही दंड देता । उसने घोषणा करवा दी सभी मेरी ही पूजा करें। राजा से बड़ा कोई नहीं है ।प्रजा वेन से दुखी रहने लगी । तब ऋषि मुनियो ने वेन को समझया किन्तु वेन ने कहा कि तुम लोग मूर्ख हो मेरे ही तुम लोग खाते हो अतः तुम सब मेरी ही जय जय करो । क्योकि राजा से बड़ा कुछ नहीं होता है ।
जो व्यक्ति भगवान् को ही न माने ऐसे क्रूर व्यक्ति का पृथ्वी पर जीने से क्या लाभ ? ऐसा कहकर मुनियो ने कहा कि मारो-मारो और वेन को मार डाला गया । जब वेन की अन्तयेष्टि अंतिम क्रिया हो रही थी तब मुनियो और मंत्रियो ने कहा की बिना राजा के रहना कठिन होता है। चोर आदि आतितायियों से अब रक्षा कैसे होगी।
ऋषियों और मुनियो ने वेन की जांघ का मंथन किया तो उससे एक बोना, कौआ के सामान काला ,चपटी नाक वाला ,जिसके छोटे छोटे हाथ थे ,टांगे छोटी थी और जबड़ा बड़ा था नेत्र लाल थे उसने जन्म लेते ही बड़ी नम्रता और दीनता से पूछा कि क्या करूँ ?तब ऋषियों ने कहा की निषीद निषीद [बैठ जा बैठ जा ]उसने जन्मते ही राजा वेन के पाप और उनके गुणों को अपने ऊपर ले लिया । यह निषाद कहलाया। निषाद वंश के वंशधर इसी बोने के स्वभाव के हुए। हिंसा ,लूटमार और पापकर्म करते है और गांव में न रहकर पर्वतो और पहाड़ों पर ही रहते है।
फिर ऋषि और मुनियों ने वेन की भुजा [हाथ ] का मंथन किया और उससे एक पुरुष और एक स्त्री हुई यह जोड़ा [युग्म] एक विष्णु और दूसरा लक्ष्मी था। यह पुरुष ही पृथु हुआ और स्त्री का नाम हुआ अर्चि। पृथु राजा हुए और अर्चि उनकी पत्नी हुई।
राजा 'पृथु' थे विष्णु भगवान् के अंशावतार:-
पृथु राजा वेन के पुत्र थे। भूमण्डल पर सर्वप्रथम सर्वांगीण रूप से राजशासन स्थापित करने के कारण उन्हें पृथ्वी का प्रथम राजा माना गया है। साधुशीलवान् अंग के दुष्ट पुत्र वेन को तंग आकर ऋषियों ने हुंकार-ध्वनि से मार डाला था। तब अराजकता के निवारण हेतु निःसन्तान मरे वेन की भुजाओं का मन्थन किया गया जिससे स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा प्रकट हुआ। पुरुष का नाम 'पृथु' रखा गया तथा स्त्री का नाम 'अर्चि'। वे दोनों पति-पत्नी हुए। पृथु को भगवान् विष्णु तथा अर्चि को लक्ष्मी का अंशावतार माना गया है।
राजाओं में सबसे पहला राजा हुआ सम्राट पृथु। सभी ऋषि मुनि पुरोहित प्रजा पृथु की स्तुति करने लगी ,राजा पृथु की हाथ की रेखाएं विष्णु भगवान की ही रेखाएं थी और हाथ में कमल का चिन्ह बना हुआ था। जिनके हाथो में चक्र का चिन्ह होता है वह विष्णु का ही चिन्ह होता है। वेदपाठी ब्रह्मणो ने पृथु का सत्कार सम्मान किया पर्वत ,नदी, वृक्षो समुद्र , गाय, पक्षी ,सर्प सभी ने पृथु का स्वागत किया। और उन्होंने राजा पृथु का अभिषेक का आयोजन किया और उन्हें पृथ्वी का सम्राट घोषित किया गया।
पृथु प्रजा से मिले प्रजा बहुत दुखी थी सूखकर हड्डियों का ढांचा हो गई थी प्रजा भूख से मर रही थी ,प्रजा से जब पूछा गया तो उसने बताया की पृथ्वी से कुछ पैदा ही नहीं हो रहा है तब राजा पृथु पृथ्वी पर नाराज हुए [जो गाय का रूप रख कर राजा से मिलने आयी थी ] और उससे कहा की तुमने अपने पेट में सब कुछ छिपाकर रख लिया है उसे बहार निकालो नहीं तो हम तुम्हे अभी एक बाण से ही घायल कर देंगे। जब उन्हें मालूम हुआ कि पृथ्वी माता ने अन्न, औषधि आदि को अपने उदर में छिपा लिया है तो वे धनुष बाण लेकर पृथ्वी मारने के लिए दौड़ पड़े।
पृथ ने कहा, “स्त्री पर हाथ उठाना अवश्य ही अनुचित है; लेकिन जो पालनकर्ता अन्य प्राणियों के साथ निर्दयता का व्यवहार करता है, उसे दंड अवश्य ही देना चाहिए।”
पृथ्वी ने जब देखा कि अब उसकी रक्षा कोई नहीं कर सकता तो वह राजा पृथु की शरण में ही आई जीवनदान की याचना करती हुई वह बोली, “मुझे मारकर अपनी प्रजा को जल पर कैसे रखेंगे?”
पृथ्वी ने राजा को नमस्कार करके कहा, “मेरा दोहन करके आप सबकुछ प्राप्त करें। आपको मेरे योग्य बछड़ा और दोहन-पात्र का प्रबंध करना पड़ेगा। मेरी संपूर्ण संपदा को दुराचारी चोर लूट रहे थे, अतः मैंने यह सामग्री अपने गर्भ में सुरक्षित रखी है। मुझे आप समतल बना दीजिए।” राजा पृथु संतुष्ट हुए।
उन्होंने मनु को बछड़ा बनाया एवं स्वयं अपने हाथों से पृथ्वी का दोहन करके अपार धन धान्य प्राप्त किया। फिर देवताओं तथा महर्षियों को भी पृथ्वी के योग्य बछड़ा बनाकर विभिन्न वनस्पति, अमृत, सुवर्ण आदि इच्छित वस्तुएँ प्राप्त की। पृथ्वी के दोहन से विपुल संपत्ति एवं धन-धान्य पाकर राजा पृथु अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने पृथ्वी को अपनी कन्या के रूप में स्वीकार किया। पृथ्वी को समतल बनाकर पृथु ने स्वयं पिता की भाँति से के कल्याण एवं पालन-पोषण का कर्तव्य पूरा किया।
पृथ्वी बोली राजन आप आध्यात्मिक ,अधिभूत ,अधिदेव सम्बन्धी सभी बातो को जानते हो ,आपने ही इस सृष्टि की रचना की है और आप साक्षात विष्णु ही हो आपने पहले भी मेरी रक्षा की थी और आप धराधर कहलाये थे आप पृथ्वी का उपभोग करो और जैसे बछड़ा अपनी माँ का दूध निकल कर पीता है तुम भी मेरी नदियों पेड़ पौधो और पहाड़ो ,वन का उपयोग करो। राजन ! पहले के लोग नियम और बिना धर्म के एवं वैदिक नियमो का पालन न करने के कारण मेरा सब कुछ पापी दुरात्मा लोग मेरा शोषण करते थे । इसलिए सभी खनिज और बीज मैंने अपने पेट में छुपा लिए थे।
फिर पृथ्वी ने वृहस्पति ऋषि को बछड़ा बनाकर वेद रुपी अमृत दिया। कपिल ऋषि को बछड़ा बनाकर अणिमा आदि अष्ट सिद्धियां ,और आकाश गमन का ज्ञान दिया ,देवताओ को बछड़ा बनाकर अमृत और ओषधयों का ज्ञान दिया इसी तरह गंधर्व , अप्सराओ ,यक्ष राक्षसो को उनके हित के अनुसार सब दिया।
महाराज पृथु ने ही पृथ्वी को समतल किया जिससे वह उपज के योग्य हो पायी। महाराज पृथु से पहले इस पृथ्वी पर पुर-ग्रामादि का विभाजन नहीं था; लोग अपनी सुविधा के अनुसार बेखटके जहाँ-तहाँ बस जाते थे। महाराज पृथु अत्यन्त लोकहितकारी थे।
राजा पृथु ने तीर की नोक से पृथ्वी के सभी पहाड़ो को काटकर पृथ्वी को समतल कर दिया और उसे रहने योग्य बना दिया । इससे पहले पृथ्वी पर ग्राम और विभाग नहीं थे किन्तु अब प्रजा के लिए घर बनाने पड़े। और फिर पृथ्वी से से प्रसन्न होकर राजा पृथु ने पृथ्वी को अपनी कन्या मान लिया।
सौ अश्वमेध यज्ञ के कर्ता:-
राजा पृथु ने 99 अश्वमेध यज्ञ किए स्वयं भगवान् यज्ञेश्वर उन यज्ञों में आए साथ ही सब देवता भी आए। पृथु के इस उत्कर्ष को देखकर इंद्र को ईष्या हुई उनको संदेह हुआ कि कहीं राजा पृथु इंद्रपद न प्राप्त कर लें। सौवें यज्ञ के समय इन्द्र ने अनेक वेश धारण कर अनेक बार घोड़ा चुराया, उन्होंने सौवें यज्ञ का घोड़ा चुरा लिया जब इंद्र घोड़ा लेकर आकाश मार्ग से भाग रहे थे तो अत्रि ऋषि ने उन्हें देख लिया। उन्होंने राजा को बताया और इंद्र को पकड़ने के लिए कहा। राजा ने अपने पुत्र को आदेश दिया
पृथुकुमार ने भागते हुए इंद्र का पीछा किया इंद्र ने वेश बदल रखा था। पृथु के पुत्र ने जब देखा कि भागनेवाला जटाजूट एवं भस्म लगाए हुए है तो उसे धार्मिक व्यक्ति समझकर बाण चलाना उपयुक्त नहीं समझा। वह लौट आया और अत्रि मुनि ने उसे पुन: पकड़ने के लिए भेजा फिर से पीछा करते पृथुकुमार को देखकर इंद्र घोड़े को वहीं छोड़कर अंतर्भान हो गए।
पृथुकुमार अश्य को लेकर यज्ञशाला में आए। सभी ने उनके पराक्रम की स्तुति की। अश्व को पशुशाला में बाँध दिया गया। इंद्र ने छिपकर पुनः अश्व को चुरा लिया। अत्रि ऋषि ने यह देखा तो पृथुकुमार से कहा पृथुकुमार ने इंद्र को बाग चला तो लक्ष्य बनाया तो इंद्र ने अश्व को छोड़ दिया और भाग गया। इंद्र के इस षडयंत्र का पता पृथु को उन्हें बहुत क्रोध आया।
ऋषियों ने राजा को शांत किया और कहा, आप व्रती हैं, यज्ञपशु के अतिरिक्त आप किसीका भी वध नहीं कर सकते। लेकिन हम मंत्र द्वारा इंद्र ही हवनकुंड में भस्म किए देते हैं।” यह कहकर ऋत्विजों ने मंत्र से इंद्र का आह्वान किया। वे आहुति डालना ही चाहते थे कि ब्रह्मा वहाँ प्रकट हुए। उन्होंने सबको रोक दिया। जब पृथु परेशान हो गये तो ब्रह्माजी ने राजा पृथु से कहा- आपको लगता है, 100 यज्ञ पूरे होने से भगवान के दर्शन होंगे, अगर होते तो इंद्र को भी भगवद दर्शन हो जाते। वो तो 100 यज्ञ करके ही इंद्र बना है। बल्कि वो तो 100 यज्ञ करने के बाद भी चोरी कर रहा है। ब्रह्मा जी ने आगे कहा- देखो राजन! भगवान प्रेम से मिलते हैं। 100 यज्ञ करो या 1000 यज्ञ करो जब तक प्रेम नहीं होगा भगवान नहीं मिलेंगे। महाराज पृथु को बात समझ में आयी। उन्होंने अंतिम यज्ञ का संकल्प बीच में ही छोड़ दिया।
उन्होंने राजा पृथु से कहा, “तुम और इंद्र दोनों ही परमात्मा के अंश हो। तुम तो मोक्ष के अभिलाषी हो। इन यज्ञों की क्या आवश्यकता है? तुम्हारा यह सौवाँ यज्ञ पूर्ण नहीं हुआ है, इसकी चिंता मत करो। यज्ञ को रोक दो इंद्र के पाखंड से जो अधर्म उत्पन्न हो रहा है, उसका नाश करो।”
भगवान् विष्णु स्वयं इंद्र को साथ लेकर पृथु की यज्ञशाला में प्रकट हुए। उन्होंने पृथु से कहा, “मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। यज्ञ में विघ्न डालनेवाले इस इंद्र को तुम क्षमा कर दो। राजा का धर्म प्रजा की रक्षा करना है। तुम तत्त्वज्ञानी हो। भगवत्प्रेमी शत्रु को भी समभाव से देखते हैं। तुम मेरे परमभक्त हो। तुम्हारी जो इच्छा हो, वह वर माँग लो।”
राजा पृथु भगवान् के प्रिय वचनों से प्रसन्न थे। इंद्र लज्जित होकर राजा पृथु के चरणों में गिर पड़े। पृथु ने उन्हें उठाकर गले से लगा लिया। राजा पृथु ने सोचा- माँगना ही अच्छा है। माँगूगा तब तक दर्शन तो होते रहेंगे अन्यथा भगवान चले जायेंगे।
पृथु कहते हैं- भगवन! एक वरदान इस लोक के लिए दीजिए और एक वरदान बैकुण्ठ के लिये दे दीजिए। इस लोक के लिए तो 10,000 कान दे दीजिये।
भगवान ने कहा- 10,000 कान क्यों चाहते हो?
राजा पृथु ने कहा- भगवन! दो कानों से आपकी कथा सुनता हूँ तो तृप्ति नहीं होती। 10,000 कान होंगे तो सब कानों से आपकी कथा सुनूँगा और खूब आनंद का अनुभव करूँगा।
भगवान ने प्रसन्न होते हुये कहा- मैं तुम्हें इन्हीं कानों में 10,000 कान की ताकत दे देता हूँ और बैकुण्ठ के लिये क्या चाहियें?
पृथु जी बोलते हैं- जब मैं बैकुण्ठ में रहूँगा, तो रोज मुझे आपके चरणों की सेवा मिल जाये।
भगवान ने कहा- तुम्हारे जैसे प्रेमी को मैं चरण सेवा के लिये क्यों मना करूँगा?
भगवान् श्रीहरि ने कहा, ” हे राजन्! तुम्हारी अविचल भक्ति से मैं अभिभूत हूँ। तुम धर्म से प्रजा का पालन करो।” राजा पृथु ने पूजा करके उनका चरणोदक सिर पर चढ़ा लिया।
एक दिन की बात है महाराज पृथु के बगीचे में सनकादि ऋषि लोग प्रकट हो गए। राजा पृथु ने सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार से अपने उद्धार का उपाय पूछा। उन्होंने कहा- आप तो भगवद दर्शन कर चुके हैं फिर भी आप पूछना चाहते हैं तो हम कहते हैं यदि चार बातें जीवन में हो तो मनुष्य का कल्याण होता है-
1.सर्वहित का भाव 2.धार्मिक जीवन 3.भगवान के प्रति प्रेम व श्रद्धा 4. सदगुरु कृपा।
राजा पृथु की अवस्था जब ढलने लगी तो उन्होंने अपने पुत्र को राज्य का भार सौंपकर पत्नी अर्चि के साथ वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया वे कठोर तपस्या करने जंगल में चले गये । अंत में तप के प्रभाव से भगवान में चित्त स्थिर करके उन्होंने देह का त्याग कर दिया। उनकी पतिव्रता पत्नी महारानी अर्चि पति के साथ ही अग्नि में भस्म हो गई। दोनों को परमधाम प्राप्त हुआ।
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