Sunday, March 27, 2022

राजा सत्यव्रत "त्रिशंकु" की कहानी ( राम के पूर्वज 13) डा. राधे श्याम द्विवेदी

सत्यव्रत बने त्रिशंकु
राजा त्रिबंधन के पुत्र परम प्रतापी राजा सत्यव्रत त्रिशंकु इक्ष्वाकु वंश में एक राजा हुए। यह सदा सत्य बोलते थे और अपने गुरु वशिष्ठ के परम भक्त थे।अपने अंतिम समय अर्थात चौथेपन में वन जाकर तपस्या करने की परम्परा को इन्होंने तोड़ा, इनकी अंतिम इच्छा इस पंच तत्व के शरीर के साथ स्वर्ग जाने की थी! इसके लिए उन्होंने गुरु वशिष्ठ से यज्ञ द्वारा या तप द्वारा कैसे भी पहुंचाने की प्रार्थना की! परंतु यह ईश्वर की प्रकृति के विपरीत बताकर गुरु वशिष्ठ ने मना कर दिया।
      अतः उन्होंने अपने गुरु का अपमान करके उनको राजगुरु पद से हटा दिया और ऋषि विश्वामित्र के पास गए। चूंकि उस समय ऋषि विश्वामित्र का एक मात्र कार्य किसी भी प्रकार किसी भी विषय में गुरु वशिष्ठ से दुश्मनी कर रहे थे! बार बार हजारों साल तपस्या कर रहे थे परन्तु राजर्षी से ब्रह्मऋषि नहीं बन पा रहे थे! अतः उन्होंने सत्यव्रत को शरीर के साथ स्वर्ग भेजने के लिए अपने तपोबल का प्रयोग किया! ऋषि विश्वामित्र ने उन्हें सशरीर स्वर्ग भेजा था।
          देवराज इन्द्र ने उसे स्वर्ग से वापस पृथ्वी की ओर धकेल दिया। नीचे गिरते हुये त्रिशंकु को ऋषि विश्वामित्र ने बीच में ही लटका कर उसके लिये स्वर्ग का निर्माण किया तथा वह अपने स्वर्ग के साथ आज भी वास्तविक स्वर्ग और पृथ्वी के बीच लटका हुआ है। इसी कारण से निराधार लटकने का भाव प्रदर्शित करने के लिये उनके लिए त्रिशंकु शब्द का प्रयोग होने लगा है।
देवराज इन्द्र राजा त्रिशंकु को स्वर्ग में प्रवेश करने से रोकते हुए
राजा त्रिशंकु की कहानी का वर्णन वाल्मीकि रामायण के बाल काण्ड में है।
           सूर्य वंश के राजा पृथु के पुत्र सत्यव्रत के रूप में जन्मे राजा त्रिशंकु राम के पूर्वज हैं। राजा सत्यव्रत जब वृद्ध होने लगे तो उन्हे राज-पाट त्याग कर अपने पुत्र हरिश्चंद्र को अयोध्या का राजा घोषित कर दिया। राजा सत्यव्रत एक धार्मिक पुरुष थे इसलिए उनकी आत्मा स्वर्ग के योग्य थी परंतु उनकी इच्छा स-शरीर स्वर्ग जाने की थी। इस इच्छा की पूर्ति के लिए उन्होने अपने गुरु ऋषि वशिष्ठ को आवश्यक यज्ञ करने की प्रार्थना की। ऋषि वशिष्ठ ने यज्ञ करने से यह समझते हुये मना कर दिया कि स-शरीर स्वर्ग प्रवेश प्रकृति के नियम के विरुद्ध है। सत्यव्रत अपनी ज़िद पर अड़े रहे और इच्छा की पूर्ति के लिए ऋषि वशिष्ठ के ज्येष्ठ पुत्र शक्ति को अवाश्यक यज्ञ करने के लिए धन एवं प्रसिद्धि का लालच दिया। सत्यव्रत के इस दुस्साहस ने शक्ति को क्रोधित कर दिया और शक्ति ने सत्यव्रत को त्रिशंकु होने का श्राप दे दिया। त्रिशंकु को राज्य छोड़ कर वन भटकने के लिए मजबूर होना पड़ा।
           वन में भटकते हुये त्रिशंकु की भेंट ऋषि विश्वामित्र से हुई जिनसे उसने अपनी परेशानी बताई। ऋषि विश्वामित्र, जो ऋषि वशिष्ठ से प्रतिद्वंद्ता रखते थे, त्रिशंकु की प्रार्थना स्वीकार कर ली एवं उसे स-शरीर स्वर्ग पहुंचाने के लिए आवश्यक यज्ञ शुरू कर दिया। यज्ञ के प्रभाव से त्रिशंकु स्वर्ग की ओर उठने लगे। इस अप्राकृतिक घटना से स्वर्ग में खलबली मच गयी।
 भगवान इन्द्र के नेतृत्व में देवताओं ने त्रिशंकु को स्वर्ग प्रवेश करने से रोक दिया एवं उसे वापस पृथ्वी की ओर फेंक दिया। इस बात से क्रोधित ऋषि विश्वामित्र ने अपनी शक्तियों का प्रयोग कर के त्रिशंकु का गिरना रोक दिया जिससे त्रिशंकु बीच में लटक गए।
          लटके त्रिशंकु ने विश्वामित्र से सहायता की प्रार्थना की। विश्वामित्र ने अपनी शक्तियों का प्रयोग कर बीच में ही एक नया स्वर्ग बना दिया और त्रिशंकु को श्राप से मुक्त करते हुये इस नए स्वर्ग में भेज दिया। त्रिशंकु, जो वापस सत्यव्रत बन गया था, को नए स्वर्ग का इन्द्र बनाने के लिए विश्वामित्र ने तपस्या प्रारम्भ की। इस तपस्या से चिंतित देवताओं ने विश्वामित्र को समझाया कि उन्होने स-शरीर स्वर्ग प्रवेश की अप्राकृतिक घटना को रोकने के लिए त्रिशंकु के स्वर्ग प्रवेश से रोका था। विश्वामित्र देवताओं के तर्क से सहमत हुये परंतु अब उनके सामने अपने वचन को पूरा करने कि दुविधा थी। विश्वामित्र ने देवताओं से समझौता किया कि वो अपनी तपस्या रोक देंगे और देवता सत्यव्रत को नए स्वर्ग में रहने देंगे, एवं सत्यव्रत इन्द्र की आज्ञा की अवहेलना नहीं करेगा।
          यह त्रिशंकु की कहानी है जो पृथ्वी एवं स्वर्ग के मध्य अपने लटके हुये स्वर्ग में है। भारत में त्रिशंकु शब्द का प्रयोग ऐसी ही परिस्थितियों के लिए किया जाता है।
          उधर इन्द्र ने स्वर्ग से उनको धक्का देकर नीचे गिरा दिया! परन्तु विश्वामित्र के तप के प्रभाव से वह नीचे भी नहीं आ सके और बीच में लटक गए अतः उनका ही नाम त्रिशंकु पडा।

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